हामिद की कहानी

मोरक्को के छोटे से गावं में एक बच्चा हामिद रहता था… उसके स्कूल के बच्चे उसको हमेशा “उल्लू” बोलकर चिढाते थे और उसकी टीचर उस की बेवकूफियों से हमेशा बहुत परेशान रहती थी..

एक दिन उसकी माँ उसका रिजल्ट जानने उसके स्कूल गयी और टीचर से हामिद के बारे में पूछा.. टीचर ने कहा कि “अपने जीवन के पचीस साल के कार्यकाल में उसने पहली बार ऐसा बेवकूफ लड़का देखा है, ये जीवन में कुछ न कर पायेगा”

यह सुनकर हामिद की माँ बहुत आहात हो गयी और उसने शर्म के मारे वो गाँव छोड़कर एक शहर में चली गयी हामिद को लेकर.. 

बीस साल बाद जब उस टीचर को दिल की बिमारी हुई तो सबने उसे शहर के एक डॉक्टर का नाम सुझाया जो ओपन हार्ट सर्जरी करने में माIहिर था.. टीचर ने जा कर सर्जरी करवाई और ऑपरेशन कामयाब रहा.. 

जब वो बेहोशी से वापस आई और आँख खोली तो टीचर ने एक सुदर और सुडौल नौजवान डॉक्टर को अपने बेड के बगल खड़े हो कर मुस्कुराते हुवे देखा.. वो टीचर डॉक्टर को शुक्रिया बोलने ही वाली थी अचानक उसका चेहरा नीला पड़ गया और जब तक डॉक्टर कुछ समझें समझें.. वो टीचर मर गयी..

डॉक्टर अचम्भे से देख रहे थे और समझने की कोशिश कर रहे थे की आखिर हुवा क्या है.. तभी वो पीछे मुड़े और देखा कि हामिद, जो की उसी अस्पताल में एक सफाई कर्मचारी था, उसने वेंटीलेटर का प्लग हटा के अपना वैक्यूम क्लीनर का प्लग लगा दिया था..

अब अगर आप लोग ये सोच रहे थे कि हामिद डॉक्टर बन गया था.. तो इसका मतलब ये है की आप हिंदी/तमिल/तेलुगु फ़िल्में बहुत ज्यादा देखते हैं.. या फिर बहुत ज्यादा प्रेरणादायक कहानियां पढ़ते हैं..

हामिद उल्लू था और उल्लू ही रहेगा 

मैं गांधी को नही मारा बल्कि अमर कर दिया

व्यंग्य – मैं नाथुराम गोडसे – गाँधी को मोक्ष देने वाला

आप सभी को लगता है कि मैंने गाँधी का ट्विटर अकाउंट हैक करके डिलीट कर दिया। आप सभी को ऐसा लगना जायज है क्योंकि मेरे बारे में आज तक आपने जो भी पढ़ा-सुना सब जगह मुझे ही गाँधी के अकाउंट हैक करने का जिम्मेदार ठहराया गया है। जिन किताबों और ब्लॉग में मेरे पहलू से गाँधी को सेलेब्रिटी बनाने का जिक्र है उन्हें भारत की सरकार ने कभी आप तक पहुंचने का मौका नही दिया, हर सरकार आते ही गुगल को पत्र लिखकर मेरे ऊपर लिखे सेलेब्रिटी बनने के मार्केटिंग टिप्स वाले URL ब्लॉक करवा देती है, यदि कभी वो किताब या ब्लॉग आपको मिल जाए तो पढ़ना फिर आप भी मेरे फैन अकाउंट को फॅालो करने लगेंगे।

एक दिन भगत सिंह, उनके साथी सुखदेव और राजगुरु ने एक अंग्रेजी दरोगा का अकाउंट हैक करके डिलीट कर दिया। वो दरोगा रोज अपने अकाउंट से गरीब लोगों को ट्रोल करता और उन्हें ब्लॉक कर देता। लेकिन उस दरोगा का अकाउंट डिलीट करने के जुल्म में भगत सिंह और उनके साथियों का अकाउंट डिलीट करने का फरमान जारी हो गया। इस सजा के होने के बाद हम सब को ये उम्मीद थी कि बापू देश के लिए कुर्बानी देनेवाले इन क्रांतिकारियों के अकाउंट बचाने के लिए ट्विटर पर किसी हैशटैग की पहल करेंगे परंतु हमारे लाख निवेदन के बाद भी बापू ने भगत सिंह के अकाउंट को ना डिलीट करने के लिए किसी भी तरह का हैशटैग ट्रेंड करवाने से मना कर दिया। गाँधी को डर था यदि वो भगत सिंह के ट्विटर अकाउंट के बचाव का पहल करेंगे तो उनके फॅालोवर भगत सिंह को भी फॅालो करने लगेंगे और भगत सिंह ट्विटर पर उनसे बड़े सेलेब बन जाएंगे।

आखिरकार अंग्रेजी सरकार ने भगत सिंह,राजगुरु और सुखदेव के ट्विटर अकाउंट को डिलीट कर दिया, यदि गांधी को सेलेब्रिटी बनने का लोभ नही होता तो इन सभी क्रांतिकारियों का अकाउंट डिलीट होने से बच सकता था।

भारत को आजाद होते ही अपने चहिते चाटुकार नेहरू को ट्विटर पर सेलेब्रिटी बनाने के चक्कर में उन्होने भारत के सभी ट्विटर युजर को हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बाट दिया। जिन्हा के पास फॅालोवर की कमी नही थी उसके सब फॅालोवर जिन्हा के सारे ट्वीट आँख बंद करके रीट्विट करते थे लेकिन नेहरू के ट्वीट लिंक भेजने पर भी ज्यादा रीट्विट नही हो पाते थे। गाँधी सभी को डीएम करके नेहरू के ट्वीट, अनशन का वास्ता देकर रीट्विट करवाते थे। भारत के दो हिस्से होने के बाद भी बापू ने सिर्फ अपने अंधे प्यार के चलते नेहरू को ट्विटर पर #ff

गाँधी के अनशन के डर से कोई भी उनके ट्वीट के खिलाफ नही बोल रहा था लेकिन अंग्रेजों के इतने साल ट्वीट पढ़ने के बाद फिर से गैर जिम्मेदार लोगों का ट्वीट पढ़ना मुझे मंजूर नही था। मैं ने ट्विटर अकाउंट देश सेवा के लिए बनाया था और अब मेरा जमीर रोज मुझे देशभक्ति के लिए ललकारने लगा। ट्विटर पहले हिंदू-मुसलमान और फिर सवर्ण और दलित में बट गया। दलितों को फॅालो बैक के लिए ट्विटर पर आरक्षण मिल गया। अपने भारतीय ट्विटर युजर का ये हाल मुझसे नही देखा जा रहा था। मैं ने कुछ लोगों को अपने साथ लेकर ट्विटर अकाउंट हैक करने की ट्रेनिंग ली। एक दिन शाम के वक्त गाँधी जब अपने ट्विटर अकाउंट ने प्रार्थना ट्वीट करके लॉग आउट कर रहे थे तब मैं ने उनका सिक्योरिटी वॅाल तोड़कर उनका अकाउंट तीन प्रयत्न में हैक करके डिलीट कर दिया।

गाँधी का अकाउंट हैक करने के कुछ महीनों बाद भारत सरकार ने मेरा अकाउंट ससपेंड करके डिलीट कर दिया लेकिन याद रखना मैं ने ये सब मेरे देश के लिए किया। मेरी मार्केटिंग टिप्स पढ़ना आप सब समझ जाओगे ओ ट्विटर पर सेलेब्रिटी बन जाओगे और समझ जाओगे की मैंने गांधी को नहीं मारा बल्कि अमर कर दिया।

जय हिंद,
नाथुराम गोडसे फ्रॉम ट्विटर आर्काइव

केजरीवाल ने लौटाया पानवाले का एक रुपया, कहा नहीं लूँगा कारपोरेट से चंदा – फेकिंग न्यूज़

चावड़ी बाज़ार, नई दिल्ली: अपनी साफ़ सादा छवि को जनता के सामने रखने की कवायद में आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविन्द केजरीवाल ने एक पानवाले तक को नहीं छोड़ा और उसका एक रुपया यह कहते हुए लौटा दिया के वह किसी बिज़नेस मैन से चंदा नहीं ले सकते |

यह घटना दिल्ली के चावड़ी बाज़ार इलाके में एक रोडसाइड पान की दुकान “विमल पान पैलेस” की है | इस खबर की तह तक पहुचने के लिए फेकिंग न्यूज़ ने बात की श्री मक्ख्न्चंद पांडे से जो इस दुकान को चलाते हैं |

फेकिंग न्यूज़ रिपोर्टर: पांडे जी नमस्कार
मक्ख्न्चंद पांडे जी: जी नमस्ते

रिपोर्टर: पांडे जी गत शनिवार आपकी दुकान पर अरविन्द केजरीवाल जी आये थे, उसी के बारे आपसे बात करनी थी |
पांडे जी: अजी क्या बताएं अब. केजरीवाल जी दुकान पे आये और बोले के एक मगही लगा दो फटाफट | हमने कहा अभी लो | अब हम ठहरे खानदानी पानवाले, हमें कोई टाइम थोड़े ही लगता है | हमारे पड़दादा ने तो राजा अकबर तक के पान लगाये हैं …

रिपोर्टर: एक मिनट, उन्होंने आपसे पान माँगा फिर क्या हुआ, उस बारे में बात कीजिये ?
पांडे जी: अजी होना क्या था, हमने दुई मिनट मैं पान लगा के उनको दिया उन्होंने मुंह में दबाया और दस का नोट हमें थमाया और जाने लगे |

रिपोर्टर: फिर?
पांडे जी: हमने फटाफट से निकाल के एक रुपया उनके सामने रख दिया क्योंकि मगही हमारे यहाँ नौ रूपये का मिलता है | देखिये यहाँ बोर्ड पे लिखा है मगही पान नौ रुपया | महंगाई बहुत है लेकिन पिछले छह साल से दाम नहीं बढ़ाये हैं | खानदानी है न, नहीं तो बाजू में चौक पे जो पान वाला बैठता है …

रिपोर्टर: जब आपने एक रुपया दिया तो उन्होंने क्या कहा?
पांडे जी: उन्होंने तो बहुत अजीब से बात कर दी साहब | उन्होंने पहले उस एक रुपये के सिक्के को पांच मिनट तक एकटक देखा, फिर जोर जोर से रोने लगे |

रिपोर्टर: रोने लगे?
पांडे जी: जी हाँ, और मैं तो बहुते डर गया था | मुझे लगा के पान में चूना ज्यादा लग गया है और जीभ काट रहा है जिस वजह से रो रहे हैं | अब उनके साथ पांच छह पार्टी कार्यकर्ता लोग भी थे, मुझे लगा के कहीं गुस्सा गए, तो मारपीट न हो जाए |

रिपोर्टर: फिर?
पांडे जी: फिर वह आंसू पोछकर एकदम से चुप होकर बोले के, दोस्त तुम्हारी इस छोटी सी भेंट को मैं सलाम करता हूँ, पर मेरा उसूल है के मैं किसी कारपोरेट या किसी बिजनेसमैन से मैं आम आदमी पार्टी के लिए चंदा नहीं लेता इसलिए मैं ये नहीं ले सकता |

रिपोर्टर: आपने उन्हें बताया नहीं के ये एक रुपया उनकी पार्टी के लिए चंदा नहीं बल्कि उनके दस रूपये में से चेंज है?
पांडे जी: इससे पहले मैं कुछ बोलता उनके कार्यकर्ताओ ने “जब तक सूरज-चाँद रहेगा, केजरीवाल का नाम रहेगा” ऐसे नारे लगाने शुरू कर दिए और सब लोग यहाँ से चलते बने |

रिपोर्टर: फिर?
पांडे जी: फिर मैंने रुपया वापिस गल्ले में डाला और रेडियो चालु कर दिया, आल इंडिया रेडियो पर उस समय “ओल्ड इज गोल्ड” नाम का कार्यक्रम आता है, काफी अच्छे गीत चलाती हैं नीलिमा जी |

रिपोर्टर: नहीं मेरा मतलब के आपने कोशिश नहीं की के आप उनके पीछे जाकर उन्हें रुपया लौटा दें?
पांडे जी: दुकान छोड़ कर कैसे जाता ? और वैसे भी जब कोई ग्राहक ऐसे एक-दो रुपये छोड़ जाता है तो हम उससे सर्विस चार्ज समझ के रख लेते हैं | ऐसे ग्राहक ही तो होंते हैं भलेमानुस | मैंने तो यहाँ तक फैसला कर लिए है के मैं केजरीवाल जी को ही वोट दूंगा |

रिपोर्टर: अरे, एक रुपया छोड़ गए इसलिए उन्हें वोट देंगे?
पांडे जी: अजी नहीं | एक रुपया छोड़ने की यह जो खबर मीडिया में फ़ैल रही है, उसके चलते उनके कुछेक समर्थक मेरे यहाँ से पान लेलेकर एक-एक रुपया छोड़े जा रहे हैं | ऊपर से आप जैसे रिपोर्टर खूब चक्कर लगा रहे हैं | अभी देखिये सुबह से एक सो पांच मगही, छब्बीस बनारसी, ग्यारह स्ट्रॉबेरी और चार चॉकलेट पान बिक चुका है | इतना तो मेरे पिछले पूरे हफ्ते का टर्नओवर नहीं था बाउजी | वैसे आपने नहीं बताया आप कौनसा पान लेना चाहेंगे?

रिपोर्टर: जी पान नहीं, अब मै इजाज़त लेना चाहूँगा | आपके कीमती वक़्त के लिए शुक्रिया |

सोर्स – फेकिंग न्यूज़

मोदी कान न ऐंठ दें, इसलिए भारत नहीं आईं ओबामा की बेटियाँ – आशीष मिश्र

एक अच्छी बात फैलाने चलिए सारी जिन्दगी गुजर जाएगी सिर्फ दस लोग कान और उनमें से भी दो ध्यान देंगे. लेकिन वहीं कोई अफवाह हुई तो एक मुंह से दूसरे कान होते हुए शाम तक दस नए तथ्य जोड़कर वापिस आ पहुंचेगी. ऐसा ही कुछ हुआ बराक ओबामा के भारत दौरे के साथ. पहली बात सामने आई कि ओबामा अपनी बेटियों को इस बार भारत नहीं ला रहे हैं.साथ ही अफवाह ये सुनाई दी कि इसके पीछे वजह मोदी जी का डर है. हाल ही में उन्होंने बेटियों को पढ़ाने को लेकर बयान दिए हैं. ऐसे मौके पर अगर ओबामा बीच सत्र में स्कूल से छुट्टी दिलाकर बेटियों को भारत लाते तो डर था कहीं मोदी एयरपोर्ट पर ही उन्हें बच्चियों की पढ़ाई में बाधा बनने के लिए डपटने न लग जाएं. दूसरी वजह ये बताई गई कि मालिया नहीं चाहती कोई उन्हें आलिया की बहन समझ बैठे. साथ ही दोनों बहनों ने ब्राजील दौरे पर नरेन्द्र मोदी को लाड़ में बच्चे के कान उमेठते भी देखा था और तबसे भारत आने के नाम पर ही उन्हें हाड़ का बुखार आ जाता है. इन अफवाहों के बीच बच्चियों के भारत न आने की सबसे मजेदार वजह ये बताई जा रही है कि मिशेल नही चाहती थीं कि दिल्ली से लौटने के बाद उनकी बेटियां दिल्ली के बच्चे-बच्चियों की तरह अमेरिका की सड़कों पर ‘जानता है मेरा बाप कौन है?’ चिल्लाती फिरें.

ओबामा ने आने से पहले अपना भारत दौरा थोड़ा छोटा किया जिसकी वजह से उनका आगरा जाने का कार्यक्रम रद्द हो गया. ये सुनने के बाद कइयों के दिल टूट गए और वो यूं प्रतिक्रियाएं देने लगे मानो ओबामा ने ताज देखने से नहीं उनके भतीजे के मुंडन में शामिल होने से मना कर दिया हो. कुछ ये कहते पाए गए कि बराक ‘हुसैन’ ओबामा आगरा में हुए हालिया ‘घर वापसी’ के चलते डर गए हैं. वहीं कुछ ये कह रहे थे कि उन्हें डर था कहीं ताजमहल के साथ-साथ आजम खान उन्हें भी वक्फ बोर्ड की संपत्ति न घोषित कर दें. लेकिन बराक ओबामा के आगरा न जाने की जो सबसे वाजिब वजह बताई गई वो ये थी कि ओबामा दिल्ली से आगरा के बीच पड़ने वाले टोल टैक्स का खर्च सुन सकते में आ गए थे.

खैर ओबामा भारत आए और उतरते ही नमस्ते किया. यहां भी अफवाह फैलाने वालों ने उन्हें नहीं बख्शा. उनकी मानें तो नमस्ते के बाद ओबामा ने मोदी जी से सीधे ‘बाबूजी (आलोकनाथ’) कहां हैं?’ पूछा और उसके बाद होटल जाने की बजाय ‘सूर्यवंशम’ वाले हीरा ठाकुर के घर जाने की जिद करने लगे. मिशेल ओबामा के बारे में कहा जा रहा है कि वो मोदी से औपचारिक अभिवादन के बाद पालिका बाजार का रास्ता पूछ रही थीं. ओबामा की भारत यात्रा की वजह अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर चीन का बढ़ता दखल भी बताया जा रहा है. मोदी ने ओबामा की वो चिंता भी चाय पीते-पिलाते खत्म कर दी. उन्होंने चाय के प्याले में शुगरक्यूब डाल चम्मच से हिलाते हुए ओबामा को इशारा किया कि ‘चीनियों’ को हम यूं गायब कर सकतेहैं.

बराक ओबामा की भारत यात्रा के उद्देश्य भी तलाशे जा रहे हैं और निहितार्थ भी बताए जा रहे है. अफवाहों के बाजार में जैसी सुगबुगाहट है, उस हिसाब से ओबामा मिशेल के कहने पर भारत आए हैं. क्योंकि वो यहां आकर ‘ससुराल सिमर का’ देखना चाहती थीं. बीमा क्षेत्र से जुड़े लोगों की मानें तो वो इस यात्रा के बहाने ‘जीवन सरल पालिसी’ भी ले डालेंगे. एक बिल्डर की मानें, तो ओबामा उससे नोएडा में रिटायरमेंट के बाद रहने के लिए एक फ्लैट और ईएमआई की किश्त पता करने आए हैं. निर्मल बाबा के एक शिष्य बताते हैं वास्तव में वो परेड की आड़ में बाबाजी के समागम में हिस्सा लेने आए हैं. अफवाहों की हद तो तब हो गई जब किसी को यह कहते सुना की ओबामा गुरमीत राम रहीम की एमएसजी देखने आये हैं और लौटते तक में अपना नाम बराक हुसैन ओबामा ‘इन्सान’ रख लेंगे.
चलते-चलते:ओबामा की भारत यात्रा से सबसे ज्यादा खुश आगरा वाले हैं. एक तो ताज चमक उठा शहर साफ हो गया और दूसरे ओबामा के न आने के चलते दिल्लीवासियों की तरह बंदिशें भी नही झेलनी पड़ीं. इससे एक बात और सामने आई है कि सारे मुल्क को साफ करने के लिए किसी स्वच्छ्ता अभियान की जरूरत नही सिर्फ ओबामा को हर महीने अलग-अलग शहर घूमने बुला लिया जाए

लेखक – आशीष मिश्र

ओबामा ढूंढ़ेंगे पीको-फॉल की दुकान? – आशीष मिश्रा

ओबामा के भारत आगमन पर यहां की तैयारियां देख मुझे अपना बचपन याद आ गया, जैसे ही कोई मेहमान आने को होता कबाड़ पलंग के नीचे डाला जाने लगता, तैयारियां तो कुछ यूं हो रही हैं जैसे दामाद पहली बार ससुराल आ रहा हो, ओबामा के सुरक्षा दस्ते के नखरे भी कुछ ऐसे ही हैं, राजपथ के ऊपर से विमान नही उड़ेंगे, ओबामा सिर्फ ‘द बीस्ट’ में चलेंगे, होटल के कमरे से नहीं निकलेंगे.

अमेरिकी मीडिया ओबामा की भारत यात्रा को ज्यादा भाव नहीं दे रहा और इसे ओबामा के शासन की कमजोर कड़ी बता रहा है. लेकिन भारत में उनके दौरे को लेकर जश्न सा माहौल है जो साफ़ दिखाता है कि भले हम कितना भी विश्वशक्ति बनने का ढोल पीट लें, एक रोज कोई अमेरिकी आता है और ताजमहल के सामने फोटो खिंचवा ले तो हम बिछ-बिछ जाते हैं.

अमेरिका अपने राष्ट्रपति की भारत यात्रा पर 200 मिलियन डॉलर खर्च कर रहा है, विदेशियों की यही फिजूलखर्ची मुझे पसंद नहीं आती इसके आधे दाम में वो चाहते, तो पाकिस्तान जैसा छोटा-मोटा मुल्क खरीदकर हमेशा के लिए हमारे पड़ोस में सेटल हो सकते थे, पाकिस्तान की बात ही निकली तो बताते चलें पाकिस्तान आजकल पेट्रोल की अभूतपूर्व किल्लत से जूझ रहा हैं, शायद इसलिए कि वहां का सारा पेट्रोल लश्करे झंगवी सरीखे गुटों ने शिया-सुन्नी संघर्ष में एक-दूसरे पर पेट्रोल बम दाग-दागकर फूंक डाला.

पेट्रोल की कमी होने पर भी पाकिस्तानी इस बात पर ही खुश हो सकते हैं कि अब भी उनके पास खाली टैंक वाली कारें बची हैं जो कार बम विस्फोटों में इस्तेमाल होने से तो बच गईं. याद हो जब ओबामा ने भारत दौरे की सहमति दी थी तो नवाज शरीफ ने उनसे पाकिस्तान भी आने का अनुरोध किया था, अब जबकि पाकिस्तान में पेट्रोल की इतनी किल्लत है और ओबामा अपने साथ तीस गाड़ियों का काफिला भी ला रहे हैं नरेन्द्र मोदी को मजे लेने के लिए उन्हें पाकिस्तान जाने की सलाह दे डालनी चाहिए.

लौटते वक़्त उपहारस्वरूप नरेन्द्र मोदी मिशेल ओबामा को सौ बनारसी साड़ियां भी देंगे, सवाल उठने शुरू हो गए कि वो सब तो ठीक है पर ओबामा वाशिंगटन में पीको-फॉल की दुकान कहां खोजेंगे, शायद अब ओबामा को भी समझ आ जाए कि दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश को सँभालने से कहीं ज्यादा मुश्किल साड़ी के रंग से मिलता हुआ फॉल और धागा खोज लाना होता है, ये तो नहीं पताकि अमेरिका के राष्ट्रपति को तनख्वाह कितनी मिलती है पर मिशेल ओबामा को एक बार साड़ियों का चस्का लग गया, तो महीने के अंततक ओबामा आम हिन्दुस्तानी पतियों की तरह बटुआ खंगालते नजर आएंगे.

चलते-चलते~ ओबामा की दामाद सरीखी आवभगत की तैयारी देख ख्याल आया. अगर अमेरिका की फर्स्ट लेडी सच में कोई हिन्दुस्तानी होती, तो व्हाइट हाउस की छत पर भी मूंग की दाल और कुम्हड़े की बड़ियां सूखती नजर आतीं.

लेखक : आशीष मिश्र (कटाक्ष)

टोपी आम आदमी की… – सुशील यादव

टोपी के बारे में मेरी बचपन से कई अच्छी धारणायें थी| गांधी जी के अनुमार्गी होने की वजह से मेरे पिता के पहनावे में ये,जवाहर कोट के साथ शामिल जो था|वे जब भी घर लौटते, हम भाई –बहनों में टोपी लेने की जंग छिड़ जाती|भले ही मिनटों –सेकण्डो कि लिए सही, टोपी जो हाथ लगती, मन खिल उठता|माँ टोपी के गंदे हो जाने केbhy भय से ,जतन से उसे खूंटी पर टांग देती|हम बापू की टोपी के, गांधी फेम के बगल में , टंग जाने के बाद अपने –अपने खेल में खो जाते|

टोपी में जाने क्या-क्या संस्कार थे,बरसों हम उन संस्कारों से बंधे रहे|हमारी शालीनता शादी होने के बाद पत्नी के तानों से ज़रा छिन्न-भिन्न हुई ,कि लोग टी व्ही ,फ्रिज,कार ,बंगले जाने क्या क्या कमा के धर दिए,आपसे एक ढंग का स्कूटर नहीं लिया जाता|बिरादरी में नाक कटती है|

आदमी इसी बिरादरी ,नाक और पत्नी के चुंगुल में फंस कर,अगल-बगल देख के चुपके से , टोपी को जेब में धर लेता है|

पिछले पन्द्रह –बीस सालों से ‘टोपी’ शहर से, मानो गायब सी हो गई थी|केवल २६ जनवरी ,१५ अगस्त के दिन इक्के-दुक्के नेता टोपी पहने शौकिया दिख जाते थे|कांग्रेस के जमाने में ,चुनाव नजदीक आते-आते टोपी का चलन थोड़ा जोर मारता|टिकट लेने ,पार्टी कार्यालय का चक्कर, टोपी पहन के जाओ तो असर पड़ता है ,जैसे विचार टोपी पहनने की बाध्यता पैदा कर देती थी|लोग दुखी मन से पहन लेते थे|

वैसे हमारे शहर में एक मारवाड़ी गजब की टोपी पहने रहता था|भोजनालय चलाता था|

साफ –सुथरी टोपी की बदौलत, उनकी काया में निखार ,बोली में माधुर्य ,व्यवहार में कुशलता, आप ही आप समा गई थी |

एक ‘टपोरी भोजनालय’ से, आलीशान चार मंजिला होटल तक का सफर करते, उस आम-साधारण आदमी के चश्मदीद , शहर के अनेक लोग हैं|

अफसोस कि अब , उनकी टोपी-युक्त फोटो पर, माला चढ गई है ,पर उस आदमी ने जब भी पहना, झकास पहना, कलफदार शान से पहना|

उनके व्यवसाय की वजह से उन्हें ‘पुरोहित जी’ कह के बुलाते थे|

उनके मरने पर , कोई शहर-व्यापी मातम-पुर्सी नहीं हुई,कारण कि ,उन दिनों मीडिया जैसा कुछ होता नहीं था|

आज के मीडिया युग में जो , dundrof’डेन्डरफ वाले तोते के घर’ को बहुत खास बना के परस देता है ,लोगो के हुजूम पे हुजूम टूट पड़ते हैं ,वे दिवंगत होते तो अलग बात होती|

तमाशा देखना,सनसनी में जीना इस जैसे नए युग का एक ख़ास शगल हो गया हो …लोग कान के कच्चे होने लगे हैं|

वे पुरोहित जी को भी कुछ यूँ “ब्रेकिंग न्यज” के नाम पर घंटों चला लेते …..“आज आपके शहर से एक शख्श जिसने उम्दा भोजन की थालियाँ परोसी ,जिसने लोगों को विशुध्ध भोजन कराया ,जिसने हजारो –करोड़ो लोगों की क्षुधा-शान्ति का व्रत लिया था, जिसने मिलावट के किसी सामान का इस्तमाल नहीं किया ,इमानदारी से कम कीमत में सबके पेट तक भोजन पहुचाना जिनाक्क धर्म बन चुका था , वो शख्श का कल परमात्मा से बुलावा आ गया ,एक आत्मा का परमात्मा में विलीन होना आज की सबसे बड़ी सदमे वाली खबर है|उनकी खासियत थी कि वे गांधी –टोपी को यथा नाम तथा गुण अपने सर में आमरण धारण किये रहे|उनने कभी कोई टिकट नहीं मागी ,किसी चुनाव में हिस्सा नहीं लिया ,ऐसे लोग भी होते हैं जो बिना राजनैतिक सरोकार के टोपी को अपनी वेशभूषा में बनाए रखते हैं ,ऐसे आदर्श पुरुष को हमारे चेनल का नमन| हमारे चेनल की तरफ से उनके उठावना का लाइव टेलीकास्ट किया जाएगा|

सदर बाजार के एक और मारवाड़ी जिनका सोने-चांदी का बिजनेस था,पुरोहित के नक्शे –कदम में टोपी पहना करते थे|उनकी खासियत थी कि जब भी बड़ा ग्राहक आये, वे टोपी उतार के रख देते थे|टोपी पहन के ग्राहक को झांसा देने में जैसे उनकी अंतरात्मा धिक्कारती हो ,वे पेमेंट लेने,ग्राहक को बिदा कर लेने के बाद ही टोपी सर पर रखते थे| सात्विक विचार वाले उन जैसे लोग अब खान बचे? उनके दान-पुन्य से अनेको आश्रम ,स्कुल चलते हैं|इन्कमटेक्स वाले उस ‘दानी-दयालु’ आदमी की तरफ कभी झांकते नहीं|

टोपी के बारे में बचपन की सुनी एक कहानी अभी तक दिमाग में काबिज है|एक व्यापारी टोपियों का व्यापार करता था|अपने टोकरे में ढेर सारी टोपियाँ लिए गाव-गाव फिरता था|चलते –फिरते जहाँ नदी-तालाब आ जाए ,नहाना ,खाना –पीना,झपकी लेना, कर लेता था|एक बार एक पेड़ के नीचे आराम करते – करते सो गया|पेड़ पे खूब सारे बन्दर बैठे थे, बंदरों ने नीचे उतर के, उसके टोकरे से टोपियाँ उठा के पहन ली और पेड़ पर चढ़ गये|व्यापारी की नीद जब खुली तो तो टोपियों गायब पाकर उसके होश उड़ गए|इधर-उधर देखने के बाद पता चला कि बंदरों ने सब टोपियाँ पहन रखी हैं|उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि टोपियों को वापस कैसे बरामद करे|उसके पास गनीमत से एक टोपी , जो उसके सर मे थी बच गई थी| उसने बंदरो की तरफ अपने सर से वो टोपी निकाल के उछाल दी|उसकी नकल में सब बन्दर, अपनी-अपनी टोपियाँ उछालने लगे|टोपियाँ नीचे गिरने लगी|व्यापारी ने टोपियाँ सम्हाली और फिर कभी पीड के निचे गहरी नीद में न सोने का निश्चय करके , आगे बढ़ गया|

इस कहानी का मुझमे कई दिनों तक असर रहा| तालाब और पेड़ के कम्बीनेशन में, मुझे टोपियों की याद आती रही|टोपीवाले का एक्शन,बंदरों का रि-एक्शन,वाला फ़िल्म मन में स्वत: चल जाता |उसकी तात्कालिक बुद्धि पर दाद देने का मन आज भी करता है|अपने छोटे-छोटे नाती-पोतो को कभी अपनी जिद पर ये किस्सा सुना के, उनकी प्रतिक्रिया जानना चाहता हूँ|मुझे मालुम है उनके जेहन में सचिन-धोनी वाली टोपियाँ होती हैं|

‘टोपी-ज्ञान’ पाने के बाद ,वे घर के आस-पास बंदर के दीखते ही, टोपियाँ ढूढ़ते हैं|वे बंदरों को ‘टोपी पहने’ देखना चाहते हैं|वे हाथ बढाते हैं|ले…ले… टोपी पहन …..|दादा ये तो दान्त दिखा रहा है ……….!ये हंस रहा है…….,,वो इधर को आ रहा है ………..|

मै बच्चो को सहज करने के लिए कहता हूँ ,चलो काउंट करो ,कितने हैं|गिनती शुरू हो जाती है वन..टू…थ्री ….ट्वंटी सेवन ,ट्वंटी एट…|बच्चे आपस में ट्वंटी सेवन ,ट्वंटी एट…की लड़ाई में लग जाते हैं ,एक बंदर तब तक उछल के दूसरे पेड़ पर चल देता है|

मै सोचता हूँ, बच्चो को कल्पना की दुनिया के इतने नजदीक नही ले जाना चाहिए था|कहीं बंदरों की छीन-झपट में कुछ नुकसान न हो जाए?

डागी-टेस्ट – प्रमोद यादव

पहले के जमाने में दूसरी-तीसरी कक्षा का विद्यार्थी जब स्कूल से घर लौटता तो माँ पूछती-‘ बेटा, आज स्कूल में क्या पढ़ा? ’

अब की माँ पूछती है- बेटा, मध्यान्ह-भोजन में क्या खाया? ’

पहले माँ कहती थी- ‘ राजा बेटा थक गया होगा। चल खाना खा ले। ’

अब माँ कहती है- ‘ राजा बेटा का पेट भरा होगा। जा। पहले सो जा ’

पहले विद्यार्थी घर लौटते ही कहता था- ‘ माँ। जोरों की भूख लगी है। ’

अब विद्यार्थी घर लौटते ही कहता है- ‘ माँ। जोरों की “दुक्की” लगी है। ’

पहले जब दो स्कूली बच्चे आपस में मिलते तो केवल पढाई की ही चर्चा करते।

अब आपस में मिलते हैं तो भोजन के मेनू पर चर्चा करते हैं।

पहले के माता-पिता अपने लाडले के विषय में कुछ इस तरह बातें करते थे- ‘ चुन्नू का अब स्कूल में मन लग गया है। बिला-नागा, बिना रोये-धोये चला जाता है ‘

अब के मम्मी-पापा कहते हैं- ‘बच्चे का मन मध्यान भोजन में लग गया है। अब घर में भी रोज पहले ‘मेनू’ पूछता है। ’

पहले की मांएं पूछती थी- ‘ बेटा, मास्टरजी अच्छा पढ़ाते हैं ना? ‘

अब पूछती हैं- ‘ मास्टरजी खाना अच्छा बनाते हैं ना ?

पहले स्कूल के चपरासी के साथ छात्र एकाएक समय से पूर्व कहीं घर लौट आता तो मांएं ‘धक्’ से रह जातीं कि कहीं उसके लल्ले की तबियत तो नहीं बिगड़ गयी?

अब लल्ला एकाएक लौटता है तो मांएं समझ जातीं हैं कि आज के मेनू में मरी छिपकली या मेढक भी शामिल हो गया होगा।

पहले स्कूल छूटने के बाद भी बालक घर न पहुंचता तो अभिभावक उनके सहपाठियों के घर जाकर खोज-खबर लेते।

आज बालक छुट्टी के बाद भी घर नहीं पहुंचता तो माता-पिता सीधे सरकारी अस्पताल पहुँच जाते हैं।

‘तब’ और ‘अब’ में सदैव फर्क होता है। ’तब’ को हमेशा पिछड़ापन माना जाता है और ‘अब’ को हमेशा- विकासोन्मुख।

देश के स्कूली इतिहास में ऐसा पहले कभी ना हुआ कि एक साथ २३ बच्चे खेलते-कूदते अचानक काल – कलवित हुए हों। पर पिछले दिनों ऐसा हुआ। दूषित भोजन परोसे जाने से बिहार के स्कूल में बच्चे अकस्मात् मौत के मुंह में समा गए। दुनिया की सबसे बड़ी योजना पर देश भर में हल्ला मचा। सरकार ने एहतियात बरतने बयान दिया कि भविष्य में बच्चों के लिए बने पोषाहारी भोजन का ‘पान’ (टेस्ट) पहले शिक्ष क करेंगे। यह फरमान सुन लाखों शिक्षकों ने इस स्कीम का ही बहिष्कार करने का मन बनाया और सरकार को साफ़ कह दिया कि पढ़ाना उनका काम है –खाना बनाना नहीं।

कल रात टी। वी। न्यूज में सुना कि मध्य प्रदेश के गुरुजनों ने भी भोजन टेस्ट करने से इनकार कर दिया है और मांग की है कि बच्चों से पहले कुत्ते को खिलाया जाए। ’डागी-टेस्ट’ के बाद ही भोजन परोसा जाए।

यह सुन मैं हैरान हो गया कि कहीं सरकार ने इनकी बातें मान ली तो इतने कुत्ते लायेंगे कहाँ से? देश के बारह लाख बासठ हजार स्कूल इस स्कीम से जुड़े हैं तो जाहिर है कि इस हिसाब से इतनी ही संख्या में कुत्तों की जरुरत होगी। चूँकि योजना सरकारी है तो स्पष्ट है कि कुत्तों की खरीद-फरोख्त भी वही करेगी। तब सारे कुत्ते भी सरकारी होंगे। किसी ऐरे-गेरे खुजली वाले देशी कुत्ते से तो ‘टेस्ट’ होगा नहीं ना ही सरकार को यह मान्य होगा। वह तो ले-दे कर रसोइये को बामुश्किल हजार रुपये मासिक देती है,उसी में उसकी जान निकली जाती है तो इतने सारे कुत्तों के लालन-पालन का खर्च कैसे वहन करेगी?

मानलो सरकार ये छूट दे दे कि स्कूल जैसा कुत्ता चाहे रख ले और उसका खर्च मासिक भोजन बजट में एडजेस्ट कर दिया जाए तब भी स्थितियां विचित्र ही होगी। कोई ‘जर्मन शेफर्ड ‘ रख लेगा तो कोई ‘लेब्राडोर’। तो कोई ‘अल्शेशियन’। तब। स्कूल का मासिक बजट तो अकेले कुत्ता ही चट कर जाएगा फिर बच्चे क्या खायेंगे? गौर करने वाली बात ये भी है कि अभिजात्य वर्ग के ये कुत्ते टेस्ट करना तो दूर, भोजन को सूंघेंगे या नहीं। इसमें भी संदेह है।

कल रात से मैं यही सोच-सोच कर परेशान हूँ और सरकार है कि घोड़े बेच सो रही है।

मेरे पास भी विदेशी नस्ल के दो कुत्ते है। सरकारी कीमत पर इसे ‘दान’ करना चाहता हूँ।

एम। डी। एम। टेस्ट के लिए पूरी तरह प्रशिक्छित है। साल भर की गारंटी। काम में खरे न उतरे तो पैसा वापस- कुत्ता भी वापस सारे स्कूलों में जब कुत्ते काबिज हो जायेंगे तो बच्चों की बातचीत कुछ यूँ होगी-

स्कूल से लौटे बच्चे से माँ पूछेगी- ‘ इतना थका-थका,उदास-उदास क्यों दिख रहा है लल्ला ? मास्टरजी ने कुछ कह दिया क्या? ‘

तब बच्चा जवाब देगा- ‘ नहीं माँ। किसी ने कुछ नहीं कहा। दरअसल आज हमारे स्कूल के सरकारी कुत्ते की तबियत ख़राब थी तो उसने भोजन टेस्ट करने से इनकार कर दिया। मास्टरजी को बोले तो उसने भी पेट भरे होने का बहाना कर दिया। इस तरह आज हम सब ‘उपवास’ पर रहे इसलिए थोडा कमजोरी है। ’

तब माँ दौड़कर अपने लखते-जिगर को घर का खाना(बिना टेस्ट वाला) खिलाएगी।

सरकार के फैसले का सबको इंतज़ार है। मास्टरों को भी। मुझे भी। और बारह लाख बासठ हजार कुत्तों को भी।

तेरे मेरे सपने – प्रमोद यादव

पहले ही बता दूँ कि देवानंद साहब के ‘ तेरे मेरे सपने’ की बात नहीं कर रहा..मैं उन सपनों की बातें कर रहा हूँ जो रात को सोने के बाद आते हैं..शायद ही ऐसा कोई इन्सान होगा जिसे सोने के बाद सपने न आते हों..जो यह कहे कि उन्हें कभी नहीं आते,वे या तो सरासर झूठ बोलते हैं या फिर ये मानिए वे सोकर उठते ही सब भूल जाते हैं…सपनों का दिखना एक स्वाभाविक घटना है..जैसे सुख और दुःख का जीवन में आते-जाते रहना.

सपने क्यों आते हैं ?..कहाँ से आते हैं ?..कैसे आते हैं ? इसे विज्ञानं अब तक बाँच ही रहा है…. सदियों से शोध करते सैकड़ों शोधकर्ता शहीद हो चुके..अतः इस शहीदी मार्ग पर न जाते हुए, सपनों का छिद्रान्वेषण न करते हुए अपनी रोजमर्रा की दुनिया में लौटते हैं जहां बस ..सपने हैं….सपने ही सपने…हसीन सपने..रंगीन सपने..दिलकश और लुभावने सपने..कभी-कभी ये ‘निगेटिव’ रोल में भी आते हैं..बुरे सपने..खौफनाक सपने..डरावने सपने..जहाँ रहस्यमय..बुरे और डरावने सपने भयभीत करते हैं..वहीँ दिलचस्प,मनोहारी और अच्छे सपने आत्मविभोर भी कर देते हैं..

सपनों का इतिहास खंगालने की मैं जरुरत नहीं समझता..जब से दुनिया बनी..स्त्री-पुरुष का पदार्पण हुआ..तभी से सपनों का भी आगाज हुआ ..सपनों का दस्तूर है कि रात को सोने के बाद ही आते हैं..पर अपवाद कहाँ नहीं होते ? कुछ लोग जागते-जागते भी सपने देख लेने में महारत रखते हैं..ऐसे शख्स को ‘ मुंगेरीलाल ‘ कहते हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि हमारी तरह पशु-पक्छी,कीड़े-मकोड़े भी सपने देखते हैं..अब उनके सपने कितने हसीन, रोमेंटिक या डरावने होते होंगे.. इस पर फिर कभी चर्चा करेंगे.

फिलहाल मैं थोडा ‘रिवर्स” में, आदिमयुग में प्रवेश करता हूँ..सोचता हूँ, उस युग के लोग कैसे सपने देखते रहे होंगे..और देखने वाला आदिमानव उसे कैसे आपस में ‘रिएक्ट’ करता रहा होगा…तब ना ही कोई संपर्क की भाषा-तेलगु-मराठी या हिन्दी-सिंधी थी सब के सब ‘मूक-बधिर ‘चैनल के जैसे थे.. बेचारे झुण्ड में रहते..दिन भर हाड -तोड़ मशक्कत कर खरगोश-हिरन का शिकार करते.. रात को खाते-पीते,नाचते और जब सोते..खुद शेर-भालू का शिकार हो जाते..होता यूँ था कि रात होने पर सभी जंगल के किसी महफूज स्थान को चुनकर सोते..एक दादा टाइप का हट्टा-कट्टा मर्द ( मुखिया ) उनकी हिफाजत के लिए रात भर पहरे देता जागता रहता..पर सुबह होने पर कभी-कभी वह भी गायब पाया जाता.. जो गायब होता उसे खोजने की वे जहमत नहीं उठाते..ना ही उसका कोई शोक मनाते..’ जो चला गया उसे भूल जा’ के तर्ज पर वे चलते..और मशीन की तरह फिर भाग-दौड़ में लग जाते..फिर वही हिरन..खरगोश..साम्भर..हादसा होने के बाद वे जंगल में सेक्टर बदल लेते..और एहतियात के तौर पर रात को एक की जगह दो बलवान आदिमानव को पहरेदारी पर लगा देते ताकि रात को कोई अनहोनी हो तो कोई एक तो कुछ बता सके. लेकिन दुर्भाग्य से कभी-कभी दोनों भी नदारत हो जाते…

विषयान्तर हो रहा हूँ.. वापस लौटता हूँ..तो बात सपने की हो रही थी..जो लोग शारीरिक श्रम ज्यादा करते हैं..हाड -तोड़ मेहनत करते हैं..उन्हें नींद भी गहरी आती है..कहते हैं, गहरी नींद में सपने नहीं आते..तो कुछ कहते हैं-गहरी नींद में ही सपने आते हैं..मुझे तो पहली वाली बात ठीक लगती है..कई मजदूरों को घोड़े बेच सोते देखा है..जिन्दा लाश की तरह पड़े रहते हैं..सपनों से इनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं दिखता ..आदिम युग के लोग भी इसी तरह सोते थे..पर जिंदगी इतनी बड़ी और लंबी है कि कभी न कभी तो सपने आते ही होंगे..कुछ न कुछ तो देखते ही होंगे.. वैज्ञानिकों का मानना है कि स्वप्न हमारी वे इक्छाये हैं जो किसी भी प्रकार के भय से जाग्रत अवस्था में पूर्ण नहीं हो पाती है, वे सपनों में साकार होकर हमें मानसिक संतुष्टि व तृप्ति देती है..अब भला आदिम युग के स्त्री-पुरुषों को सपने में सिवाय खरगोश-हिरन, के और क्या दिखता रहा होगा…यही तो उनकी पहली और आखिरी इक्छाये होती थी.. हसीन और रंगीन सपने तो उन्हें कभी आते ही नहीं होंगे..हम-आप किसी सेक्सी हिरोइन को सपने में नग्न-या अर्धनग्न देख लें तो उसे हम रंगीन और हसीन सपने की संज्ञा देते हैं..पर जिस दुनिया में सारे के सारे लोग..औरत-मर्द..बच्चे-बूढ़े.युवा सभी किसी ‘पोर्न साईट’ की तरह एक साथ साक्षIत नंगे खड़े हों..वहाँ किसी हसीन सपने कि क्या गुंजाइश ? चलिए आगे बढते हैं..

जहां तक मेरा ख्याल है- सपने भी व्यक्ति को उनकी हैसियत यानी पद, प्रतिष्ठा, गरिमा, व्यवसाय, जाति और तबके के अनुसार ही आते होंगे..वैसे कोई भिखारी सपने में खुद को प्रधानमन्त्री के तौर पर देख ले तो कोई उसका क्या उखाड सकता है..सपना है भाई..बनने दो..सपने में पी.एम.बनकर क्या कर लेगा ? (जब सपने से बाहर के पी.एम. की ही बोलती बंद है) वैसे ऐसे सपने कोई मंत्री-संत्री या नेता देखे तो ठीक..यह हाई लेबल का सपना है..मेरा तो विश्वास है कि इस तरह के सपने गरीब तबके के लोग नहीं देखते होंगे..पिछले दिनों मैंने समाज के विभिन्न वर्ग-विशेष के लोगों से इस विषय में बातचीत की..पेश है उसी की एक झलक –

सबसे पहले एक नेताजी से पूछा- ‘क्या रात में आपको सपने आते हैं ?’

उन्होंने जवाब दिया- ‘ भैया..मतदान के बाद तो दिन में भी आते हैं..’

‘किस तरह का स्वप्न देखते हैं ?’

‘यही कि असेम्बली में हम शपथ-ग्रहण कर रहे हैं..’

‘रात को सोने के बाद कैसे सपने आते हैं ?’

‘अरे भैय्या ..रात को नींद ही कहाँ आती है जो सपने देखें..रात तो करवटें बदलते गुजर जाती है..’

‘नेताजी..क्या ऐसा कोई सपना है जिसे आप सिक्वल फिल्मों की तरह दो-तीन बार देखें हों ? ‘

‘हाँ भई..एक सपना बार-बार देखें हैं कि कुछ लोग हमें एक पहाड़ की चोटी पर ले जाकर धकेल रहें हैं..इस सपने का फलादेश क्या है ? ‘

‘बिलकुल स्पष्ट फलादेश है नेताजी..आप मंत्री बनेंगे..कुर्सी पर बैठेंगे..लेकिन बहुत जल्द ही किसी “स्टिंग आपरेशन” में धर लिए जायेंगे..’

नेताजी की बोलती बंद. मैं ख़ामोशी से खिसक आया.

फिर एक नवोदित लेकिन काफी “पहुंची हुई”अभिनेत्री के बंगले पहुंचा..उनसे पूछा तो

उसने कहा- ‘ तीन-तीन शिफ्ट में दिन-रात शूटिंग करती हूँ..तो सपने कहाँ से आये ?..अधिकतर शूटिंग रात को ही होती है ना ..बड़ी मुश्किल से दिन में एकाध घंटे की झपकी लेती हूँ..’

‘तो झपकी में ही सही..कुछ तो देखती होंगी..’

‘अरे भई..दिन में भी भला कोई सपने देखता है ?’

‘पर बेलाजी..कभी न कभी तो कोई सपना आया होगा ?’

‘हाँ..पिछले दिनों शूटिंग के सिलसिले में स्विट्जरलेंड गयी थी तो एक सपना आया था..’

‘बताइये..क्या देखा आपने ?’

‘ मैंने देखा कि मेरी दो-तीन फ़िल्में एक साथ “आस्कर” के लिए नामित हुई है..और एक बार तो खुद को “आस्कर” एवार्ड भी लेते देखा..’

‘ बधाई हो बेलाजी..बधाई..’ मैंने कहा..

‘ अरे भई..ये सपने की बात थी..बधाई सम्हाल के रखिये..जब मिले तब देना.. और हाँ..और कुछ पूछना हो तो थोडा जल्दी करें..मुझे सेट पर जाना है..’

‘ बस..आखिरी सवाल..क्या ऐसा कोई स्वप्न है जिसे आपने एक से अधिक बार देखा हो ?’

‘ हाँ..कई बार देखती हूँ कि मैं अफ्रीका के घने जंगलों में एकदम निर्वस्त्र खड़ी हूँ और मेरे चारों ओर शेर, चीते, भालू, हाथी, हिरन भी नंगे खड़े चीख-चिल्ला रहे हैं..मैं आज तक इसका अर्थ नहीं समझ सकी..’

‘ मैं समझाता हूँ बेलाजी..इसका मतलब है कि जल्द से जल्द आप हालीवुड की फिल्मों में काम करेंगी ( और हो सकता है-पोर्न फिल्मों में भी )..’

वह खुश हो मुझसे लिपट गई..मुझे एक पल के लिए लगा..मैं भी शेर-भालू की तरह हो गया.

फिर एक छोटे से कस्बे के एक छुटभय्ये कवि से मिला..वो बड़े ही नाटकीय अंदाज में बोले-‘ रात तो क्या..हम तो दिन में भी सपने देखते हैं भैय्या…और वही सब तो अपनी कविताओं में पेलते हैं…सपने न आये तो कविता कैसे फले-फूले ?’

‘ ठीक कहते हैं दिलजले जी..लेकिन मैं उन सपनों की बातें कर रहा हूँ जो रात को सोने के बाद आते हैं.. उसमें क्या-कुछ देखते हैं ?’

‘ हमारी तो पलकें बंद होते ही बड़े-बड़े कवि खड़े हो जाते हैं हमारे सामने..कभी बच्चनजी..तो कभी दिनकरजी..कभी निरालाजी तो कभी महादेवी वर्माजी..एक बार तो सुभद्रा कुमारी चौहान भी आकर हमारी पीठ थपथपा गयी थी..हमारी एक देशभक्ति की कविता पर..’

‘ कभी कोई रंगीन या हसीन सपना ?’

‘कभी-कभार हमारी बीबी भी दिख जाती है’

‘अरे कविजी..ऐसे सपनों को हसीन नहीं,बुरे सपने कहते हैं..खैर..ये बताएं..क्या कोई एक ही स्वप्न बार-बार दिखता है ?’

‘हां जी..अक्सर हम देखते हैं कि श्मशान में हम धू-धू कर जल रहे हैं और साहित्यिक बिरादरी के लोग हमारे “कन्डोलेंस” में कवितायें पेल रहें है..इसका भला क्या अर्थ निकालें ?’

‘ अर्थ बिलकुल साफ़ है दिलजले जी …आपको साहित्य के क्षेत्र में “पद्मश्री” मिलने वाला है..पर मृत्योपरांत ..आपकी बिरादरी ने प्रण कर रखा है कि जीतेजी आपको कुछ नहीं लेने देंगे..’

वे उदास और चिंतित हो गए..मैं चुपचाप लौट आया.

अब की बार सोने-चांदी के एक व्यवसायी से बातें की तो उसने कहा- ‘ अरे भाया..हमें तो सोते-जागते सबमें केवल रोकड़ा ही दिखता है..’

मैंने कहा- ‘ बोर नहीं होते..वही सब बार-बार देखते..मैं तो अच्छी से अच्छी फिल्म को भी दुबारा नहीं झेल पाता..’

‘अजी..बोर होते है तो “उसे” देख लेते हैं..’

‘ उसे ?..कौन उसे ?’

‘ अब आपसे क्या छुपाएँ..मन बहलाने के लिए एक “बाहरवाली” रखे हैं..वहाँ चल देते हैं..कभी नहीं जा पाते तो वो ही सपने में आ जाती है..’

‘क्या कभी आपके सपनों में “घरवाली और बाहरवाली” एक साथ आई है ?’

‘मरवा दोगे क्या यार ..ऐसा हुआ तो मेरा तो राम नाम सत् हो जाएगा..’

‘अच्छा बताइये..कोई ऐसा स्वप्न जो रिपीट हुआ हो..’

‘अक्सर देखता हूँ कि मेरे दोनों लड़के मुझे किसी अंधे कुंए में धकेल रहे हैं..समझ नहीं आता क्यों ?..लड़के तो मेरे गऊ हैं..’

‘अरे नाहटाजी..इतना भी नहीं समझे..आपके बच्चों को “बाहरवाली” का ऐड्रेस मिल गया है..अब वे सांड हो गए हैं..बेहतर होगा..घरवाली पर ध्यान कंसन्ट्रेट करें ..’

वह मेरा मुंह ताकते रहा..मैं मुंह फेर चला आया.

आखिर में एक गरीबनवाज हट्टे-कट्टे भिखारी से मिला. उसने बताया कि वह बहुत सपने देखता है..कभी खुद को सी.एम. तो कभी पी.एम. के रूप में देखता है..उसके सपनों ने मुझे आकर्षित किया..मैंने पूछा- ‘सी.एम. पी.एम. बनकर करते क्या हो यार.. ?’

उसने कहा- ‘ भिखारी भाईयों के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाएं बनाता हूँ..इस व्यवसाय को जल्द से जल्द “हाईटेक” करने का वादा करता हूँ..’

‘ कभी कोई दिलकश, रंगीन सपने भी देखते हो ?’

‘ एक बार देखा था..एक खूबसूरत लंगडी भिखारन मुझे “प्रपोज” कर रही थी..’

‘फिर..’

‘ फिर क्या ?..उसी से मेरी शादी हो गयी..’ वह थोडा झल्लाकर बोला.

‘ अच्छा ..बताओ..कोई एक ऐसा सपना जिसे बार-बार देखते हों..’

‘हाँ..कई बार देखता हूँ कि जहां बैठकर भीख मांगता हूँ..उसके नीचे कोई खजाना है..पर नींद खुलते ही भूल जाता हूँ..फिर व्यवसाय में इतना व्यस्त हो जाता हूँ कि फुर्सत ही नहीं मिलती कि नीचे झाँक कर देखूँ..’

मैंने कहा- ‘अरे बुद्धू..इसे सपना नहीं हकीकत कहते हैं..चलो उठो..और नीचे के ट्रंक को खोलकर देखो..’

उसने खोला तो मैं भौंचक रह गया..सिक्कों और रुपयों से मुंह तक अटा पड़ा था ट्रंक..गिनती की तो दो लाख छियासठ हजार एक सौ दस रूपये निकले. उसमे एक का सिक्का उछालकर मैंने कहा- ‘ लो..अब दो लाख छियासठ हजार एक सौ ग्यारह हो गए..शुभ अंक..अब चलता हूँ..इस व्यवसाय के विषय में मुझे भी कुछ सोचना है ..’

वह तो हतप्रभ था ही ..उससे ज्यादा मैं हतप्रभ था कि कैसे-कैसे लोग हैं दुनिया में..कोई सपने को हकीकत मान लेता है तो कोई हकीकत को सपना..आप क्या कहते है ?

थानेदार से इंटरव्यू – प्रमोद यादव

‘ सबसे पहले बताएं कि आप थानेदार कैसे बने ? ‘

‘ जैसे सब बनते हैं…ले-देकर..’ थानेदार ने जवाब दिया.

‘ मेरा मतलब यह नहीं था…मैं जानना चाहूँगा कि पुलिस में भर्ती होने का मन कैसे बना ? क्या परिवार में पहले भी कोई पुलिसवाला था ? ‘

‘ नहीं जी, हम सब सुखी थे…कोई न था…वो तो मेरी किस्मत कुछ खराब थी कि चोरों की वजह से पुलिस बना ‘

‘ वो कैसे ? ‘

‘ मैंने तो कभी सोचा तक न था कि पुलिस महकमे में कदम रखूँगा लेकिन दो-तीन हादसे ऐसे हुए कि पुलिस में भर्ती होने का मन बना लिया. ‘

‘ क्या हादसा हुआ था ? ‘

‘ घर से एक बार बकरी चोरी हो गई..बाप ने मेरी पिटाई कर दी कि तेरे होते यह कैसे हुआ. मैं जैसे मैं न हुआ बकरी का “ बाडीगाड “ हो गया..उन्हें शक था कि कही मैने तो नहीं बेच दी…चोरी किसी और ने की पर इल्जाम मुझ पर लगा….खैर, बात आई-गई हो गई..धीरे- धीरे वो किस्सा मैं भूल गया और घरवाले भी भूल गये. ‘

‘ आपने कहा कि चोरों की वजह से पुलिस बने ‘

‘ हाँ…ठीक ही कहा..उस घटना के बाद एक घटना और घटी…स्कूल से मेरी सायकल चोरी चली गई…इस बार भी पिटाई हुई पर बेचने का इल्जाम नहीं लगा…पिताजी ने चोरी की रपट लिखा दी पर बरसों तक नहीं मिली…मैंने महकमा ज्वाइन किया तब सायकल मिली. ‘

‘ वेरी गुड…आपकी सायकल काफी मजबूत रही होगी जो अब तक चल रही थी…कैसे मिली सायकल ? ‘

‘ इसकी एक कहानी है… थानेदार बनते ही मैंने शहर भर के तमाम पेशेवर चोरों की एक मीटिंग काल की…और कहा कि दस साल पहले स्कूल से मेरी एक हीरो सायकल चोरी हुई थी..बस इतना भर कहना था कि सारे चोर फुर्र हो गये…दूसरे दिन सुबह देखा कि थाने में लाइन से इक्कीस हीरो सायकल खड़ी थी..मैंने ईमानदारी से उसमे से एक उठा ली जिसकी शक्ल मेरे बिछुडे सायकल से मिलती-जुलती थी…बाकी सायकल स्टाफ में बाँट दी.’

‘ सर जी, आप तो कहते हैं कि चोरों के कारण इस विभाग में आये…इनसे ही आपको प्रेरणा मिली पुलिस बनने की. ‘

‘ हाँ..प्रेरणास्रोत तो वही चोर थे जो दो बार गच्चा देकर बकरी और सायकल ले गये और मार मुझे खानी पड़ी थी…तभी मैंने प्रण किया कि एक दिन पुलिस बनूँगा…चोरों को पकडूँगा ताकि मेरी तरह कोई और बालक बेवजह अपने बाप की पिटाई का शिकार न हो पर….. पर….’

‘ पर क्या सर ? ‘

‘ पर यार..पुलिस ज्वाइन करते ही मेरे ज्ञान-चक्षू खुल गये…जल्द ही जान गया कि चोर अपनी जगह है और पुलिस अपनी जगह…एक ही ट्रेक पर दोनों दौडेंगे तो चोर ही हमेशा आगे होगा और सिपाही पीछे.. पकड़ने वाला तो सर्वदा पीछे ही होता है…..कभी किसी चोर को पकड़ भी लिया तो सामान पकड़ नहीं पाते…कभी सामान पकड़ लेते हैं तो खिसियानी बिल्ली की तरह चोर ढूंढते हैं ‘

मैंने टोका – ‘ आपने सायकल बरामद कर ली तो खोई बकरी भी बटोर लिये होंगे..’

‘ आपने कैसे जाना ?…इसकी भी एक कहानी है…बकरी की मे-मे हमेशा कानो में गूंजती रहती थी, ठीक उसी तरह जिस तरह जंजीर पिक्चर में हमेशा अमिताभ बच्चन के दिमाग में घोडा दौड़ता था…एक बार एक क़त्ल के सिलसिले एक गांव गया तो जिस घर में क़त्ल हुआ था वहाँ आठ-दस बकरियाँ चरती-फुदकती दिखी..मैंने सबको गिरफ्तार कर लिया और गांववालों को छोड़ दिया…मेरी दरियादिली से वे बहुत खुश हुए..और मैं बकरी पाकर गद-गद हुआ…’

‘ चोरों के कारण आप पुलिस बने तो निश्चित ही इनके प्रति काफी श्रद्धा होगी. ‘

‘ हाँ भाई…ठीक कहते हो… इन पर कोई कार्रवाई करने का मन नहीं करता…लेकिन केवल बेसिक-डी.ए. से तो घर चलने से रहा…ये ना हो तो भूखे ही मर जाएँ..’

‘ शहर में गुंडागर्दी, उठाईगिरी, सट्टेबाजी, छेड़खानी, शराबखोरी, लूट, पाकिटमारी, क़त्ल आदि का ग्राफ कैसा है ?’

‘पुलिस के होते (गुंडई के चलते ) किसी की मजाल है जो यह काम करे ? काफी अमन-चैन है शहर में.. साल में एकाध-दो क़त्ल हो जाता है…अपराधी हम पहले से तय कर रखते हैं…पकड़ते हैं और कोर्ट को सौंप देते हैं..अब कोर्ट का काम है कि फैसला करे कि खून उसी ने किया है या किसी और ने..हमारा काम केवल पकड़ना है..चाहे बुधारू को पकडे या समारू को..’

‘ शहर के तमाम चोर-उच्चक्कों, गुंडे-मवालियों को कोई सन्देश देना चाहेंगे ? ‘

‘ हाँ…यही कहना चाहूँगा कि हर काम सावधानी और शालीनता से करें…और अच्छे समय पर करे..जनता के साथ प्यार और नम्रता से पेश आये. .वैसे पुलिस महकमे को इसकी ज्यादा दरकार है..’

‘ पुलिस और जनता के बीच मधुर सम्बन्ध बनाने कि बात हमेशा चलती है पर लाख कोशिशों के बाद भी बनते नहीं…इस पर आप क्या कहेंगे ? ‘

‘ जनता-जनार्दन से अच्छे सम्बन्ध बनेंगे तो इनसे बिगड जायेंगे…इनसे बिगाड़ करके हमें भीख थोडे ही माँगना है…वैसे जनता समझदार है…जानती है कि पुलिस की ना दोस्ती अच्छी है ना ही दुश्मनी…’

‘ ठीक है थानेदारजी..इंटरव्यू के लिये धन्यवाद..’

‘ चलते-चलते हम भी एक बात कहें.’ थानेदार बड़ी शालीनता से गुर्राया.

‘ हाँ-हाँ…कहिये…क्या बात है ? ‘ मैंने कहा.

‘ हमें भी कभी सेवा का अवसर दें…आपकी कोई चीज कभी खोई हो तो बताएँ..खड़े-खड़े बरामद करवा देंगे…इस फील्ड मे हमारी मास्टरी है..’

एक पल के लिये सोचा कि कह दूँ – बीस साल पहले मेरी प्रेमिका खो गई, वो दिला दे लेकिन इक्कीस तोपों की सलामी जैसे इक्कीस हीरो सायकल की याद आई तो डर गया. सचमुच कहीं थानेदार बीस-इक्कीस प्रेमिका खड़ी कर दे तो…?

मैं मुस्कराकर ‘ थैंक ‘ ही बोल पाया.

दानं परमो धर्मः – सुभाष चन्दर

आप मानें या न मानें, लेकिन साब मेरा मानना यही है कि मेरे देश से ज्यादा दानी प्रवृति के लोग आपको पूरी दुनिया में कहीं नहीं मिलेंगे। दान तो उनकी नस-नस में बसा है। उनके इस विशिष्ट दान की ही महिमा है कि आपको हर शहर में दस-पांच अनाथालय जरूर मिल जाएंगे। कितना दुष्कर कार्य है, अनाथालय के लिए बच्चे जुटाना। पहले बच्चे जुटाओ, फिर उनका पालन करो।

वैसे अधिकतर मामलों में बच्चे जुटाना और बच्चे पालना अलग-अलग किस्म के दानी करते हैं। मगर कभी-कभी ये दायित्व एक ही व्यक्ति को वहन करना पड़ता है। हमारे एक मित्र हैं। पेशे से डॉक्टकर हैं। डॉक्टलर नहीं होते तो शर्तिया अनाथालय के संचालक होते। दीन-दुखियों की सेवा करने का व्रत लेकर ही वह डॉक्टलरी के पेशे में आए थे। सेवा का पेशा था, सो खूब सेवा की। मुहल्ले की अधिकतर अविवाहित लड़कियां उनकी मदद से ही कुंआरी बनी रहीं। अविवाहित और कुंआरी के फर्क को भाई ने कभी मालूम ही नहीं चलने दिया। जहां किसी के ऊपर कोई संकट आया। डाॅक्टर साब तैयार। उनकी मदद से अनाथालयों की तादाद काफी बढ़ी है। इसमें कुछ उनका व्यक्तिगत योगदान रहा, तो कुछ उनकी डॉक्टररी का। बाद में अनाथालय चलाने का जिम्मा उनकी चंदे की रसीदों ने संभाला। अनाथालय के बच्चों को जहां उन्होंने भोजन दिया, वहीं, डॉक्टिर साब का काम सिर्फ दो कोठियों में चल गया।

बहुत से विधवाश्रम भी दान की महत्ता स्थापित करने में बड़े सहायक होते हैं। इनकी संचालिका जितनी समझदार होगी, उतना ही दानियों का परलोक सुधरेगा। कई आश्रमों में विधवाओं को दान देने में धन दान की ही जरूरत नहीं। दानी लोग श्रद्धानुसार श्रमदान भी कर देते हैं। इससे परलोक और यह लोक दोनों ही सुधरते हैं। नेताओं और अधिकारियों की मेहरबानी से ऐसे विधवाश्रम काफी प्रगति पर हैं। संध्या पूजन यहां की महत्वपूर्ण विशेषता हैं। अनाथालयों के विकास में इस पूजन का विशेष योगदान है।

खैर साब बात चल रही थी दान की महत्ता की और मैं पहुंच गया अनाथालयों के इतिहास पर। दान और ब्राह्मण कभी एक-दूसरे के पर्याय होते थे। दान देने से दानी का परलोक सुधरता है और ब्राह्मणों को देने से तो विशेष यप् से। वरना जिस गाय की पूंछ पकड़कर वैतरणी पार करोगे, वह बीच में ही छोड़कर चल देगी। सब जानते हैं कि पूंछ पकड़कर राजनीति की नदी में तो तैरा जा सकता है, लेकिन वैतरणी के लिए तो पूरी गाय चाहिए। सो ब्राह्मणों को गाय दान में दोगे तो पुण्य मिलेगा। राजाओं और प्रजा के हित की ऐसी सभी बातें ब्राह्मणों ने ही उन्हें समझाई थीं। सो दानियों का परलोक सुधरा और ब्राह्मणों का यह लोक। काफी दिनों तक ब्राह्मणों ने लोक-परलोक सुधारने का काम किया। कालांतर में दानियों का काम सरकारों के जिम्मे आया। खूब दान दिया। आरक्षण से लेकर कर्ज तक खूब बांटा। पहले दान लेकर आशीर्वाद मिलता था। अब सिर्फ वोट की चाह रही। इससे यश भी खूब मिला। एक सरकार को कलाकारों, साहित्यकारों को दान देने का शौक था। उसने इतना यश का दान दिया कि प्रदेश के बहुतेरे साहित्यकार ‘यश भारती‘ हो गए। साहित्यकार होने के लिए लिखना जरूर आना चाहि। लोगों ने प्रेम पत्र लिखे, लोक शैली में गालियां लिखीं। उन्हें किसी ने कविता कहा, किसी ने लोकगीत। वो तो बुरा हुआ, सरकार को अक्लं आ गई वरना उसके यशदान से प्रदेश का नाम ही यश प्रदेश रखना पड़ता।

दान की महिमा अनंत है। दानी अनंत हैं, दान लेने वाले भी अनंत है। एक भिखारी महाशय को मैं जानता हूं। उन्हें लोगों के परलोक सुधारने का जबर्दस्त चस्का था। सुबह-सुबह ठीये पर बैठ जाते। हिंदू को देखकर भगवान् और मुसलमान को देखकर अल्लाह के नाम पर कटोरा फैलाते। सरदार जी को देखकर उन्हें वाहे गुरु की याद आती थी। देश भी धर्मनिरपेक्ष है, वे भी धर्मनिरपेक्ष हैं। धर्मनिरपेक्षता के अतिरिक्त उनमें और भी कई गुण थे। परलोक सुधारने के साथ-साथ शराबखानों की रौनक बढ़ाने का काम वे ‘पार्ट टाइम’ में करते थे। नियम-धर्म के बड़े पक्के थे। बिला-नागा बीवी-बच्चों की पिटाई करना, उनके सांध्यकालीन कार्यक्रम में शामिल था। इसमें उन्होंने कोई कोताही नहीं बरती। ऐसा नियम प्रेमी मैंने कहीं नहीं देखा।

लगे हाथों एक किस्सा और बयान किए देता हूं।

हमारे एक मित्र थे। काफी दिनों से बेरोजगार थे। एक पंडित जी को हाथ दिखाया तो पंडित जी ने बता दिया कि शनि देवता की पूजा करो। दिन सुधर जाएंगे। सो उन्होंने शनि देवता की जमकर पूजा की। टीम की कुछ पत्तरें मंगवाकर उन पर काला रंग पुतवा दिया। नीचे लिखवा दिया-‘शनि देवता की जय’। हर पत्तर के नीचे एक लोहे की बाल्टी भी रख दी। हर शनिवार को हर बाजार में शनि देवता नजर आने लगे। लोगों को परलोक सुधारने की धुन थी, ओर परलोक सुधारने का इससे सस्ता और टिकाऊ माध्यम कौन-सा होता। शाम तक शनिदेवता तेल और पैसों से मालामाल। मित्र आते, स्वर्ग शुल्क इकट्ठे करते। तेल जहां से आता, वहीं दे आते। पैसों को सोमरस पान आदि में सदुपयोग करते। ज्योतिषी की बात सच्ची थी। उनके दिन तो क्या, रातें तक सुधर गई थी। आजकल पांच-सात लौंडे-लफाड़े रख लिए हैं। ‘एरिये बंध गए हैं। अब शनि देवता ठेके पर दिए जाने लगे हैं। शनि की कृपा अपार है।

दान की महिमा का जितना वर्णन करो, थोड़ा है। आइए, आपको एक चित्र और दिखाता हूं। कनॉट प्लेस पर एक औरत आपको अक्सर दिखाई देगी। वह भी परलोक सुधार समिति की सदस्या है। सर्दी के मौसम में उसके पास एक बच्चा होता है। बच्चा जो होता है, उसे सर्दी बिल्कुल नहीं लगती। वह पट्ठा अफीम का अंटा दबाए सड़क पर नंग-धड़ंग लेटा रहता है। वो औरत जताती है कि वह उसकी मां है, इसीलिए बच्चे के पास कपड़े नहीं हैं। मां है, मांओं को ठंड लगती है। वैसे भी औरतों को कपड़े जरूर पहनने चाहिए। उसने भी पहन रखे हैं। बच्चा नंगा है, बच्चा ठहरा। आप आइए, बच्चे के नंगेपन पर तरस खाइए। तरस अच्छी चीज है, जरूर खानी चाहिए। इससे दिमाग के इस्तेमाल की संभावनाएं कम से कम रहती हैं। जेब से पैसे निकालिए और दान की महत्ता से अपने आपको सराबोर कीजिए। आपका परलोक सुधर जाएगा। अगले दिन वह औरत अपनी मातृत्व शक्ति दिखाने किसी और बाजार में पहुंचेगी। बच्चा कल भी नंगा रहेगा। बच्चे को सर्दी नहीं लगती। सर्दी सिर्फ मां को लगती है। आपकी दानवीरता बच्चे को कपड़ों के झंझट से हमेशा दूर रखेगी।

बच्चे? बच्चे होते हैं। मासूमियत तो उनको रखनी पड़ेगीं मासूमियत नहीं होगी तो भीख कैसे मिलेगी। लोग दान कैसे देंगे। दान नहीं देंगे तो परलोक कैसे सुधरेगा। जितनी करुणा उपजेगी, उतना दान बरसेगा। नंगे बच्चे, कोढ़ी बच्चे, लूले-लंगड़े, अपाहिज बच्चे। इनसे तो दान का ज्यादा पुण्य मिलता है। अगर अधिक पुण्य कमाना है तो इनकी संख्या बढ़ावाइए।

इनकी संख्या तभी बढ़ सकती है जबकि इन्हें इनके मां-बाप की मोह-ममता से दूर किया जाए। काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ में मोह बड़ी विचित्र बुराई है। मोह पाप का मूल है। यह बिल्कुल नहीं होना चाहिए। हर मुहल्ले से बच्चे उठने चाहिए। हर मां की गोद से कम से कम एक बच्चा जरूर लिया जाए। धर्म की रक्षा के लिए इतना तो करना ही पड़ेगा। दानं परमो धर्मः। पहले चरण में बच्चों को उठाया जाए। उठवाना कठिन शब्द है। उनकी मोह-ममता को दूर किया जाए। मोह त्याग के इस चरण में पहले उन्हें हाथ-पैरों के मोह से मुक्ति दिलाई जाए। उनकी जीभ को भी शरीर से मुक्ति दिलाई जा सकती है। गंूगे बच्चों को दान देने में धर्म की काफी सिद्धि होती है। दान हमेशा गूंगा होना चाहिए।

अभी कुछ दिनों पूर्व ही ‘दानं परम धर्मः’ के एक पक्के अनुयायी को दिल्ली पुलिस ने पकड़ लिया। अधर्मी जो ठहरी। वह बेचारा बमुश्किल तीस-चालीस बच्चों को उनके मां-बाप के मोह से मुक्ति दिलाकर धर्म की साधना कर रहा था। इसी क्रम में उसने ईंट-पत्थरों और चाकू की मदद से बच्चों को हाथ-पैरों और जुबान से मुक्ति दिलाई थी। इसके बाद उन्हें लोगों की दान की भूख को शांत करने के पुण्य कार्य में लगा दिया था। शाम को आकर वह इस दान की राशि को इकट्ठा करने का पवित्र काम करता था। इस दान राशि का उसने काफी सदुपयोग किया। स्मैक और गांजा दोनों औषधियों का वह निर्यातक सेवन करता था। बच्चों को खाने से दूर-दूर ही रखता था। उसका मानना था कि उतना खाना चाहिए, जिसमें आदमी जिंदा रह सके। ज्यादा भोजन बच्चों को पचता नहीं। पचता तो दानियों की पूजा में विघ्न पड़ता। भला स्वस्थ बच्चों को दान देकर अपना परलोक कोई क्यों बिगाड़ेगा। ये दोनों ही काम बड़े घटिया दर्जे के होते थे। मगर फिर भी बच्चों के लिए बहुत जरूरी थे। उनके बिना दान धर्म की महत्ता भी झूठी हो जाती। आपके पैसे बरसाइए, परलोक सुधारिए। आपकी फैली हुई ये चवन्नियां-अठन्नियां ही तो बच्चों को उनके माया-मोह से दूर रखेंगी।

अभी कुछ दिनों पूर्व ही कहीं पढ़ा था कि बंबई में भिखारियों के एक गिरोह ने तीन साल की एक बच्ची को उसकी मां से पखस रुपये महीना किराये पर लिया था। भिखारी बड़े धार्मिक प्रवृत्ति के लोग थे। उन्होंने जब देखा कि ठीक-ठाक बच्ची को देखकर लोगों में दान की प्रवृत्ति कम उपतजी है। परलोक का खतरा सिर पर था। सो उन्होंने उस बच्ची की आंखों पर सिर्फ ‘काॅकरोच’ बांधकर पट्टी कर दी। काॅकरोच बड़ा शरीफ जीव होता है। वो सिर्फ काटने का काम जानता है। लेकिन दान के ठठोरक के रूप् में उसका योगदान-पर विशेष रूप से लिखा जाना चाहिए। अब जैसे काॅकरोच काटता, बच्ची को सिर्फ बिलबिलाकर रोना होता। दानी खुश। दनादन चवन्नियां-अठन्नियां गिरने लगीं। परलोक सुधरने लगा। इस करुणा की खेती से भिखारियों की गरीबी चली गई, तो बच्ची को सिर्फ दोनों आंखें देनी पड़ीं।

साब मेरा मानना है। जैसे भी हो दान दीजिए। परलोक सुधरेगा। परलोक नहीं सुधरा तो सब व्यर्थ हो जाएगा। मेरी मानिये तो आंखें बंद करके दीजिए। आंख बंद करके दान देने से दान का पुण्य बढ़ता है। वैसे भी धर्म-कर्म के लिए आंखों की जरूरत भी क्या है ?