उत्तिरमेरूर

उत्तिरमेरूर, उत्तरमेरूर अथवा उत्तरमेरुर (अंग्रेज़ी: Uthiramerur) दक्षिण भारत में तमिलनाडु राज्य के कांचीपुरम ज़िले का एक पंचायती ग्राम है। चोल राज्य के अंतर्गत ब्राह्मणों (अग्रहार) के एक बड़े ग्राम में दसवीं शताब्दी के पश्चात अनेक शिलालेख स्थानीय राजनीति पर प्रकाश पर प्रकाश डालते हैं, जो इस प्रकार हैं-250px-Uthiramerur-Temple

  • ग्राम 30 भागों में विभाजित था, जिनमें से प्रत्येक भाग का प्रतिनिधि लाटरी द्वारा चुनी गई वार्षिक परिषद में उपस्थित होता था। परिषद पाँच उपसमितियों में विभाजित थी जिनमें से तीन क्रमश: उद्यानों तथा वाटिकाओं, तालाबों तथा सिंचाई और झगड़ों के निबटारे के लिए उत्तरदायी थीं, जबकि अंतिम दो के कार्य अनिश्चित हैं।
  • सदस्य अवैतनिक होते थे तथा दुर्व्यवहार के कारण पदच्युत किये जा सकते थे। परिषद में सम्मिलित होने का आधिकार सम्पत्ति योग्यता द्वारा सीमित था, जिसमें मकान तथा छोटा भू-भाग सम्मिलित था। सदस्यता 35 तथा 70 वर्ष की आयु के मध्य वाले व्यक्तियों के लिए सीमित थी जो एक वर्ष तक कार्यभार सँभाल लेते थे, वे तीन वर्ष के लिए पुन: नियुक्ति हेतु अयोग्य हो जाते थे।
  • उत्तिरमेरूर विधान की दो अंतिम विशेषताएँ अन्य ग्रामों के विधानों में भी पायी जाती हैं, जिनकी लेखा आज भी प्राप्त हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सभी ने युवकों तथा वृद्धों के प्रवेश का अपनी परिषदों में निषेध कर दिया था और कुछ में न्यूनतम आयु 40 वर्ष निश्चित की गयी थी। अधिकांश ने विश्राम-ग्रहण किये हुए सदस्यों की पुन:नियुक्ति पर प्रतिबन्ध लगा दिये थे। निस्सन्देह यह भ्रष्टाचार-निवारण के लिये तथा व्यक्तिगत प्रभाव की वृद्धि को रोकने के लिए किया गया था। एक स्थान में तो किसी विश्राम-ग्रहण करने वाले सदस्य के निकट सम्बंधियों को सदस्यता से पाँच वर्ष के लिए वंचित कर दिया था, दूसरे स्थान पर विश्राम प्राप्त सदस्य की दस वर्ष तक पुन: नियुक्ति नहीं हो सकती थी।
  • दक्षिण की ये परिषदें न केवल झगड़ों का निबटारा करती थीं तथा सरकार की सीमा के बाहर सामाजिक कार्यों का प्रबन्ध करती थीं, अपितु मालगुजारी एकत्र करने, व्यक्तिगत सहयोग का मूल्य निर्धारित करने की बातचीत के लिए उत्तरदायी थीं। गाँव की बंजर भूमि का स्वामित्व विक्रय अधिकार सहित निश्चित रूप से उनका था तथा वे सिंचाई, मार्ग-निर्माण तथा अन्य जनकार्यों में विशेष रुचि रखते थे। उनके आदान प्रदान का विवरण ग्राम के मन्दिरों की दीवारों पर अंकित रहता था जिससे एक शक्तिशाली सामुदायिक जीवन का आभास मिलता है और जो प्रारम्भिक भारतीय राजनीति के सर्वश्रेष्ठ अंश के स्थायी स्मारक हैं।
  • इतिहास

उत्तिरमेरूर से पल्लव एवं चोल काल के लगभग दो सौ अभिलेख मिले हैं। इन अभिलेखों से परिज्ञात होता है कि पल्लव एवं चोल शासन के अन्तर्गत ग्राम अधिकतम स्वायत्तता का उपभोग करते थे। 10वीं शताब्दी का एक लेख आज भी एक मन्दिर की दीवार पर ख़ुदा है, जो यह बताता है कि चोल शासन के अन्तर्गत स्थानीय ‘सभा’ किस प्रकार कार्य करती थी। सभा का चुनाव उपयुक्त व्यक्तियों में से लाटरी निकालकर होता था। ग्राम स्तर पर स्वायत्तता इतनी थी कि प्रशासन के उच्च स्तरों और राजनीतिक ढाँचे में होने वाले परिवर्तनों से गाँव का दैनन्दिन जीवन अप्रभावित रहता था। यह इसलिए सम्भव हो सका था, क्योंकि गाँव पर्याप्त रूप से आत्मनिर्भर थे। आधुनिक पंचायतों की चोल कालीन स्थानीय प्रशासन से तुलना करना सार्थक एवं रुचिकर होगा।

प्रजातंत्र का संविधान 

उन राजाओं के जमाने में भी ग्राम प्रशासन में प्रजातंत्र का जो अनोखा उदाहरण मिलता है, उससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उन दिनों हमारी सामाजिक व्यवस्था कितनी सुसभ्य और उन्नत थी। बस अड्डे के पास ही एक शिव मंदिर है। उसकी दीवारों पर चारों तरफ हमारे संविधान की धाराओं की तरह ग्राम प्रशासन से संबंधित विस्तृत नियमावली उत्कीर्ण है जिसमें ग्राम सभा के सदस्यों के निर्वाचन विधि का भी उल्लेख मिलता है। इसे राजा परंतगा सुंदरा चोल ने अपने शासन के 14 वें वर्ष उत्कीर्ण करवाया था। उन दिनों ग्राम सभा के सदस्यों के निर्वाचन हेतु जो पद्धति अपनाई जाती थी। उसे “कुडमोलै पद्धति” कहा गया है। कूडम का अर्थ होता है मटका और ओलै ताड़ के पत्ते को कहते है। गाँव के केंद्र में कहीं एक बड़े मटके को रख दिया जाता था और नागरिक, उम्मेदवारों में से अपने पसंद के व्यक्ति का नाम एक ताड़ पत्र पर लिख कर मटके में डाल दिया करते थे। बाद में उसकी गणना होती थी और ग्राम सभा के सदस्यों का चुनाव हो जाया करता था। उत्कीर्ण अभिलेखों के आधार पर कहा जा सकता है कि ग्राम सभा की सदस्यता के लिए जो निर्धारित मानदंड थे वे हमें शर्मिंदा करते हैं। निर्वाचन में भाग लेने के लिए जो पात्रताएँ दर्शाई गई हैं वे निम्नानुसार हैं।

  1. प्रत्येक उम्मेदवार के पास एक चौथाई वेली (भूमि का क्षेत्र) कृषि भूमि का होना आवश्यक है।
  2. अनिवार्यतः उसके पास स्वयं का घर हो।
  3. आयु 35 या उससे अधिक परंतु 70 वर्ष से कम हो।
  4. मूल भूत शिक्षा प्राप्त किया हो और वेदों का ज्ञाता हो।
  5. पिछले तीन वर्षों में उस पद पर ना रहा हो।

ऐसे व्यक्ति ग्राम सभा के सदस्य नहीं बन सकते

  1. जिसने शासन को अपनी आय का ब्योरा ना दिया हो।
  2. यदि कोई भ्रष्ट आचरण का दोषी पाया गया हो तो उसके खुद के अतिरिक्त उससे रक्त से जुड़ा कोई भी व्यक्ति सात पीढ़ियों तक अयोग्य रहेगा।
  3. जिसने अपने कर ना चुकाए हों।
  4. गृहस्थ रह कर पर स्त्री गमन का दोषी।
  5. हत्यारा, मिथ्या भाषी और दारूखोर हो ।
  6. जिस किसी ने दूसरे के धन का हनन किया हो
  7. जो ऐसे भोज्य पदार्थ का सेवन करता हो जो मनुष्यों के खाने योग्य ना हो।

दण्ड का प्रावधान250px-Uthiramerur-ins

ग्राम सभा के सदस्यों का कार्यकाल वैसे तो 360 दिनों का ही रहता था परंतु इस बीच किसी सदस्य को अनुचित कर्मों के लिए दोषी पाए जाने पर बलपूर्वक हटाए जाने की भी व्यवस्था थी। उस समय के लोगों की प्रशासनिक एवं राजनीतिक सूजबूझ का अंदाज़ा इसी बात से लगता है कि लोक सेवकों के लिए वैयक्तिक तथा सार्वजनिक जीवन में आचरण के लिए आदर्श मानक निर्धारित थे। ग़लत आचरण के लिए जुर्माने की व्यवस्था बनाई गयी थी। जुर्माना ग्राम सभा ही लगाती थी और जिसे भी यह सज़ा मिलती, उसे दुष्ट कह कर पुकारा जाता। जुर्माने की राशि प्रशासक द्वारा उसी वित्तीय वर्ष में वसूलना होता था अन्यथा ग्राम सभा संज्ञान लेते हुए स्वयं मामले का निपटारा करती। जुर्माने की राशि के पटाने में देरी किए जाने पर विलंब शुल्क भी लगाया जाता था। निर्वाचित सदस्य भी ग़लतियों के लिए जुर्माने के भोगी बन सकते थे।

वहाँ से प्राप्त शिलालेखों से पता चलता है कि हर व्यवसाय को पारदर्शी बनाए रखने के लिए परीक्षण की व्यवस्था बनाई गयी थी। इसके लिए एक 10 सदस्यों वाली समिति होती थी जो सत्यापित करती थी। 3 माह में एक बार ग्राम सभा के सम्मुख उपस्थित होकर इस समिति को शपथ लेना होता था कि उन्होंने कोई भ्रष्ट आचरण नहीं किया है। इसी तरह अलग अलग कार्यों के लिए समितियों का गठन किया जाता था जैसे, जल आपूर्ति, उद्यान तथा वानिकी, कृषि उन्नयन आदि आदि और ऐसे हर समिति के लिए अलग से दिशा निर्देश भी दिए गये है। सार्वजनिक विद्यालयों में व्याख्यताओं की नियुक्ति के भी नियम थे। अनिवार्य रूप से वे शास्त्रों, वेदों आदि के ज्ञाता रहते थे, और सदैव बाहर से ही बुलाए जाते थे।

मन्दिर की दीवारों से मिले शिलालेख 250px-Inscription-Uthiramarur

उत्तिरमेरूर के मन्दिर की दीवार पर खुदा लेख विस्तारपूर्वक बताता है कि स्थानीय ‘सभा’ किस प्रकार कार्य करती थी। यह लेख दसवीं शताब्दी का है। इसमें लिखा है:

तीस हलके होंगे। इन तीस हलकों में प्रत्येक हलके के निवासी एकत्रित होंगे और इनमें से ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को चुनेंगे जिनमें लाटरी द्वारा चुने जाने के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ होंगी:

  • उसके पास एक-चौथाई अधिक देने योग्य भूमि हो। वह अपनी ही भूमि पर बने हुए मकान में रहता हो। उसकी आयु सत्तर वर्ष से कम और पैंतीस वर्ष से अधिक हो। वह मंत्रों और ब्रह्मणों का ज्ञान रखता हो।

यदि वह भूमि के केवल आठवें भाग का स्वामी हो तो भी उसका नाम सम्मिलित कर लिया जाएगा बशर्ते कि उसने एक वेद और चारों भाष्यों में एक कंठस्थ किया हो। इन योग्यताओं को रखने वालों में से केवल वे व्यक्ति लिए जाएँगे जो सभा इत्यादि की कार्यवाहियों से परिचित और सच्चरित्र हैं। जो ईमानदार से अपनी आजीविका कमाता है, जिसका मन पवित्र है तथा जो अंतिम तीन वर्षों में किसी भी समिति का सदस्य नहीं रहा है वह भी चुना जाएगा। जो किसी भी समिति का सदस्य तो रहा है परंतु जिसने अपना हिसाब नहीं दिया है वह और उसके निम्नलिखित संबंधी टिकटों पर अपना नाम लिखवाने के अधिकार नहीं होंगे:

उसकी छोटी तथा बड़ी मौसियों के पुत्र।
उसकी बुआ तथा मामा के पुत्र।
उसके पिता का सहोदर भाई।
उसके माता का सहोदर भाई।
उसका सहोदर भाई।
उसका श्वसुर।
उसकी पत्नी का सहोदर भाई।
उसकी सहोदर बहिन के पुत्र।
उसकी सहोदर बहिन का पति।
उसका जामाता।
उसका पिता।
उसका पुत्र।

  • वह व्यक्ति भी टिकट पर नाम लिखवाने का अधिकारी नहीं होगा जिसके विरुद्ध निकट संबंधी से व्यभिचार अथवा पाँच महापापों में चार महापाप दर्ज हों। (यह पाँच महापाप हैं: ब्रह्महत्या, मदिरापान, चोरी, व्यभिचार, तथा अपरधियों का संग)। उसके उपरोक्त सभी संबंधी लाटरी द्वारा नहीं चुने जा सकेंगे। जो निम्न लोगों की संगति के कारण अस्पृश्य हो गया है वह उस समय तक नहीं चुना जाएगा।

जब तक कि वह प्रायश्चित नहीं कर लेता।250px-Uthiramerur-inscription
जो दु:साहसी है…..
जिसने दूसरों की सम्पत्ति चुराई है……
जिसने वर्जित भोजन किया है……
जिसने पाप किया है और जिसे शुद्धि के लिए प्रायश्चित करना पड़ा है…….

  • इन सबको छोड़कर तीस वार्डों के लिए टिकटों पर नाम लिखे जाएँगे और इन बारह गलियों में प्रत्येक वार्ड तीस वार्डों के लिए टिकटों के अलग-अलग पैकेट तैयार करेगा। ये पैकेट एक घड़े में रख दिये जाएँगे। टिकट निकाले जाने के समय युवा और वृद्ध सदस्यों सहित महासभा की पूरी बैठक बुलाई जाएगी। मन्दिरों के समस्त पुरोहित जो उस दिन उस ग्राम में होंगे, बिना किसी अपवाद के, उस भीतरी हॉल में बिठाए जाएँगे, जहाँ महासभा की बैठक होगी।

    उत्तिरमेरूर मन्दिर पर अभिलेख

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  • मन्दिर के पुरोहितों में सबसे वयोवृद्ध व्यक्ति खड़ा होकर घड़ा ऊपर उठाएगा ताकि सब लोग उसे देख सकें। निकट खड़े हुए किसी लड़के द्वारा-जो यह नहीं जानता कि इसमें से एक टिकट निकालकर पंच नियुक्त किया जाएगा। इस प्रकार दिए गए टिकट को पंच अपनी खुली हथेली पर प्राप्त करेगा। वह इस टिकट को पढ़कर सुनाएगा। फिर उस कक्ष में उपस्थित टिकट को पढ़ेंगे। इस प्रकार पढ़ा गया नाम स्वीकार कर लिया जाएगा। इसी प्रकार तीस हलकों में से प्रत्येक के लिए एक-एक व्यक्ति चुना जाएगा।
  • इस प्रकार चुने गए तीस व्यक्तियों में से जो उपवन समिति या जलाशय समिति पर रह चुके होंगे, और जो ज्ञानवान तथा अनुभवी होंगे, वे वार्षिक समिति के लिए चुने जाएँगे। शेष में से बारह उपवन समिति के लिए चुने जाएँगे और छह जलाशय समिति के लिए। इन समितियों के महान व्यक्ति पुरे 360 दिन तक पदाधिकारी रहकर अवकाश ग्रहण करेंगे। इस कमेटी का कोई सदस्य यदि किसी अपराध के लिए दोषी पाया गया तो उसे तत्काल अपने पद से हटा दिया जाएगा। इनके अवकाश ग्रहण के पश्चात समिति नियुक्त करने के लिए बारह गलियों की न्याय निरीक्षण समिति नियुक्त की जाएगी।
  • पंच-सूत्री समिति और स्वर्ण-समिति नियुक्त के लिए तीसों वार्डों में घड़े के टिकट के लिए नाम लिखे जाएँगे (प्रणाली वही होगी)। जो गधे पर चढ़ चुका है (अर्थात् जो दंडित हो चुका है) अथवा जिसने जालसाजी की है वह सम्मिलित नहीं किया जाएगा। कोई पंच जो ईमानदारी से आजीविका कमाता है, वह गाँव का लेखा- जोखा रखेगा। इस पद के लिए तब तक कोई लिखाकर पुन: नियुक्त नहीं किया जाएगा, जब तक कि वह मुख्य समिति के महान पुरूषों को अपना हिसाब प्रस्तुत नहीं कर देता और वह ईमानदार घोषित नहीं कर दिया जाता। जो हिसाब वह लिखता रहा है, उसे वह स्वयं पूरा करेगा और इसके लिए अन्य कोई व्यक्ति नहीं चुना जाएगा। इस प्रकार इस वर्ष से आगे जब तक चाँद और सूर्य चमकते रहेंगे, समितियाँ सदैव लाटरी से नियुक्ति की जाया करेंगी हम, उत्तिरमेरूर की सभा ‘चतुर्वेदीमंगलम’ ने अपने ग्राम की समृद्धि के लिए यह व्यवस्था की है ताकि दुष्ट लोगों का नाश हो और शेष समृद्ध हों। इस सभा में बैठे हुए महान व्यक्तियों के आदेश से, मैंने, पंच कदादीपोत्तन शिवक्कुरी राज मल्लमंगलप्रिय ने इस प्रकार की व्यव्स्था लिखी है।

दूसरे शिलालेख में भी प्राय: इसी प्रणाली का उल्लेख है, लेकिन योग्यताओं, अपेक्षाओं, स्वीकृत व्यय की तादाद में थोड़ा अंतर है। महासभा की बैठक नगाड़ा बजाकर बुलाई जाती थी और यह बैठक साधारणतया मन्दिर के अहाते में होती थी। इन ग्राम सभाओं में परस्पर सहकार सहयोग एक आम बात थी।

भद्राचलम

भद्राचलम भगवान श्रीराम से जुड़ा और हिन्दुओं की आस्था का एक प्रमुख धार्मिक स्थल है, जो आन्ध्र प्रदेश के खम्मम ज़िले में स्थित है। इस पुण्य क्षेत्र को “दक्षिण की अयोध्या” भी कहा जाता है। यह स्थान अगणित भक्तों का श्रद्धा केन्द्र है। मान्यता है कि यह वही स्थान है, जहाँ राम ने पर्णकुटी बनाकर वनवास का लंबा समय व्यतीत किया था। भद्राचलम से कुछ ही दूरी पर स्थित ‘पर्णशाला’ में भगवान श्रीराम अपनी पर्णकुटी बनाकर रहे थे। यहीं पर कुछ ऐसे शिलाखंड भी हैं, जिनके बारे में यह विश्वास किया जाता है किसीताजी ने वनवास के दौरान यहाँ वस्त्र सुखाए थे। एक विश्वास यह भी किया जाता है कि रावण द्वारा सीताजी का अपहरण भी यहीं से हुआ था।11044501_586448088157574_2545314441446229291_n

भद्राचलम की एक विशेषता यह भी है कि यह वनवासी बहुल क्षेत्र है और राम वनवासियों के पूज्य हैं। वनवासी भी परंपरागत रूप से भद्राचलम को अपना आस्था का केन्द्र मानते हैं और ‘रामनवमी‘ को भारी संख्या में यहाँ राम के सुप्रसिद्ध मंदिर में दर्शन के लिए आते हैं। वनवासी बहुल क्षेत्र होने के कारण ‘ईसाई मिशनरी‘ यहाँ मतांतरण षड्यंत्र चलाने की कोशिश में वर्षों जुटे रहे, किंतु कई प्रयासों के बाद भी यहाँ उनका मतांतरण जोर नहीं पकड़ पाया। स्थानीय वनवासी उनका प्रखर विरोध भी करते रहे हैं।

यहाँ के मंदिर के आविर्भाव के विषय में एक जनश्रुति वनवासियों से जुड़ी हुई है। इसके अनुसार, एक राम भक्त वनवासी महिला दम्मक्का भद्रिरेड्डीपालेम ग्राम में रहा करती थी। इस वृद्धा ने राम नामक एक लड़के को गोद लेकर उसका पालन-पोषण किया। एक दिन राम वन में गया और वापस नहीं लौटा। पुत्र को खोजते-खोजते दम्मक्का जंगल में पहुँच गई और “राम-राम” पुकारते हुए भटकने लगी। तभी उसे एक गुफ़ा के अंदर से आवाज़ आई कि “माँ, मैं यहाँ हूँ”। खोजने पर वहाँ सीता, राम और लक्ष्मण की प्रतिमाएँ मिलीं। उन्हें देखकर दम्मक्का भक्ति भाव से सराबोर हो गई। इतने में उसने अपने पुत्र को भी सामने खड़ा पाया। दम्मक्का ने उसी जगह पर देव प्रतिमाओं की स्थापना का संकल्प लिया और बाँस की छत बनाकर एक अस्थाई मंदिर बनाया। धीरे-धीरे स्थानीय वनवासी समुदाय ‘भद्रगिरि’ या ‘भद्राचलम’ नामक उस पहाड़ी पर श्रीराम की पूजा करने लगे। आगे चलकर भगवान ने भद्राचलम को वनवासियों-नगरवासियों के मिलन हेतु एक सेतु बना दिया।

मंदिर का निर्माण

गोलकुंडा का क़ुतुबशाही नवाब अबुल हसन तानाशाह था, किंतु उसकी ओर से भद्राचलम के तहसीलदार के नाते नियुक्त कंचली गोपन्ना ने कालांतर में उस बाँस के मंदिर के स्थान पर भव्य मंदिर बनाकर उस क्षेत्र को धार्मिक जागरण का महत्त्वपूर्ण केन्द्र बनाने का प्रयास किया। कर वसूली से प्राप्त धन से उसने एक विशाल परकोटे के भीतर भव्य राम मंदिर बनवाया, जो आज भी आस्था के अपूर्व केन्द्र के रूप में स्थित है। गोपन्ना ने भक्ति भाव से सीता, श्रीराम व लक्ष्मण जी के लिए कटिबंध, कंठमाला, माला एवं मुकुट मणि भी बनवा कर अर्पित की। उन्होंने राम की भक्ति में कई भजन भी लिखे, इसी कारण लोग उन्हें रामदास कहने लगे।

रामदास विदेशी अक्रमण के ख़िलाफ़ देश में ‘भक्ति आंदोलन‘ से जुड़े हुए थे। कबीर रामदास के आध्यात्मिक गुरु थे और उन्होंने रामदास को ‘रामानंदी संप्रदाय’ की दीक्षा दी थी। रामदास के कीर्तन घर-घर में गाए जाते थे और तानाशाही राज के विरोध में खड़े होने की प्रेरणा देते थे। आज भी हरिदास नामक घुमंतु प्रजाति भक्त रामदास के कीर्तन गाते हुए राम भक्ति का प्रचार करती दिखाई देती है। लेकिन रामदास का यह धर्म कार्य तानाशाह को नहीं भाया और उसने रामदास को गोलकुंडा क़िले में क़ैद कर दिया। आज भी हैदराबाद स्थित इस क़िले में वह कालकोठरी देखने को मिलती है, जहाँ रामदास को बन्दी बनाकर रखा गया था।

बृहदेश्वर मन्दिर

बृहदेश्वर अथवा बृहदीश्वर मन्दिर तमिलनाडु के तंजौर में स्थित एक हिंदू मंदिर है जो 11वीं सदी के आरम्भ में बनाया गया था। इसे तमिल भाषा में बृहदीश्वर के नाम से जाना जाता है। इसका निर्माण 1003-1010 ई. के बीच चोल शासक राजाराज चोल १ ने करवाया था। उनके नाम पर इसे राजराजेश्वर मन्दिर का नाम भी दिया जाता है। यह अपने समय के विश्व के विशालतम संरचनाओं में गिना जाता था। इसके तेरह (13) मंजिले भवन (सभी हिंदू अधिस्थापनाओं में मंजिलो की संख्या विषम होती है।) की ऊंचाई लगभग 66 मीटर है। मंदिर भगवान शिव की आराधना को समर्पित है।

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यह कला की प्रत्येक शाखा – वास्तुकला, पाषाण व ताम्र में शिल्पांकन, प्रतिमा विज्ञान, चित्रांकन, नृत्य, संगीत, आभूषण एवं उत्कीर्णकला का भंडार है। यह मंदिर उत्कीर्ण संस्कृततमिल पुरालेख सुलेखों का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इस मंदिर के निर्माण कला की एक विशेषता यह है कि इसके गुंबद की परछाई पृथ्वी पर नहीं पड़ती। शिखर पर स्वर्णकलश स्थित है। जिस पाषाण पर यह कलश स्थित है, अनुमानत: उसका भार 2200 मन (80 टन) है और यह एक ही पाषाण से बना है। मंदिर में स्थापित विशाल, भव्य शिवलिंग को देखने पर उनका वृहदेश्वर नाम सर्वथा उपयुक्त प्रतीत होता है।

मंदिर में प्रवेश करने पर गोपुरम्‌ के भीतर एक चौकोर मंडप है। वहां चबूतरे पर नन्दी जी विराजमान हैं। नन्दी जी की यह प्रतिमा 6 मीटर लंबी, 2.6 मीटर चौड़ी तथा 3.7 मीटर ऊंची है। भारतवर्ष में एक ही पत्थर से निर्मित नन्दी जी की यह दूसरी सर्वाधिक विशाल प्रतिमा है। तंजौर में अन्य दर्शनीय मंदिर हैं- तिरुवोरिर्युर, गंगैकोंडचोलपुरम तथा दारासुरम्‌।

300px-वृहदेश्वर_मंदिर2अंदर का गोपुरम् – वृहदेश्वर मंदिर

पुरुषोत्तम मास की उत्पत्ति कथा

पुरुषोत्तम मास की उत्पत्ति कथा –
हर वैष्णव को यह पढना ही चाहिये***
प्रत्येक राशि, नक्षत्र, करण व चैत्रादि बारह मासों के सभी के स्वामी है, परन्तु मलमास का कोई स्वामी नही है. इसलिए देव कार्य, शुभ कार्य एवं पितृ कार्य इस मास में वर्जित माने गये है.
इससे दुखी होकर स्वयं मलमास(अधिक मास) बहुत नाराज व उदास रहता था, इसी कारण सभी ओर उसकी निंदा होने लगी. मलमास को सभी ने असहाय, निन्दक, अपूज्य तथा संक्रांति से वर्जितकहकर लज्जित किया. अत: लोक-भत्र्सना से चिन्तातुर होकर अपार दु:ख समुद्र में मग्न हो गया. वह कान्तिहीन, दु:खों से युक्त, निंदा से दु:खी होकर मल मास भगवान विष्णु के पास वैकुण्ठ लोक में पहुंचा.
और मलमास बोला –
हे नाथ, हे कृपानिधे! मेरा नाम मलमास है. मैं सभी से तिरस्कृत होकर यहां आया हूं. सभी ने मुझे शुभ-कर्म वर्जित, अनाथ और सदैव घृणा-दृष्टि से देखा है. संसार में सभी क्षण, लव, मुहूर्त, पक्ष, मास, अहोरात्र आदि अपने-अपने अधिपतियों के अधिकारों से सदैव निर्भय रहकर आनन्द मनाया करते हैं.
मैं ऐसा अभागा हूं जिसका न कोई नाम है,न स्वामी, न धर्म तथा न ही कोई आश्रम है. इसलिए हे स्वामी, मैं अब मरना चाहता हूं.’ ऐसा कहकर वह शान्त हो गया.
तब भगवान विष्णु मलमास को लेकर गोलोक धाम गए. वहां भगवान श्रीकृष्ण मोरपंख का मुकुट व वैजयंती माला धारण कर स्वर्णजडि़त आसन पर बैठेथे. गोपियों से घिरे हुए थे.भगवान विष्णु ने मलमास को श्रीकृष्ण के चरणों में नतमस्तक करवाया व कहा – कि यह मलमास वेद-शास्त्र के अनुसार पुण्य कर्मों के लिए अयोग्य माना गया है
इसीलिए सभी इसकी निंदा करते हैं.
तब श्रीकृष्ण ने कहा – हे हरि! आप इसका हाथ पकड़कर यहां लाए हो. जिसे आपने स्वीकार किया उसे मैंने भी स्वीकार कर लिया है. इसे मैं अपने हीसमान करूंगा तथा गुण, कीर्ति, ऐश्वर्य, पराक्रम, भक्तों को वरदान आदि मेरे समान सभी गुण इसमें होंगे. मेरे अन्दर जितने भी सदॄगुण है, उन सभी को मैंमलमास में तुम्हे सौंप रहा हूँ मैं इसे अपना नाम ‘पुरुषोत्तम’ देता हूं और यह इसी नाम से विख्यात होगा.यह मेरे समान ही सभी मासों का स्वामी होगा. कि अब से कोई भी मलमास की निंदा नहीं करेगा. मैं इस मास का स्वामी बन गया हूं. जिस परमधाम गोलोक को पाने के लिए ऋषि तपस्या करते हैं वहीदुर्लभ पद पुरुषोत्तम मास में स्नान, पूजन, अनुष्ठान व दान करने वाले को सरलता से प्राप्त हो जाएंगे.इस प्रकार मल मास पुरुषोत्तम मास के नाम से प्रसिद्ध हुआ.यह मेरे समान ही सभी मासों का स्वामी होगा. अब यह जगत को पूज्य व नमस्कार करने योग्य होगा.यह इसे पूजने वालों के दु:ख-दरिद्रता का नाश करेगा. यह मेरे समान ही मनुष्यों को मोक्ष प्रदान करेगा. जो कोई इच्छा रहित या इच्छा वाला इसे पूजेगा वह अपने किए कर्मों को भस्म करके नि:संशय मुझ कोप्राप्त होगा.सब साधनों में श्रेष्ठ तथा सब काम व अर्थ का देने वाला यह पुरुषोत्तम मास स्वाध्याय योग्य होगा. इस मास में किया गया पुण्य कोटि गुणा होगा.जो भी मनुष्य मेरे प्रिय मलमास का तिरस्कार करेंगेऔर जो धर्म का आचरण नहीं करेंगे, वे सदैव नरक के गामी होंगे. अत: इस मास में स्नान, दान, पूजा आदि का विशेष महत्व होगा.इसलिए हे रमापते! आप पुरुषोत्तम मास को लेकर बैकुण्ठ को जाओ.’इस प्रकार बैकुण्ठ में स्थित होकर वह अत्यन्त आनन्द करने लगा तथा भगवान के साथ विभिन्न क्रीड़ाओं में मग्न हो गया. इस प्रकार श्रीकृष्ण ने मन से प्रसन्न होकर मलमास को बारह मासों में श्रेष्ठ बना दिया तथा वह सभी का पूजनीय बन गया. अत: श्रीकृष्ण से वर पाकर इस भूतल पर वह पुरुषोत्तम नाम से विख्यात हुआ.इस साल अधिकमास (मलमास) पड़ने के कारण लगभग सभी व्रत और त्योहार आम सालों की अपेक्षा कुछ जल्दी पड़ेंगे. २०१५ में अधिकमास अर्थात पुरुषोत्तममास के कारण दो आषाढ़ होंगे |
|| जय पुरुषोत्तम भगवान ||
।। राधे राधे ।।

विवाह का उद्देश्य

हिन्दु समाज में विवाह एक संस्कार है , जिसका उद्देश्य पवित्र और धार्मिक है। विवाह के माध्यम से ही मनुष्य अपने कर्त्तव्योँ और उत्तरदायित्वों का पालन करता है।

हिन्दू समाज में धर्म का बहुत महत्व है। बिना पत्नी के व्यक्ति का कोई भी धार्मिक कार्य पूरा नहीं माना जाता है अत: सभी धार्मिक कार्योँ मे पत्नी की उपस्थिति आवश्यक है। यज्ञो को सम्पन्न करने मे मनुष्य के साथ उसकी पत्नी का होना अनिवार्य है। पदमपुराण के अनुसार गुणवती सहधर्मिणी पत्नी को त्याग कर जो व्यक्ति धार्मिक कार्य करता है, उसका समस्त धर्म निष्फल हो जाता है। धर्म , अर्थ , काम और पुत्र की प्राप्ति पति – पत्नी दोनो के संयोग से होती है।

विवाह का दूसरा उद्देश्य है पुत्र की प्राप्ति। ऋगवेद से ज्ञात होता है कि विवाह सम्पन्न होने पर पुरोहित वर- वधू को अनेक पुत्र पैदा करने का आशीर्वाद देता था। हिन्दू समाज मे पुत्र का महत्त्व बहुत अधिक है। पुत्र उत्पन्न होने से पिता अमर बनता है और पुत्र से ऋण मुक्त होता है। हिन्दु समाज मे व्यक्ति का जीवन विभिन्न ऋणो से दबा रहता है। देव ऋण , पित्र ऋण , ऋषि ऋण आदि का ऋण चुकाने के लिए पुत्र की उत्पत्ति जरूरी है। पुत्र से पिता का नाम, वंश, परिवार और समाज चलता है।

विवाह का अन्तिम उद्देश्य यौन सुख भी है क्योंकि यौन सन्तुष्टि से व्यक्ति का मानसिक और शारीरिक सन्तुलन बना रहता है तथा वह स्वस्थ और सच्चरित्र आधार पर समाज का निर्माण करता है। यौन संतुष्टि की इच्छा की पूर्ति के लिए विवाह एक सुसभ्य माध्यम है। वैदिक युग मे सम्भोग को आनन्द की पराकाष्ठा माना गया है। यौन सम्बन्धो को तीसरा स्थान दिया गया है इससे साफ है कि यह विवाह का कम अपेक्षित उद्देश्य है। विवाह का उद्देश्य मनुष्य को शालीन और सदाचारी बनाना है तथा उसे नियमित और नियंत्रित करना है।

विवाह के प्रकार

धर्मशास्त्रकारो ने हिन्दू विवाह के आठ प्रकारो की चर्चा की है।
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1. ब्रह्म विवाह –
धर्मशास्त्र मे ब्रह्म विवाह को उत्तम कोटि का माना गया है। इस विवाह के अन्तर्गत पिता शीलवान और विद्वान वर को आमंत्रित करके, कन्या को वस्त्र एवं आभुषण से सुसज्जित करके दान करता था। इस सम्बन्ध मे आपस्तम्ब का मत है कि ब्रह्म विवाह मे वर के कुल आचरण, धर्म मे आस्था, विद्या, स्वास्थय आदि के विषय मे जानकारी प्राप्त कर अपनी शक्ति के अनुसार कन्या को आभूषणो से सजाकर प्रजा की उपस्थिति तथा एक साथ धर्म कर्म करने के प्रयोजन से कन्या प्रदान करे।

  1. दैव विवाह –
    अपनी कन्या का विवाह करने के लिए पिता एक यज्ञ का आयोजन करता था। जो व्यक्ति उस यज्ञ को विधिपूर्वक सम्पन्न कर लेता था, उसी से उस कन्या का विवाह किया जाता था, जो सम्भवत: दक्षिणा के रूप मे विवाह के लिए प्रदान की जाती थी। मनु के अनुसार ज्योतिष्टोमादि यज्ञ मे विधिपूर्वक कर्म करते हुए ऋत्विज के लिए वस्त्र और अलंकारयुक्त कन्या का दान करना दैव विवाह है।
  2. आर्ष विवाह –
    जब कन्या का पिता धर्म कार्य की सिद्धि के लिए वर से एक बैल और एक गाय अथवा इनकी दो जोड़ी ऋषियो लेकर कन्यादान करता था, तब वह आर्ष विवाह कहलाता था। प्राय: सभी माता पिता अपनी कन्या का विवाह ऋषियो से करना चाहते थे, किन्तु ऋषियो की उदासीनता से वे मौन हो जाया करते थे। फलत: कन्या का पिता विवाह के प्रति इच्छुक ऋषि से एक गाय या बैल अथवा इनके जोङे लेता था ताकि यह प्रमाणित हो जाय कि अब ऋषि विवाह के लिए उत्सुक है। अत: वर से प्राप्त वह उपहार कन्या का मूल्य नही बल्कि भेंट होता था। शल्य ने अपनी बहन माद्री के विवाह के लिए कुल प्रथा के अनुसार अत्यन्त संकोच के साथ भीम से विक्रय मूल्य ग्रहण किया था किन्तु यह कन्या विक्रय नही था बल्कि पूर्वगामी परम्परा का निर्वाह मात्र था।

  3. प्रजापत्य –
    इस विवाह के अन्तर्गत वर की विधिपूर्वक पूजा करके कन्या का दान किया जाता था तथा वर वधू को यह निर्देश दिया जाता था कि गृहस्थ जीवन मे दोनो मिलकर जीवन पर्यन्त धर्माचरण करे|जीवन पर्यन्त पत्नी के साथ धर्म की वृद्धि की कामना करना, बिना पत्नी की अनुमति के दूसरा विवाह न करना तथा पारिवारिक जीवन की स्वस्थता, प्रजापत्य विवाह का मूल आधार थी। प्रजापति शब्द से प्रजापत्य बना है जो इस बात का प्रमाण है कि वर वधू प्रजापति के प्रति अपने ऋण अर्थात् सन्तान उत्पन्न करने और उसके पालन पोषण के उत्तरदायित्व का भली प्रकार से निर्वाह करे। आज हिन्दु समाज मे जो विवाह प्रकार प्रचलित है, वे प्रजापत्य विवाह के ही विकसित रूप हैं।

5.आसुर विवाह –
जब कन्या के माता पिता कन्या प्रदान करने के बदले मे वर से धन लेते है तो यह आसुर विवाह कहा जाता है। मनु का कथन है कि जाति वालो (कन्या के पिता, चाचा आदि) को कन्या के लिए यथाशक्ति धन देकर स्वेच्छा से कन्या स्वीकार करना आसुर विवाह है। महाभारत मे कहा गया है कि धन से कन्या को खरीदकर और उसके सम्बन्धियो को धन देकर जो विवाह सम्पन्न किया जाता है, विद्वान उसे आसुर धर्म कहते है। भीष्म ने पाण्डु का दूसरा विवाह भद्र नरेश को अपार धन कन्या के क्रय मूल्य के रूप मे प्रदान करके किया था। एक जातक से ज्ञात होता है कि उदय भद्दा नामक स्त्री ने कहा था कि मनुष्य अपार धन व्यय कर स्त्री प्राप्त कर सकता था।
साधारणत: ऐसी विवाह-पद्धति हिन्दुओ मे आदर की दृष्टि से नही देखी जाती थी। बौधायन ने मूल्य देकर खरीदी गई स्त्री को वैध पत्नी नही माना है। मनु का कथन है कि कन्यादान करता हुआ शूद्र भी कन्या का मूल्य न ले क्योकि ऐसा करने वाला कन्या बेचने वाला होता है। पद्मपुराण के अनुसार बुद्धिमान व्यक्ति कन्या बेचने वाले का मुख न देखे, यदि अज्ञान से उसका मुख देख ले तो सूर्य का दर्शन कर उस पाप से मुक्ति प्राप्त करे।

6.गान्धर्व विवाह –

जब युवक युवती परस्पर प्रेमवश काम के वशीभूत होकर अपने माता पिता की उपेक्षा करके विवाह कर ले तब वह विवाह गान्धर्व विवाह कहा जाता है। मनु ने कन्या और वर के इच्छानुसार कामुकतावश संयुक्त होने को गान्धर्व विवाह कहा है। यह प्रेम विवाह का सूचक है जो हिन्दु समाज मे वैदिक काल से लेकर आज तक विद्यमान है। वैदिक काल मे कन्याएँ प्राय: समारोहो मे अपने पति स्वयं चुन लेती थी। दुष्यन्त और शकुन्तला का विवाह गान्धर्व विवाह का उदाहरण है। एक जातक से ज्ञात होता है कि वाराणसी के आचार्य के एक शिष्य का स्थानीय युवती से प्रेम हो जाने पर उससे विवाह कर लिया। पुरुरवा और उर्वशी का प्रेम विख्यात है। शतरूपा ने प्रेम के वशीभूत होकर मनु को पति के रूप मे स्वीकार किया था। भवभूति ने मालती विवाह नामक नाटक मे गान्धर्व विवाह का उल्लेख किया है। मनु के अनुसार गान्धर्व विवाह सभी वर्गोँ के लिए धर्मसम्मत था और वात्स्यायन के अनुसार तो यही विवाह अनुरागमय, सुखद और सर्वश्रेष्ठ था।

  1. राक्षस विवाह-
    बल प्रयोग (युद्ध और संघर्ष के माध्यम) द्वारा किसी कन्या का अपहरण करके विवाह करना राक्षस विवाह था। मनु के अनुसार कन्या पक्ष वालो को मार मारकर अथवा उनको घायल करके घर के द्वार आदी को तोङकर तथा रोती चिल्लाती कन्या का अपहरण करके लाना राक्षस विवाह है।
    यह विवाह क्रुरता और निर्दयता पर आधारित था, इसलिए इसे राक्षस विवाह कहा गया। शक्ति और बल का प्रदर्शन केवल क्षत्रिय कर सकते थे, अत: यह विवाह उन्ही के लिए सुखद था। अपह्रत कन्या को पूर्णत अविवाहित कहा गया है और दूसरे के साथ उसका विवाह होना समुचित माना गया है। ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि पुरुमित्र की पुत्री कमद्यु का विमद ने अपहरण किया था। काशी नरेश को पराजित करके भीष्म ने उसकी कन्या से अपने अनुज विचित्रवीर्य का विवाह किया था। श्रीकृष्ण ने रुक्मी को पराजित कर उसकी पुत्री रुक्मिणी से शादी की थी। पूर्व मध्य युग मे भी पथ्वीराज चौहान और संयोगिता का विवाह इसी आधार पर हुआ था।

8.पैशाच विवाह –
सोती हुई, मदहोश, उन्मत्त, मदिरापान की हुई अथवा मार्ग मे जाती हुई कन्या को जब व्यक्ति कामयुक्त होकर अपनाता है। तब वह विवाह पैशाच विवाह कहलाता है।
स्मृतियो ने इस विवाह की कटु निन्दा की है, याज्ञवल्क्य ने भी छल और कपट पर आधारित बताया है। शास्त्रकारो ने इस विवाह प्रथा को उत्तम नही माना परन्तु विवाह प्रकारो मे इसे ग्रहण कर लिया। कुछ धर्मशास्त्रकार जैसे आपस्तम्ब और वशिष्ठ आदि ने अपने धर्मसूत्रो मे इस विवाह प्रकार को स्थान नही दिया है। ऐसा लगता है कि वे ऐसे विवाह के बिल्कुल विरुद्ध थे।
वस्तुत: यह विवाह प्रणाली आदिकालीन है। यह सही है कि ऐसे विवाह का सम्बन्ध असभ्य और असंस्कृत जातियो से अधिक था, किन्तु बाद मे शक्तिशाली और पराक्रमी जातियो ने इसे प्रोत्साहन दिया।

योग का इतिहास

योग का उपदेश सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने सनकादिकों को, पश्चात विवस्वान (सूर्य) को दिया। बाद में यह दो शाखाओं में विभक्त हो गया। एक ब्रह्मयोग और दूसरा कर्मयोग। ब्रह्मयोग की परम्परा सनक, सनन्दन, सनातन, कपिल, आसुर‍ि, वोढु और पच्चंशिख नारद-शुकादिकों ने शुरू की थी। यह ब्रह्मयोग लोगों के बीच में ज्ञान, अध्यात्म और सांख्‍य योग नाम से प्रसिद्ध हुआ।
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दूसरी कर्मयोग की परम्परा विवस्वान की है। विवस्वान ने मनु को, मनु ने इक्ष्वाकु को, इक्ष्वाकु ने राजर्षियों एवं प्रजाओं को योग का उपदेश दिया। उक्त सभी बातों का वेद और पुराणों में उल्लेख मिलता है। वेद को संसार की प्रथम पुस्तक माना जाता है जिसका उत्पत्ति काल लगभग 10000 वर्ष पूर्व का माना जाता है। पुरातत्ववेत्ताओं अनुसार योग की उत्पत्ति 5000 ईपू में हुई। गुरु-शिष्य परम्परा के द्वारा योग का ज्ञान परम्परागत तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा।

भारतीय योग जानकारों के अनुसार योग की उत्पत्ति भारत में लगभग 5000 वर्ष से भी अधिक समय पहले हुई थी। योग की सबसे आश्चर्यजनक खोज 1920 के शुरुआत में हुई। 1920 में पुरातत्व वैज्ञानिकों ने ‘सिंधु सरस्वती सभ्यता’ को खोजा था जिसमें प्राचीन हिंदू धर्म और योग की परंपरा होने के सबूत मिलते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता को 3300-1700 बी.सी.ई. पूराना माना जाता है।

‘यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन। स धीनां योगमिन्वति।।-ऋक्संहिता, मंडल-1, सूक्त-18, मंत्र-7। अर्थात- योग के बिना विद्वान का भी कोई यज्ञकर्म सिद्ध नहीं होता। वह योग क्या है? योग चित्तवृत्तियों का निरोध है, वह कर्तव्य कर्ममात्र में व्याप्त है।

स घा नो योग आभुवत् स राये स पुरं ध्याम। गमद् वाजेभिरा स न:।।- ऋ. 1-5-3 अर्थात वही परमात्मा हमारी समाधि के निमित्त अभिमुख हो, उसकी दया से समाधि, विवेक, ख्याति तथा ऋतम्भरा प्रज्ञा का हमें लाभ हो, अपितु वही परमात्मा अणिमा आदि सिद्धियों के सहित हमारी ओर आगमन करे।

उपनिषद में इसके पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं। कठोपनिषद में इसके लक्षण को बताया गया है- ‘तां योगमित्तिमन्यन्ते स्थिरोमिन्द्रिय धारणम्’

योगाभ्यास का प्रामाणिक चित्रण लगभग 3000 ई.पू. सिन्धु घाटी सभ्यता के समय की मोहरों और मूर्तियों में मिलता है। योग का प्रामाणिक ग्रंथ ‘योगसूत्र’ 200 ई.पू. योग पर लिखा गया पहला सुव्यवस्थित ग्रंथ है। हिंदू, जैन और बौद्ध धर्म में योग का अलग-अलग तरीके से वर्गीकरण किया गया है। इन सबका मूल वेद और उपनिषद ही रहा है।

वैदिक काल में यज्ञ और योग का बहुत महत्व था। इसके लिए उन्होंने चार आश्रमों की ‍व्यवस्था निर्मित की थी। ब्रह्मचर्य आश्रम में वेदों की शिक्षा के साथ ही शस्त्र और योग की शिक्षा भी दी जाती थी। ऋग्वेद को 1500 ई.पू. से 1000 ई.पू. के बीच लिखा गया माना जाता है। इससे पूर्व वेदों को कंठस्थ कराकर हजारों वर्षों तक स्मृति के आधार पर संरक्षित रखा गया।

भारतीय दर्शन के मान्यता के अनुसार वेदों को अपौरुषेय माना गया है अर्थात वेद परमात्मा की वाणी हैं तथा इन्हें करीब दो अरब वर्ष पुराना माना गया है। इनकी प्राचीनता के बारे में अन्य मत भी हैं। ओशो रजनीश ऋग्वेद को करीब 90 हजार वर्ष पुराना मानते हैं। 563 से 200 ई.पू. योग के तीन अंग तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान का प्रचलन था। इसे क्रिया योग कहा जाता है।

जैन और बौद्ध जागरण और उत्थान काल के दौर में यम और नियम के अंगों पर जोर दिया जाने लगा। यम और नियम अर्थात अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप और स्वाध्याय का प्रचलन ही अधिक रहा। यहाँ तक योग को सुव्यवस्थित रूप नहीं दिया गया था।

पहली दफा 200 ई.पू. पतंजलि ने वेद में बिखरी योग विद्या का सही-सही रूप में वर्गीकरण किया। पतंजलि के बाद योग का प्रचलन बढ़ा और यौगिक संस्थानों, पीठों तथा आश्रमों का निर्माण होने लगा, जिसमें सिर्फ राजयोग की शिक्षा-दीक्षा दी जाती थी।

भगवान शंकर के बाद वैदिक ऋषि-मुनियों से ही योग का प्रारम्भ माना जाता है। बाद में कृष्ण, महावीर और बुद्ध ने इसे अपनी तरह से विस्तार दिया। इसके पश्चात पातंजलि ने इसे सुव्यवस्थित रूप दिया। इस रूप को ही आगे चलकर सिद्धपंथ, शैवपंथ, नाथपंथ वैष्णव और शाक्त पंथियों ने अपने-अपने तरीके से विस्तार दिया।

योग परम्परा और शास्त्रों का विस्तृत इतिहास रहा है। हालाँकि इसका इतिहास दफन हो गया है अफगानिस्तान और हिमालय की गुफाओं में और तमिलनाडु तथा असम सहित बर्मा के जंगलों की कंदराओं में।

जिस तरह राम के निशान इस भारतीय उपमहाद्वीप में जगह-जगह बिखरे पड़े हैं उसी तरह योगियों और तपस्वियों के निशान जंगलों, पहाड़ों और गुफाओं में आज भी देखे जा सकते हैं। बस जरूरत है भारत के उस स्वर्णिम इतिहास को खोज निकालने की जिस पर हमें गर्व है।

Satyam Eva

Numerically Kurus were stronger than the Pandavas during the battle of Kurukshetra. According to democratic calculations the Pandavas had no chance of winning even with Krishna  on their side, Hanuman on their flag, and the great chariot given to Arjuna by the fire god.
But Sanjay  confidently told Dhritharasthra, “Your sons have no chance, because Truth is on the other side, and wherever there is  truth; victory, morality, prosperity and stability is guaranteed.” This  was a pre-poll analysis by Sanjay and it was spot on.

Victory ought to be viewed not from one perspective or a limited time zone, rather from wholesome perspective.Therefore the Upanishadas say, SATYAM EVA HI JAYATE,  Not simply truth will prevail, but truth certainly prevails.

What is that wholesomeness, is it only power? Rather it is a wheel of four, Satisfaction in doing once own duty(Dharma), Intellectual, sensual, emotional gain(Artha), Fulfillment of one’s desire without disturbance of dharma(Kama) and all of them together leads to continued freedom not only in other worlds but also in this world.(Moksa)
Such a person is bound to be victorious. One must follow the example of such personalities.

Surpanakha and news

Surpankha approched Rama as she wanted to enjoy him. She went to the extent of trying to kill Sita, so that she could have Rama all to herself. When she was forced to flee by Laxmana, she went to Ravana and twisted the whole tale.  She said,  “I was amazed to see the beautiful Sita with two skinny forest dwellers and I wanted to bring her to you for your pleasure alone, because you are the only one who deserves her. And just see what they have done to me for being a selfless servant of yours. Please do something about this, and get your hands on Sita and be happy.”
In fact Shurpanakha had told Rama that, Sita was skinny and useless, and she would unable to satisfy him, and only she, Shurpanakha could fulfill all his desires. She contorted the story to use for her selfish motives.
Does it ring any bells? When we read and see the bearers of truth and upholders of free speech, the journalists, paying foul with the real story, and fooling the public, it is very unfortunate.  This only creates havoc, like Shurpankha. She sowed the seed to destroy the prosperity of Lanka and destroy hundreds and thousands of soldiers.  Similarly falsity will kill integrity and cause mayhem in public life.
Find some honest reporters and follow them to understand true politics.
 Be aware of the Surpankha like reports, which can sow the seed of destruction of our discriminative intelligence.
Falsity soars high and eventually crashes with a thud. Truth moves slowly and surely to its destination of reality and transparency.

For the love of law

Sri Krishna has a flute to enchant, and stick to implement discipline.
He has chakra for cutting, and lotus flower for putting confidence in the afflicted.
Life is a combination of law and love. We have both Duryodhana and Yudhisthira within us.When we start behaving like Duryodhana, we experience  life chakra coming and giving us back in the form of reaction, that is Krishna’s chakra or stick.When we lean towards Yudhisthira like behavior, then we receive  assurance from the lotus flower, and hear Krsna’s flute-play; and harmony reigns.
Since we have conflicting personalities, we need both, love to give us confidence and law to make us disciplined.  Love without discipline makes us pampered, and law without love creates uninhabited death and destruction.  This is the concept of real governance, care and carefulness.

This is what Hindusim represents, balance between punishment and pure affection.