गाय और धर्म

➡ब्रह्मदेश (म्यांमार) के लोकनीति नामक महाचतुरंगबल कृत बौद्ध ग्रंथ मे लिखा है कि जो गौ मांस खाता है वह अपनी माँ का मांस खाता है।download

➡’मनभावतो धेनु पय स्त्रवहीं’ तुलसीदास जी ने रामचरित मानस मे यह त्रेता युग का लक्षण बताया है।

➡बुंदेलखण्ड का ‘गौ चारण महोत्सव’ कार्तिक मास, शुक्ला पक्ष की देवोत्थान एकादशी को मनाया जाता है।

➡मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के खास पीर मौलवी कुतुबुद्दीन ने फतवा दिया कि हदीश मे कहा गया है कि जाबेह उल बकर (गाय की हत्या करने वाला) कभी नही बख्शा जाएगा।

➡गौ रक्षा के लिए स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित सभा का नाम गौ कृष्यादि रक्षिणी था।

➡’स्वार्थपरता की हद तक जाने वाले इंसान की क्रूरता की वजह से ही आज गाय दुर्दशा मे जीने को लाचार हुई है।’ ये उद्गार पूज्य प्रवर्तक संत श्री रूपचन्द्र जी म. सा. रजत के है।

➡माता दुर्गा के नौ रूपो मे शैलपुत्री व गौरी का वाहन गाय है।

➡’गोरोचना विष का विनाश करती है’ अग्नि पुराण मे यह तथ्य धन्वन्तरि ने सुश्रुत को बताया।

➡’गौ आधारित कृषि अन्न श्रेष्ठ होता है’ यह वर्णन कृषि पराशर ग्रंथ मे है।

➡सब जलो मे श्रेष्ठ जल गौ मूत्र और सब रसो मे श्रेष्ठ रस गौ रस है।

➡स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी राजा पुरूरवा के पास गई तो उसने अमृत की जगह गाय का घी पीना स्वीकार किया।

➡’गौ मांसाहार व्यक्ति साक्षात् राक्षस है। मांसाहारी व्यक्ति जंगम कब्रिस्तान है’ यह बात स्वामी रामतीर्थ ने कही है।

➡अखिल भारत कृषि गौ सेवा संघ का प्रारम्भ संत बिनोबा भावे की प्रेरणा से हुआ।

➡आचार्य श्री राम शर्मा ने 24 वर्ष तक केवल दूध पीकर गायत्री मन्त्र का जाप करते हुए विश्व में सर्वाधिक सुसाहित्य सृजन कर विश्व कल्याण किया है।

➡’धेनू: सदनम् रमणीयम्’ अर्थात् गाय सम्पति का भण्डार है। यह वाक्य अथर्ववेद का है।

➡भगवान राम को प्रेम से बेर खिलाने वाली भक्त शबरी द्वापर युग मे श्रीकृष्ण की प्रिय गाय पद्म गंधा के रूप मे जन्म लिया।

➡वीर तेजाजी ने मेर लुटेरो से गाय छुङाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी।

➡गौ- ग्रास दान मंत्र –
सौरभेयी जगत्पूज्या नितस विष्णु पदे स्थित।
सर्व देवमयी ग्रांसमया दत्तं प्रतीक्षिताम्॥
अर्थात् सुरभी पुत्री गो जाति संपूर्ण जगत के लिए पूज्य है। यह सदा विष्णु पद मे स्थित है और सर्वदेवमयी है। मेरे दिये ग्रास को देखे और स्वीकार करे।

➡गो नवरात्रि कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष मे प्रतिपदा से नवमी तक के दिन और नवमी से पूर्व का दिन गोपाष्टमी है।

➡’दूध से बढकर कोई जीवन बढाने वाला आहार नही है’ ऐसा कश्यप संहिता मे उल्लेख है।

➡गाये मनुष्यो की बन्धु है और मनुष्य गायो के बन्धु है। जिस घर मे गाय नही है, वह घर बन्धु शून्य है। यह पद्म पुराण मे कहा गया है।

➡गाय की कुर्बानी इस्लाम धर्म का नियम नही है। ऐसा उल्लेख फतबे हुमायूनी मे आता है।

➡’सर्वे देवा गवामड्गे तीर्थानि तत्पदेषु च’ (गौ के शरीर मे समस्त देवता निवास करते है और उसके पैरो मे समस्त तीर्थ निवास करते है) यह उक्ति ब्रह्मवैवर्त पुराण मे है।

➡भविष्य पुराण के अनुसार समुद्र मंथन के समय पांच गाये उत्पन्न हुई थी। नन्दा, सुभद्रा, सुरभि, सुशीला और बहुला क्रमशः महर्षि जमदग्नि, भारद्वाज, वशिष्ठ, असित और गौतम को दी गई।

➡शंकर के अवतार माने जाने वाले सुरभि सुत वृषभ का नाम नील है।

➡गो ब्राह्मण हितार्थाय देशस्य च हिताय च।
तव चैवाप्रमेयस्य वचनं कुर्तुमुद्यतः॥
अर्थात् गौ ब्राह्मण एवं समस्त राष्ट्र के हित के लिए मै आप जैसे अनुपम प्रभावशाली महात्मा के आदेश का पालन करने को सब प्रकार से तैयार हूँ।
यह वाक्य श्रीराम ने महर्षि विश्वामित्र से कहा।

➡’यही देहु आज्ञा तुर्क गाहै खपाऊँ।
गऊ घातका दोष जग सिउ मिटाऊँ॥
माँ दुर्गा से गौ रक्षा की माँग का यह वर्णन चण्डी दी वार मे है।

➡प्राण निकलते समय कष्ट के निवारण के लिए जो गौ दान किया जाता है उसे उत्क्रान्ति धेनु दान कहते है।

➡पृथ्वी को धारण करने वाले सप्त तत्व गाय, वेद, ब्राह्मण, सुसंस्कारी पतिव्रता स्त्रियाँ, सत्यवादी, निष्काम दूसरोँ के हितार्थ कर्म करने वाले और दानशील है।

➡गोकर्ण पीठ दक्षिण भारत का पवित्र तीर्थ स्थान है जो गाय के कान से प्रकट होने वाले महापुरुष के नाम पर है।

Importance of Cow in Indian Culture

Our fellow intellectuals sneer at the mention of the cow. The same intellectuals first sneered at yoga. Now it is a fashion to do pranayama at cocktail parties? .The arguments for cow slaughter are no more uncontested.

Some facts about the cow in the perspective of modern Hindutva are:-

The cow was elevated to divinity in the Rig Veda. In Book VI, Hymn XXVIII attributed to Rishi Bhardwaja extols the virtue of the cow. In Atharva Veda (Book X, Hymn X), the cow is formally designated as Vishnu, and ‘all that the Sun surveys’.

Indian society has addressed the cow as gow mata. The Churning of the Sea episode brings to light the story of the creation of the cow. Five divine Kamadhenus (wish cows), viz, Nanda, Subhadra, Surabhi, Sushila, Bahula emerged in the churning.

Thousands of names in our country are cow-related: Gauhati, Gorakhpur, Goa, Godhra, Gondiya, Godavari, Goverdhan, Gautam, Gomukh, Gokarna, Goyal, Gochar etc. They signify reverence for the cow, and our abiding faith that the cow is Annapurna(possessed of food ? Monier Williams Sanskrit Dictionary).

In 2003, the National Commission on Cattle under Justice G. M. Lodha submitted its recommendations to the NDA government. The report called for stringent laws to protectthe cow and its progeny in the interest of the rural economy, a constitutional requirement under Directive Principles of State Policy. Article 48 of the Constitution says: ‘The State shall endeavour to organise agriculture and animal husbandry on modern and scientific lines and shall, in particular, take steps for preserving and improving the breeds, and prohibiting the slaughter of cows and calves and other milch and draught cattle’. During the First War of Independence in 1857, when Bahadur Shah ‘Zafar’ was installed as emperor by the Hindus in Delhi for a brief period, his Hindu prime minister, on the emperor’s proclamation, made cow killing a capital offence. In Maharaja Ranjit Singh’s kingdom, the only crime that invited capital punishment was cow slaughter.

Even China has granted distillate of cow urine a patent as a DNA protector. A global patent has been granted for cow urine, neem and garlic as a pest repellent and for fungicidal and growth promoting properties for different crops (WHO 2004/ 087618A1). A US patent has been granted for strains from Sahiwal cow milk for plant growth promoter phytopathogenic fungi controlling activity, abiotic stress tolerating capability, phosphatic solubilisation capability, etc. And CSIR has filed for a US patent for amrit pani, a mixture of cow dung, cow urine and jiggery, for soil health improvement properties.

The arguments for cow slaughter are no more uncontested. There are better sources of protein than beef. Any dietician’s chart shows that beef with 22 per cent protein ranks below soya-bean (43), groundnut (31) and pulses (24 per cent). One kilogram of beef takes seven kg of crops and 7,000 kg of water to produce.

Thus cow protection makes economic and ecological sense. Swami Dayananda Saraswati, convenor of the Hindu Dharma Acharya Sabha, has argued that non-vegetarianism indirectly contributes heavily to greenhouse gases and other pollution. He quotes a UN report from 2006 that says, “Raising animals for meat as food generates more greenhouse gases than all the cars and trucks in the world combined”. Ten of billions of animals farmed for food release gases such as methane, nitrous oxide and carbon dioxide through their massive amounts of manure. “The released methane”, the report says, “has 23 times the global warming potential of CO2″. For these animals to graze, virgin forests are cleared. The livestock industry also needs vast stretches of land to raise mono-crops to feed the animals. The CO2 that the trees and plants store escapes into the air when they are destroyed.

Growing fodder implies heavy use of synthetic fertilizers produced with fossil fuels.

While this process emits a huge amount of CO2, the fertilizer itself releases nitrous oxide (3) — agreenhouse gas that is 296 times more potent than CO2. Alarming though these facts are, all that people have to do is to avoid red meat. There will be no need to breed millions of animals for daily slaughter. The animal population will consequently decline.

A single individual by not consuming meat prevents the equivalent of 1.5 tonnes of CO2 emissions in a year. This is more than the one tonne of CO 2 prevented by switching from a large sedan to a small car. So there are a number of reasons to be a vegetarian. People who eat meat think a pure vegetarian diet is optional. But now they have no choice if they are alive to what is happening to this life-bearing planet. There is no justification for eating meat, given the devastating consequences for the planet. A new fervour for a cow renaissance is necessary. It is constitutional (for India) and we should defend it with all our might.

By Stephen Knapp

भारतीय गौवंश की शानदार प्रजातियाँ

आइये एक दृष्टी डालते है भारतीय गाय की कुछ प्रमुख नस्लों / प्रजातियों पर,
साहीवाल प्रजाति: पंजाब- साहीवाल भारत की सर्वश्रेष्ठ प्रजाति है। इस नस्ल की गायें अफगासितान की गायों से मिलती-जुलती हैं। यह नस्ल गिर नस्ल के समिमश्रण से बनी है। इस नस्ल की गायें मुख्यतया अधिक दूध देने वाली होती हैं। अच्छी देखभाल करने पर ये कहीं भी रह सकती हैं।
हरियाणवी प्रजाति: हरियाणा- हरियाणवी नस्ल की गायें सर्वांगी कहलाती हैं। इस नस्ल के बैल खेती में अच्छा कार्य करते हैं। इस नस्ल के गोवंश सफेद रंग के होते हैं। गाया दुधारू होती है।
राठी प्रजाति: राजस्थान- राठी नस्ल का राठी नाम राठस जनजाति के नाम पर पड़ा जिनकी उत्पत्ति राजपूत मुसलमानों से हुर्इ। राठस जनजाति के लोग खानाबदोश जिंदगी व्यतीत करते थे। भारतीय राठी नस्ल एक महत्वपूर्ण दुधारू नस्ल है।
देवनी प्रजाति: आंध्रप्रदेश, कर्नाटक- देवनी परजाति के गोवंश गिर नस्ल से मिलते- जुलते हैं। इस नस्ल के बैल अधिक भार ढोने की क्षमता रखते हैं। गायें दुधारू होती हैं।
लाल सिंधी प्रजाति: पंजाब- लाल सिंधी प्रजाति के गोवंश में अफगान नस्ल और गिर नस्ल का समिमश्रण पाया जाता है। इस नस्ल की गाय का शरीर पूर्णत: लाल होता है। लाल रंग की सिंधी गाय की गणना सर्वाधिक दूध देने वाली गायों में है। थोड़ी खुराक में भी यह अपना शरीर अच्छा रख लेती है।
गिर प्रजाति: गुजरात- गिर प्रजाति क गोवंश का मूल स्थान काठियावाड़ (गुजरात) के दक्षिण में गिर नामक जंगल है। शुद्ध गिर नस्ल की गायें प्राय: एक रंग की नहीं होती है। इस नस्ल की गायें काफी दुधारू होती हैं तथा नियत समय पर बच्चे देती हैं।
नागौरी प्रजाति: राजस्थान- नागौरी प्रजाति के गोवंश का गृह क्षेत्र राजस्थान प्रदेश का नागौर जिला है। इस नस्ल के बैल भारवाहक क्षमता के विशेष गुण के कारण अत्यधिक प्रसिद्ध ह ैं। विश्वसनीय ढंग से निशिचत रूप में नागौरी नस्ल के गोवंश के कुल संख्या के आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं।
नीमाड़ी प्रजाति: मध्यप्रदेश नीमाड़ी प्रजाति के गोवंश काफी फुर्तीले होते हैं। इनके मुँह की बनावट गिर जाति की जैसी होती है। गाय के शरीर का रंग लाल होता है, जिस पर जगह-जगह सफेद धब्बे होते हैं। इस नस्ल की अच्छी देखभाल करें तो काफी दूध प्राप्त होता हैं।
सीरी प्रजाति: सिकिकम एवं भूटान- सीरी प्रजाति के गोवंश दार्जिलिंग के पर्वतीय प्रदेश, सिकिकम एवं भूटान में पाये जाते हैंं। इनका मूल स्थान भूटान है। ये प्राय: काले और सफेद अथवा लाल और सफेद रंग के होते हैं। सीरी जाति के पशु देखने में भारी होते हैं। इस जाति के बैल काफी परिश्रम होते हैं।
हल्लीकर प्रजाति: कर्नाटक- हल्लीकर के गोवंश मैसूर (कर्नाटक) में सर्वाधिक पाये जाते हैं। यह एक स्वतंत्र नस्ल है। इस नस्ल की गायें अमृतमहाल जाति की गौओं से अधिक दूध देती हैं।
भगनारी प्रजाति: पंजाब- भगनारी प्रजाति के गोवंश नारी नदी के तटवर्ती इलाके में पाये जाने की वजह से इस नस्ल का नाम ‘भगनारी दिया गया है। इस नस्ल के गोवंश अपना निर्वाह नदी तट पर उगने वाली घास व अनाज की भूसी पर करते हैं। गाये दुधारू होती है।
कांकरेज प्रजाति: गुजरात- कांकरेज प्रजाति के गोवंश का मुँह छोटा किन्तु चौड़ा होता है। गुजरात में काठियावाड़, बड़ौदा, सूरत तक यह नस्ल फैली हुर्इ है। यह नस्ल बढि़यार नस्ल के नाम से भी जानी जाती है। यह नस्ल सर्वांगी नस्ल कहलाती है।
कंगायम प्रजाति: तमिलनाडु- कंगायम प्रजाति के गोवंश अपनी स्फूर्ति और श्रम-सहिष्णुता के लिए विशेष प्रसिद्ध हैं। इस जाति के गोवंश कोयम्बटूर के दक्षिणी इलाकों में पाये जाते हैं। दूध कम देने के बावजूद गाय 10-12 सालों तक दूध देती है।
मालवी प्रजाति: मध्यप्रदेश- मालवी प्रजाति के बैलों का उपयोग खेती तथा सड़कों पर हल्की गाड़ी खींचने के लिए किया जाता है। इनका रंग लाल, खाकी तथा गर्दन काले रंग की होती है। किन्तु बुढ़ापे में इसका रंग सफेद हो जाता है। इस नस्ल की गायें दूध कम देती हैं। मध्य प्रदेश के ग्वालियर क्षेत्र में यह नस्ल पायी जाती है।
मेवाती प्रजाति: हरियाणा- मेवाती प्रजाति के गोवंश सीधे-सीधे तथा कृषि कार्य हेतु उपयोगी होते हैं। इस नस्ल की गायें काफी दुधारू होती हैं। इनमें गिर जाति के लक्षण पाये जाते हैं तथा पैर कुछ ऊँचे होते हैं। इस नस्ल के गोवंश हरियाणा राज्य में पाये जाते हैं।
गावलाव प्रजाति: मध्यप्रदेश- गावलाव प्रजाति के गोवंश को सर्वोत्तम नस्ल माना गया है। मध्य प्रदेश के सतपुड़ा, सिवनी क्षेत्र व महाराष्ट्र के वर्धा, नागपुर क्षेत्र में इस जाति के गोवंश पाये जाते हैं। गायों का रंग प्राय: सफेद तथा गलंकबल बड़ा होता है। गायें दुधारू मानी जाती हैं।
थारपरकर प्रजाति: राजस्थान- थारपरकर प्रजाति का गोवंश को राजस्थान के जोधपुर, जैसलमेर व कच्छ क्षेत्रों में एक बड़ी संख्या में पाया जाता है। इस नस्ल की गौएं भारत की सर्वश्रेष्ठ दुधारू गायाें में गिनी जाती है। इस जाति के बैल काफी परिश्रमी होते हैं। इनमें कर्इ ऐसे गुण हैं जिनके कारण इनकी कदर की जाती है।
वेचूर प्रजाति: केरल- वेचूर प्रजाति के गोवंश पर रोगों का कम से कम प्रभाव पड़ता है। इस जाति के गोवंश कद में छोटे होते हैं। इस नस्ल की गायों के दूध में सर्वाधिक औषधीय गुण होते हैं। इस जाति के गोवंश को बकरी से भी आधे खर्च में पाला जा सकता है।
बरगूर प्रजाति: तमिलनाडु- बरगूर प्रजाति के गोवंश तमिलनाडु के बरगुर नामक पहाड़ी क्षेत्र में पाये गये थे। इस जाति की गायों का सिर लम्बा, पूँछ छोटी व मस्तक उभरा हुआ होता है। बैल काफी तेज चलते हैं और सहनशील होते हैं। गायों की दूध देने की मात्रा कम होती है।
कृष्णाबेली: महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश- कृष्णा नदी तट की कृष्णाबेली प्रजाति के गोवंश महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में पाये जाते हैं। इनके मुँह का अग्रभाग बड़ा तथा सींग और पूँछ छोटी होती है।
डांगी प्रजाति: महाराष्ट्र- डांगी प्रजाति के गोवंश अहमद नगर, नासिक और अंग्स क्षेत्र में पाये जाते हैं। इस जाति के बैल मजबूत एवं परिश्रमी होते हैं। गायों का रंग लाल, काला व सफेद होता है। गायें कम दूध देती हैं।
पवार प्रजाति: उत्तर प्रदेश पवार प्रजाति के गोवंश उत्तर प्रदेश्ज्ञ के रोहेलखण्ड में पाये जाते हैं। इनके सींगों की लम्बार्इ 12 से 18र्इंच तक हो सकती है। इनकी पूँछ लम्बी होती है। इनके शरीर का रंग काला और सफेद होता है। इस प्रजाति के बैल कृषि योग्य हैं, किंतु गाय कम दूध देती है।
अंगोल प्रजाति: तमिलनाडु- अंगोल प्रजाति तमिलनाडु के अंगोल क्षेत्र में पायी जाती है। इस जाति के बैल भारी बदन के एवं ताकतवर होते हैं। इनका शरीर लम्बा, किन्तु गर्दन छोटी होती है। यह प्रजाति सूखा चारा खाकर भी जीवन निर्वाह कर सकती है।
हासी-हिसार: हरियाणा- हासी-हिसार प्रजाति के गोवंश हरियाणा के हिसार क्षेत्र में पाये जाते हैं। इस नस्ल के गोवंश का रंग सफेद व खाकी होता है। इस प्रजाति के बैल परिश्रमी होते हैं।
बचौर प्रजाति: बिहार- बचौर प्रजाति के गोवंश बिहार प्रांत के तहत सीतामढ़ी जिले के बचौर एवं कोर्इलपुर परगनाें मं पाये जाते हैं। इस जाति के बैल काफी परिश्रमी होते हैं। इनका रंग खाकी, ललाट चौड़ा, आँखें बड़ी-बड़ी और कान लटकते हुए होते हैं। भारतीय गोवंश की अन्य प्रजातियाँ
लोहानी प्रजाति- इस नस्ल का मूल स्थान बलूचिस्तान का लोरालार्इ क्षेत्र है। इस जाति के पशु आकार में छोटे होते हैं। इस जाति के बैल हल चलाने तथा विशेषकर पर्वतीय क्षेत्रों में बोझा ढ़ोने में बहुत उपयोगी होते हैं।
आलमवादी प्रजाति- इस प्रजाति के गोवंश कर्नाटक राज्य में पाये जाते हैं। इनका मुँह लम्बा और कम चौड़ा होता है तथा सींग लम्बे होते हैं। इस जाति के बैल तेज एवं परिश्रमी होते हैं
केनवारिया प्रजाति- इस प्रजाति के गोवंश बांदा जिला (म.प्र.) के केन नदी के तट पर पाये जाते हैं। इनके सींग काँकरेज जाति के पशुओं जैसी होती हैं। गायें कम दूध देती हैं। गायों का रंग खाकी होती है।
खेरीगढ़ प्रजाति- इस प्रजाति के गोवंश खेरीगढ़ क्षेत्र(उ.प्र.) में पाये जाते हैं। गायों के शरीर का रंग सफेद तथा मुँह होता है। इनकी सींग बड़ी होती है। सींग की लम्बार्इ 12 से 18इंच तक होती है। इनकी सींग केनवारिया नस्ल के सींग से बहुत मिलती हैं। बैल क्रोधी एवं फुर्तीले होते हैं तथा मैदानों में स्वच्छन्द रूप से चरने से स्वस्थ एवं प्रसन्न रहते हैं। इस नस्ल की गायें कम दूध देती है।
खिल्लारी प्रजाति- इस प्रजाति के गोवंश का रंग खाकी, सिर बड़ा, सींग लम्बी और पूँछ छोटी होती है। इनका गलंकबल काफी बड़ा होत है। खिल्लारी प्रजाति के बैल काफी शकितशाली होते हैं किन्तु गायों में दूध देने की क्षमता कम होती है। यह नस्ल महाराष्ट्र तथा सतपुड़ा(म.प्र.) क्षेत्रों में पायी जाती है।
अमृतमहाल प्रजाति- इस प्रजाति के गोवंश कर्नाटक राज्य के मैसूर जिले में पाये जाते हैं। इस नस्ल का रंग खाकी, मस्तक तथा गला काले रंग का, सिर और लम्बा, मुँह व नथुने कम चौड़े होते हैं। इस नस्ल के बैल मध्यम कद के और फुर्तीले होते हैं। गायें कम दूध देती है।
दज्जल प्रजाति- भगनारी नस्ल का दूसरा नाम ‘दज्जल नस्ल है। इस नस्ल के पशु पंजाब के ‘दरोगाजी खाँ जिले में बड़ी संख्या में पाले जाते हैं। कहा जाता है कि इस जिले के कुछ भगनारी नस्ल के सांड़ खासतौर पर भेजे गये थे। यही कारण है कि ‘दरोगाजी खाँ में यह नस्ल काफी पायी जाती है। और यहीं से भेजा गया इस नस्ल को पंजाब के अन्य क्षेत्रों में भेजे गये। इस जाति की गौएँ अधिक दूध देने के लिए प्रसिद्ध हैं।
धन्नी प्रजाति- इस प्रजाति को पंजाब की एक स्वतंत्र नस्ल माना जाता हैं इस नस्ल के पशु मध्यम परिमाण के तथा बहुत फुर्तीले होते हैं। इनका रंग विचित्र प्रकार का होता है और पंजाब के अनेक भागों में इन्हें पाला जाता है। गायें दुधारू नहीं होती। इस नस्ल में दुग्धोत्पादन की क्षमता में वृद्धि के लिए विशेष ध्यान दिया ही नहीं गया।
केनकथा प्रजाति- उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश्ज्ञ।
खेरीगढ़ प्रजाति- उत्तरप्रदेश।
रेड कंधारी प्रजाति- मराठवाड़ा (मूलस्थान-कंधार)।
वर्तमान में सिथति: आजादी के पूर्व भारत में गोवंश की करीब 60 प्रजातियाँ आज गोवंश की करीब 27-28 प्रजाति ही है। कत्लखानों में गोवंश इसी तरह कटता रहा तो गोवंश की अनेक नस्लें समाप्त हो जायेंगी

पृथ्वी पर का अमृतः गाय का दूध

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गाय का दूध पृथ्वी पर सर्वोत्तम आहार है। उसे मृत्युलोक का अमृत कहा गया है। मनुष्य की शक्ति एवं बल को बढ़ाने वाला गाय का दूध जैसा दूसरा कोई श्रेष्ठ पदार्थ इस त्रिलोकी में नहीं है। पंचामृत बनाने में इसका उपयोग होता है।

गाय का दूध पीला होता है औरसोने जैसे गुणों से युक्त होता है।

केवल गाय के दूध में ही विटामिन ए होता है, किसी अन्य पशु के दूध में नहीं।

गाय का दूध, जीर्णज्वर, मानसिक रोगों, मूर्च्छा, भ्रम, संग्रहणी, पांडुरोग, दाह, तृषा, हृदयरोग, शूल, गुल्म, रक्तपित्त, योनिरोग आदि में श्रेष्ठ है।
प्रतिदिन गाय के दूध के सेवन से तमाम प्रकार के रोग एवं वृद्धावस्था नष्ट होती है। उससे शरीर में तत्काल वीर्य उत्पन्न होता है।
एलोपैथी दवाओं, रासायनिक खादों, प्रदूषण आदि के कारण हवा, पानी एवं आहार के द्वारा शरीर में जो विष एकत्रित होता है उसको नष्ट करने की शक्ति गाय के दूध में है।
गाय के दूध से बनी मिठाइयों की अपेक्षा अन्य पशुओं के दूध से बनी मिठाइयाँ जल्दी बिगड़ जाती हैं।
गाय को शतावरी खिलाकर उस गाय के दूध पर मरीज को रखने से क्षय रोग (T.B.) मिटता है।
गाय के दूध में दैवी तत्त्वों का निवास है। गाय के दूध में अधिक से अधिक तेज तत्व एवं कम से कम पृथ्वी तत्व होने के कारण व्यक्ति प्रतिभासम्पन्न होता है और उसकी ग्रहण शक्ति (Grasping Power) खिलती है। ओज-तेज बढ़ता है। इस दूध में विद्यमान ‘सेरीब्रोसाडस’ तत्व दिमाग एवं बुद्धि के विकास में सहायक है।
केवल गाय के दूध में ही Stronitan तत्व है जो कि अणुविकिरणों का प्रतिरोधक है। रशियन वैज्ञानिक गाय के घी-दूध को एटम बम के अणु कणों के विष का शमन करने वाला मानते हैं और उसमें रासायनिक तत्व नहीं के बराबर होने के कारण उसके अधिक मात्रा में पीने से भी कोई ‘साइड इफेक्ट’ या नुकसान नहीं होता।
कारनेल विश्वविद्यालय के पशुविज्ञान के विशेषज्ञ प्रोफेसर रोनाल्ड गोरायटे कहते हैं कि गाय के दूध से प्राप्त होने वाले MDGI प्रोटीन के कारण शरीर की कोशिकाएँ कैंसरयुक्त होने से बचती हैं।
गाय के दूध से कोलेस्टरोल नहीं बढ़ता बल्कि हृदय एवं रक्त की धमनियों के संकोचन का निवारण होता है। इस दूध में दूध की अपेक्षा आधा पानी डालकर, पानी जल जाये तब तक उबालकर पीने से कच्चे दूध की अपेक्षा पचने में अधिक हल्का होता है।
गाय के दूध में उसी गाय का घी मिलाकर पीने से और गाय के घी से बने हुए हलुए को, सहन हो सके उतने गर्म-गर्म कोड़े जीभ पर फटकारने से कैंसर मिटने की बात जानने में आयी है।
गाय का दूध अत्यंत स्वादिष्ट, स्निग्ध, मुलायम, चिकनाई से युक्त, मधुर, शीतल, रूचिकर, बुद्धिवर्धक, बलवर्धक, स्मृतिवर्धक, जीवनदायक, रक्तवर्धक, वाजीकारक, आयुष्यकारक एवं सर्वरोग को हरनेवाला है।

गौ महिमा

भगवान श्री कृष्ण जब गाय चराने जाते थे, तो गोमाता के पीछे चला करते थे। गायों के खुरो से उड़ने वाली धूल भगवान के मस्तक पर गिरती थी। तब उन दिव्य-नील-अलको पर वृंदारण्य की गौ-चारण लीला से उठी गो-धूलि ऐसी लगती थी जैसे नीलकमल का पराग हो। परागक्षुरित अलिकुलमालासंकुलित मुखारविंद पर धूलकणयुत श्वेत-बिन्दुओ को प्रसन्न तुषार-बिन्दुओ के समान, दिव्यातिदिव्य मोतियो के समान धारण करके भगवान सुशोभित होते थे। प्रसन्न होते थे । माता देवकी तक को कंस से छुड़ाने भगवान कई वर्षो बाद गए पर — कंस के सैनिको द्वारा गोकुल की गायों को बलात् हाक ले जाने की सूचना मिलते ही भगवान कृष्ण तत्काल दौड़े हुये गए और उन पापी सैनिको को धरती पर पटक पटक कर यमलोक का मार्ग दिखा दिया । गौ सेवा के, गौपालन के कारण ही गोविंद कहलाए , गोपाल कहलाए । 

भगवान श्री राम ने कह दिया , मेरे युद्ध का मूल कारण तो गौ, ब्राह्मण आदि सत्पुरुषों की रक्षा करना ही हैं। बुद्धानुयायी जिसे बुद्ध का बोध कहते है उस बोध का कारण भी गौमाता का दूध ही बना, बुद्ध ने भी “गावो नो परमा मित्ता’ कहकर गाय को पूज्य माना। । महावीर जैन ने व सिक्ख गुरुओ ने भी – ” यही देहु आज्ञा तुर्क गाहै खपाऊं। गऊघात का दोष जग सिउ मिटाउ” कहते हुये गौ के प्रति अपनी निष्ठा दिखाई। कहने का अर्थ है कि भारतवर्ष के सभी पंथो व सम्प्रदायो ने ने अपने मतो-सिद्धांतो से इतर गाय का समान भाव से आदर करने की बात कही हैं । 

सत्य सनातन संस्कृति का तो गाय प्राणभूत तत्व ही हैं। ‘गावो विश्वस्य मातर:’ वाक्य से वेदो द्वारा स्वयं ईश्वर ने हमे परिचित कराया। “माता: सर्वभूतानाम गाव: सर्वसुखप्रदा:” सभी सुख स्व:कृपा से प्राप्त कराने वाली गाय का देवो ने माता होने का का उद्घोष करते हुये , एक तरह से उन्हे चलता फिरता मंदिर बताया। यह मातृतत्व ही है जो धरती के रूप में तो कभी गौ के रूप में या भगवती के रूप में व्यक्त होकर हमारा पालन करता हैं । “गो:मात्राा न विद्यते ‘धेनु: सदनम् रयीणम् त्वं माता सर्वेदेवाना त्वं च मत्तस्य कारणम्” । 

गाय के कारण से व गाय के लिए लड़े गये अनेक युद्धो से इतिहास भरा पड़ा हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज ने बाल्यकाल में ही एक कसाई को गोमाता की ग्रीवा पर रस्सी बांध कर उन्हे घसीट कर ले जाते हुये देखा तो उस पिशाच के दोनों हाथ अपने नन्हें हाथो से काटकर ही हिन्दू साम्राज्य की स्थापना व धर्मरक्षा के संकल्प का शंख बजाया था व समर्थ गुरु रामदास से गौ-ब्राह्मण-प्रतिपालक की उपाधि प्राप्त की। गाय की चर्बी वाला कारतूस ही हमारी पहली स्वतन्त्रता की लड़ाई का प्रमुख कारण बन गया था । अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता , खाने की स्वतन्त्रता की बात करने वाले ये सूअरखोर क्या जाने कि जिन क्रांतिकारियों के कारण ये आज स्वयं का ‘इंडिपेंडेस’ डे मनाते हैं, वे सभी नेतृत्वकर्ता , भारत माता के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देने वाले , गौप्रेमी ही थे । 

आज उन्ही ऋषियों के देश में, भगवान कृष्ण के राम के देश में, बुद्ध के , महावीर के, गुरुनानक के देश में, छत्रपति शिवाजी महाराज के देश में , ‘गाय का मांस खाने की स्वंतन्त्रता के अधिकार की बात सार्वजनिक तौर पर कहना” क्या ये वही देश हैं? गौसेवकों का देश अब गोभक्षकों का , धर्मद्रोहियों का अभयारण्य बन गया हैं। और ऐसे ईश्वरद्रोही, गौ माता के शत्रुओ के धन-यश वृद्धि का कारण हम बनते हैं ? हम इन्हे बढ़ाते है और ये हमारे ही मुंह पर थूकते हैं । जिनकी मनोवृत्ति स्वप्न में भी हमारी संस्कृति, हमारे भगवान, हमारी परम्पराओ की ओर नहीं जाती, बल्कि वो स्पष्ट हमारे विरोधी हैं, शत्रु हैं – गाय की चरबी चलते यज्ञों में फेंकने वाले मुगलो के उत्तराधिकारी जेहादी हैं । हम गाय को माता कहने वाले इनका बहिष्कार तक नहीं कर सकते? क्या मुंह दिखाओगे अपनी आने वाली पीढ़ियो को ? पीढ़ियो को दिखा लोगे क्या मुंह दिखाओगे भगवान को ? 

कहने का अर्थ बस इतना हैं कि जो हमारे भगवान के, हमारे धर्म के नहीं हैं, वो हमारे बिलकुल नहीं हो सकते। गोविंद के उपासको, को गाय खाने की बात करने वालो को स्पष्ट अपना धुर-विरोधी ही मानना चाहिए। ऐसे विष्ठाभोजियो का पूर्णतः बहिष्कार करो , ये धर्मनिष्ठों के लिए हैं । बाकी जिन्हे भगवान से भी ज्यादा प्यारे फरहान मिया, आमिर खान , शोभा डे, आयुष्मान खुराना आदि हैं, उनमे अगर थोड़ी शर्म हो तो थियेटर में तो भूल से भी ऐसे गोभक्षकों की फिल्मे देखने न जाये। जो राजनेता या जो पार्टी ऐसी विचारधारा की हैं, उसके चुनाव चिन्ह का बटन गलती से भी नहीं दबना चाहिए। ऐसे लोगो को किसी भी प्रकार का सहयोग गाय का मांस खाने व गौहत्या के पाप में सहभागी होना हैं। इस सूत्र को जीवन में धारण कर ही लेना चाहिए। अन्यथा यहा विचर लो, असीम दुख-पीड़ाए तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं। भगवान गौभक्तो के हैं, गोभक्षकों और उनके सहयोगीयो के नहीं।

साभार – सचिन शर्मा जी

रासायनिक कीटनाशको का प्रयोग बन्द करे परम्परागत कीटनाशक अपनाये

अच्छी कृषि के लिए कीटनाशक अनिवार्य नहीं हैं और इन कीटनाशकों का प्रयोग न केवल हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, बल्कि कृषि पद्धति को भी खर्चीला बनाता है

देश की एक बड़ी आबादी धीमा जहर खाने को मजबूर है। हम बात कर रहे हैं भोजन के साथ लिए जा रहे उस धीमे जहर की, जो सिंचाई जल और कीटनाशकों के जरिए अनाज, सब्जियों और फलों में शामिल हो चुका है। कीटनाशकों से जल-प्रदूषण भी बढ़ रहा है। प्रदूषित जल से फल और सब्जियों का उत्पादन तो बढ़ जाता है, लेकिन इनके हानिकारक तत्व फलों और सब्जियों में समा जाते हैं।

अब सब्जियों में जहां एंडोसल्फान, एचसीएच एवं एल्ड्रिन जैसे कीटनाशक मौजूद हैं, वहीं केडमियम, सीसा, कॉपर और क्रोमियम जैसी खतरनाक धातुएं भी शामिल हैं। ये कीटनाशक और धातुएं शरीर को बहुत नुकसान पहुंचाती हैं। सब्जियां तो पाचन तंत्र के जरिए हजम हो जाती हैं, लेकिन कीटनाशक और धातुएं शरीर के संवेदनशील अंगों में एकत्र होते रहते हैं। यही आगे चलकर गंभीर बीमारियों की वजह बनती हैं। हो तो यहां तक गया है कि मां के दूध में भी पेस्टीसाइड पाए जाने लगे हैं।

अच्छी कृषि के लिए कीटनाशक अनिवार्य नहीं हैं और इन कीटनाशकों का प्रयोग न केवल हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, बल्कि कृषि पद्धति को भी खर्चीला बनाता है। इसका समाधान जैविक कृषि को अपनाना है जिसे सिक्किम राज्य ने संभव और लाभदायक सिद्ध कर दिखाया है।

प्रकृति अपने तरीकों से चीजों को संतुलित करती है। इसलिए जो कीट हमारी फसल को खाते हैं उन्हें खाने वाले कीट भी हैं। साफ रूप में कहें तो कीट दो तरह के होते हैं। एक शाकाहारी कीट, जो फसल को खाकर जिंदा रहते हैं और दूसरे मांसाहारी कीट जो फसल खाने वाले कीटों को अपना आहार बनाते हैं। कीटनाशक दवाएं इन कीटों में कोई भेद नहीं करती हैं। यह एक जहर है जो दोनों तरह के कीटों को मारता है। लिहाजा अपने मित्र कीटों को मार डालने के बाद हमारे पास ऐसे कीट बच जाते हैं जो कीटनाशकों के हमले से खुद को किसी तरह बचा लेते हैं। इस प्रक्रिया में वे अपने अंदर ऐसी प्रतिरोधक शक्ति विकसित कर लेते हैं कि उन पर कीटनाशक दवाएं असर नहीं करतीं। इसलिए इन कीटों को मारने के लिए आपको और अधिक कीटनाशकों का छिड़काव करना होता है। यह एक खतरनाक चक्र है, जो चलता रहता है। एक ऐसा चक्र जिसमें हम अपने मित्र कीटों को लगातार मार रहे हैं और अपने खाने-पीने में अधिक से अधिक जहर भर रहे हैं।

अब कीटनाशक का काम करेगी लस्सी प्रयोग करे आजमायें

देश-विदेश में हुए वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चला है कि पारम्परिक लस्सी पेय पदार्थ एक श्रेष्ठ फफुदनाशी है, जिसका उपयोग कृषि विशेषज्ञों की देखरेख में किया जा सकता है, परंतु खेत में छिड़कने से पहले कुछ पौधों पर इसका परीक्षण जरूरी होता है।
इस बारे में जानकारी देते हुए किसान ज्ञान केन्द्र, हिसार के निदेशक सुधीर कुमार कोड़ा ने बताया कि फसलों में फफुद जनित बीमारियों जैसे गेहूं में पीला रतुआ या यैलो रस्ट, सरसों का सफेद रतुआ आदि रोगों से छुटकारा पाने के लिए किसान पांच दिन पुरानी मक्खन निकालने के बाद बच्ची लस्सी के एक प्रतिशत घोल का स्प्रे कपड़े में छानकर पांच से 10 दिन के अन्दर कर सकते हैं। लस्सी को एल्युमिनियम या हंडोलियम या पीतल के वर्तनों में न रखें।

उन्होंने कहा कि बढ़ते कीटनाशकों और जहरीले यूरेनियम युक्त फास्फेट उरर्वकों के प्रयोग के कारण खाद्य में प्रदूषण का असर बढऩे के साथ-साथ किसानों का खेती का खर्च भी बढ़ रहा है। रासायनिक खेती से देश में लाखों एकड़ जमीन बंजर हो चुकी है। रासायनिक उरर्वकों के कारण न केवल जमीन की उपजाऊ शक्ति कम होती है, बल्कि खेती में कीड़ों और बीमारियों का प्रकोप भी बढ़ता जा रहा है। इसलिए कृषि में कम खर्च वाले प्रदूषण रहित घरेलू प्राकृतिक तरीकों का इस्तेमाल जरूरी हो गया है।

कृत्रिम खाद और कीटनाशक जहाँ खेतों को बंजर बना रहे हैं , वहीं कैंसर जैसी भयानक बीमारियों का कारण भी बन रहें हैं . इन खाद और कीटनाशकों का प्रयोग करने में किसान की भी बहुत अधिक लागत बढ़ जाती है . लेकिन देसी तरीके से खाद और कीटनाशक प्रयोग करने से लागत तो कम होती ही है ; इसके अलावा स्वास्थ्य की भी सुरक्षा होती है . कीटनाशक 5 किलो नीम या भाँग या आक या धतूरे या अरंड के पत्ते कूटकर + एक किलो लहसुन + 3 किलो तीखी हरी मिर्च + 5 किलो गोमूत्र ये सभी मिलाकर कूटकर दो बार उबाला दें . फिर ठंडा करके 120 लिटर पानी मिला दें . इसका खेत पर सीजन में तीन चार बार स्प्रे कर दें . एक एकड़ खेत के लिए यह काफी है . और किसी कीटनाशक की जरूरत नहीं है .
खाद 5-7 किलो गोबर +5-7 लिटर गाय का मूत्र +2 किलो पुराना गुड+2 किलो चना या मसुर या अरहर की दाल या मटर की दाल का पावडर ; ये सब मिलाकर 48 घंटों के लिए रख दें . ये खाद तैयार हो जायेगी . इसे पानी में मिलाकर एक एकड़ में लगा सकते हैं .
नमी बनाये रखने के लिए खेत में कम पानी लगाना पड़े , इसके लिए खेत की मिट्टी को बेकार घास फूस या अन्य खेत के कचरे से अच्छी तरह ढांप दें . इससे नमी भी बनी रहेगी और खेती के लिए लाभदायक कीट जैसे केंचुए ; भी मिट्टी में उत्पन्न होंगे . अधिक पानी खेत में नहीं खड़ा रहना चाहिए .

गो आधारित कृषि के लाभ

भारतीय कृषि में विविधता है । ऐसा कोई कृषि उत्पाद नहीं है जो हम नहीं उगाते । हमारी भूमि पर हर प्रकार के अन्न, दालें, सब्जियाँ, फल, कपास और रेशम पैदा होते हैं । हमारी ८०% से अधिक आबादी का पेशा खेती है । इनमें से अधिकांश का एक या दो एकड़ भूमि वाले छोटे किसान हैं ।
हमारी कृषि भूमि भू-संरचना, मिट्टी के प्रकार और गुणों, सिंचाई के तरिकों और फसलों की संख्या के मामले में विविध और जीवंत है ।
मवेशी इस विशाल कृषि चित्र-पटल के अभिन्न अंग हैं । हम बैलों का जुताई, कटी फसल की ढुलाई, सिंचाई के कामों में, गोबर का खाद के और गोमूत्र का कीट नाशक के रूप में उपयोग करते हैं ।

कृषि में गायों की अनूठी भूमिका :

•छोटी-छोटी जोतों और छोटे पैमाने की खेती के कारण खेती में मवेशियों के उपयोग से बेहतर कोई विकल्प नहीं है ।
•जुताई के समय बैलों की चाल हल्की होती है ।
•जुताई करते समय गिरनेवाले गोबर और गोमूत्र से भूमि में स्वतः खाद डलती जाती है ।
•पशु खाद : जैविक खाद, हरी पत्तियों की खाद, पशुओं और मिट्टी की खाद, प्रकृति के साथ मिलकर भूमि को उपजाऊ बनाते हैं । ये रासायनिक कूड़े की समस्या भी नहीं पैदा करते हैं ।
•प्रकृति के ९९% कीट प्रणाली के लिये लाभ दायक हैं । गोमूत्र या खमीर हुए छाछ से बने कीटनाशक इन सहायक कीटों को प्रभावित नहीं करते ।
•एक गाय का गोबर ५ एकड़ भूमि को खाद और मूत्र १०० एकड़ भूमि की फसल को कीटों से बचा सकता है ।
•सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) के अनुसार एक बैल का गोबर एक परिवार का ४ वर्षों तक गुजारा चला सकता है । बैल पर्यावरण को दूषित नहीं करते ।

आर्गेनिक खेती आज कृषि व्यवसाय का नया मंत्र बन रहा है

आर्गेनिक खेती आज कृषि व्यवसाय का नया मंत्र बन रहा है। रसायन रहित भोजन की चाहत बढ़ने से किसानों खासकर छोटे उत्पादकों के लिए संभावनाओं के नए दरवाजे खुल रहे हैं। जिससे वे रासायनिक उर्वरकों का खर्च बचाकर शुद्ध खाद्य वस्तुएं उगाकर अच्छा मूल्य पा सकते हैं। उन्हें बस आर्गेनिक खेती के लिए थोड़ी ज्यादा मेहनत करनी होगी। इससे वे अपनी फसल का बेहतर मूल्य पा सकते हैं। आर्गेनिक खाद्य पदार्थ उपभोक्ताओं तक पहुंचाने के लिए विकसित हो रही चेन में रोजगार या व्यवसाय के नए अवसर भी मिल सकते हैं।

लोगों में बढ़ती स्वास्थ्य जागरूकता के चलते पूरे विश्व में आर्गेनिक खाद्य पदाथरें की मांग तेजी से बढ़ी है। कई देशों ने तो खाद्य पदाथरें की खेती के लिये रासायनिक उर्वरकों के ्रपयोग पर रोक लगा दी है। जिसके चलते आर्गेनिक खेती की ओर लोगों का रुझान बढ़ता जा रहा है। आर्गेनिक खेती में रसायनिक उर्वरकों क ा उपयोग पूरी तरह से ्रपतिबंधित होता है। साथ ही बेहद सूक्ष्य निगरानी के साथ इसकी खेती होती है। आर्गेनिक खेती के आस-पास भी रसायनिक खादों का प्रयोग नहीं होना चाहिये। तभी जाकर इनके उत्पादों को आर्गेनिक पदाथरें का सर्टीफिकेट दिया जाता है।
इससे विकासशील देशों के किसानों को इसका विशेष फायदा मिल सकता है। वहां के किसान अपने खेतों में रासायनिक खादों का उपयोग न करके जैविक खादों का उपयोग करते हैं। ऐसी खेती में अपेक्षाकृत रूप से ज्यादा समय और मेहनत लगती है। किंतु लागत के मामले में प्रति हैक्टेयर 2000 रुपये से 3000 रुपये तक की कमी आती है। इस लिहाज से भी छोटे किसानों को इससे फायदा है। यही कारण है कि विश्व में उपलब्ध कुल जैविक उत्पादों में बड़ा हिस्सा छोटे और मझोले किसानों से आता है।

पिछले दौर में पारंपरिक तौर पर उत्पादित खाद्य पदार्थ बड़े पैमाने पर पूरी दुनिया में सप्लाई होते थे। ऐसे में बड़ी रिटेल कंपनियों ने खाद्य पदार्थ बड़े पैमाने पर उगाने का पक्ष लिया। जबकि आर्गेनिक खेती छोटे पैमाने पर ज्यादा सफलता मिली। इसमें नए तरीके के मानक, पद्धति और कायदे न सिर्फ उत्पादन के लिए विकसित हुए बल्कि उत्पादन के उपरांत रखरखाव, प्रसंस्करण, पैकेजिंग, आपूर्ति Ÿृांखला प्रबंधन, रीटेल आदि के लिए भी उपयुक्त नए नियम तय हुए हैं। अब चूंकि आर्गेनिक खेती में छोटे किसान ज्यादा सफल हैं। ऐसे में छोटे कृषि व्यापार ज्यादा उपयोगी और सफल साबित हो सकते हैं। उनके लिए संभावनाएं कहीं ज्यादा हैं। आर्गेनिक खेती को गैर सरकारी संगठनों द्वारा खासा बढ़ावा दिया जा रहा है। ऐसे में एनजीओ और रिटेल बिजनेस में लगी कंपनियों के बीच रिश्तों में एक तरह का संकोच और खिंचाव है। यह बाधा कुछ हद तक वास्तविक या काल्पनिक है। ऐसे में नई किस्म का एग्री बिजनेस मॉडल विकसित किए जाने की जरूरत है। इससे गैर सरकारी संगठनों की भूमिका काफी बढ़ा दी है।

खेतों पर प्रभाव विभिन्न वैज्ञानिकों एवं विशेषज्ञों के अनुसार गोमूत्र में करीब 33 तत्व मौजूद होते हैं। इसमें शामिल गंधक एवं तांबा जहां बेहतर कीटनाशक का काम करते हैं। वहीं नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटेशियम, लोहा, चूना, सोडियम अदि तत्व फसल को निरोगी एवं सशक्त बनाते हैं। इसके अलावा इसमें पाए जाने वाले मैंगनीज तथा काबरेलिक एसिड कीटनाशक एवं कीटों के प्रजननरोधक का काम करते हैं। डा. सुरश मोटवानी कहते हैं कि विभिन्न विशेषज्ञों द्वारा गोमूत्र के इन गुणों का उल्लेख किताबों में भी किया गया है। इन गुणों के कारण गौमूत्र से बने कीटनाशक का उपयोग करने पर उपज में 10-12 प्रतिशत की वृद्धि भी होती है। इसके अलावा गोमूत्र का कीटनाशक सस्ता पड़ने के कारण किसानों के लिए लाभकारी होता है। वे बताते हैं कि फसल को कीटों से बचाने के लिए रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल पर 400 से 800 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से खर्च करना पड़ता है। वहीं गोमूत्र से कीटनाशक तैयार करने में नाम मुश्किल से एक चौथाई रह जाता है। इसलिए गोमूत्र से बना कीटनाशक खेती की लागत को भी कम करता है। भोपाल के निकटवर्ती गांवों में किसानों को गोमूत्र से बने कीटनाशकों के उपयोग के लिए प्रेरित करने के मकसद से विशेष अभियान चलाया गया था। इन गांवों में खेतों की उपज बढ़ी है।

महंगे रासायनिक कीटनाशकों के स्थान पर गौमूत्र से तैयार कीटनाशक कृषि वैज्ञानिकों को ज्यादा असरकारी साबित हुए हैं। बशर्ते इसे बनाने और इस्तेमाल का सही तरीका अपनाएं। इससे किसानों की लागत घटेगी और पैदावार में बढ़ोतरी भी हो सकती है।

कीटनाशक बनाने की विधि डा. मोटवानी बताते हैं कि गौमूत्र से कीटनाशक तैयार करने के लिए गौमूत्र के अलावा नीम की पत्तियों की जरूरत होती है। इसके लिए देशी गाय के करीब 10 लीटर गो मूत्र से तैयार कीटनाशक करीब दो से ढाई एकड़ खेत में फसल को कीटों से बचाने के लिए पर्याप्त होगा।

मैया की पुकार

कत्लखाने मेँ बेबस खड़ी गऊ मैया की रुदन पुकार को कविता के रुप मेँ व्यक्त कर रहा हूँ

मैया की पुकार

तुम तान रजाई सो जाते हो ,
अपन ऊँचे मकानोँ मेँ ,
घड़ियाँ मौत की मैँ गिनती हूँ  पल पल  कत्लखानोँ मेँ ,

क्या सीने मेँ तेरे दर्द नहीँ , अपनी माँ के काटे जाने का ,
काट काट के टुकड़े मेरे , थाली मेँ बाँटे जाने का ,
गौ माँ के लिये प्यार नहीँ है क्या देश के दीवानोँ मेँ ,
घड़ियाँ मौत की मैँ गिनती हूँ पल पल कत्लखानोँ मेँ ,

डँडे मार के भगाते हो मुझको , तरस नहीँ आता है क्या ,
प्यार से पुचकारने पर मुझको कुछ मोल लग जाता है क्या ,
रुखी सूखी दे देते हो , खुद खाते बढ़िया पकवानोँ मेँ ,
घड़ियाँ मौत की गिनती हूँ मैँ पल पल कत्लखानोँ मेँ ,

कुछ ना चाहिये बस तुमसे एक छोटी सी अरदास है ,
उसे मत निकालना घर से तुम जो माँ तुम्हारे पास है ,
लगता है नाम ही रह जायेगा बस इन गौभक्ति के तरानोँ मेँ ,
घड़ियाँ मौत की मैँ गिनती हूँ पल पल कत्लखानोँ मेँ ।

दूध पिलाया पूरी ज़िँदगी उसका कर्ज निभा देना ,
काट सर मेरे कातिल का तुम अपना फर्ज़ निभा देना ,
हर बार ही कटती आयी हूँ मैँ राजनीति के पैमानोँ मेँ ,
घड़ियाँ मौत की मैँ गिनती हूँ पल पल कत्लखानोँ में ।

Poet – Gaurav Bava

गोबर खाद बनाने की विधि

 

भारत में पहले गोबर से खाद बनाने की दो विधियाँ प्रचलित थीं, किंतु एक तीसरी विधि भी अब प्रचलित की जा रही है. ये विधियाँ निम्नलिखित हैं:

ठंडी विधि

इसके लिये उचित आकार के गढ़े, 20-25 फुट लंबे, 5-6 फुट चौड़े तथा 3 से लेकर 10 फुट गहरे, खोदे जाते हैं और इनमें गोबर भर दिया जाता है. भरते समय उसे इस प्रकार दबाते हैं कि कोई जगह खाली न रह जाए. गढ़े का ऊपरी भाग गुंबद की तरह बना लेते हैं और गोबर ही से उसे लेप लेते हैं, जिससे वर्षा ऋतु का अनावश्यक जल उसमें घुसने न पाए. तत्पश्चात् लगभग तीन महीने तक खाद को बनने के लिये छोड़ देते हैं. इस विधि में गढ़े का ताप कभी 34 डिग्री से ऊपर नहीं जा पाता, क्योंकि गढ़े में रासायनिक क्रियाएँ हवा के अभाव में सीमित रहती हैं. इस विधि में नाइट्रोजनयुक्त पदार्थ खाद से निकलने नहीं पाते.

गरम विधि

इस विधि में गोबर की एक पतली तह बिना दबाए डाल दी जाती है. हवा की उपस्थिति में रासायनिक परिवर्तन होते हैं, जिससे ताप 60 डिग्री सें. तक पहुँच जाता है. तह को फिर दबा दिया जाता है और दूसरी पतली तह उस पर डाल दी जाती है जिसके ताप बढ़ने दिया जाता है. इस प्रकार ढेर दस से बीस फुट तक ऊँचा बन जाता है, जो कुछ महीनों के लिये इसी अवस्था में छोड़ दिया जाता है. इस रीति से विशेष लाभ यह होता है कि ताप बढ़ने पर घास, मोटे आदि हानिकर पौधों के बीज, जो गोबर में उपस्थित रह सकते हैं, नष्ट हो जाते हैं. प्रत्येक पशु से इस प्रकार 5 से 6 टन खाद बन सकती है.

हवा की उपस्थिति में खाद और गैस उत्पादन

भारतीय कृषि अनुसंधान केंद्र द्वारा विकसित की गई इस विधि में एक साधारण यंत्र का उपयोग होता है, जिसमें गोबर का पाचन हवा की अनुपस्थिति में होता. इस विधि से एक प्रकार की गैस निकलती है, जो प्रकाश करने, यंत्र चलाने तथा भोजन पकाने के लिये ईंधन के रूप में काम आती है. गोबर पानी का मिश्रण कर पाचक-यंत्र में प्रति दिन डालते जाते हैं और निकलने वाली गैस से उपरोक्त काम लेते हैं. इस विधि की विशेषता यह है कि गोबर सड़कर गंधहीन खाद के रूप में प्राप्त हो जाता है और इसके नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश आदि ऐसे उपयोगी तत्व बिना नष्ट हुए इसी में सुरक्षित रह जाते हैं. साथ साथ इससे उपयोगी गैस भी मिल जाती है. अनुमान है कि एक ग्राम परिवार, जिसमें 4-5 पशु हैं, लगभग 70-75 घन फुट जलने वाली गैस प्रति दिन तैयार कर सकता है.

भारत में कुछ गोबर की मात्रा और उसमें उपस्थित नाईट्रोजन फास्फोरस एवं पोटाश का वार्षिक उत्पादन इस प्रकार है:

गोबर (सूखा) 1,446 लाख टन

कार्बनिक पदार्थ 1,157 लाख टन

नाइट्रोजन 18.08 लाख टन

फास्फोरस 7.23 लाख टन

पोटाश 1.085 लाख टन

किंतु गोबर का बहुत थोड़ा भाग ही खाद के रूप में प्रयुक्त हो पाता है. इसी कारण इस देश का उत्पादन दूसरे देशों के अनुपात बहुत कम है. जलावन के रूप में गोबर का उपयोग एक बहुमूल्य खाद को नष्ट करना है. जहाँ तक हो गोबर को खाद के लिये ही काम में लाना चाहिए.

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