जल से चिकित्सा – Water therapy

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हमारे देश का स्वास्थ्य तथा उसकी चिकित्सा एलौपैथी की मंहगी दवाइयों से उतनी सुरक्षित नहीं, जितना हमें आयुर्वैदिक तथा ऋषिपद्धति के उपचारों से लाभ मिलता है। आज विदेशी लोग भी हमारे आयुर्वैदिक उपचारों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। हमें भी चाहिए कि हम ‘साइड इफैक्ट’ करने वाली एलोपैथी की मँहगी दवाओं से बचकर प्राकृतिक आयुर्वैदिक उपचार को ही अपने जीवन में उतारें।

हम यहाँ अपने पाठकों के लिए विभिन्न रोगों के उपचार के रूप में चार प्रकार के जल-निर्माण की विधि बता रहे हैं जो अदभुत एवं असरकारक नुस्खे हैं।

सोंठ जलः पानी की तपेली में एक पूरी साबूत सोंठ डालकर पानी गरम करें। जब अच्छी तरह उबलकर पानी आधा रह जाये तब उसे ठंडा कर दो बार छानें। ध्यान रहे कि इस उबले हुए पानी के पैंदे में जमा क्षार छाने हुए जल में न आवे। अतः मोटे कपड़े से दो बार छानें। यह जल पीने से पुरानी सर्दी, दमा, टी.बी., श्वास के रोग, हाँफना, हिचकी, फेफड़ों में पानी भरना, अजीर्ण, अपच, कृमि, दस्त, चिकना आमदोष, बहुमूत्र, डायबिटीज (मधुमेह), लो ब्लडप्रेशर, शरीर का ठंडा रहना, मस्तक पीड़ा जैसे कफदोषजन्य तमाम रोगों में यह जल उपरोक्त रोगों की अनुभूत एवं उत्तम औषधि है। यह जल दिनभर पीने के काम में लावें। रोग में लाभप्राप्ति के पश्चात भी कुछ दिन तक यह प्रयोग चालू ही रखें।

धना-जलः एक लीटर पानी में एक से डेढ़ चम्मच सूखा (पुराना) खड़ा धनिया डालकर पानी उबालें। जब 750 ग्राम जल बचे तो ठंडा कर उसे छान लें। यह जल अत्यधिक शीतल प्रकृति का होकर पित्तदोष, गर्मी के कारण होने वाले रोगों में तथा पित्त की तासीरवाले लोगों को अत्यधिक वांछित लाभ प्रदान करता है। गर्मी-पित्त के बुखार, पेट की जलन, पित्त की उलटी, खट्टी डकार, अम्लपित्त, पेट के छाले, आँखों की जलन, नाक से खून टपकना,रक्तस्राव, गर्मी के पीले-पतले दस्त, गर्मी की सूखी खाँसी, अति प्यास तथा खूनी बवासीर (मस्सा) या जलन-सूजनवाले बवासीर जैसे रोगों में यह जल अत्यधिक लाभप्रद है। अत्यधिक लाभ के लिए इस जल में मिश्री मिलाकर पियें। जो लोग कॉफी तथा अन्य मादक पदार्थों का व्यसन करके शरीर का विनाश करते हैं उनके लिए इस जल का नियमित सेवन लाभप्रद तथा विषनाशक है।

अजमा जलः एक लीटर पानी में ताजा नया अजवाइन एक चम्मच (करीब 8.5 ग्राम) मात्रा में डालकर उबालें। आधा पानी रह जाय तब ठंडा करके छान लें व पियें। यह जल वायु तथा कफदोष से उत्पन्न तमाम रोगों के लिए अत्यधिक लाभप्रद उपचार है। इसके नियमित सेवन से हृदय की शूल पीड़ा, पेट की वायु पीड़ा, आफरा, पेट का गोला, हिचकी, अरुचि,मंदाग्नि, पेट के कृमि, पीठ का दर्द, अजीर्ण के दस्त, कॉलरा, सर्दी, बहुमूत्र, डायबिटीज जैसे अनेक रोगों में यह जल अत्यधिक लाभप्रद है। यह जल उष्ण प्रकृति का होता है।

जीरा जलः एक लीटर पानी में एक से डेढ़ चम्मच जीरा डालकर उबालें। जब 750 ग्राम पानी बचे तो उतारकर ठंडा कर छान लें। यह जल धना जल के समान शीतल गुणवाला है। वायु तथा पित्तदोष से होने वाले रोगों में यह अत्यधिक हितकारी है। गर्भवती एवं प्रसूता स्त्रियों के लिए तो यह एक वरदान है। जिन्हें रक्तप्रदर का रोग हो, गर्भाशय की गर्मी के कारण बार-बार गर्भपात हो जाता हो अथवा मृत बालक का जन्म होता हो या जन्मने के तुरंत बाद शिशु की मृत्यु हो जाती हो, उन महिलाओं को गर्भकाल के दूसरे से आठवें मास तक नियमित जीरा-जल पीना चाहिए।

एक-एक दिन के अंतर से आनेवाले, ठंडयुक्त एवं मलेरिया बुखार में, आँखों में गर्मी के कारण लालपन, हाथ, पैर में जलन, वायु अथवा पित्त की उलटी (वमन), गर्मी या वायु के दस्त, रक्तविकार, श्वेतप्रदर, अनियमित मासिक स्राव गर्भाशय की सूजन, कृमि, पेशाब की अल्पता इत्यादि रोगों में इस जल के नियमित सेवन से आशातीत लाभ मिलता है। बिना पैसे की औषधि…. इस जल से विभिन्न रोगों में चमत्कारिक लाभ मिलता है।

प्राकृतिक चिकित्सा के मुलभुत सिद्दांत

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दुर्घटना एवं महामारी को छोड़कर प्रत्येक रोग की उत्पत्ति का कारण शरीर में विजातीय दूषित द्रव्यों का जमा होना है और इन दूषित द्रव्यों के शरीर में जमा होने का कारण है रोगी द्वारा प्रकृति के विरुद्ध खान-पान एवं रहन-सहन। इस बात की पुष्टि करते हुए ऋषि चरक ने कहा हैः “समस्त रोगों का कारण कुपित हुआ मल है और उसके प्रकोप का कारण अनुचित आहार-विहार है।”

अनुचित आहार-विहार से पाचनक्रिया बिगड़ जाती है और यदि पाचनक्रिया ठीक न हो तो मल पूर्ण रूप से शरीर से बाहर नहीं निकल पाता और वही मल धीरे-धीरे शरीर में जमा होकर बीमारी का रूप ले लेता है।

जिनकी जठराग्नि मंद है, खान-पान अनुचित है, जो व्यायाम एवं उचित विश्राम नहीं करते उनके शरीर में विजातीय द्रव्य अधिक बनते हैं। मल-मूत्र, पसीने आदि के द्वारा जब पूर्ण रूप से ये विजातीय द्रव्य बाहर नहीं निकल पाते और शरीर के जिस अंग में जमा होने लगते हैं उसकी कार्यप्रणाली खराब हो जाती है। परिणामस्वरूप उससे संबंधित रोग उत्पन्न हो जाते हैं। रोगों के नाम चाहे अलग-अलग हों किन्तु सबका मूल कारण कुपित मल ही है।

तीव्र रोग

शरीर की जीवनशक्ति हमारे अंदर एकत्रित हुए मल को यत्नपूर्वक बाहर निकालकर शरीर की सफाई करने की कोशिश करती है। समस्त तीव्र रोग जैसे कि सर्दी, दस्त, कॉलरा,आँव एवं प्रत्येक प्रकार के बुखार वास्तव में शरीर से गंदे एवं विषाक्त द्रव्यों को बाहर निकालने की क्रिया है जो कि रोगरूप से प्रगट होती है। उसे ही हम तीव्र रोग कहते हैं।

जीर्ण रोग

जहरीली एवं धातुयुक्त दवाएँ लेने के कारण तीव्र रोग शरीर में ही दब जाते हैं। फलस्वरूप शरीर के किसी न किसी अंग में जमा होकर वे पुराने एवं घातक रोग का रूप ले लेते हैं। उन्हें ही जीर्ण रोग कहा जाता है।

प्राकृतिक चिकित्सा

प्राकृतिक चिकित्सा रोगों को दबाती नहीं है वरन् जड़मूल से निकालकर शरीर को पूर्णरूप से नीरोग कर देती है एवं इसमें एलोपैथी दवाइयों की तरह ‘साइड इफैक्ट’ की संभावना भी नहीं रहती। जल चिकित्सा, सूर्यचिकित्सा, मिट्टी चिकित्सा, मालिश, सेंक आदि ऐसी ही प्राकृतिक चिकित्साएँ हैं जो मनुष्य को पूरी तरह से स्वस्थ करने में पूर्णतया सक्षम हैं।

सूर्य किरण चिकित्सा

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सूर्यकिरणों में सात रंग होते हैं जो कि शरीर के विभिन्न रोगों के उपचार में सहायक हैं। सूर्यकिरणों में शक्ति का अथाह भण्डार छिपा हुआ है इसीलिए बीमारी के समय सूर्य की किरणों में बैठकर पशु अपनी बीमारी जल्दी मिटा लेते हैं, जबकि मनुष्य कृत्रिम दवाओं की गुलामी करके अपना स्वास्थ्य और अधिक बिगाड़ लेता है। यदि वह चाहे तो सूर्यकिरण जैसी प्राकृतिक चिकित्सा के माध्यम से शीघ्र ही आरोग्यलाभ कर सकता है।

इसीलिए प्राचीन काल से ही भारतवर्ष में सूर्यपूजा होती आ रही है। आरोग्यप्रदायक होने के साथ ही सूर्य सबके जीवन-रक्षक भी हैं इसीलिए उन्हें भगवान की संज्ञा दी गई है। सूर्य को सप्तरश्मि कहा गया है जिससे पता चलता है कि भारतवासियों का ज्ञान कितना उच्च कोटि का था। वैज्ञानिकों ने तो अब स्वीकारा लेकिन हमारे ऋषि-मुनियों ने तो आदि काल से ही भगवान सूर्य को जल अर्पण करके नमस्कार का विधान रचा है तथा आज भी इसका जनमानस में प्रचार-प्रसार हो रहा है।

प्रातःकाल उदित भगवान भास्कर के सम्मुख खड़े होकर एक शुद्ध पात्र में जल भरकर दोनों हाथ से पात्र को ऊँचा उठाकर जब सूर्य भगवान को जल अर्पण किया जाता है तब उस जलधारा को पार करती हुई सूर्यकिरणें हमारे सिर से पैरों तक पड़ती हैं। इस क्रिया से हमें स्वतः ही सूर्यकिरणयुक्त जलचिकित्सा का लाभ मिल जाता है।

हमारे ऋषियों ने मंत्र एवं व्यायाम सहित सूर्यनमस्कार की एक प्रणाली विकसित की है जिसमें सूर्योपासना के साथ-साथ आसन की क्रियाएँ भी हो जाती हैं। सूर्यनमस्कार के संबंध में ऐसी मान्यता भी प्रचलित है कि जिसने यह विधि कर ली उसने सारे आसन कर लिए। सूर्यनमस्कार की प्रत्येक मुद्रा में निम्नलिखित एक-एक मंत्र का उच्चारण करना चाहिएः

ॐ मित्राय नमः। ॐ रवये नमः। ॐ मरीचये नमः। ॐ सूर्याय नमः। ॐ आदित्याय नमः। ॐ भानवे नमः। ॐ सवित्रे नमः। ॐ खगाय नमः। ॐ अर्काय नमः। ॐ पूष्णे नमः। ॐ हिरण्यगर्भाय नमः। ॐ भास्कराय नमः। ॐ श्रीसवितृसूर्यनारायणाय नमः।

सूर्यनमस्कार के बाद पुनः आँखें मूँदकर, सूर्यनारायण का प्रकाश नाभि पर पड़े इस प्रकार खड़े होकर ऐसा संकल्प करें- “सूर्य देवता का नीलवर्ण मेरी नाभि में प्रवेश कर रहा है। मेरे शरीर में सूर्यनारायण की तेजोमय शक्ति का संचार हो रहा है। आरोग्यप्रदाता भगवान की भास्कर की जीवनपोषक रश्मियों से मेरे रोम-रोम में रोगप्रतिकारक क्षमता का अतुलित संचार हो रहा है।”

प्रतिदिन सूर्यस्नान, सूर्यनमस्कार तथा सूर्योपासना करने वाले का जीवन भी भगवान भास्कर के प्रचण्ड तेज के समुज्जवल तथा तमसानाशक बनता है।

सूर्यरश्मियों के रंगwhite-light-dispersion

सूर्य की सात किरणों में नीला, लाल एवं हरा रंग प्रमुख है। बाकी के जामुनी,आसमानी, पीला, नारंगी ये चार रंग ऊपर के तीन रंगों का ही मिश्रण है।

नीला-जामुनी-आसमानीः ठंडक एवं शान्ति देता है।

लाल-पीला-नारंगीः गर्मी एवं उत्तेजना देता है।

हरा रंगः ऊपर के रंगों के बीच संतुलन बनाये रखता है एवं रक्तशोधक है।

सूर्य-किरण प्रयोग के माध्यम

पानीः जिस रंग की दवा तैयार करनी हो उस रंग की बॉटल को अच्छी तरह धोकर पौना भाग पानी से भरकर धूप मे रख दें। पानी के आरपार धूप जायेगी एवं आठ घण्टे में पानी तैयार हो जायेगा। यदि इस पानी को दो-तीन दिन धूप में रखा जाये तो उसमें अधिक मात्रा में औषध तत्व आ जाने के कारण पानी अधिक गुणकारी हो जायेगा।आपत्तिकाल में दो घण्टे धूप में रखा हुआ पानी उपयोग में लाया जा सकता है।

सावधानीः दो अलग-अलग रंग की बॉटल को दूर-दूर रखें जिससे एक दूसरे पर छाया न पड़े।

शक्करः दवा को यदि बाहर भेजना हो तो बॉटल में शक्कर भरकर धूप में तीस चालीस दिन रखें एवं रोज हिलायें जिससे अंदर-बाहर के सब कण तैयार हो जायें। बॉटल एकदम सूखी होनी चाहिए।

तेलः मालिश करने हेतु नीली बॉटल में सरसों का तेल ठंडक पहुँचाने हेतु एवं लाल बॉटल में तिल का तेल गर्मी पहुँचाने हेतु तैयार करें।

तीस-चालीस दिन धूप में रखने से एवं रोज हिलाते रहने से तथा ऊपर की मिट्टी साफ करते रहने से तेल तैयार हो जायेगा। जितने अधिक दिन बॉटल धूप में रहेगी दवा उतनी ही अधिक ताकतवाली बनेगी।

ग्लिसरीनः नीले रंग की बॉटल में ग्लिसरीन डालकर धूप में तीस-चालीस दिन रखें। गले के रोगों, छालों एवं मसूढ़ों पर जहाँ तेल का उपयोग नहीं किया जा सकता वहाँ इसका उपयोग करें।

कुछ आवश्यक बातें

आपत्तिकाल में सात दिन तक चार्ज की हुई शक्कर, तेल अथवा ग्लिसरीन का उपयोग किया जा सकता है। आँखों के लिए हरी बॉटल में पानी अथवा गुलाबजल तैयार किया जा सकता है।

बॉटल को रात-दिन छत पर पड़ी रहने दें। रात्रि को चंद्र की किरणें बॉटल पर पड़ने से हानि नहीं होती।

नीले एवं हरे रंग की बॉटल तो मिल जाती है। लाल बॉटल के लिए नारंगी अथवा कत्थई रंग की बॉटल का उपयोग किया जा सकता है।

पीने के लिए हमेशा नारंगी रंग की बॉटल का ही पानी दें। मालिश के लिए लाल बॉटल न मिले तो नारंगी बॉटल चलेगी।

यदि कोई भी रंग की बॉटल न मिले तो सफेद बॉटल पर दो पर्तोंवाला पारदर्शी पेपर (जिस कलर का चाहिए) लपेटकर धागे से बाँध दें एवं कलर उड़ने पर कागज बदलते रहें।

चुम्बक चिकित्सा( Magnet therapy) पानी को चुम्बकांकित करने की विधि

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काँच की बॉटल में पानी भरकर डाट लगाकर फिट करके उसकी एक ओर उत्तर ध्रुव एवं दूसरी ओर दक्षिण ध्रुव आये इस प्रकार से चुम्बक लगायें। ये चुम्बक लगभग 2000 से 3000 गोस की शक्तिवाले चाहिए। इन चुम्बकों का उत्तरी ध्रुव उत्तर दिशा की ओर एवं दक्षिण ध्रुव दक्षिण दिशा की ओर आये इस प्रकार से जमायें।

सामान्यतया 24 घंटों में चुम्बकांकित पानी तैयार होता है। फिर भी यदि जल्दी उपयोग में लेना हो तो 12 से 14 घण्टे तक का प्रभावित जल भी लिया जा सकता है।

इस पानी को न तो गरम करें और न ही फ़्रीज में रखें। यदि किसी संक्रामक रोग का उपद्रव चल रहा हो तब उबाले हुए पानी को लोहचुम्बकांकित करके उपयोग में लाया जाये तो रोग का सामना आसानी से किया जा सकता है।

यह पानी औषधीय गुणों से युक्त होता है। स्वस्थ व्यक्ति उसका उपयोग करके पाचनक्रिया को सुधार सकता है और थकान मिटा सकता है। यह पानी रक्तवाहिनियों में कोलेस्टरोल को जमा होने से रोकता है तथा जमी हुई कोलेस्टरोल को दूर करके हृदय की कार्यक्षमता बढ़ाता है। यह पानी मूत्र होकर मूत्राशय, मूत्रपिंड एवं पित्ताशय की तकलीफों में उपयोगी है। इस पानी के द्वारा पथरी पिघल जाती है, स्त्रियों की मासिक धर्म की अनियमितताएँ दूर होती हैं एवं गर्भाशय की तकलीफों में भी राहत मिलती है। बुखार, दर्द,दमा, सर्दी, खाँसी आदि में, बालकों के विकास में तथा जहर के असर को मिटाने के लिए भी यह पानी उपयोगी है।

चुम्बकांकित पानी की मात्राmagneticbodysupportsmagnetickneepadmagnetictherapyproducts_1

दिन में चार बार, लगभग आधा-आधा गिलास जितना लें। बुखार में ज्यादा बार लें। छोटे बच्चों को केवल पाव गिलास पानी दें। इस पानी का उपयोग आँखें धोने,जख्म साफ करने तथा जलने पर भी किया जा सकता है।

उसके अतिरिक्त अलग-अलग अंगों की चिकित्सा के लिए अलग-अलग शक्तिवाले चुम्बक के बनाये गये साधन,पट्टे आदि मिलते हैं। उनके द्वारा भी दिन में दो-तीन बार चिकित्सा करने से शरीर के अंग क्रियाशील होकर स्वस्थ होने में मदद करते हैं।

मिट्टी चिकित्सा – Mud therapy

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उपयोगी मिट्टीः मिट्टी चिकित्सा के लिए उपयोग में लाई जाने वाली मिट्टी भुरभुरी,कंकड़ बिना की, साफ एवं निर्मल होनी चाहिए। जहाँ मलमूत्र का त्याग होता हो वहाँ की मिट्टी न लें। नदी किनारे की एवं काली मिट्टी अच्छी मानी जाती है। चींटी की बाँबी की मिट्टी इस मिट्टी चिकित्सा के योग्य होती है।

यदि इस प्रकार की उत्तम मिट्टी न मिल सके तो फिर खाद बिना की शुद्ध मिट्टी को लिया जा सकता है। मिट्टी को अच्छी तरह पीसकर बारीक छलनी से छान लें और उपयोग में लेने से 12 घण्टे पूर्व मिट्टी के बर्तन में भीगो दें।

मिट्टी को भिगोते समय मिट्टी के बर्तन में पानी लेकर पानी पर धीरे-धीरे भुरभुरायें। सब मिट्टी एक साथ डाल देने से वह गट्ठा हो जाती है और पानी के साथ एकरस नहीं हो पाती। मिट्टी के प्रकार के अनुसार पानी की मात्रा लें। सामान्यतया रोटी के आटे से थोड़ी ढीली मिट्टी रखें ताकि उसे कपड़े की पट्टी पर अच्छी तरह से लगाया जा सके।

मिट्टी की पट्टी

पट्टी बनाने के लिए नर्म, पतला, छिद्रयुक्त एवं एकदम स्वच्छ कपड़ा उपयोग में लेना चाहिए। एकदम पुराना वस्त्र इस रूप में उपयोगी होता है। ऐसे कपड़ों को लकड़ी के चिकने तख्त अथवा पटे पर बिछाकर उसके बीच में मिट्टी रखें। तत्पश्चात् कपड़े के चारों छोर को एक के बाद एक ऊपर की ओर मोड़कर हथेली एवं उँगलियों से दबाकर पट्टी तैयार करें। इससे ऊपरी भाग की मिट्टी ढँक जायेगी। कपड़े के नीचे की ओर केवल एक ही तह रहेगी। इस एक तहवाले सिरे को शरीर पर रखें। सामान्य रूप से पट्टी आधा इंच मोटी होनी चाहिए किन्तु यदि दुर्बल रोगी के कोमल अंगों पर पट्टी रखनी हो तो उस वक्त पट्टी की मोटाई घटाकर पाव इंच या एक तिहाई इंच की जा सकती है। पट्टी की लंबाई एवं चौड़ाई का आधार, उसे शरीर के किस भाग पर रखना है इस पर निर्भर करता है।

मिट्टी शरीर के रोमछिद्रों द्वारा शरीर का कचरा खींच लेती है। अतः एक बार उपयोग में ली गयी पट्टी का दूसरी बार उपयोग करना हानिकारक है। अतः रोज ताजी एवं ठण्डी मिट्टी का ही उपयोग करें। एक बार उपयोग में ली गई मिट्टी को अच्छी तरह धूप एवं बारिश लगने पर उसका कचरा धुल जाता है। उसके बाद उसे पीस और छानकर दूसरी बार उपयोग में लाया जा सकता है। पट्टी के कपड़े को भी हर बार अच्छी तरह से धोकर धूप में सुखा लेना चाहिए।

पट्टी रखने की विधि

सामान्यतया मिट्टी की पट्टी आधे से एक घण्टे तक रखने चाहिए। शरीर की गर्मी के कारण मिट्टी गरम हो जाये तो पट्टी उठा लें। यदि पट्टी रखना जारी रखना हो तो आधे से एक घण्टे के अंतर में पट्टी बदलते रहना चाहिए। मिट्टी की पट्टी रखने पर प्रारम्भ में रोगी को थोड़ी ठण्डी लगती है किन्तु बाद में भी ठण्डी लगती रहे और रोगी को अच्छा न लगे तो पट्टी उठा लेना चाहिए अन्यथा अधिक ठण्ड की वजह से पट्टीवाले अंग का रुधिराभिसरण बंद होकर वह अंग सुन्न हो जाता है।

मिट्टी की पट्टी से लाभ

मिट्टी की पट्टी रखने से उसके संपर्क में आनेवाली त्वचा संकुचित होती है जिससे ऊपरी सतह का अधिक रक्त भीतरी भाग में पहुँचकर वहाँ के कोषों को शुद्ध करता है एवं पोषण देता है। भीतरी भाग में जमे हुए रक्त (कन्जेक्शन) को अलग करने में, सूजन एवं दर्द को दूर करने में एवं जख्मों को भरने में मिट्टी की पट्टी का प्रयोग लाभदायक है।

शरीर के भिन्न-भिन्न भागों पर मिट्टी चिकित्सा सिर पर ठण्डी मिट्टी का प्रयोग

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सामान्यतया ललाट पर 3 इंच चौड़ी एवं 6 इंच लम्बी पट्टी का प्रयोग किया जाता है। इस पट्टी के दोनों छोर ललाट के दोनों ओर कान तक पहुँचने चाहिए। पट्टी की चौड़ाई 5 इंच रखें तो आँखें भी ढँक जायेंगी। सिर पर (ललाट पर) सीधे भी मिट्टी का लेप किया जा सकता है। भोजन अथवा स्नान के कम से कम एक घण्टे बाद ही मिट्टी-प्रयोग करें।

अनिद्रा, चक्कर, सिरदर्द, नकसीर, हाई बी.पी., मेनिनजाइटिस, बाल झड़ने अथवा बालों में रूसी होने आदि रोगों में सिर पर मिट्टी की पट्टी रखना लाभदायक है।

आँख पर मिट्टी की पट्टी

आँख आने पर, सूजन एवं दर्द होने पर, चश्मे के नम्बर उतारने में आँख पर मिट्टी की पट्टी रखना लाभदायक है।

आँख पर रखी हुई पट्टी सामान्यतया 20 से 30 मिनट में गर्म हो जाती है। गर्म होने पर पट्टी बदल दें। आँख आने के रोग में पट्टी को थोड़े-थोड़े समय के अंतर पर बदलते रहें।

पेट पर मिट्टी की पट्टी

पेट के लगभग समस्त रोगों (पाचनक्रिया से संबंधित) में पेट पर मिट्टी की पट्टी या सीधी मिट्टी रखने का प्रयोग किया जाता है। अधिकांशतः पेड़ू पर ही पट्टी रखी जाती है।

कब्जियत, गैस, अल्सर, सूजन आदि रोगों में यह लाभदायक प्रयोग है।

खाली पेट पट्टी रखना अधिक लाभदायक है अन्यथा भोजन के दो घण्टे बाद रखें। सामान्यतया आधे से एक घण्टे तक पट्टी रखना उचित होता है।

मलद्वार (गुदा) पर मिट्टी चिकित्सा

सादे अथवा बवासीर, आँव, भगंदर आदि रोग में गुदा में जलन एवं फुन्सी होने पर तथा कमजोरी के कारण गुदा के बाहर निकल आने पर ठण्डी मिट्टी की पट्टी का प्रयोग हितकर है।

त्वचा के रोग पर मिट्टी चिकित्सा

दाद-खाज-खुजली, फुन्सी आदि त्वचा के रोगों में मिट्टी का प्रयोग निःशंक होकर किया जा सकता है। 15 से 30 मिनट तक सर्वांग सूर्यस्नान लेने के बाद पूरे शरीर पर मिट्टी लगा दे और पुनः सूर्यस्नान करें। ठण्डी की वजह से पूरे शरीर पर मिट्टी लगाना संभव न हो तो रोग से प्रभावित अंग पर ही लगायें। धूप की वजह से 40-50 मिनट में मिट्टी सूख जायेगी। सूख जाने पर ठण्डे पानी से धो लें। तत्पश्चात् त्वचा को साफ करने के लिए नींबू के रस से समस्त भागों की मालिश करके फिर नारियल का तेल लगाकर स्नान कर लें। ऐसा करने से नींबू के कारण होती जलन एवं रूखापन दूर हो जाता है।

कोढ़ एवं रक्तपित्त में भी मिट्टी-प्रयोग लाभदायक है किन्तु उसमें मिट्टी लगाकर धूप में न बैठकर छाया में बैठना चाहिए एवं मिट्टी के थोड़ा सूखने पर (आधे-एक घण्टे में) पानी से स्नान कर लेना चाहिए।

कमजोर रोगी यदि छाया सहन न कर सके तो कम धूप में बैठे।

फोड़े-फुन्सी या घाव होने पर पहले उसे नीम के ठण्डे काढ़े से धोकर फिर उस पर मिट्टी की पट्टी रखने से लाभ होता है।

ऐक्युप्रेशर चिकित्सा – Acupressure Therapy

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हमारे शरीर में जो चुम्बकीय प्रवाह बहता है उसके स्विच बोर्ड दोनों हथेलियों एवं पैर के दोनों तलुओं में है। चित्र में ये अलग-अलग स्पर्शबिन्दु कहाँ-कहाँ है यह दर्शाया गया है।

  1. मस्तिष्क 2. मानसिक नर्वस 3. पीटयुटरी 4. पीनीअल 5. मस्तिष्क की नर्वस 6. गला 7. कण्ठ 8. थाइरोइड, पेराथाइरोइड 9. मेरुदण्ड 10. अर्श-मसा 11. प्रोस्टेट 12. योनिमार्ग 13. जननेन्द्रिय 14. गर्भाशय 15. अंडाशय 16. कमर, रीढ़ का नीचे का भाग, लिम्फ, ग्लेंड 17. जाँघ 18. ब्लेडर 19. आँतें 20. गुदा 21. एपेण्डिक्स 22. पित्ताशय 23. लीवर 24. कंधे 25. पेन्क्रियास 26. गुर्दा (किडनी) 27. जठर 28. आड्रेनल 29. सूर्यकेन्द्र 30. फेफड़े 31. कान 32. शक्तिकेन्द्र 33. नर्वस और कान 34. नर्वस और जुकाम 35. आँखें 36. हृदय 37. तिल्ली (स्पलीन,यकृत, प्लीहा) 38. थाइमस

दबाव डालने की रीतEar-Acupressure

इसमें हथेलियों एवं पैरों के तलुओं के बिन्दुओं एवं उनके आसपास दबाव दिया जाता है। ऐसा करने से बिन्दुओं के साथ जुड़े हुए अवयवों की ओर चुम्बकीय प्रवाह बहने लगता है। जैसे कि जब अँगूठे में स्थित मस्तिष्क के बिन्दु पर दबाव डाला जाये तो चुंबकीय प्रवाह मस्तिष्क में बहने लगता है जो कि मस्तिष्क को अधिक क्रियाशील बनाता है।

अँगूठे अथवा पहली उँगली अथवा बिना नोंक की हुई पेन्सिल से बिन्दुओं के ऊपर दबाव दिया जा सकता है। किसी भी बिन्दु पर 4 से 5 सेकेन्ड तक दबाव डालें। इसी प्रकार एक से दो मिनट तक पंपिंग पद्धति से दबाव डालें या फिर भारपूर्वक मालिश करें। बिन्दु पर दबाव का भार अनुभव हो उतना ही दबाव डालें, ज्यादा नहीं। नरम हाथ होंगे तो कम दबाव डालने से भी दबाव का अनुभव होगा। अंतःस्रावी ग्रंथियों के बिन्दुओं के सिवाय प्रत्येक बिन्दु पर आड़े अँगूठे द्वारा भार डालने से आवश्यक दबाव डल जायेगा जबकि अंतः स्रावी ग्रंथियों के बिन्दुओं पर अधिक दबाव देने के लिए अँगूठे, पेन्सिल या पेन का उपयोग किया जा सकता है।

शरीर के दायें भाग के अवयवों में तकलीफ अथवा दर्द हो तो दाँयें हाथ की हथेली या दायें पैर के तलुए के दबाव बिन्दुओं पर दबाव डालें। उसी प्रकार शरीर के बाँयें भाग की तकलीफों के लिए तत्संबंधी बायें हाथ की हथेली या बायें पैर के तलुए के दबाव-बिन्दुओं पर दबाव डाला जाना चाहिए।

शरीर के पीछे के भाग, रीढ़ की हड्डी, ज्ञानतंतुओं, कमर, सायटिका नस, जाँघ वगैरह आते हैं उसके लिए हथेली के पीछे के भाग में या पैर के ऊपर के भाग में दबाव दिया जाता है।

किसी भी रोग अथवा अवयव की खराबी के लिए हथेलियों के बिन्दुओं पर दिन में तीन बार 1 से 2 मिनट तक दबाव दिया जा सकता है और पैर के तलुओं के बिन्दुओं पर एक साथ पाँच मिनट तक दबाव डाला जा सकता है। जब तक बिन्दुओं का दर्द न मिटे तब तक इस प्रकार उपचार चालू रखें।

अन्तःस्रावी ग्रंथियाँ- ये ग्रंथियाँ शरीर के समस्त अवयवों का संचालन करती हैं। उनके बिन्दुओं पर अधिक दबाव दिया जाना चाहिए। यदि कोई ग्रंथि कम कार्य करती हो तो दबाव देने से उसकी कार्यशक्ति बढ़ती है और वह ठीक से कार्य करने लगती है। किन्तु यदि कोई ग्रंथि अधिक (आवश्यकता से अधिक) क्रियाशील हो तो दबाव डालने से उस ग्रंथि का कार्य कम अर्थात् आवश्यकतानुसार हो जाता है। इस प्रकार दबाव देने से अंतःस्रावी ग्रंथियों का नियमन हो सकता है।

रोगों से बचाव

Prevention is better than cure. दोनों हथेलियों एवं पैरों के तलुओं के बिन्दुओं पर रोज दस मिनट तक दबाव डालकर उन्हें सँभाल लिया जाये तो समस्त अवयव बैटरी की तरह रीचार्ज होकर क्रियाशील हो उठते हैं, अंतःस्रावी ग्रंथियाँ ठीक से कार्य करने लगती है, रोग प्रतिकारक शक्ति बढ़ती है और रोग होने की सम्भावना कम हो जाती है।

सूर्य बिन्दुः सूर्यबिन्दु छाती के परदे (डायाफ्राम) के नीचे आये हुए समस्त अवयवों का संचालन करता है। नाभि खिसक जाने पर अथवा डायाफ्राम के नीचे के किसी भी अवयव के ठीक से कार्य न करने पर सूर्यबिन्दु पर दबाव डाला जाना चाहिए।

शक्तिबिन्दुः जब बहुत थकान हो या रात्रि को नींद न आयी हो तब इस बिन्दु को दबाने से वहाँ दुःखेगा। उस समय वहाँ दबाव डालकर उपचार करें।