मकान सारे कच्चे थे – हरिवंश राय बच्चन

मकान चाहे कच्चे थे
लेकिन रिश्ते सारे सच्चे थे…

चारपाई पर बैठते थे
पास पास रहते थे…

सोफे और डबल बेड आ गए
दूरियां हमारी बढा गए….

छतों पर अब न सोते हैं
बात बतंगड अब न होते हैं..

आंगन में वृक्ष थे
सांझे सुख दुख थे…

दरवाजा खुला रहता था
राही भी आ बैठता था…

कौवे भी कांवते थे
मेहमान आते जाते थे…

इक साइकिल ही पास था
फिर भी मेल जोल था…

रिश्ते निभाते थे
रूठते मनाते थे…

पैसा चाहे कम था
माथे पे ना गम था…

मकान चाहे कच्चे थे
रिश्ते सारे सच्चे थे…

अब शायद कुछ पा लिया है
पर लगता है कि बहुत कुछ गंवा दिया

जीवन की भाग-दौड़ में –
क्यूँ वक़्त के साथ रंगत खो जाती है?
हँसती-खेलती ज़िन्दगी भी आम हो जाती है।

एक सवेरा था जब हँस कर उठते थे हम
और
आज कई बार
बिना मुस्कुराये ही शाम हो जाती है!!

कितने दूर निकल गए,
रिश्तो को निभाते निभाते

खुद को खो दिया हमने,
अपनों को पाते पाते

Beautiful poem by
–हरिवंशराय बच्चन

ऐ सुख तू कहाँ मिलता है

ऐ   “सुख”  तू  कहाँ   मिलता   है
क्या.  तेरा   कोई.  स्थायी.   पता.  है

क्यों   बन   बैठा   है.   अन्जाना
आखिर.  क्या   है   तेरा   ठिकाना।

कहाँ   कहाँ.    ढूंढा.  तुझको
पर.  तू  न.  कहीं  मिला  मुझको

ढूंढा.  ऊँचे   मकानों.  में
बड़ी  बड़ी   दुकानों.  में

स्वादिस्ट   पकवानों.  में
चोटी.  के.  धनवानों.  में

वो   भी   तुझको.    ढूंढ.  रहे   थे
बल्कि   मुझको.  ही   पूछ.  रहे.  थे

क्या   आपको   कुछ   पता    है
ये  सुख  आखिर  कहाँ  रहता   है?

मेरे.  पास.  तो.  “दुःख”  का   पता   था
जो   सुबह   शाम.  अक्सर.  मिलता  था

परेशान   होके   रपट    लिखवाई
पर   ये   कोशिश   भी   काम  न  आई

उम्र   अब   ढलान.   पे.   है
हौसले    थकान.   पे.    है

हाँ   उसकी.  तस्वीर   है   मेरे.  पास
अब.  भी.  बची   हुई.  है    आस

मैं.  भी.  हार    नही    मानूंगा
सुख.  के.  रहस्य   को.   जानूंगा

बचपन.   में    मिला    करता    था
मेरे    साथ   रहा    करता.   था

पर.  जबसे.   मैं    बड़ा   हो.   गया
मेरा.  सुख   मुझसे   जुदा.  हो  गया।

मैं   फिर   भी.  नही   हुआ    हताश
जारी   रखी    उसकी    तलाश

एक.  दिन.  जब   आवाज.  ये    आई
क्या.   मुझको.   ढूंढ.  रहा  है   भाई

मैं.  तेरे.  अन्दर   छुपा.   हुआ.    हूँ
तेरे.  ही.  घर.  में.  बसा.   हुआ.   हूँ

मेरा.  नही.  है   कुछ.   भी    “मोल”
सिक्कों.   में.  मुझको.   न.   तोल

मैं.  बच्चों.  की.   मुस्कानों.   में    हूँ
हारमोनियम   की.   तानों   में.   हूँ

पत्नी.  के.  साथ    चाय.   पीने.  में
“परिवार”    के.  संग.  जीने.   में

माँ.  बाप   के.  आशीर्वाद    में
रसोई   घर   के  पफवानो।  में

बच्चों।  की   सफलता।  में।   हूँ
माँ।   की।  निश्छल।  ममता  में  हूँ

हर।  पल।  तेरे।  संग    रहता।  हूँ
और   अक्सर।  तुझसे   कहता।  हूँ

मैं   तो   हूँ   बस।  एक    “अहसास”
बंद।  कर   दे   तु।  मेरी    तलाश

जो   मिला   उसी।  में।  कर   “संतोष”
आज  को।  जी।  ले।  कल  की न सोच

कल  के   लिए।  आज।  को  न   खोना

मेरे   लिए   कभी   दुखी।   न।  होना
मेरे।  लिए   कभी।  दुखी   न    होना

हजारो ख्वाइशें ऐसी

“हजारों ख्वाहिशे ऐसी…..”

मिल जाए कहीं बचपन वापस
खूब धूम धड़ाका काटेंगे
चिलड्रेन बैंक की नोटों से
हम आईसक्रीस ले,चाटेंगे….

पापा के एक रूपईया से
हम चाँद तलक हो आएँगे
मम्मी के चुप करने पर भी
हम हो हल्ला खूब मचाएंगे…

मिल जाए कहीं बचपन वापस
बाबा के कंधो पर घूमू….
सावन के मेघ मल्हारो पर,
बारिश की बूंदो सा झूमू….

आँख मिचौली माँ से करके
मैं भरी दुपहरी फिर निकलू,
पापा के आँख दिखाने पर
माँ के आंचल मे छिपलू….

©post by – दीपांकर तिवारी

बहुत सुँदर पंक्तियाँ- “संयुक्त परिवार”

वो पंगत में बैठ के
निवालों का तोड़ना,
वो अपनों की संगत में
रिश्तों का जोडना,

वो दादा की लाठी पकड़
गलियों में घूमना,
वो दादी का बलैया लेना
और माथे को चूमना,

सोते वक्त दादी पुराने
किस्से कहानी कहती थीं,
आंख खुलते ही माँ की
आरती सुनाई देती थी,

इंसान खुद से दूर
अब होता जा रहा है, 
वो संयुक्त परिवार का दौर
अब खोता जा रहा है।

माली अपने हाथ से
हर बीज बोता था, 
घर ही अपने आप में
पाठशाला होता था,

संस्कार और संस्कृति
रग रग में बसते थे,
उस दौर में हम
मुस्कुराते नहीं
खुल कर हंसते थे।

मनोरंजन के कई साधन
आज हमारे पास है, 
पर ये निर्जीव है
इनमें नहीं साँस है,

फैशन के इस दौर में
युवा वर्ग बह गया,
राजस्थान से रिश्ता बस
जात जडूले का रह गया।

ऊँट आज की पीढ़ी को
डायनासोर जैसा लगता है,
आँख बंद कर वह
बाजरे को चखता है।

आज गरमी में एसी
और जाड़े में हीटर है,
और रिश्तों को
मापने के लिये
स्वार्थ का मीटर है।
      
वो समृद्ध नहीं थे फिर भी
दस दस को पालते थे,   
खुद ठिठुरते रहते और
कम्बल बच्चों पर डालते थे।

मंदिर में हाथ जोड़ तो
रोज सर झुकाते हैं,
पर माता-पिता के धोक खाने
होली दीवाली जाते हैं।

मैं आज की युवा पीढी को
इक बात बताना चाहूँगा, 
उनके अंत:मन में एक
दीप जलाना चाहूँगा

ईश्वर ने जिसे जोड़ा है
उसे तोड़ना ठीक नहीं,
ये रिश्ते हमारी जागीर हैं
ये कोई भीख नहीं।

अपनों के बीच की दूरी
अब सारी मिटा लो,
रिश्तों की दरार अब भर लो
उन्हें फिर से गले लगा लो।

अपने आप से
सारी उम्र नज़रें चुराओगे,
अपनों के ना हुए तो
किसी के ना हो पाओगे
सब कुछ भले ही मिल जाए
पर अपना अस्तित्व गँवाओगे

बुजुर्गों की छत्र छाया में ही
महफूज रह पाओगे।
होली बेईमानी होगी
दीपावली झूठी होगी,
अगर पिता दुखी होगा
और माँ रूठी होगी।।

अन्तःकरण को छूने वाली है ये कविता।

लेखक : अज्ञात

एक नन्हे से ठलुए की प्यारी सी रचना

लेती नहीं दवाई मम्मी ,
जोड़े पाई-पाई मम्मी ।
:
दुःख थे पर्वत,
राई मम्मी हारी नहीं लड़ाई मम्मी ।
:
इस दुनियां में सब मैले हैं
किस दुनियां से आई मम्मी ।
:
दुनिया के सब रिश्ते ठंडे
गरमा गर्म रजाई मम्मी ।
:
जब भी कोई रिश्ता उधड़े
करती है तुरपाई मम्मी ।
:
बाबू जी तनख़ा लाये बस
लेकिन बरक़त लाई मम्मी ।
:
बाबूजी थे सख्त मगर ,
माखन और मलाई मम्मी ।
:
जब-जब हम रोते हैं
तो करती है ठलुआई मम्मी।
:
बाबूजी के पाँव दबा कर
सब तीरथ हो आई मम्मी ।
:
नाम सभी हैं गुड़ से मीठे
मां जी, मैया, माई, मम्मी ।
:
सभी साड़ियाँ छीज गई थीं
मगर नहीं कह पाई मम्मी ।
:
मम्मी से थोड़ी – थोड़ी
सबने रोज़ चुराई मम्मी ।
:
घर में चूल्हे मत बाँटो रे
देती रही दुहाई मम्मी ।
:
बाबूजी बीमार पड़े जब
साथ-साथ मुरझाई मम्मी ।
:
रोती है लेकिन छुप-छुप कर
बड़े सब्र की जाई मम्मी ।
:
रातो को हम करते ठलुआई
अब तो सो जा ये हमको समझाए मम्मी।
:
लड़ते-लड़ते, सहते-सहते,
रह गई एक तिहाई मम्मी ।
:
बेटी की ससुराल रहे खुश
सब ज़ेवर दे आई मम्मी ।
:
मम्मी से घर, घर लगता है
घर में घुली, समाई मम्मी ।
:
बेटे की कुर्सी है ऊँची,
पर उसकी ऊँचाई मम्मी ।
:
दर्द बड़ा हो या छोटा हो
याद हमेशा आई मम्मी ।
:
घर के शगुन सभी मम्मी से,
है घर की शहनाई मम्मी ।
:
सभी पराये हो जाते हैं,
होती नहीं पराई मम्मी ।
:
ठलुए जब होते चिंतित
तब याद आये मम्मी।

भूख मिटाने वाली रोटी, केवल घर पर मिलती है

चुटकुले बिका करते हैं, कविता मर कर मिलती है
मंचो पर अब माया सबको देवी बन कर मिलती है
ढाबे पर खाने वालों की कभी भी भूख नहीं मिटती
भूख मिटाने वाली रोटी, केवल घर पर मिलती है

जेब में जिनकी नोट भरे और बगल में पौवे होते हैं
इन मंचो पर चिल्लाने वाले ज्यादातर कौवे होते हैं
कभी सुना है सरस्वती लक्ष्मी के दर पर मिलती है
भूख मिटाने वाली रोटी, केवल घर पर मिलती है

अच्छे लेखन से ज्यादा व्यवहार काम आ जाता है
चाटुकार बन जाने से, हर जगह नाम आ जाता है
यह झूठी शोहरत सारी आत्मा छल कर मिलती है
भूख मिटाने वाली रोटी, केवल घर पर मिलती है

राष्ट्र भाषा को बिन जाने ही, उद्घोषक बन जाते हैं
जिनको कोई ज्ञान नहीं, वो आलोचक बन जाते हैं
पर क्या सच्चाई कभी किसी से डर कर मिलती है
भूख मिटाने वाली रोटी, केवल घर पर मिलती है

____________अभिवृत | कर्णावती | गुजरात

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कोशिश करने वालो की कभी हार नहीं होती

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

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बिस्मिल का मशहूर उर्दू मुखम्मस

हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रह कर,
हमको भी पाला था माँ-बाप ने दुःख सह-सह कर ,
वक्ते-रुख्सत उन्हें इतना भी न आये कह कर,
गोद में अश्क जो टपकें कभी रुख से बह कर ,
तिफ्ल उनको ही समझ लेना जी बहलाने को !

अपनी किस्मत में अजल ही से सितम रक्खा था,
रंज रक्खा था मेहन रक्खी थी गम रक्खा था ,
किसको परवाह थी और किसमें ये दम रक्खा था,
हमने जब वादी-ए-ग़ुरबत में क़दम रक्खा था ,
दूर तक याद-ए-वतन आई थी समझाने को !

अपना कुछ गम नहीं लेकिन ए ख़याल आता है,
मादरे-हिन्द पे कब तक ये जवाल आता है ,
कौमी-आज़ादी का कब हिन्द पे साल आता है,
कौम अपनी पे तो रह-रह के मलाल आता है ,
मुन्तजिर रहते हैं हम खाक में मिल जाने को !

नौजवानों! जो तबीयत में तुम्हारी खटके,
याद कर लेना कभी हमको भी भूले भटके ,
आपके अज्वे-वदन होवें जुदा कट-कट के,
और सद-चाक हो माता का कलेजा फटके ,
पर न माथे पे शिकन आये कसम खाने को !

एक परवाने का बहता है लहू नस-नस में,
अब तो खा बैठे हैं चित्तौड़ के गढ़ की कसमें ,
सरफ़रोशी की अदा होती हैं यूँ ही रस्में,
भाई खंजर से गले मिलते हैं सब आपस में ,
बहने तैयार चिताओं से लिपट जाने को !

सर फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं,
पास जो कुछ है वो माता की नजर करते हैं ,
खाना वीरान कहाँ देखिये घर करते हैं!
खुश रहो अहले-वतन! हम तो सफ़र करते हैं ,
जा के आबाद करेंगे किसी वीराने को !

नौजवानो ! यही मौका है उठो खुल खेलो,
खिदमते-कौम में जो आये वला सब झेलो ,
देश के वास्ते सब अपनी जबानी दे दो ,
फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएँ ले लो ,
देखें कौन आता है ये फ़र्ज़ बजा लाने को ?

(बिस्मिल का मशहूर उर्दू मुखम्मस)

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मेरा शहर अब बदल चला है

कुछ अजीब सा माहौल हो चला है,
मेरा शहर अब बदल चला है….

ढूंढता हूँ उन परिंदों को,
जो बैठते थे कभी घरों के छज्ज़ो पर
शोर शराबे से आशियाना
अब उनका उजड़ चला है,
मेरा शहर अब बदल चला है…..

होती थी इमामबाड़े से
कभी तांगे की सवारी,
मंज़िल तो वही है
मुसाफिर अब आई बस में
चढ़ चला है
मेरा शहर अब बदल चला है…

भुट्टे, कबीट, ककड़ी, इमली
खाते थे कभी हम
स्कूल कॉलेजो के प्रांगण में,
अब तो बस मैकडोनाल्ड,
पिज़्जाहट और
कैफ़े कॉफ़ी डे का दौर चला है
मेरा शहर अब बदल चला है….

वो स्टारलिट, बेम्बिनो,
एलोरा के दीवाने थे आप हम,
अब आइनॉक्स, बिग सिनेमा,
और पीवीआर का शोर चला है
मेरा शहर अब बदल चला हैै….

शहर के चौराहे रुक कर  बतियाते
थे दोस्त घंटों तक
अब तो बस शादी, पार्टी या
उठावने पर मिलने का ही दौर चला है
मेरा शहर अब बदल चला है….

वो टेलीफोन का काला चोगा
उठाकर खैर-ख़बर  पूछते थे,
अब तो स्मार्टफोन से फेसबुक, व्हाटसऐप और ट्वीटर का रोग चला है
मेरा शहर अब बदल चला है…..

नेहरू पार्क;मेघदूत उपवन और
शिवाजी वाटिका में
सेव परमल का ज़ायका रंग जमाता था
अब तो सेन्डविच, पिज़्ज़ा, बर्गर और पॉपकॉर्न की और चला है
मेरा शहर अब बदल चला है….

वो साइकिल पर बैठकर
दूर की डबल सवारी,
कभी होती उसकी,
कभी हमारी बारी,
अब तो बस फर्राटेदार
बाइक का फैशन चला है
मेरा शहर अब बदल चला है….

जाते थे कभी ट्यूशन
पढ़ने माड़ साब के वहाँ,
बैठ जाते थे फटी दरी पर भी
पाँव पसार कर ,
अब तो बस ए.सी.कोचिंग क्लासेस
का धंधा चल पड़ा है,
मेरा शहर अब बदल चला है…..

खो-खो, सितोलिया,
क्रिकेट, गुल्लिडंडा, डिब्बा-डाउन
खेलते थे गलियों और
मोहल्लों में कभी,
अब तो न वो गलियाँ रही
न मोहल्ले न वो खेल,
सिर्फ और सिर्फ कम्प्यूटर गेम्स
का दौर चला है,
मेरा शहर अब बदल चला हैं…..

गांधी हॉल में अल-सुबह तक चलते क्लासिकल गाने-बजाने के सिलसिले
अब तो क्लब; पब, और डीजे का
वायरल चल पड़ा है,
मेरा शहर अब बदल चला है….

कॉलेज की लड़कियों से
बात करना तो दूर
नज़रें मिलाना भी मुश्किल था
अब तो बेझिझक हाय ड्यूड,
हाय बेब्स का रिवाज़ चल पड़ा है
मेरा शहर अब बदल चला है….

घर में तीन भाइयों में
होती थी एकाध साइकिल
बाबूजी के पास स्कूटर,
अब तो हर घर में कारों
और बाइक्स का काफ़िला चल पड़ा है
मेरा शहर अब बदल चला है….

खाते थे समोसे,
कचोरी, जलेबी, गराडू,
गरमा-गरम मालपुए सराफे में,
अब वहाँ भी चाउमिन, नुडल्स,
मन्चूरियन का स्वाद चला हैं
मेरा शहर अब बदल चला है….

कोई बात नहीं;
सब बदले लेकिन मेरे शहर के
खुश्बू में रिश्तों की गर्मजोशी
बरकरार  रहे
आओ सहेज लें यादों को
वक़्त रेत की तरह सरक रहा है…
मेरा शहर अब बदल चला हैैं….

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आंखे सब कुछ कह जाती है

आंखे सब कुछ कह जाती हैं, 
जो तुम न कह पाओ, 
अपने ही अन्दर छुपाओ, 
ये सरेआम बयां कर जाती है, 
आंखे सब कुछ कह जाती हैं……. 
लाखों र्दद सीने में दफ़्न हैं, 
हर पल 
हर वक्त 
कचोटती रहती है, 
कि ज़ुबां पर इनको भी लाओ, 
पर लफ़्जें इनको झुठला जाती हैं, 
आंखे सब कुछ कह जाती हैं……. 
कभी गौर से देखना इन्हे, 
जब होते हो तुम खुश, 
तुम्हारे चेहरे से ज्यादा 
इनमें चमक नज़र आती है, 
आंखे सब कुछ कह जाती हैं…….. 
कांपते होंठों को जब रोकते हो, 
चेहरे पर झूठी मुस्कान पिरोते हो, 
व्यर्थ में खुशियों का बवंडर लाते हो, 
पर आंखों के सामने, 
कोई ज़ोर न चलती है, 
क्योंकि, 
आंखे सब कुछ कह जाती हैं..।

~अल्हड़ सोंच (शिवालोक मिश्रा)