आँखें मूँदो नानी – दिविक रमेश

“नानी मैं पहाड़ ला सकती हूँ।” – कहकर डोलू हँसी।

नानी चौंकी। बोली – “हे भगवान! लड़की है कि तूफान। क्या तो इसके दिमाग में है ।” फिर

बोलीं – “लेकिन कैसे? क्या तुम्हारी कोई परी दोस्त है, जो मदद करेगी?”

“हाँ नानी! है न मेरी परी दोस्त।”

“अच्छा !” नानी ने आश्चर्य से आँखें फैलाई – ‘पर तुझ पर विश्वास कौन करेगा। कम्प्यूटर के जमाने में कैसी बातें कर रही है?’

“नानी जब देखो तब अपनी ही बातें करती हो। मुझे परी अच्छी लगती है। वही मेरी दोस्त है।”

“अच्छा क्या तुम्हारी परी पहाड़ उठा सकती है?” नानी ने बात टालने को पूछा।

“हाँ… हाँ…!”

“पर परी तो कोमल होती है?”

“पर उसमें ताकत बहुत है। वह बहुत कुछ कर सकती है। एक बार मैंने परी दोस्त से कहा कि धरती पर खड़ी खड़ी तारा छूओ। परी ने मुझे गोद में उठाया और लम्बी होती चली गयी और पहुँच गये हम तारे के पास। मैंने तो खूब छुआ तारे को।”

“और क्या क्या था तारे पर?” नानी ने पूछा।

डोलू को नानी की जिज्ञासा अच्छी लगी। उसने उत्साह से जवाब दिया – “तारे पर लम्बे-लम्बे बच्चे थे। बांस जैसे! नीचे खड़े-खड़े ही पहली मंजिल की छत से सामान उतार सकते थे। मुझे तो ऐसा लगा जैसे कुतुब मीनार के पास खड़ी हूँ। सच्ची! और इससे मजेदार बात यह है कि उनके माँ-बाप कद में बौने थे।”

“ऎं !” नानी सचमुच चौंक गयी थी।

“हाँ मुझे भी अचरज हुआ था नानी। पर परी दोस्त ने बताया कि तारे की धरती और हमारी धरती में अंतर है। तारे की धरती पर आयु बढ़ने के साथ कद छोटा होता है धरती पर बड़ा।”

“और क्या वे बोलते भी थे। तूने बात की।” नानी ने पूछा

“हाँ… हाँ नानी, खूब बातें की। पर मैं आपको बताऊँगी नहीं। अरे, मैंने तो परी को नदी उठाकर आसमान में उड़ते भी देखा है।” डोलू ने बताया।

“नदी को उठाकर! और पानी?”

“अरी नानी, पानी समेत। बिल्कुल लहराते लंबे-से कपड़े-सी लग रही थी। दूर-दूर तक। कितना मजा आया था।”

नानी को डोलू की बात पर बहुत मजा आ रहा था। पर डोलू नाराज होकर कहीं बात रोक न दे, इसका भी तो डर था न!

सो बोली – “अच्छा डोलू तू तो रोज परी से मिलती है, परी कभी थकती भी है कि नहीं?”

“थकती है न नानी। जब कोई उस पर विश्वास नहीं करता। जब कोई उसे बोर करता है, तो बहुत थक जाती है। ऐसे लोगों को वह पसन्द नहीं करती। मैं तो न उस पर शक करती हूँ और न ही उसे बोर करती हूँ।”

“चलो आज से मैं भी तुझ जैसी ही हो गई।” नानी ने कहा।

“तो सुनो नानी। एक बार मुस्कराते हुए परी ने कहा – चलो आज तुम्हें पूरा जंगल निगल कर दिखाती हूँ। सुनकर मुझे कुछ कुछ अविश्वास हुआ। देखते ही देखते परी का मुँह उतरने लगा। उदासी छाने लगी। मैंने झट – से अपनी गलती समझी। परी पर विश्वास किया। परी के मुँह पर खुशी लौट आयी। वह मुझे जंगल के पास ले गयी। परी ने देखते ही देखते पूरा जंगल निगल लिया। मैं तो अचरज से भरी थी। पर खुश बहुत थी। मैंने पूछा – “तुम्हारे पेट में जंगल क्या कर रहा है?”

परी बोली – लो तुम ही देख लो और सुन भी लो।

परी ने आँख जैसा कोई यंत्र मेरी आँखों पर लगा दिया। यह क्या! मैं तो उछल ही पड़ी थी। परी के पेट में पूरा का पूरा जंगल दिख रहा था न। जैसे जंगल को ‘मूविंग कैमरे’ से देख रहे हों। पेड़ हिल रहे थे। जानवर घूम रहे थे। पक्षी बोल रहे थे। नदी बह रही थी।

मैंने पूछा – परी, यह जंगल अब क्या तुम्हारे पेट में ही रहेगा?”

परी बोली – नहीं… नहीं! मैंने तो इसे बस तुम्हें मजा देने के लिए निगला था। जंगल तो हमारा दोस्त है। क्या-क्या नहीं देता आदमी को ! जंगल खत्म हो जाये तो आदमी का जीना ही दूभर हो जाए। पता नहीं कैसे राक्षस हैं वे जो जंगलों को काट कर तबाह कर रहे हैं। लो, यह रहा तुम्हारा जंगल। कहते-कहते परी ने जंगल उगल दिया। जंगल फिर अपनी जगह था। ‘धुला धुला’ शायद परी के पेट में धुल गया था।”

नानी को सिरे से विश्वास नहीं हो रहा था। पर डोलू का मन रखने और उसकी बातों का मजा लेने के लिए उत्सुकता जरूर दिखा रही थी। उधर डोलू को पूरा मजा आ रहा था। खुश होकर बोली – “नानी, आप विश्वास करें, तो एक और कारनामा बताऊँ। एकदम सच्चा।”

“हाँ…हाँ, जरूर सुनाओ!

डोलू हँसी। मानो नानी को हरा दिया हो। उसका चेहरा गर्व से भर उठा था। थोड़ा पानी पीया और दादी-नानी की तरह खँखारा। बोली – “नानी, परी तो अपनी आँखों में पूरा समुद्र भी भर सकती है। मछलियों और जीव-जन्तुओं समेत। बिल्कुल ‘एक्वेरियम’ लगती हैं तब परी की आँखें। एक बार तो सारे बादल ही पकड़ कर अपने बालों में भर लिए थे। बाल तब कितने सुन्दर लगे थे। काले-सफेद। फूले फूले से। मैंने हाथ लगा कर देखा, तो गीले भी थे। लगा जैसे परी ने बादलों का बड़ा-सा टोप पहन लिया हो। पर थोड़ी ही देर में परी ने उन्हें छोड़ भी दिया। अगर उन्हें पकड़े रखती तो बारिश कैसे होती? और बारिश न होती, तो पूरी धरती को कितना दुःख पहुँचता। परी कहती है कि हमें हमेशा पूरी धरती का हित करना चाहिए। कोई भी नुकसान पहुँचाने वाली बात नहीं करनी चाहिए। नानी, मैं भी किसी को कभी भी नुकसान नहीं पहुँचाऊँगी, प्रोमिस…”

“अरे हाँ, वह बात तो भूल ही चली थी।” डोलू जोर-जोर से हँसी – “कितना मजा आया था! मैं परी के साथ एक दिन स्टेशन गयी। यूँ ही घूमते-घूमते। रेलगाड़ी आयी। मैंने परी से कहा कि क्या रेलगाड़ी को अपनी हथेली पर उठा सकती हो? परी बोली – लो। और देखते-ही-देखते परी ने पटरी और स्टेशन समेत रेलगाड़ी को अपनी हथेली पर उठा लिया। मैंने जब पूछा कि रेलगाड़ी में बैठे आदमी अब अपनी-अपनी जगह पहुँचेंगे कैसे? तो परी ने अपने कान के पास लगी बटन जैसी चीज को दबाया। कमाल ही हो गया। रेलगाड़ी चलने लगी। स्टेशन आने लगे। लोग उतरने और चढ़ने लगे। मैं तो पूरी हैरान थी। आपकी ही तरह नानी।” नानी तो जैसे डोलू की बातों में पूरी तरह डूब चुकी थी।

“नानी कहीं आप झूठ तो नहीं समझ रही न?”

नानी जरा सँभली। आँखें मसली। सिर को भी सहलाया। बोलीं – ‘नहीं-नहीं डोलू! सच जब ऐसे-ऐसे कारनामे अपनी आँखों से देखूँगी, तो कितना मजा आयेगा। सच, मैं तो अविश्वास की बात मन में लाऊँगी तक नहीं।’

“हाँ-हाँ, मैं उससे आपको मिला दूँगी ! डोलू की आवाज में गजब का विश्वास था। “पर पहले यह तो बताओ कि मैं पहाड़ लाकर दिखाऊँ?”

“अच्छा, दिखा। पर चोट नहीं खा जाना।” – नानी ने बच्चों की तरह कहा।

“तो फिर आँखें मूँदो। मैं अभी आयी पहाड़ लेकर।”

नानी ने आँखें मूँद ली। बच्ची जो बन गयी थीं। डोलू थोड़ी ही देर में पहाड़ लेकर आ गयी। बोली – “नानी आँखें खोलो और देखो यह पहाड़ !” नानी ने आँखें खोल दी। पूछा – “कहाँ?”

“यहाँ। यह क्या है?”

“पहाड़!”

अब क्या था, दोनों खूब हँसी, खूब हँसी। नानी ने डोलू को खींचकर उसका माथा चूम लिया। प्यार-से बोलीं – “तुम सचमुच बहुत नटखट हो डोलू!”

असल में डोलू ने एक कागज पर पहाड़ का चित्र बना रखा था। उसी को दिखाकर जब उसने नानी से पूछा – “यह क्या है” तो नानी के मुँह से सहज ही निकला – “पहाड़!”

नानी ने मुस्कुराते हुए पूछा – “भई डोलू अपनी परी दोस्त से भला कब मिलवाओगी?”

“कहो तो अभी।”

“ठीक है। मिलाओ !”

“तो करो आँखें बन्द।”

नानी ने आँखें मूँद ली। थोड़ी ही देर में डोलू ने कहा – नानी आँखें खोलो।” नानी ने आँखें खोल दीं। पूछा -“कहाँ है परी?”

“तो यह क्या है?”

“परी।” – नानी ने कहा।

दोनों फिर खूब हँसी, खूब हँसी। असल में इस बार डोलू ने अपनी ही फ्रॉक पर कागज लगा रखा था। जिस पर लिखा था – ‘परी।’

नानी ने हँसते-हँसते पूछा – और वे सब कारनामे”‘

“आप अविश्वास तो नहीं करेंगी न नानी?” – डोलू ने थोड़ा गम्भीर होते हुए पूछा।

“अरे, नहीं।”

“जब परी मैं हूँ तो कारनामे भी तो मेरे ही हुए न !

नानी की आँखें खुशी से भर आयीं। सोचा – ‘कितनी कल्पनाशील है मेरी बच्ची। बड़ी होकर एक अच्छी माँ ही नहीं बहुत बढ़िया दादी और नानी भी बनेगी।’

और वह रसोई में चली गई। क्यों? सोचो!

आखिरी हथियार – दीनदयाल शर्मा

श्याम ओर मोहन दो दोस्त थे। दोनों आठवीं में पढ़ते थे। वे पहली कक्षा से ही एक साथ पढ़ते आ रहे थे। कक्षा में कभी मोहन प्रथम आता तो कभी श्याम। दोनों में प्रथम आने की होड़ सी लगी रहती।

एक बार मोहन को अंग्रेजी गृहकार्य की कॉपी में अध्यापक जी ने ‘गुड’ दे दिया। अध्यापक जी द्वारा गुड देने पर मोहन बहुत प्रसन्न हुआ। फिर वह अपनी गृहकार्य की कॉपी में ओर ज्यादा सफाई से लिखने का प्रयास करने लगा। अब उसे सभी विषयों की कॉपी में अक्सर गुड मिलने लगा।

श्याम को यह देखकर जलन हुई कि मोहन को गृहकार्य में अध्यापकों की तरफ से इतने अधिक ‘गुड’ क्यों मिलते हैं ? ‘गुड’ तो श्याम को भी मिलते थे लेकिन सिर्फ तीन-चार ‘गुड’ से उसे कोई संतुष्टिï नहीं हुई।

सोचते सोचते एक दिन श्याम ने एक तरकीब निकाली और अध्यापकों द्वारा दिए गए गुड की अपनी रफ कॉपी में नकल करने लगा। जब उसे विश्वास हो गया कि अध्यापक जी के ‘गुड’ और उसके ‘गुड’ में कोई अन्तर नहीं है तब उसने अपनी कॉपियों में जगह-जगह ‘गुड’ लिख लिए। श्याम अब मन ही मन अपनी तरकीब पर बहुत खुश हो रहा था।

अब श्याम को अध्यापकजी की तरफ से किसी कॉपी में गुड नहीं मिलता तो व चुपके से अपने आप ही लिख लेता।

एक दिन श्याम ने मोहन से कहा, ‘मोहन, तुम्हारी कॉपियों में कितने गुड हैं। गिनना तो जरा।’

मोहन को पक्का विश्वास था कि उसकी कॉपियों में श्याम से ज्यादा गुड हैं। अत: उसने फटाफट गिन कर बताये कि कुल इक्यावन गुड हैं। फिर मोहन ने श्याम से पूछा, ‘तुम्हारी कॉपी में ?’

श्याम ने गर्व से कहा, ‘मेरी सभी कॉपियों में पैंसठ गुड हैं।’

मोहन बोला, ‘नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता। जितने मैंने गुड लिये हैं उतने तुम्हारे कभी नहीं हो सकते।’

श्याम ने आंखें मटकाते हुए कहा, ‘तुम ठीक कहते हो। तुम्हारे जितने कहां हैं। मेरे तो तुमसे ज्यादा हैं।’

‘अपनी कॉपियां दिखाना तो।’ मोहन ने उत्सुकतावश श्याम से उसकी कॉपियां मांगी।

श्याम ने गर्व से सीना तानते हुए अपनी सभी कॉपियां मोहन के आगे रख दीं और बोला, ‘विश्वास नहीं हो तो गिनकर देख लो।’

तब मोहन ने श्याम की सभी कॉपियां देखी और अध्यापकों द्वारा दिए गुड भी देखे। इतने ज्यादा गुड देखकर उसे शक हुआ। फिर भी उसने एक-एक करके सारे गुड गिने। कुल पैसठ थे।

मोहन बोला, ‘श्याम तुमने इतने गुड कब ले लिये ? मुझे तो शक हो रहा है।’

मोहन के इतना कहते ही श्याम ने उसका गला पकड़ लिया और छाीना-छपटी में उसका बुशर्ट भी फाड़ दिया।

‘अरे श्याम, क्या बात है.. क्यूं झगड़ रहा है?’ कक्षा अध्यापक विद्यासागर ने कक्षा में घुसने हुए गुस्से से कहा।

श्याम बोला, ‘सरजी, झगड़ा तो मोहन ही कर रहा है जी।’

‘क्या बात है मोहन।’ अध्याक ने पूछा।

‘कुछ नहीं सरजी।’ मोहन ने कहा।

‘तो फिर आपस में क्यंू झगड़ रहे हो? तुम दोनों इधर आओ।’ अध्यापक जी ने कहा तो श्याम और मोहन उनके पास जाकर खड़े हो गए।

‘अब बताओ बात क्या है?’ अध्यापक जी ने पूछा।

‘सरजी, मोहन क्या बतायेगा। मैं बताता हूं। सरजी, मेरे कॉपियों में ज्यादा गुड देखकर मोहन मुझ पर शक करने लगा था। इसने कहा था कि तुम्हारे इतने गुड नहीं हो सकते। जबकि मेरे इससे ज्यादा गुड है।’ श्याम ने कहा।

अध्यापक जी बोले, ‘तुम दोनों अपनी अपनी कॉपियां लेकर आओ।’

‘सरजी, कॉपी क्या लाऊ। मेरी कॉपियों में गुड मोहन ने स्वयं मिने हैं।’ श्याम ने सफाई देते हुए कहा।

‘मैने क्या कहा, सुना नहीं। अपनी अपनी कॉपिया लेकर आओ।’ अध्यापक जी का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था।

तब मोहन ने झट से अपने बस्ते से सारी कॉपियां निकालकर अध्यापकजी को थमा दी और श्याम धीरे-धीरे अपने बस्ते से कॉपियां निकलाने लगा।

‘जल्दी करो श्याम।’

‘अभी लाया सरजी।’

मोहन श्याम के उतरे चेहरे को देखकर भांप गया था कि अब उसकी पोल खुलेगी।

श्याम अध्यापक जी को अपनी कॉपियां थमाते हुए मरियल-सी आवाज में बोला, ‘ये लीजिए सरजी।’

श्याम की कॉपियां लेकर अध्यापक जी जैसे-जैसे कॉपी के पन्ने पलटते जा रहे थे, श्याम की धड़कन बढ़ रही थी।

‘क्यों श्याम, ये गुड किसने दिया है?’ अध्यापक जी ने उसकी कॉपी में लिखे गुड की ओर इशारा करते हुए पूछा।

‘यह तो आपका दिया हुआ है सरजी।’ श्याम ने विश्वास के साथ कहा।

‘सच कह रहे हो ?’

‘हां…हां जी।’

‘और यह गुड ?’

‘यह भी आपका दिया हुआ है सरजी।’

‘ठीक है, बैठो। मैं हाजिरी लेता हूं।’ अध्यापक जी ने हाजिरी रजिस्टर खोलते हुए कहा। कक्षा में चुप्पी छा गई।

दिन भर की पढ़ाई के बाद जब स्कूल की छुट्टïी हुई तो सब बच्चे अपने अपने घरों की ओर भागने लगे। विद्यालय के अध्यापकगण भी अपने-अपने घरों की ओर जाने लगे।

‘सरजी, एक मिनट रूकना जी।’

‘कहो, क्या बात है ?’ विद्यासागर जी ने पीछे देखते हुए कहा। उन्होंने देखा कि उनकी कक्षा का छात्र श्याम उनके सामने खड़ा है।

‘जी… जी….।’

‘हां…हां कहो बेटे, किसी ने तुम्हे पीटा क्या ?’ विद्यासागर जी ने प्यारे से श्याम के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा।

श्याम की रूलाई फूट पड़ी। वह रोते रोते बोला, ‘मैंने आपसे झूठ बोला था सरजी। कॉपियों में वे गुड मैंने ही लिखे थे जी।’

‘मुझे पता है बेटे।’

‘आपको पता था। तो आपने मुझे पीटा क्यों नहीं सरजी ?’ श्याम रोते-रोते ही बोला, ‘सरजी, मैं अब कभी झूठ नीं बोलूंगा जी… और न ही कभी ऐसा काम करूंगा जी।’

विद्यासागर जी चुपचाप चलते रहे। ‘आपने मुझे माफ कर दिया सरजी ?’ श्याम ने भोलेपन से पूछा।

‘ठीक है कर दिया। अब अपने घर पहुंचो।’ विद्यासागर जी ने कहा।

तभी श्याम अपने सरजी के पैरों से लिपट गया और जोर-जोर से रोते हुए बोला, ‘सरजी, मेरी पिटाई करो। मेरी पिटाई करो सरजी। मैंने गलती की है। मेरी पिटाई करो, सरजी, आपको पता था कि वे गुड मैंने लिखे हैं तो भी आपने मुझे पीटा नहीं। मेरी पिटाई करो सरजी।’ विद्यासागर जी की आंखें भर आईं। वे वहीं बैठ गये और श्याम को अपनी छाती से लगाते हुए भर्राये गले से बोले, ‘बेटे, किसी को सुधारने का आखिरी हथियार पिटाई ही तो नहीं है। और श्याम अपने सरजी के गले में बांहें डालकर जोर से लिपट गया।

आनन्दी कौआ – गिजुभाई बधेका / काशीनाथ त्रिवेदी

एक कौआ था। एक बार राजा ने उसे अपराधी ठहराया और अपने आदमियों से कहा, “जाओ, इस कौए को गांव के कुएं के किनारे के दलदल में रौंदकर मार डालो।” कौए को दलदल में डाल दिया। वह खुशी-खुशी गाने लगा:

दलदल में फिसलना सीखते हैं, भाई!

दलदल में फिसलना सीखते हैं।

राजा को और उसके आदमियों को यह देखकर अचम्भा हुआ कि दलदल में डाल देने के बाद दुखी होने के बदले कौआ आनन्द से गा रहा है। राजा को गुस्सा आया। उसने हुक्म दिया, “इसे कुएं में डाल दो, जिससे यह डूबकर मर जाय।”

कौए को कुएं में डाल दिया गया। कौआ कुएं में पड़े-पड़े बोला:

कुएं में तैरना सीखते है, भाई!

कुएं में तैरना सीखते हैं।

राजा ने कहा, “अब इसको इससे भी कड़ी सजा देनी चाहिए।”

बाद में कौए को कांटों की एक बड़ी झाड़ी में डाल दिया गया। लेकिन कौआ तो वहां भी वैसे ही रहा। बड़ आनन्दी स्वर में गाते-गाते बोला:

कोमल कान छिदवा रहे है भाई!

कोमल कान छिदवा रहे हैं।

राजा ने कहा, “कौआ तो बड़ा जबरदस्त है! दु:ख कैसा भी क्यों ने हो, यह तो दुखी होता ही नहीं। अब यह देखें कि सुख वाली जगह में रखने से दु:ख होता है या नही?” उन्होंने उसे तेल की एक कोठी में डलवा दिया।

कौए भाई के लिए तो यह भी मौज की जगह रही वह खुश होकर बोला:

कान में तेल डलवा रहे हैं, भाई!

कान में तेल डलवा रहे हैं।

इसके बाद राजा ने कौए को घी की नांद में डलवा दिया। नांद में पड़ा-पड़ा कौआ बोला:

घी के लोंदे खाता हूं, भाई!

घी के लोंदे खाता हूं।

राजा बहुत ही गुस्सा हुआ और उसने कौए को गुड़ की कोठी में डलवा दिया। कौए भाई मौज में आकर बोले:

गुड़ के चक्के खाते हैं, भाई!

गुड़ के चक्क खाते है।

राजा क्या करे! उसने अब कौए को झोपड़े पर फिकवा दिया। पर वहा बैठे-बैठे भी कौआ बोला:

खपरैल डालना सीखते है, भाई!

खपरैल डालना सीखते हैं।

आखिर राजा ने थकर कहा, “इस कौए को हम कोई सजा नहीं दे सकेंगे। यह तो किसी दु:ख को दु:ख मानता ही नहीं है। इसलिए अब इसे खुला छोड़ दो, उड़ा दो।” कौए को उड़ा दिया गया।

आपरेशन बाल्टी – प्रभुदयाल श्रीवास्तव

बाबू को इस कालोनी में आये पाँच साल से ज्यादा हो चुके हैं| जब वह यहाँ के नये मकान में आया था तो उसकी आयु छह साल के लगभग थी और अब ग्यारह के आसपास है| उसका परिवार पहिले गुलाबरा में रहता था किराए के मकान में| वहीं रहते हुए ही उसके पापा ने इस कालोनी शिवम सुंदरम नगर में एक प्लाट खरीद लिया था| और कालोनाइजर ने अपनी शर्तों पर मकान बना दिया था| बहुत अच्छे और सुंदर मकान बने थे| सड़क जरूर डामर अथवा सीमेंट की नहीं थी पर नालियां सभी अण्डर ग्राउंड थीं| इस कारण कालोनी बहुत साफ़ सुथरी लगती थी| उसका मकान चौराहे केपास गली में दूसरे नंबर पर था| तीसरे क्रम में साबू का घर था| साबू के पापा ने भी लगभग चार पांच साल पहिले ही गृह प्रवेश किया था| दूसरे मोहल्ले का किराए का मकान खाली कर आये थे| साबू और बाबू पक्के मित्र थे, दांत काटी रोटी का मामला था| एक साथ स्कूल जाना और साथ साथ वापिस आना रोज का नियम था| साथ साथ रहने, खेलने से दोस्ती की प्रगाढ़ता दिनों दिन बढ़ती जा रही थी| कालोनी में कई मकान किराए पर थे| क्योंकि उनके मालिक दूसरी जगह नौकरियों में थे, उन्होंने मकान किराए पर दे दिए थे| बिजली पानी की व्यवस्था भी ठीक थी| परन्तु कचरा फेकने के मामले में लोग लापरवाही करते रहते थे| कालोनी में हालाकि एक स्वीपर ५० रूपये प्रति माह देने पर कचरा गाड़ी लेकर आ जाता था और कचरा ले जाता था| कई लोग इस सुविधा का लाभ भी ले रहे थे परन्तु कुछ सिरफिरे लोग ५० रूपये बचाने के चककर में कचरा इधर उधर सड़क के किनारे ही फेक देते थे| अक्सर बाबू के घर के पास चौराहे के पर कचरा ज्यादा ही पड़ा मिलता| जब तेज हवा चलती तो सारा कचरा उड़कर बाबू के घर के सामने आ जाता| सड़क पर पुराने अखवार प्लास्टिक पन्नियों के ढेर लग जाते| कभी कभी कपड़ों के कतरनों के भी अंबार लगे मिलते| बाबू के पापा ने एक दिन चौराहे पर खड़े होकर लोगों को चेतावनी दे दी’ यदि कल यहाँ कचरा दिखा तो ठीक नहीं होगा| ‘दो तीन दिन तो ठीक रहा परन्तु कुछ दिन बाद वही ढांक के तीन पात| फिर ढेर लगने लगा| कचरा कौन डालता है मालूम ही नहीं पड़ता था| मुंह अँधेरे या आधी रात के बात जब लोग सो जाते, तभी कचरा फेका जाता था| कई बार चेतावनी देने के बाद भी जब कचरा फेक कार्यक्रम बंद नहीं हुआ तो साबू बाबू के पापा ने एक पट्टी”यहाँ कचरा न डालकर अच्छे नागरिक होने का प्रमाण दें”लिखकर टंगवा दिया| पर क्या कहें ‘मन में शैतान तो गधा पहलवान| ‘कचरे का ढेर कन्या की तरह दिन दूना रात बढ़ने लगा| आंधी आती तो सारा कचरा बाबू साबू के घर के सामने छोटे पिरामड का रूप धारण कर लेता| बाबू के पापा बोले पुलिस में रिपोर्ट कर देते हैं| किन्तु साबू के पापा ने समझाया कि कोई लाभ नहीं होगा, यह तो नगर पालिका का काम है, पुलिस क्या करेगी| पुलिस में देने से दुश्मनी ही बढ़ेगी| बात सच भी थी| कालोनी में सभी पढे लिखे सभ्रांत लोग रहते हैं| किसपर शक करें, पुलिस पूछेगी न किस पर शक है किसका नाम बतायेंगे| योजना रद्द क़र दी गई|

एक दिन बाबू ने पापा से कहा’आप अब मुझ पर छोड़ दीजिए मैं और साबू चोर का पता लगा लेंगे| अगले दिन बाबू साबू पता करने में जुट गये कि कचरा फेकने में कौन सी धुरंधर हस्तियां शुमार हैं|

“साबू आज रात बारह बजे तक देखेंगे कि कौन आता है कचरा फेकने” बाबू ने अपनी बात रखी|

“बात तो ठीक है पर हमें छिपकर बैठना पड़ेगा ताकि कोई देख न सके” साबू बोला|

“हां हमारी छत पर बैठेंगे, दीवार की आड़ में वहां हमें कोई नहीं देख सकेगा| “बाबू बोला|

रात ग्यारह बजे से दोनों ने छत पर डेरा जमा लिया| रात बारह तो क्या दो बजे तक कोई नहीं आया|

“यार ये लोग मुंह अँधेरे ही कचरा डालते होंगे अभी तक तो कोई नहीं आया| ”

“हाँ भाई अब तो हमें सोना चाहिये अब परसों सुबह देखेंगे साबू ने सुझाव दिया|

तीसरे दिन दोनों ने तड़के चार बजे ही छत पर डेरा जमा लिया| पंद्रह बीस मिनिट बाद ही बाबू की बांछें खिल गईं| पहला चोर कचरे की बाल्टी लेकर आया धीरे से चौराहे पर पलट कर रफू चककर हो गया|

साबू पहचान गया”अरे!ये तो चानोकर अंटी हैं, पीछे वाली गली में रहतीं हैं| ”

“हाँ वही हैं, पर अभी चुप रहो और देखते हैं कौन कौन आता है इस कचरा फेक के पानीपत में” बाबू बोला|

थोड़ी देर में दूसरा महारथी मैदान में था| उसने भी ठीक उसी जगह डिब्बा उलटाया जहां चानो चाची यह कमाल करके अभी अभी नौ दो ग्यारह हुईं थीं|

“पर यह महाशय हैं कौन ?इनको तो जानते ही नहीं|” बाबू बोला|

“यह तो कोई नये सज्जन लगते हैं|” साबू ने पहचानने का प्रयास करते हुए कहा|

“चलो पीछा करते हैं”यह कहकर बाबू एक ही झटके में उठकर खड़ा हो गया| साबू भी पीछे चल पड़ा| उसके घर तक गये तीसरी गली का चौथा मकान था| धीरे से छुपते छुपाते वे दोनों घर आकर सो गये|

सुबह दोनों ने एक योजना के तहत गांधी बाबा के तरीके से कचरा फेकने वालों को सबक सिखाने का प्लान बनाया|

“आपरेशन बाल्टी” कैसा रहेगा यह नाम बाबू बोला|

“बहुत मजेदार, बढ़िया नाम है बाबू भाई| “साबू हंसकर बोला”इससे अच्छा नाम कोई दूसरा हो ही नहीं सकता| ”

रात के आठ बजे दोनों ने एक एक खाली बाल्टी ली और पहुंच गये चानोकर आंटी के यहाँ|

“आंटी, आंटी हम लोग आपके यहाँ कचरा लेने आये हैं| ”

“कैसा कचरा”मिसेस चानोकर अचकचा गईं| भागो यहाँ से कौन हो तुम लोग|

“सारी आंटी कल आप जो कचरा चौराहे पर सुबह चार बजे फेकने वालीं हैं हम तो उसे लेने आयें हैं| आपको कष्ट नहीं करना पड़ेगा| ”

दोंनों हाथ जोड़कर खड़े हो गये|

“ये कैसी बेहूदगी है, कैसा कचरा, कौन सा कचरा क्या तुम लोग पागल हो गये हो ?”चाची ने तो जैसे हमला ही बोल दिया|

“अरे चाची वही कचरा जो आप रोज सुबह सुबेरे चार बजे उठकर चौराहे पर फेक आतीं हैं वही न| “ऐसा कहकर उनहोंने

बाल्टी वहीं नीचे रख दी|

चानोकर हड़बड़ा गईं |

“हाँ आंटी वैसे तो हमारी कालोनी पाश कालोनी है, सभी लोग संभ्रांत, पैसे वाले हैं| हाँ कुछ लोग बेचारे बहुत गरीब हैं स्वीपर के ५० रूपये भी नहीं दे सकते इसलिए हम लोगों ने या कदम उठाया है| ये गरीब बेचारे दो जून के खाने का जुगाड़ करें, बच्चों को पढ़ाएं या स्वीपर की मज़दूरी दें| ‘दोनों ने पुन:याचना की|

अब तो मिसेस चानोकर का पारा आसमान में जा पहुँचा| “यह क्या बत्तमीजी हैं तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि कचरा मैनें फेका है”वह जोरों से चिल्लाईं|

“आंटी यह देखिये यह आप ही हैं न केमरे में”बाबू ने केमरा आगे कर दिया| रात को ही उनकी फोटो खींच ली गई थी| कोई बात नहीं आंटी हम लोग हैं न, रोज कचरा ले जायेंगे, हाँ|

आप बिलकुल मत घबराइये| हम लोग गरीबों की मदद ………”|

“गरीब, गरीब क्या है यह? हम लोग गरीब नहीं हैं तुम्हारे अंकल एक लाख रूपये हर माह कमाते हैं| ”

“पर ऑटी आपको रोज सुबह से उठना पड़ता हैं इसलिए हम लोग ही रोज ऐसे घरों से कचरा एकत्रित कर दूर नगर पालिका के कचरा घर में कचरा फेक आयेंगे जो बेचारे स्वीपर को नहीं लगा पाते| हमने आपरेशन बाल्टी रखा हैं इस काम का नाम| ”

“मुझे माफ़ कर दो बच्चो मुझसे गलती हुई हैं”आंटी एकदम पहाड़ से नीचे उतर आईं| मैं भी तुम्हारे साथ हूँ इस काम में| कल से ही मैं स्वीपर लगा लेती हूँ|

अगले दिन पूरी कालोनी में हल्ला हो गया आपरेशन बाल्टी का| चानोकर आंटी ने खुद ही जमकर प्रचार कर दिया|

दूसरे दिन सभी कालोनी वासियों चौराहे का कचरा साफ़ कर डाला| अब कोई वहाँ कचरा नहीं डालता|

चौराहे पर नया बोर्ड लग गया हैं जिस पर लिखा हैं-

“इस कालोनी में जो गरीब लोग कचरा फेकने के लिए पचास रूपये खर्च नहीं कर सकते, वे कॄपया सूचित कर दें हम कचरा लेने उनके घर ऑ जायेंगे”

सदस्य आपरेशन बाल्टी

इतनी पाश कालोनी में कोई गरीब हो सकता हैं क्या ?

आर्डर-आर्डर – ज़ाकिर अली ‘रजनीश’

गेट के अन्दर कदम रखते ही मेरे कानों में आवाज गूंजी- “आर्डर-आर्डर”

आवाज सुनकर मेरे पैरों में एकदम से ब्रेक लग गये। मन में ख्यान आया, कहीं मैं गलत जगह तो नहीं आ गया? मैंने बाहर लगी नेम प्लेट पर एक बार फिर नजर डाली। लिखा था- अब्दुल शकील। इसका मतलब है मैं सही जगह पर हूं। मैंने सुकून की सांस ली और बारामदे की ओर चल पड़ा।

आज बड़े दिनों के बाद मैं कानपुर से लखनऊ अपनी बड़ी बहन के घर आया था। बाहर गेट पर खड़े होकर मैंने कॉलबेल बजाई। पर संभवत: उसका स्विच खराब था, क्योंकि मुझे घंटी बजने की आवाज सुनाई नहीं पड़ी। उसके बाद मैंने अपने भांजे और भांजी का नाम लेकर आवाज लगाई। अन्दर से बच्चों की आवाजें तो आ रही थीं, पर मेरी आवाज का कोई उत्तर नहीं मिल रहा था।

काफी देर तक मैं कशमकश में फंसा खड़ा रहा। लेकिन जब पांच मिनट तक इंतजार करने के बाद भी कोई नहीं आया, तो मैं गेट खोलकर स्वयं अंदर चला गया। पर इस घर में यह `आर्डर-आर्डर´ वाला क्या मसला है, यह मैं समझ नहीं पा रहा था। जीजाजी तो बैंक में हैं। एक छोटा सा भांजा है अकील। वह कक्षा सात में पढ़ता है और भांजी तो अभी सिर्फ सात साल की ही होगी। वह कक्षा दो में पढ़ती है। फिर ये आर्डर-आर्डर?

अपने मन में तमाम तरह की बातों को सोचते हुए मैं बरामदे में जा पहुंचा। सामने की ओर ही एक बड़ा सा दरवाजा लगा था, जिसमें एक पर्दा झूल रहा था। वह पर्दा एक ओर थोड़ा सा सिमटा हुआ था, इसलिए उसके उस पार का दृश्य साफ दिख रहा था।

वह एक बड़ा सा आंगन था। वहॉं पर कई बच्चे जमा थे। उन्हें देख कर मेरी जिज्ञासा बढ़ गयी कि इतने सारे बच्चे कौन सा खेल खेल रहे हैं? हालॉंकि दूसरे के घर में इस तरह ताका-झांकी करना उचित नहीं था, पर फिर भी मैं अपने आप को रोक न सका और चुपचाप उनका तमाशा देखने लगा।

आंगन के एक कोने में पड़ी कुर्सी पर छोटा सा लड़का बैठा हुआ था। उसने काली ड्रेस पहन रखी थी और देखने में जज साहब लग रहा था। जज के आगे एक लकड़ी की मेज रखी थी, जिसपर एक छोटी सी हथौड़ी भी विराजमान थी।

मेज के सामने कुछ बच्चे जमीन पर बिछी चटाई पर बैठे हुए थे। चटाई के एक ओर किसी टूटी हुई मेज के ढ़ांचे को पलट कर कटघरे जैसा बनाया गया था। कटघरे के अंदर मेरा भांजा अकील हाथ में दफ्ती की कुल्हाड़ी लिए खड़ा था। उसके आगे मेरी भांजी अजरा खड़ी थी। उसने वकील की ड्रेस पहन रखी थी। अजरा के पास ही एक छोटा सा लड़का और खड़ा था, जिसके बदन पर ढे़र सारी नीम की पत्तियां बंधी हुई थीं।

शायद मेरी बहन उस समय कहीं गयी हुई थी, इसीलिए बच्चे मौके का फायदा उठाकर नाटक खेलने में व्यस्त थे। उस समय मुकदमे की कार्यवाही चल रही थी और वकील, मुल्जिम तथा आरोपी आपस में उलझे हुए थे।

“आर्डर-आर्डर, आप लोग बारी-बारी से अपनी बात कहें।” जज ने हथौड़ी ठोक कर सबको शान्त कराया।

मौका देखकर वकील बनी अजरा ने अपनी बात सामने रखी, “जज साहब, मेरे मुविक्कल नीम का आरोप है कि यह लकड़हारा रोज हरे पेड़ों को काटता है। यह एक बहुत बड़ा जुर्म है, इसलिए मुल्जिम को सजा दी जाए।”

“क्यों लकड़हारे, क्या यह बात सच है?” जज ने अपनी हथौड़ी मेज पर पटकी।

लकड़हारे की भूमिका अकील निभा रहा था। वह बोला, “हॉं हुजूर, पर ये तो हमारा पुश्तैनी पेशा है। अगर हम लोग पेड़ नहीं काटेंगे, तो खाएंगे क्या?”

“देखा हुजूर, कैसा ढ़ीठ है यह?” पेड़ बने लड़के का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा, “एक तो जुर्म करता है, ऊपर से कैसे अकड़ कर बोल रहा है। अपने जुर्म का तो इसे एहसास ही नहीं।”

“ऐ पेड़, ज्यादा बकर-बकर न करो, नहीं तो…।” कहते हुए लकड़हारे ने अपनी कुल्हाड़ी पेड़ की तरफ तान दी।

पेड़ एकदम से घबरा कर वकील के पीछे छिप गया। यह देखकर मुझे हंसी आ गयी। पर जल्दी से मैंने अपने मुंह पर हाथ रख लिया। अन्दर नाटक जारी था।

“देखिए जज साहब,” वकील कह रहा था, “जब यह व्यक्ति आपके सामने इतनी दुष्टता दिखा रहा है, तो बाद में कैसी बेरहमी से पेड़ों को काटता होगा?”

“आर्डर-आर्डर,” जज ने मुल्जिम को चेताया, “लकड़हारे, यह अदालत है। तुम्हें अदालत की मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए, नहीं तो तुम्हें इसकी सजा दी जा सकती है।”

जज की बात सुनकर लकड़हारा भीगी बिल्ली बन गया।

वकील ने अपनी बात को आगे बढ़ाया, “जज साहब, जैसा कि अभी लकड़हारे ने स्वयं कुबूल किया कि वह पेड़ों को काटता है, इसलिए आगे कुछ साबित करने के लिए रह ही नहीं जाता। और यह तो सभी लोग जानते हैं कि हरे पेड़ों को काटना जुर्म है।”

“इसमें जुर्म कैसा जज साहब?” लकड़हारा बीच में ही बोल पड़ा, “पेड़ तो होते ही हैं काटे जाने के लिए।”

“किसने कह दिया कि पेड़ काटे जाने के लिए होते हैं?” वकील ने जिरह की, “उनके अंदर भी जान होती है, वे भी दु:ख-सुख महसूस करते हैं, वे भी…”

“और ये बात वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस ने बहुत पहले सिद्ध कर दी थी।” पेड़ थोड़ा जोश में आ गया था।

“जगदीश चन्द्र ? ये कौन है?” लकड़हारे ने आश्चर्यपूर्वक अपना मुंह फैलाया, “हम तो उनको नहीं जानते।”

“क्या तुम महान वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस को नहीं जानते?” वकील हैरान होकर बोला, “उन्होंने ही तो सबसे पहले यह बात सिद्ध करके दिखाई थी कि पेड़ों में जान होती है।”

“हमसे बहुत बड़ी भूल हो गयी…।” लकड़हारा पछतावे के स्वर में बोला।

लेकिन तभी दर्शकों की पंक्ति में बैठे एक लड़के ने उसे टोक दिया, “अरे अकील, ये डॉयलाग तो बाद में बोला जाएगा।”

“तू चुप कर…” कहते हुए अकील जैसे ही उसकी तरफ मुड़ा, उसकी नजर मुझ पर पड़ गयी। मुझे देखकर वह एकदम से शर्मा गया और दफ्ती की कुल्हाड़ी फेंक कर वहां से भाग खड़ा हुआ।

“ये आप क्या कर रहे हैं भाईजान?” अजरा ने खेल बिगड़ता देखकर उसे टोका।

अकील जवाब में कुछ नहीं बोला, पर उसने धीरे से मेरी ओर इशारा कर दिया। सभी बच्चों की निगाहें मेरी ओर उठ गयीं। और फिर देखते ही देखते रंग में भंग हो गया। अजरा ने वकील वाला चोगा उतार फेंका, पेड़ बने लड़के ने अपनी पत्तियां नोच डालीं और जज साहब अपनी कुर्सी से ऐसे भागे, जैसे उन्होंने कोई भूत देख लिया हो।

हालॉंकि इस तरह से नाटक का रूक जाना मुझे अच्छा नहीं लगा था, किन्तु किया भी क्या जा सकता था? मैंने अपनी खीझ मिटाने के लिए उल्टे उन्हीं से सवाल पूछ लिया, “क्यों बच्चो, ये क्या हो रहा था?”

“ज-ज-जी, कुछ नहीं। बस यूं ही।” अकील ने सफाई देनी चाही, पर उसका मुंह सूख गया।

“अरे, तो इसमें शर्माने की क्या बात है?” मैंने उसके सिर पर हाथ फेरा, “मुझे यह देखकर अच्छा लगा कि तुम लोंगों को इतनी सारी बातें मालूम हैं और तुम लोग पर्यावरण जैसे गंभीर विषय पर नाटक कर रहे हो।”

“जी, ये नाटक हमारे स्कूल में खेला जाएगा।” मेरा प्रोत्साहन पाकर अजरा चहक उठी, “आप देखने चलेंगे मामूजान?”

“हॉं भई, क्यों नहीं ? वकील साहिबा का हुक्म तो मानना ही पड़ेगा, वर्ना मेरा भी आर्डर-आर्डर हो जाएगा।” मैंने भोलेपन से कहा, तो सभी बच्चे मुस्करा पड़े।

घर के उस छोटे से बगीचे में अनायास ही बहार आ गयी थी।

इंद्रधनुष – मनोहर चमोली ‘मनु’

जंबो हाथी ने आवाज लगाई-‘‘अरे चूंचूं बाहर तो निकल। देख इंद्रधनुष निकल आया है ! कितना सुंदर कितना प्यारा!’’

चूंचूं चूहा पलक झपकते ही बाहर निकल आया। आसमान में सतरंगी इन्द्रधनुष को देखकर चूंचूं खुशी से चिल्ला उठा-‘‘वाह ! हाथी दादा। क्या बात है ! काश! मैं भी तुम्हारी तरह लंबी-चौड़ी काठी वाला होता तो एक झटके में तुम्हारे गाल चूम लेता।’’

जंबो हाथी ने हवा में सूंड हिलाते हुए कहा-‘‘इसमें कौन सी मुश्किल है। ये लो। अपनी इच्छा पूरी करो। मेरी ये बीस फुट की सूंड कब काम आएगी।’’ जंबो हाथी ने दूसरे ही क्षण चूंचूं को सूंड से उठा कर अपने गाल पर रख दिया। दोनों हंसने लगे।

चूंचूं ने इंद्रधनुष की ओर देखते हुए पूछा-‘‘दादा। एक बात तो बताओ। ये इंद्रधनुष हर रोज क्यों नहीं निकलता?’’

जंबों ने सिर हिलाते हुए जवाब दिया-‘‘चूंचूं तुम्हारे सवाल में जान है। दरअसल इंद्रधनुष बारिश के बाद ही निकलता है। कारण साफ है। बारिश होने के बाद हवा में पानी के नन्हें कण रह जाते हैं। जैसे ही सूर्य की किरणें उनमें से होकर गुजरती है तो वे सार रंग के इंद्रधनुष का आकार ले लेती हैं।’’

‘‘ओह ! समझ गया। तो ये बात है। लेकिन इनमें सात रंग कौन-कौन से होते हैं? मुझे तो सात नहीं दिखाई दे रहे हैं।’’

‘‘तुम पिद्दी भर के तो हो। अरे! सात रंग तो मुझे भी अपनी आंख से नहीं दिखाई दे रहे हैं। इंद्रधनुष के सातों रंगों को देखने के लिए दूरबीन लानी पड़ती है। समझे। लेकिन मुझे इसके रंग पता हैं। पहला लाल फिर दूसरा नारंगी फिर पीला, हरा,नीला,आसमानी और बैंगनी रंग होता है। आया समझ में। इन्हें याद कर लेना।’’

चूंचूं सिर हिलाते हुए कहने लगा-‘‘समझ गया। लेकिन जंबों दादा। ये पश्चिम दिशा में ही क्यों निकला हुआ है?’’

जंबो हाथी ने हंसते हुए कहा-‘‘आज तो तेरा दिमाग खूब चल रहा है। सही बात तो ये है कि ये सूर्य के ठीक विपरीत दिशा में ही दिखाई देता है। सूरज की रोशनी बूंदों पर पड़ने से सूरज की ओर खड़े होने से ही हमकों ये इंद्रधनुष दिखाई देता है। सुबह पश्चिम में और शाम को पूरब में। समझे। ’’

‘‘समझ गया।’’

जंबो ने कहा-‘‘आसमान में दिखाई देने वाला इंद्रधनुष प्राकृतिक है। तुम चाहो तो कृत्रिम इंद्रधनुष भी देख सकते हो।’’

चूहा बोला-‘‘वो कैसे भला?’’

जंबो ने बताया-‘‘किसी फव्वारे के पास जाओ। सूरज की ओर पीठ करो। यदि फव्वारे के पानी में फैलाव होगा। तो तुम्हें सूरज की विपरीत दिशा की ओर यानि पश्चिम में छोटा सा इंद्रधनुष दिखाई देगा। बहुत ऊंचाई से गिरने वाले झरने के पास भी हम इंद्रधनुष को देख सकते हैं। लेकिन इसके लिए हमें सूरज और पानी की बूंदों के बीच खुद को सही जगह पर खड़ा करना होगा।’’

‘‘समझ गया। ये कृत्रिम इंद्रधनुष को देखने के लिए थोड़ा मेहनत करनी होगी न दादा।’’

तभी जंबो हाथी ने घात लगाती हुई पूसी बिल्ली को देख लिया। पूसी चूंचूं पर झपटने ही वाली थी कि जंबो हाथी ने चूंचूं को इशारा कर दिया।

चूंचूं बोला-‘‘समझ गया। मैं चला बिल में।’’ यह कहकर चूंचूं बिल में जा घुस गया। बेचारी पूसी बिल्ली हाथ मलती रह गई।

इनाम और सजा – दीनदयाल शर्मा

एक था गांव। गांव में था छोटा सा स्कूल। एक दिन स्कूल के हैडमास्टर जी का तबादला हो गया। शहर से नए हैडमास्टरजी आए। आते ही उन्होंने स्कूल की काया पलट दी। सबसे पहले तो उन्होंने पूरे स्कूल में सफाई करवाई। फिर वन विभाग से पौधे मंगवा कर उन्हें पंक्तिबद्ध लगवाया।

नए हैडमास्टर जी सभी छात्रों को अपने बेटों की तरह प्यार करते थे। वे नियमित रूप से पढ़ाई करवाते। प्रार्थना स्थल पर छात्रों को ज्ञान की अनेक बातें बताते तथा सदैव अनुशासन और कर्तव्य के प्रति सजग रहने की शिक्षा देते थे। स्कूल के प्रति उनका समर्पण भाव देखकर सभी अध्यापकगण जी-जान से पढ़ाने लगे। कुछ ही दिनों में हैडमास्टरजी ने छात्रों और अध्यापकों के साथ-साथ गांव के प्रत्येक व्यक्ति का दिल जीत लिया।

एक दिन स्कूल के पास मुख्य सड़क पर एक छात्र को उसके सहपाठी ने ट्रक की चपेट में आने से बचा लिया। इस बात की चर्चा उस दिन पूरे सकूल में थी कि तीसरे पीरियड में आकाश ने नरेश को सड़क दुर्घटना से बचा लिया। हैड मास्टरजी को जब पता चला तो उन्होंने आकाश व नरेश दोनों को अपने ऑफिस में बुलाया।

‘क्यों आकाश, क्या यह सही है कि तुमने नरेश को ट्रक की चपेट में आने से बचाया है ?’ हैडमास्टर जी ने पूछा।

‘हां सर’ आकाश ने गर्व से सिर उठाते हुए कहा।

‘क्यों नरेश’ नरेश ने अपराधी की भांति गर्दन झुकाते हुए धीरे से कहा, ‘यह साथ नहीं होता, तो मैं मर ही जाता सर।’

हैडमास्टर ने गौर से दोनों की ओर देखा। फिर पूछा, ‘तुम पढ़ाई के समय स्कूल से बाहर किसलिए गए थे?’

हैडमास्टरजी का प्रश्र अप्रत्याशित था। दोनों बच्चे अवाक रह गए। नरेश ने कोई जवाब नहीं दिया तो हैडमास्टरजी ने आकाश से पूछा, ‘स्कूल से बाहर किसलिए गए थे आकाश ?’

आकाश भी चुप रहा। वह अपने दाहिने पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदने लगा। हैडमास्टरजी को गुस्सा आ गया। वे बोले, ‘मैं पूछता हूं, तुम दोनों स्कूल से बाहर किसलिए गए थे? बोलो, चुप क्यों हो ?’

नरेश और आकाश एक-दूसरे की ओर कनखियों से देखते हुए खामोश खड़े रहे। वे मन ही मन डर रहे थे कि इस घटना पर हैडमास्टर जी इतना ज्यादा गुस्सा करेंगे, उन्होंने सोचा भी न था।

‘चलो, दोनों अपनी कक्षा में चलो।’ हैडमास्टर के इतना कहने पर नरेश व आकाश चुपचाप अपनी कक्षा में चले गए। कक्षा के अनेक सहपाठियों की आंखें उन्हें सवालिया निगाहों से देख रही थी लेकिन वे दोनों चुपचाप सीट पर जा बैठे और अपनी अपनी पुस्तकें निकाल कर पढऩे लगे।

शनिवार होने के कारण सातवें पीरियड में बाल सभा आयोजित होती थी। जैसे ही छठा पीरियड खत्म हुआ सभी छात्र हॉल की ओर बढऩे लगे। हॉल छात्रों से खचाखच भर गया। सारे छात्र हॉल में बिछी दरी पर बैठे थे। हैडमास्टरजी और अध्यापकण हॉल में लगी कुर्सियों पर बैठ गए।

बाल सभा पूरे एक घंटे तक चली। अन्त में हैडमास्टरजी ने आकाश और नरेश को अपने पास बुलाया और बहादुरी के इस कार्य के लिए आकश को रंग- बिरंगे फूलों का एक खूबसूरत गुलदस्ता इनाम में दिया। इनाम पाकर आकाश बहुत खुश हुआ। सब बच्चों ने तालियां बजाई।

तालियों की गडग़ड़ाहट बंद होते ही हैडमास्टरजी बोले, ‘यह बड़े गौरव की बात है कि आज आकाश ने अपने एक सहपाठी को ट्रक की चपेट में आने से बचा लिया। अत: यह इनाम पाने का हकदार है लेकिन ये दोनों स्कूल समय में बिना छुट्टïी लिए स्कूल से बाहर चले गए थे। यह इन दोनों की सबसे बड़ी गलती है। क्यों आकाश, तुम दोनों बिना छुट्टïी लिए स्कूल से बाहर गए थे ना?’

‘हां सर।’ कहते हुए आकाश ने शर्म से अपनी नजरें झुका ली। नरेश भी अपनी गलती पर शर्मिन्दा था।

हैडमास्टरजी अपनी बात पर जोर देते हुए बोले, ‘यह गलती तुम दोनों की है और इसकी सजा ये है कि तीन दिन के लिए तुम दोनों को स्कूल से बाहर निकाला जाता है। इसी के साथ ही मैं बाल सभा समाप्ति की घोषणा करता हूं।’

हैडमास्टरजी का निर्णय सुनकर सभी छात्र और अध्यापकण हतप्रभ रह गए।

अपना अपना मोल – मनोहर चमोली ‘मनु’

एक गाँव में आम का विशालकाय आम पेड़ था। उस पेड़ में बड़े ही रसीले आम लगते थे। लेकिन बच्चे थे कि आम को पकने से पहले ही तोड़ कर खा लेते थे। बेचारा पेड़ मन मसोस कर रह जाता। बच्चे आए दिन पेड़ की शाखों पर चढ़ते और कच्ची अमियां खाने के चक्कर में कई कमजोर डालें तोड़ डालते। आम का पेड़ सोचता कि वे पेड़ अच्छे हैं जिन पर कोई फल नहीं लगते। कम से कम वे चैन से तो रहते हैं।

एक दिन की बात है। आम का पेड़ उदास था। हवा ने उससे पूछा,‘क्यों भाई। क्या बात है? लगता है काफी परेशान हो।’

पेड़ बोला, ‘हवा बहिन। क्या बताऊँ? काश। मैं भी तुम्हारी तरह चल-फिर सकता। यहां खड़े-खड़े तो मैं तंग आ गया हूं। अच्छा होता मैं दूर किसी घने जंगल में उगा होता।

हवा ने सुना तो हैरान हो गई मगर चुप रही। पेड़ ने कहा-‘‘आबादी के पास हम फलदार वृक्षों का खड़ा रहना ही बेकार है। मुझे देखो। मैंने अब तक अपनी काया में पके हुए फल तक नहीं देखे। ये इन्सानों के बच्चे फलों के पकने का भी इन्तजार नहीं करते। देखो न। गाँव के बच्चों ने मुझ पर चढ़-चढ़ कर मेरे अंगों का क्या हाल बना दिया है। कई टहनियों और पत्तों को तोड़ डाला है।’

हवा मुस्कराई। फिर पेड़ से बोली,‘पेड़ भाई। दूर के ढोल सुहावने होते हैं। जंगल में फलदार वृक्ष तो बहुत दुखी हैं। मुझे तो उनकी हालत पर तरस आता है।’

‘जंगल में फलदार वृक्ष बहुत दुखी हैं! हवा बहिन तुम मजाक तो नहीं कर रही?’ पेड़ ने चैंकते हुए पूछा।

‘और नहीं तो क्या। जंगल के फलदार पेड़ अपने ही शरीर के फलों से परेशान रहते हैं। पेड़ों में फल बड़ी संख्या में लगते हैं। वहां फलों को खाने वाला तो दूर तोड़ने वाला भी नहीं होता। पक्षी कितने फल खा पाते हैं। फल पेड़ पर ही पकते हैं। पेड़ बेचारे अपने ही फलों का वजन नहीं संभाल पाते। अक्सर फलों के बोझ से पेड़ों की कई टहनियां और शाख टूट जाती हैं। पके फलों का बोझ सहते-सहते पेड़ का सारा बदन दुखता रहता है। जब फल पक कर गिर जाते हैं, तभी जंगल के पेड़ों को राहत मिलती है। यही नहीं ढेर सारे पके हुए फल पेड़ के इर्द-गिर्द गिरकर सड़ते रहते हैं। पेड़ बेचारे अपने ही फलों की सड़ांध् में चुपचाप खड़े रहते हैं।’ हवा ने बताया।

‘अच्छा! बहिन। मैं ऐसे ही ठीक हूँ। मेरे फल इतने मीठे हैं, तभी तो बच्चे उनका पकने का इंतजार नहीं करते। अरे हां। याद आया। पतझड़ के मौसम में ये बच्चे तो मेरे पास भी फटकते नहीं हैं। उन दिनों मैं परेशान हो जाता हूँ। रही बात मेरी टहनियों और पत्तों की तो वसंत आते ही मेरे कोमल अंग उग आते हैं।’ आम के पेड़ ने हवा से कहा। हवा मुस्कराते हुए आगे बढ़ गई। पेड़ ने मन ही मन हवा का धन्यवाद दिया और खुशी से झूमने लगा।

अनमोल हैं सब – अनीता चमोली ‘अनु’

चींटी और मच्छर में बहस हो गई। चींटी ने कहा-”मैं बहुत ही ताकतवर हूं। अपने वजन से छह गुना वजन उठा लेती हूँ।”

मच्छर इतराते हुए बोला-”मैं भी तो। मोटी से मोटी चमड़ी वाले का खून चूस लेता हूँ।”

दोनों खुद को बड़ा बता रहे थे। तभी गौरेया आ गई। गौरेया का कद देखकर दोनों चुप हो गए। गौरेया अपने आकार को देखकर इठला रही थी। गौरेया बोली-”क्या हुआ? तुम दोनों से बड़ा कौन है? ये मुझे अब भी बताना पड़ेगा क्या?” चींटी और मच्छर अपना-सा मुंह लेकर रह गए।

तभी गिलहरी आ गई। गिलहरी ने गौरेया से पूछा-”अरी पिद्दी-सी चिड़िया। बोल, बोल। क्या कह रही थी, इन दोनों से? बोल न?” गौरेया का चेहरा बुझ गया। अभी गिलहरी ने हंसना शुरू किया था कि वह हंसते-हंसते चुप हो गई। बकरी जो आ गई थी। बकरी जोर-जोर से हंसते हुए कहने लगी-”नन्ही गिलहरी। देख तो मेरी पूंछ। तू तो उसके बराबर की है न।” बकरी की हंसी भी कुछ ही देर में गायब हो गई। गाय जो आ गई थी। गाय खुशी में रंभाई थी कि गैंडा आ गया। गैंडे को देखकर सब चुप हो गए। गैंडे की खुशी का ठिकाना न रहा। वो नाचने लगा। बोला,”मैं सबसे बड़ा हूँ। सब नाचो।”सब नाचने लगे।

अचानक हाथी की चिंघाड सुनकर सब सहम गए। हाथी को देखकर गैंडा भी मायूस हो गया। तभी जेबरा आ गया। लंबी गरदन को घुमाते हुए बोला,”है कोई जो मेरे सिर से अपना सिर मिलाए।”

मैं बड़ा हॅू। तुम छोटे हो। हर कोई यही कह रहा था। तभी खरगोश आ गया। उसने सबको शांत किया। वह बोला,”जिराफ भाई। तुम मेरी तरह बिल नहीं खोद सकते। लेकिन मैं तुम्हारी तरह पेड़ पर नहीं चढ़ सकता। हाथी सब कुछ कर सकता है। लेकिन मेंढक की तरह उछल नहीं सकता।”

हाथी चिंघाड़ते हुए बोला,”तुम कहना क्या चाहते हो?” खरगोश बोला,”बस इतना ही कि हम एक-दूसरे पर निर्भर हैं।” तभी गाय बोली,”एक-दूसरे के अलावा हम पेड़-पौधों पर भी निर्भर हैं। हम शाकाहारियों के लिए घास-पात जरूरी है। हरियाली नहीं,तो हम भी नहीं।”

तभी शेर दहाड़ा। बोला,”तुम नहीं तो फिर मैं भी नहीं। मैं घास नहीं खाता। मगर घास खाने वालों को तो खाता हूँ। मुझे बताओ। क्या परेशानी है।”

चींटी बोली,”हम छोटे प्राणियों को कोई कुछ नहीं समझता। कौन बड़ा है। यहाँ यही बात चल रही थी।”

शेर मुस्कराया। बोला,”छोटे जीवों का भी महत्व है। इससे धरती उपजाऊ बनी रहती है।”

खरगोश बोला,”जीव-जन्तुओं और पेड़-पौधों के अलावा हम दूसरी चीजों पर भी तो निर्भर हैं। उनके बारे में कोई कुछ नहीं कह रहा है।” मच्छर ताली बजाते हुए बोला,”हवा,रोशनी और पानी। है न।”

“सही कहा। बस हमें हर चीज का जरूरत के हिसाब से उपयोग करना चाहिए। दूसरे के जिंदा रहने से ही हम जिंदा रह सकते हैं।” तभी बारिश होने लगी। सब अपने-अपने घर की ओर चल पड़े।

अच्छा दोस्त कौन – मनोहर चमोली ‘मनु’

नन्ही गिलहरी का आज स्कूल में पहला दिन था। वह खुशी-खुशी स्कूल आई थी। उसकी बगल की सीट में चूहा बैठा हुआ था। वह बार-बार गिलहरी को ही देख रहा था। उसकी आगे वाली सीट पर इठलाती हुई तितली बैठी हुई थी। तितली बार-बार अपने पंख खोलती, जिसके कारण गिलहरी को ठंडी-ठंडी हवा मिल रही थी। वह बड़ी खुश थी। हाथी दादा को टीचर के रूप में देखकर वह बड़ी खुश थी।

इंटरवल हुआ। गिलहरी ने चूहे से कहा,”चलो। मैदान में खेलते हैं।” चूहा रोने लगा। रोते हुए बोला,”मैं ठीक से चल नहीं सकता। मुझे साफ सुनाई भी नहीं देता। स्कूल में मेरा कोई दोस्त नहीं है। सब मुझे चिढ़ाते रहते हैं। तभी तो मैं हर समय कक्षा में ही बैठा रहता हूँ।”

यह सुनकर गिलहरी चुप हो गई। उसे चूहे का स्वभाव अच्छा लगा था। उसने मन ही मन में कहा-”चूहा तो अच्छा दोस्त है। मेरे साथ ही बैठता है। मेरी ही कक्षा में पढ़ता है। मुझे तो इसकी मदद करनी चाहिए।”

एक दिन की बात है। चूहा स्कूल नहीं आया। गिलहरी चूहे के घर जा पहुंची। चूहा सुबकते हुए बोला-”आज की पढ़ाई छूट गई मुझसे। मैं आज स्कूल नहीं आ पाया।”

गिलहरी ने चूहे को स्कूल में पढ़ाये हुए विषयों की जानकारी दी। उसने चूहे को यह भी बताया कि आने वाले सोमवार को मासिक परीक्षा ली जाएगी।

दोनों मिलकर तैयारी करने लगे। मासिक परीक्षा में चूहे के अच्छे अंक आए। चूहे का हस्तलेख अच्छा नहीं था। हाथी दादा उसे बार-बार डांटते।

एक दिन की बात है। इंटरवल हुआ तो गिलहरी और चूहा स्कूल के बागीचे में गए। पेड़ की एक डाल पर चिड़िया का घोंसला था। चिड़िया का एक नन्हा बच्चा घोंसले से नीचे गिर गया। वह उड़ने की कोशिश कर रहा था। लेकिन हर बार उड़ने की कोशिश में वह बार-बार नीचे ही गिर रहा था।

चूहा बोला,”ये बच्चा उड़ नहीं पाएगा। बार-बार गिरने से तो ये मर भी सकता है।” गिलहरी ने कहा,”लेकिन अभ्यास से ही सफलता मिलती है। देखना। वह बार-बार गिरकर भी उड़ ही जाएगा। बस और लगन से वह इसी तरह कोशिश करता रहा तो। फिर देखना यह जरूर उड़ सकेगा।”

गिलहरी के साथ-साथ चूहा उस नन्हे बच्चे को देखते रहे। चिड़िया का नन्हा बच्चा बार-बार गिरकर उड़ने की कोशिश में लगा रहा।

आखिरकार फिर उसने पंख फैला ही दिए। फिर एक लंबी उड़ान भरी और पल भर में ही वह घोंसले में जा पंहुचा।

गिलहरी ताली बजाने लगी। चूहा भी खुश हो गया। बोला,”गिलहरी। तुमने ठीक कहा था। नन्हा बच्चा थका नहीं। हारा नहीं। यही वजह है कि वह अब अपने घोंसले में आराम से बैठा हुआ है। एक मैं हूं कि बेवजह परेशान हो जाता हूँ। अब तक मैं सोचता था कि मैं कुछ नहीं कर सकता। मगर अब मुझे लगता है कि मैं भी बहुत कुछ कर सकता हूँ। अब मैं अभ्यास से अपने हस्तलेख में सुधार करूंगा।”

गिलहरी ने चूहे से हाथ मिलाते हुए कहा,”मैं हर अच्छे काम में तुम्हारे साथ हूँ। मैं तुम्हारा सहयोग करूंगी। मगर तुम्हें अपने मन में हौसला और विश्वास बनाए रखना है। निराशा को मन से हमेशा के लिए निकाल फेंकना है। याद रखना। किसी को लाचार समझकर दया मत दिखाना।”

चूहे ने भी अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा,”दोस्त वही है जो सहयोग और मदद करता है। मुझे खुशी है कि तुम मेरे लिए अच्छी दोस्त साबित हुई हो।”

गिलहरी ने भी झट से अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। तभी इंटरवल खत्म होने की घंटी बजी। दोनों कक्षा की ओर चल पड़े।