साँझ की लालिमा (अभिषेक तिवारी)

साँझ की लालिमा

पार्ट 1- सितार की झनकार

भइया ओ मेरे प्यारे रचित भइया
उठो वर्ना थोड़ी देर में बाबू जी पानीपत की युद्ध शुरू कर देंगे
आरती अपने भाई रचित को उठा रही थी।
रचित ने अंगड़ाई लेते हुए कहा-
“आरती की बच्ची सुबह सुबह
ये पानीपत का युद्ध कैसा ??
आरती – भाई बाबू जी के कमरे के बाथरूम का नल ख़राब हो गया है तो सुबह सुबह पानी की बर्बादी पर लंबा चौड़ा लेक्चर चालू है और तुम्हे ऑफिस नहीं जाना है क्या ??
आरती ने मासूमियत से मुस्कुराते हुए कहा।
रचित- अरे बाप रे म मैं तेरा कोई काम नहीं करने वाला हूँ आरती की बच्ची तू जब ऐसी मासूम शक्ल बनती है तो मेरी ज़िन्दगी में तूफ़ान लाती है।
आरती- ऐसा ?? शक्ल देखी है अपनी ? 31 साल के हो गए हो
अब तो मेरी सहेलिया भी अंकल बोलने लगी है वो तो मेरा इमेज ऐसा है की के लोग अभी भी तुमको वैल्यू देते है”
आरती ने होठो को गोल करके लगभग रचित को चिढ़ाने के अंदाज़ में बोला।
रचित- बस बस कम बता जानता हूँ तुझे और तेरी चुड़ैल सहेलियों को जिनकी तू बॉस बनी फिरती है।
आरती- अव्व्व्व्व् भाई तुम वर्ल्ड के बेस्ट भाई हो
शाम को 7 बजे एक मुशायरे का प्रोग्राम है जिसमे मुझे भी अपनी कविता सुनाने का इनविटेशन मिला है-आरती सब कुछ एक साँस में बोल गई और रचित का मुँह जैसे खुला रह गया
आरती- भाई ओ भाई तुम मुझे घर से पिक कर लोगे न ?? अपनी कार से ? बोलो न ?
रचित- अ हाँ पर मैं वहां रुकुंगा नहीं  क्योंकि तेरे अलावे भी कई पकाऊ होंगे ………
स्वरचित बाबू रचित के पिता थे किसी ज़माने में बनारस में बड़ा रसूख था खुद के कपड़ो की कई फैक्ट्रीया थी उनकी दो संतान रचित और आरती थी और पत्नी के स्वर्गवास के बाद वो काम पर धयान नहीं दे पाये तो काम धंधे में भारी नुकसान हो गया हालांकि अब उनके बेटे ने बखूबी काम और दफ्तर संभाल लिया है तो आर्थिक स्थिति पटरी पर आ गई किन्तु रचित 31वसंत देख चूका है और अब पिता और बहन बस इतना चाहती है की रचित की शादी हो जाए ।
शाम 6 बजे रचित अपनी ऑफिस से लिए निकला ही था
आरती को पिक करने के लिए तभी …
धड़ाम ……….
रचित – हे महादेव लगता है किसी ने मेरी कार ठोक दी पीछे से।
रचित गुस्से में बहार निकलता है- “अरे देख के स्कूटी नहीं चला सकती टेल लाइट तोड़ दी
मुझे अपनी बहन को पिक करना है ।
लड़की ने हेलमेट उतारा और बड़ी विनम्रता से कहा
“मुझे माफ़ कर दीजिये” उसकी आवाज़ में सितार सी झनक थी
जो 31साल के रचित को निःशब्द करने के लिए काफी थे।
रचित-अ अ ठीक है ठीक है कहते हुए कार में बैठ कर चुप -चाप चला गया|

पार्ट 2-मुशायरा

“भइया भइया जल्दी चलो कहा देर लगा दी” आरती ने रचित से पूछा
रचित- वो किसी ने पीछे से कार ठोक दी मेरी,खैर तुम बैठो मैं तुमको 20min में पहुचता हूँ।
आरती- भाई अब चल ही रहे हो तो मेरी भी कविता सुन लेना
रचित-देखते है
आरती-प्लीज भाई दूसरा परफॉर्मेंस मेरा ही है एक किसी को झेल लेना।
रचित आरती के जिद पर अंदर तो चला जाता है सभ्य श्रोताओ के बीच में खुद को असहज महसूस कर रहा था …….

तभी स्टेज़ से एक आवाज़ सुनाई
पड़ती है-
दोस्तों मैं कविता वर्मा एक प्रेम रस की कविता सुनाने जा रही हूँ जो शास्वत प्रेम को प्रदर्शित करता है
रचित-अरे य ये तो वही है जिसने मेरी कार ठोकी थी- रचित अपने बाजू में बैठे व्यक्ति से जोर से बोल पड़ा, पास बैठे श्रोता ने रचित को यु देखा जैसे ज़ज़ किसी मुजरिम को देखता है।

“प्रेम की गलियों में
मैं खोई रहती हूँ
तेरे ही स्वप्न देखने को
मैं सोई रहती हूँ
आ मेरे महबूब तू आ
बस अब तो
मिलन की आस में
मैं जिन्दा रहती हूँ”
कविता इस कविता को रचित सुन रहा था या कहीं गुम हो गया था ये तो वही जानता था,पर कविता खत्म होते ही रचित बेक स्टेज की तरफ तेजी से भागा।

अ अ अ सुनिए कविता जी रचित ने आवाज़ दी।
“आप” कविता इसके पहले कुछ बोल पाती रचित बोल पड़ा
हां वही जिसकी आपने 1घंटे पहले कार ठोक दी थी पर आपकी कविता सूंदर थी अति सुन्दर पर आप से ज्यादा नहीं

“इन नैनो से सुन्दर तो आपकी कविता नहीं,
इन अधरों से जो अल्फ़ाज़ निकले उससे खूबसूरत तो कोई अल्फ़ाज़ नहीं”
कविता की कविता
कविता से तो सुन्दर नहीं”

अ अ नजाने क्या क्या बोल रहा
हूँ क कुछ समझ में नहीं आ रहा है ।
तभी कविता और रचित दोनों चौक पड़े एक आवाज़ से
“भइया” तुमने फिर मेरी कविता नहीं सुनी ”
अ अरे आप मेरी दोस्त कविता को जानते है ??
कविता-नहीं आरती हम आज ही मिले है वो दरअसल मैंने इनकी कार की टेल लाइट तोड़ दी थी
और अभी मेरी कविता की प्रसंशा कर रहे थे तो ये है तुम्हारे भाई ” कविता ने नज़र अचानक झुका ली इस बात का एहसास होते ही रचित ने कविता से ज्यादा उसकी तारीफ की थी।

उस रात रचित करवटें बदलता रहा और कविता के ख़यालो में डूबा रचित मुस्कुराता रहा ……

पार्ट 3- हाल-ए-दिल

सुबह 8 बजे -“आरती चल मैं तुझे तेरे कॉलेज छोड़ देता हूँ”
आरती-अरे वाह भाई क्या बात है आज तो दिल खुश कर दिया”

BHU आर्ट एंड कल्चर कैम्पस
“आरती वो कविता जो कल मिली थी वो तेरे ही साथ पढ़ती है न ??
आरती- हां पर क्यों ??
रचित – अ कुछ नहीं तुम चलो..
पर रचित की नज़रें तो कविता को ढूंढ रही थी
काफी देर तक इंतज़ार के बाद
वो नज़र आ ही गई ….
“स्कूटी में कोई प्रॉब्लम है तो मैं ठीक करने की कोशिश करूँ ?
रचित ने कविता के पास जा कर कहा ”

अ आप व वो आप यहाँ कैसे
कविता भी कल रात की अपनी तारीफ का मतलब खूब समझ रही थी और शायद वो खुद भी
रचित के प्रति एक खिंचाव सा महसूस कर रही थी इसीलिए उसकी जबान लड़खड़ा रही थी।
खैर रचित ने स्पार्क प्लक को चैक किया और कविता की स्कूटी स्टार्ट हो गई।
कविता -थैंक यू सो मच रचित जी अ अ सॉरी जाना होगा
रचित- स सुनिए अगर मैं ये कहूँ
की मैं आपसे ही मिलने आया था
कविता-तो मैं कहूँगी क्यों ??
कविता ने जान बूझकर अपने होठो को दबाते हुए ये सवाल पूछा …..

व वो मैं सोच रहा था आपके अगले मुशायरे का इनविटेशन कार्ड कैसे मुझे मिलेगा आपके पास तो मेरा नंबर ही नहीं है-रचित का दिल ज़ोरो से धड़क रहा था..
कविता- पर आरती के पास तो मेरा नंबर है ही
“अ हाँ आरती के पास तो नंबर है पर व वो एक्चुली हाआह्ह् कविता ओफ्फ्फ तुम समझो न”
रचित की लडखडाती जुबान पर कविता ने ऊँगली रख दी
शाहह्ह्ह्ह्ह् “बुद्धू”

” घर शहर देश सब पराया सा लगता है
बस हर पल मुझे टी तेरा ही चेहरा दिखता है
बन गई हूँ मीरा तेरे प्यार में
तू भी बन कृष्ण
और
या तो मिल जा
या तार दे इस संसार से”
कल शाम 7 बजे गंगा किनारे
इंतज़ार करुँगी ……..
कहती हुई कविता ने स्कूटी स्टार्ट की और रचित के आँखों से ओझल हो गई ।

रचित को यकीन नहीं हो रहा था
आज जो कुछ भी कविता ने उससे कहा…
रचित खुद को जवान मशसूस कर रहा रहा जैसे वो सिर्फ 20-21साल का हो ..

अगली शाम-
“ऊहू उहू  क्या बात है भइया कब से देखे जा रही हूँ आईने में बाल संवार रहे हो ?? किधर जा रहे हो ?
रचित- कुछ नहीं बस गंगा किनारे जा रहा हूँ काशी विश्वनाथ के पास वाले घाट पर ???

रचित ने कंघी हवा ने उछाली और आरती पर दे मारी और मुस्कुराते हुए निकल पड़ा….

पार्ट 4- गंगा की लहरें

रचित- मिलने को तो हम कहीं भी मिल सकते थे पर तुमने गंगा किनारे क्यों बुलाया
कविता- रचित जी गंगा भले की मैली क्यों न हो गई हो,पर जब भी पवित्रता की बात होगी तो गंगा का ही नाम आता है …
आओ मेरे साथ थोड़ी दूर चलते है इस भीड़ से,
कभी शाम में नाव पर बैठे हो ?
रचित चुप-चाप साँझ की लालिमा को देख रहा था और कभी कविता की आँखे …..

“चलो न ” कविता ने जैसे नींद से जगाया”
अ हाँ हाँ चलो-रचित ने जवाब दिया।
नाँव पर कविता और रचित धीरे धीरे घाट से दूर जा रहे थे,कविता रचित के करीब बैठ जाती है और कहती है

“रचित हम इतनी जल्दी क़रीब आ गए, मैं नहीं जानती कौन सी काशिस थी जो मुझे तुम्हारी ओर खिचती गयी कविता ने दबी दबी आवाज़ में कहा।

रचित कविता को अपनी बाँहो में भर लेता है।
ओह रचित ई लव यू…
कविता रचित की बाहों में सिमटती जाती उधर साँझ की लालिमा अब सिंदूरी हो चली थी।
रचित और कविता अब लगभग हर दूसरे तीसरे दिन मिलने लगे थे प्यार परवान चढ़ रहा था ।
रचित को प्यार ने पहले से जिम्मेदार हो गया था अपने व्यापार को नई उचाईयो पर ले जा रहा है और स्वरचित बाबू का पुराना रसुख भी लौटने लगा था बनारस की गलियो में।
शाख़ से वक़्त के लम्हे टूटते गए और एक और गंगा किनारे कविता और रचित को मिलते आरती ने देख लिया –
आरती- भाई और तुम कविता ये सब क्या है और कब से ऐसा चल रहा है ??
रचित- देखो आरती व वो
कविता- आरती वो मुशायरे वाली रात से ही हम दोनों एक दूसरे से प्यार करते है-कविता बीच में ही बोल पड़ी।
आरती- हम्म्म्म्म सोचा मेरा भाई रिच है बेचारा सीधा साधा है तो चलो बनाते है बेवकूफ इसको(आरती ने कठोर लहज़े में कविता से कहा)
रचित- आरती तुम गलत समझ रही हो कविता तो मेरी ज़िन्दगी में प्रेरणा बन कर आई……
रचित कुछ बोल पाता इससे पहले आरती बोल पड़ी गुस्से से कविता की ओर देखा और कहा-
मुझसे ये रिश्ता छुपाया,दोस्ती के नाम पर जो गद्दारी की उसकी सज़ा मिलेगी और ……….
और इसकी सजा ये है की ये मेरी अब दोस्त नहीं रह सकती बल्कि अब मेरी भाभी बनेगी…..
ईईईईव्व्व्व्व कॉम ऑन बेबी गिव में अ हग ………..
कविता और रचित एक साथ हँस पड़े , हा हा हा हा
पगली एक पल को मेरी जान ही ले ली थी तूने, रचित ने कहा ।
कविता की आँखों में ख़ुशी के आँशु थे…
ओ माय बेबी रोते नहीं चलो भइया की तरफ से मैं पापा और तेरी भी फॅमिली से बात कर लुंगी ईईईए अब तो गले लग जाओ मेरी भाभी ।
नाउ पार्टी टाइम एंड भइया ई ऍम सो हैप्पी फॉर यू …….

पार्ट 5- ख्वाब और हक़ीक़त

जल्दी ही स्वरचित बाबू और कविता के माता पिता मिलकर शादी की डेट्स फाइनल कर देते है,
रचित – रचित सुनो तो …
कविता प्यार से रचित की तरफ देखकर बोलती है
“ऐसा लगता है जैसे हसीं ख्वाब हो तुम
तुम्हे पाने की जिसे हर कोई ख्वाइश रखे वो गगन का सितारा हो तुम
जिसे हर पल गुनगुना चाहती हूँ
कविता की वो कविता हो तुम….

शाहह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्
अचानक रचित कविता को अपनी बाहों में खीच लेता है
शोर न करो और मेरी धड़कनो को सुनो।
कविता की पलकें बंद दी और होठ थरथरा रहे थे……
रचित ऐसा लग रहा है जैसे मेरा हलक सुख रहा हो-कविता ने धीमी आवाज़ में कहा ।
रचित बाँहों में सिमटी कविता बेतहाशा चूम रहा था,
रचित काश ये लम्हा युही रुक जाए कविता ने रचित को ऐसे गले लगाया की जैसे वो उसे सदियो बाद मिला हो , तभी
दरवाज़े पर दस्तक हुई
भाआईईई ऑप्प्स्स्स सॉरी सॉरी
आप दोनों रोमांस चालू रखिये
मैं बाद में आती हूँ।
कविता-अरी सुन तो आरती हम बस बाते कर रहे थे तू कुछ बता रही थी….
हां वो बात ये थी की आप दोनों की शादी की डेट फिक्स हो गई है 17नवम्बर को तो…….
तो क्या ??? रचित ने झल्ला कर पूछा
तो कल मैं और कविता शादी की शौपिंग करेंगे और तुम जाओगे ऑफिस और 20 दिन कविता से नो मिलना जुलना …….आरती ने कहा

कविता आज बहुत खुश थी रात भर अपने आने वाले कल के बारे में सोचती रही और मुस्कुराती रही ।
अगले दिन दोपहर –
फ़ोन तो उठा लो मेरी जान
“हॅलो हॅलो कविता ?? कविता ??
र रचित प्लीज गंगा घाट के किनारे आओ आआह्ह्ह्ह मैं और और …..(फोन डिसकनेक्ट)
रचित बदहवास सा अपने कार की और भागता है और करीब 10 मिनिट बाद ही गंगा की घाट पर होता है पर आज भीड़ नदी के किनारे थी जो कुछ और ही कहानी कह रही थी…….
“भइया” अचानक खून से सनी आरती रचित से लिपट जाती है
भइया सब खत्म हो गया सब खत्म हो गया।
आरती की हालात देख कर रचित का कालेज कॉप गया…..
“आरती आरती होश में आओ क्या हुआ ?? त तुम इस हाल में और क कविता कहाँ है ??
भइया मैं और कविता शौपिंग कर रहे थे तभी कुछ गुंडे हमारे पीछे लग गए कविता ने सोचा गंगा किनारे भीड़ होगी तो हम बच जाएंगे भइया उन्होंने मुझे पकड़ लिया मेरे सर पर रॉड से मारा पर तभी कविता सामने से आ गई और मुझे बचा कर उनको मुझसे दूर ले गई फिर वो उस नाव में गंगा में भागी गुंडे उसके पीछे थे फिर कविता को पकड़ने की कोशिस में नाकामयाब होने पर उसकी नाँव डुबो दी और और सबके सामने
कविता ………….
आरती सिसक रही थी ।
सर हमे आपकी बहन का बयान लेना है हम यूपी पुलिस से है
रचित ने देखा एक सब इंस्पेक्टर 3 कांस्टेबल के साथ खड़ा था
रचित के जबड़े क्रोध के भीच गए थे “क्या कर लोग उनका ?
मेरी बहन ने बयां अगर दे भी दिया तो ?? किसी नेता की पैदाइश ये गुंडे इसका क्या कर लोगे तुम ?? सारे आम बनारस के गंगा के घाट पर जब ये सब हुआ था तब भी तुम थे ?? क्या कर लिया तुमने ? मेरी बहन का बलात्कार होने का इंतज़ार कर रहे थे ?? ये इतने सारे नपुंसक लोग क्या कर रहे थे ?? इंतज़ार कर रहे थे ?? की मेरी होने वाली बीवी मर जाए तो हम रिपोर्ट लिखवाये ?? और तब पोलिस अपना काम करेगी ??
क्या करोगे बयां लेकर ??
रचित “आरती पर अपना सूट डालता है और कार में बिठाता है
और घर की तरफ निकल पड़ता है…..
वहां खड़े तमाम लोग आपस में बातें कर रहे थे…..
अजी भाई सरेआम गुंडागर्दी है अब तो
बहुत गलत हुआ लड़कियो के साथ….
फिर किसी ने दार्शनिक अंदाज़ में कहा-अरे रामखेलवन जी तब पोलिसे तमाशा देखिगी तो आम जनता बहु बेटियो का क्या होगा।

पार्ट 6- साँझ की लालिमा

तुम मर नहीं सकती कविता तुम डूब नहीं सकती पुलिस को तुम्हारी लाश नहीं मिली है
तुम तो खुद को गंगा की बेटी कहती हो फिर माँ गंगा गंगा फिर तुम्हारे साथ ऐसा कैसे कर सकती है ?? रचित के मन में हज़ार तरह के विचार आ रहे थे।
रचित ने फैसला किया वो वहां जाएगा जहाँ कविता की नाँव डूबी थी रचित अपनी बहन आरती के पास जाता है…..
“आरती मेरी बहन मैंने अपने मोबाइल नेटवर्क से GPS को तुम्हारे नेटवर्क से कनेक्ट किया है तुम इंस्पेक्टर के पास जाओ और देखो क्या मदद मिल सकती है,मुझे यकीन है की कविता ज़िंदा है मैं उसे ढूढ़ने जा रहा हूँ…रचित की आवाज़ में विश्वास था ।
आरती -ठीक है भइया मैं अभी निकलती हूँ….
थोड़ी देर में रचित गंगा में अपनी नाव को उस जगह ले जाता था जहाँ कविता की नाँव डूबी थी और खुद पानी में उतर जाता है फिर खुद को लहरों के सहारे छोड़ देता है कुछ ही घंटो की मशक्कत के बाद खुद को एक किनारे पर पाता है …..
अरे बुधिया देख तो तनिक आज फिर कोई किनारे आया है लगता है ये भी डूब रहा था -रचित ने देखा दूर से कोई आ रहा था ये कहते हुए उसने जान बुझ कर आँखे बंद रखी ।
अरे बुधिया देखे तो ज़िंदा है भी की नाही ??
बुधिया- एकर सोने के चेन देख कर तो लगता है कोई बड़का बाबू है ई ?? का कहते हो रामभरोसे ??
“हां कल रात को एक परी जइसन लड़की भी बेचारी आई थी पर बेचारी को मंत्री
हरिलाल यादव के गुंडे उठा कर ले गए का जाने ऊ पापी का करेगा ऊके साथ …..
रचित ने जानबूझ कर होश में आने का धीरे धीरे नाटक किया
अरे बुधिया देख एको होश आ रहा है …
उधर आरती इन्सपेक्टर से मिलती है और सारी बाते बताती है …
बोलिये इंसपेक्टर त्रिपाठी अब क्या करेंगे और कैसे मदद करेंगे हमारी ? आरती की आँखे भर आई थी …
इस्पेक्टर त्रिपाठी- जो आप पर दो दिन से गुज़र रही है समझ सकता हूँ और मैं वादा करता हूँ अपनी जान देकर भी आपके भाई और भाभी को वापस लाऊंगा ….
आपकी टीम के साथ मैं भी चलूंगी शायद मदद कर सकु ??
आरती ने जिद की
त्रिपाठी-ठीक है आरती जी ….
पर मैं कोई टीम लेकर नहीं जाऊँगा क्योंकि अगर कुछ कार्यवाही की जरुरत पड़ी तो मैं ऊपर से कोई दबाव नहीं चाहता
हम पहले रचित के पास पहुचेगे
और त्रिपाठी फिर आरती के साथ रचित की तलाश में निकल पड़ा ……
उधर रचित को बुधिया और रामभरोसे अच्छे इंसान लगे उसने अपनी और कविता की पूरी कहानी समझाई…
रामभरोसे-रचित बाबू हम आपको नेता जी के फार्म हॉउस कहाँ है बता सकते है पर लड़ने की ताक़त हम गरीब गाँव वालों में नहीं है गाँव की बहु बेटियो को अगवा करना उसका बलात्कार करना ये तो रोज़ का तमाशा है इस राक्षस का हमारी खुद की बेटी लक्ष्मी का इज़्ज़त ई लोग नाश दिया और हमारी पत्नी को ज़िंदा जला दिए ,
रचित के चेहरा गुस्से के लाल हुआ जा रहा था
“तुम गाँव वाले इतने बुजदिल कैसे हो सकते हो ” खैर क्या मुझे तुम कुछ हथियार दे सकते हो ?
बुधिया-रचित बाबू मेरे पास तीर और धनुष और हम आपका साथ देंगे ….
तीर धनुष ?? अरे उनकी बंदूको के आगे तीर धनुष से क्या होगा ? रचित ने पूछा ?
बाबूजी हम गांव वालो तीर धनुष भी पक्षीयो के शिकार के लिए ही रखते है ये तीर ज़हरीले है बिना आवाज़ किये ये किसी की जान के सकते है ….बुधिया ने कहा
ए रामखेलावन तुम गाँव वालो को जाकर बुलाओ और बताओ की शहरी बाबू जी भी हमारी मदद को तैयार है और हम जब तक इनके साथ और मंत्री के घर पर जाते है देखो साँझ का पहर होने को है रात से पहले हमको आज लड़ाई लड़नी ही होगी …

हरिलाल यादव का फॉर्म हाउस किसी किले से कम न था बुधिया ने सटीक निशाना लागते हुए अपने तीरो से पहले गेट पर के दोनों प्रहरी को बेहोश कर दिया।
फिर रचित और बुढ़िया मंत्री के घर के अंदर थे …
बुधिया अंदर से काफी शोर आ रहा है गाने बजाने का
ये अच्छा है की मंत्री अपने गुंडों के साथ अंदर ही है …
उधर इंसपेक्टर त्रिपाठी को भी पता चल जाता है जीपीएस से की रचित मंत्री हरिलाल यादव के घर पर है …आरती हमे जल्दी करना होगा रचित लोकेट हो गया है -त्रिपाठी ने कहा।
उधर रचित ने खिड़की से देखा तो दंग रह गया कई लडकिया खड़ी ही तो विदेशी लोग उन्हें खरीदने आये आखिर उसकी नज़र कविता पर पड़ी जो डरी सहमी चुप चाप खड़ी थी उसकी हिरणी जैसी आँखों में आँशु थे और मदद की आस थी ….
रचित -बुधिया जब मैं उस पुलिस वाले से पूछने जाऊं तब तुम इसको अपनी तीर से बेहोश करना इसकी बन्दूक हमें लेनी होगी,बुधिया ने इशारे में ही हां कर दिया …
रचित जैसे ही पुलिस का पास जा कर बात करने जाता है एक तीर पुलिस को उसके गर्दन पर जा लगती है .. रचित उसका हैंडगन और गोलिया अपने पास रख लेता है और दरवाज़े पर गोली मार कर सीधा अंदर जाता है…
“बस बस मंत्री जी हो गया खत्म आपका ये घिनोना खेल अगर इधर उधर हरकत की तो सीधा गोली मारूँगा बुधिया इनके गुंडों की बंदूके ले ले और गांव बहार फेक और गाँव वालो को बुला जल्दी ….
कविता रचित को देख कर उससे लिपट जाती है …
“मुझे पता था रचित तुम मुझे ढूंढते हुए जरूर आओगे …
कविता की इस अनजानी गलती से हरिलाल यादव के गुंडों को मौका मिल जाता है और रचित के हाथ से बन्दुक गिर जाता है …
हरिलाल यादव – का रे साला तू हमरी 20साल की राजनीति खत्म करेगा ई सब लड़की को छुड़ाएगा अपनी प्रेमिका को बचा कर ले जाएगा गोलों मार दो ससुरे को …
कविता और रचित सामने आने वाली मौत को देख सकते थे अब और गोली भी चली पर सुराख़ उस गुंडे के सर पर था ये गोली इस्पेक्टर त्रिपाठी ने चलाई थी|
त्रिपाठी-मंत्री जी के घर पर खुद सुपरिटेंडेंट ऑफ़ पुलिस बन्दुक लिए जब लड़कियो की दलाली कर रहा हो तो उसके सर में गोली मार ही देनी चाहिए और मंत्री जी अब अगर हिले तो अलगी गोली आपके सर के अंदर होगी,रचित तुम लड़कियो को लेकर बहार जाओ , आरती तुम भी अब अपने भैया भाभी के साथ बहार जाओ फिर त्रिपाठी ने एक एक बाद एक कई गोलिया चलाई तो मंत्री के चेले कुछ देर में धूल चाट रहे थे …
गाँव वाले भी अंदर आ चुके थे मंत्री हरिलाल का खेल खत्म हो चूका था …
हम हम सरेंडर को तैयार है इंस्पेक्टर हम ई गाँव वालो से बचा लो …
रचित- इस्पेक्टर तुम कानून के अंदर रह कर ही काम करो और इसको सज़ा भारत का संविधान देगा ….
त्रिपाठी ने हल्की सी मुस्कान के साथ रचित की ओर देखा और सिगरेट सुलगा लिया …
“आरती जी आपको क्या लगता है मुझ जैसे ईमानदार और देशभक्त इंसान को क्या करना चाहिए ?? त्रिपाठी ने बोलना जारी रखा एस पी साहेब जिसकी खुद रखवाली कर रहे थे ?? ई साला फिर छुट जाएगा पर गाँव वाले अगर इसको मार देंगे तो अज्ञात भीड़ पर केस बनेगा ?? आप लोग चलिए कानून का आज सही इस्तमाल मैं करता हूँ..
और त्रिपाठी कविता रचित आरती बहार आ गए गाँव वालों के मारो मारो के शोर में मंत्री की चीख धीरे धीरे हलकी होती गई|

कविता- रचित देखो न साँझ की लालिमा ढल चुकी है और अब कल से एक नया सवेरा होगा
रचित ने कविता को बाहों में भर लिया और दोनों एक दूसरे को बेतहाशा चूम रहे थे, इस्पेक्टर त्रिपाठी और आरती इस मिलन को देख रहे थे और फिर झुकी झुकी नज़रो से एक दूसरे को देख रहे थे जो आरती और त्रिपाठी के नए रिश्ते की कहानी की शुरुआत थी ।
                       समाप्त
अभिषेक तिवारी

हजारों ख्वाहिशें ऐसी…. – नामवर सिंह

प्रख्यात आलोचक डॉ.नामवर सिंह से लम्बी बातचीत
साक्षात्कारकर्ता: डॉ.अभिज्ञात
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले।

अपनी मनोकामनाओं को अभिव्यक्त करने लिए गालिब का यह शेर कहा प्रख्यात आलोचक डॉ.नामवर सिंह ने। वे हाल ही में एक कार्यक्रम के सिलसिले में कोलकाता आये थे। प्रस्तुत है इस अवसर पर उनसे डॉ.अभिज्ञात से की गयी लम्बी बातचीत के प्रमुख अंश:

प्रश्न: कई दशकों तक लगातार आलोचक के तौर पर अपने रचनाकर्म के बाद अब क्या कुछ करने की इच्छा बाकी रह गयी है? वह क्या है जो नहीं कर पाने का अफसोस रह जायेगा?

उत्तर: गा़लिब का उपर्युक्त शेर मैं कहना चाहूंगा। मेरी कई तमन्नाएं अधूरी हैं, क्या कहूं क्या न कहूं। और हर इच्छा काफी बलवती है।

प्रश्न: लिखने को लेकर भावी योजना क्या है?

उत्तर: उम्र के चलते स्वास्थ्य सम्बंधी सीमाएं हैं। लिखने बैठने के लिए पहले वाली ऊर्जा अब नहीं रही। पहले तो मैं लिखने के लिए 9-10 बजे रात तक खा-पीकर तैयार हो जाता था और रात भर लिखता रहता था। थोड़ा बहुत दिन में सो लिया तो सो लिया। यह क्रम आठ-दस दिन लगातार चलता और एक ग्रंथ तैयार हो जाता था। अब व्यस्तताएं बढ़ गयी हैं। इस शहर से उस शहर सेमिनारों तथा अन्य कार्योंवश जाना पड़ता है। तो अब जो कुछ बोल लेता हूं वही मेरा रचा हुआ है। इसलिए लोग कहते हैं कि मैं मौखिक साहित्य रचता हूं। अब रात भर बैठ कर लिखने वाली ऊर्जा नहीं रही।

प्रश्न: तीन-चार दशकों तक लगातार आलोचना साहित्य के शीर्ष पर बने रहने का राज क्या है? साहित्य की दुनिया में आप की वही भूमिका है जो अमिताभ बच्चन की सिनेमा में है।

उत्तर: आलोचना की दुनिया का अमिताभ बच्चन कहे जाने की मुझे खुशी है। मैंने कभी कहा था ‘गुण ना हेरानो गुण ग्राहक हेरानो है’ वह गलत साबित हो रहा है अब तो लगता है कि कि गुण-ग्राहक तो बहुत हैं गुणवानों की ही कमी हो गयी है। आप चाहें तो इसी को राज कह लें। मुझे खुशी होती है कि लोग मुझे लगातार प्रासंगिक मानते रहे हैं।

प्रश्न: किसी परिवार में किसी क्षेत्र में जब कोई व्यक्ति ख्यातिप्राप्त कर लेता है तो उसी परिवार के दूसरे व्यक्ति की प्रतिभा दब जाती है? इस संदर्भ में अपने छोटे कथाकार भाई काशीनाथ सिंह के बारे में क्या कहना चाहेंगे?

उत्तर: मेरा परिवार इस मिथ को तोड़ता है। काशीनाथ सिंह ने अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व और ख्याति अर्जित की है।

प्रश्न: यह तो सही है लेकिन वे इन दिनों अपनी कहानी ‘काशी का अस्सी’ को लेकर खासी चर्चा में हैं। उस पर फिल्म बन रही है और कहा जा रहा है कि इस फिल्म के आने के बाद फिल्मी दुनिया में जो कहानियों का ढर्रा है वह बदल जायेगा। और चूंकि फिल्म साहित्य की तुलना में एक बड़ा माध्यम है लोग आपको काशीनाथ ङ्क्षसह की वजह से जानने लगेंगे। जैसा कि हरिवंश राय बच्चन के साथ हुआ है। साहित्येतर जगत के लोग अमिताभ बच्चन के कारण हरिवंश राय बच्चन को जानते हैं।

उत्तर: मेरे लिए इससे बढ़कर कोई खुशी नहीं हो सकती कि मैं काशीनाथ सिंह के भाई के तौर पर जाना जाऊं। कहानी पर तो फिल्म बन सकती है, कवि फिल्मों में गीत लिख सकते हैं पर आलोचना साहित्य का तो फिल्म मीडिया में इस्तेमाल नहीं हो सकता। मैं यह मानता हूं कि फिल्म साहित्य से बड़ा और पापुलर माध्यम है और आम आदमी पर अपनी अधिक पकड़ रखता है। मैं मानता हूं कि मेरा सबसे बड़ा मीडिया मेरे छात्र हैं। जहां कहीं भी मेरा कोई छात्र है वहां मैं हूं और उससे जुड़े लोगों तक मेरी पहुंच है। मेरे छात्र जानते हैं कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिन्दी की कैसी धाक मेरे चलते बनी। अध्यापन के लिए मेरे वहां पहुंचने के पूर्व हिन्दी बोलने वाले अपने को दीन-हीन समझते थे और अंग्रेजी वाला माहौल था, अमूमन सभी लोग अंग्रेजी में ही बातचीत करते थे। मैं देहाती वेशभूषा धोती-कुर्ता में वहां पहुंचा था और मैंने वहां धड़ल्ले से हिन्दी में बातचीत शुरू की। बाद में तो हिन्दी की स्थिति जेएनयू में इतनी सबल हो गयी कि वहां छात्रसंघ ने अपनी भाषा के तौर पर हिन्दी को ही अपना लिया। वहां अब जो पोस्टर- बैनर आदि लगते हैं, वे हिन्दी में होते और हिन्दी की जो कक्षाएं मैं लेता था उसमें दूसरी भाषा के छात्र-छात्राएं व अध्यापक तक पहुंच जाया करते थे।

प्रश्न: आज जो नयी पीढ़ी साहित्य सृजन में लगी है उसके संदर्भ में क्या कहना चाहेंगे?

उत्तर: अद्भुत और सराहनीय। मैं यह कहना चाहूंगा कि बीसवीं सदी में जो कुछ महत्त्वपूर्ण लेखन हुआ है इस सदी का लेखन अभी से ही यह जता रहा है कि वह उससे बहुत आगे है। अब होनहार रचनाकारों की पूरी फौज तैयार है। उपन्यास में तो कम लेखन हो रहा है किन्तु कविता, कहानी, आलोचना इन विधाओं में नयी प्रतिभाएं उल्लेखनीय योगदान दे रही हैं और मैं नयी पीढ़ी की रचनाशीलता के प्रति आश्वस्त हूं।

प्रश्न: साहित्य में एक साहित्यिक धारा के तौर पर जिस ‘जनवाद’ की चर्चा पिछले दशक में जोर-शोर से थी, चुनावी राजनीति में वामपंथी दलों की शिकस्त के उसका आभामंडल क्षीण हो गया है। क्या यह मान लिया जाये कि यह दौर जनवाद के पतन का या उत्तर जनवाद का है?

उत्तर: पहले तो यह समझें कि जनवाद को साहित्य की धारा के तौर पर जिन्होंने अभिहित किया वह माक्र्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी (माकपा) का साहित्यिक मोर्चा था। लेकिन उनकी जो साहित्यिक सोच है, उस पर तो पहले से ही प्रगतिशील लेखक संघ और प्रगतिवादी साहित्य से जुड़े लोग चल रहे थे। यदि जनवाद का अर्थ मेहनतकश मजदूरों, कृषकों व आर्थिक तौर पर पिछड़े लोगों के प्रति सहानुभूति से है तो वह साहित्य में हमेशा से ही विद्यमान रहा है और रहेगा। निम्न मध्यवर्ग को भी उसमें जोड़ लें।

प्रश्न: बुद्धिजीवियों में एक दिग्भ्रम दिखायी देता है क्या मान लिया जाये कि विचारधारा संकट में है?

उत्तर: एक जमाना था जब वामपंथी विचारधारा के बरक्स विचारधारा के अन्त की बात चली थी। अंत का मतलब वहां सैद्धांतिक विचारों से था। किन्तु मैं यह मानता हूं कि आम आदमी या दबे कुचले लोगों की समस्याओं के हल का सपना कभी नहीं मरता और जब तक मनुष्य में सही और गलत का निर्णय लेने की क्षमता बची रहेगी विचारधारा का अन्त नहीं होगा। मनुष्य रेशनल एनीमल है इसे वैज्ञानिकों ने माना है। मनुष्य ही वह प्राणी है जिसमें कला होती है और हर कला में कहीं न कहीं विवेक होता है। साहित्य में भले कुछ लोग सही दिशा नहीं तय कर पा रहे हों लेकिन उनके अन्दर विवेक है और वे सही गलत के द्वंद्व से उबर ही जायेंगे। विचार भले धारा के रूप में न रहे किन्तु विचार तो बने ही रहते हैं। और हर समाज में हर समय नैतिकता के प्रश्न होते हैं भले ही अलग-अलग समय में वे अलग-अलग हों।

प्रश्न: जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के रंग-ढंग के संदर्भ में यह प्रश्न उठे हैं कि क्या साहित्य का उत्सव होना चाहिए और ऐसा साहित्य के हित में कहां तक होगा?

उत्तर: जयपुर में साहित्य को लेकर जो उत्सव हुआ वह उस पर पूरी तरह से बाजारवाद हावी था। एक तरह से साहित्य को बेचने की कोशिश थी। खूब पैसा खर्च हुआ और वह एक प्रदर्शन की तरह था। वहां साहित्य प्रमुख नहीं रह गया था साहित्य का प्रदर्शन मुख्य था। हालांकि साहित्यिक उत्सवों को हम आम भारतीयों के जीवन के अन्य उत्सवों की तरह लें तो कोई हर्ज नहीं है। हमारे तमाम तीज-त्योहार उत्सवपूर्ण होते हैं। दुर्गा पूजा, गणेश पूजा, होली, दिवाली, ईद, गुड फ्राइडे सब उत्सव हैं और हमें न तो इनसे परहेज है और ना ही मुझे इनमें कोई बुराई नजर आती है। हमारा समाज उत्सवपूर्ण है। हमारे समाज का यह स्वभाव है। यहां तक कि मोहर्रम शोक के जुड़ा मामला है इसके बावजूद ताजिये पूरे उत्सव के रूप में निकाले जाते हैं। यदि साहित्य से जुड़े कार्यक्रम हमारे जीवन में उत्सव के रूप में आयें तो क्या हर्ज हो सकता है।

किशोरी हो गई बिटिया – अन्तरा करवड़े

जानती हूँ शोना! अब तुम अपनी गुड़िया को देख थोड़ी परेशान हो जाती हो । तुम्हारे बचपन की वो तस्वीर जिसमें तुम्हारे पहले पहले टूटे दांत की प्यारी सी मुस्कान है¸ उसे अब तुमने तकिये के नीचे दबा दिया है। तुम्हारी पलकें लंबी और रेशमी होकर सपनों के शहर में पहुंचने लगी है। और हाँ ! तुम्हें अब “शोना बेटा” कहना भी उलझन में डाल देता है ।

ये सब कुछ मुझे तो तुम्हारे लिए बड़ा स्वाभाविक लग रहा है लेकिन क्या तुम ये जानती हो कि अब तुम अपने जीवन के नए अध्याय को पढ़ने जा रही हो । कई बार तुम्हें माँ¸ पिताजी और ये सारी दुनिया ही क्यों न कहूँ¸ दुश्मन सी प्रतीत होगी । कोई तुम्हारे मन को पढ़ ले या तुम्हारे दिन में देखे जा रहे सपनों में दखल दे इसे तुम कभी पसंद नहीं करोगी । और हो भी क्यों नहीं अब तुम बच्ची थोड़े ही रह गई हो जो फ्रॉक का हुक लगवाने मेरे पास आओगी ।

पता है¸ आज मैंने दुआ माँगी है¸ तुम्हारे लिए¸ कि तुम इस खुले आसमान में अपनी कल्पनाओं के सतरंगे पंख लेकर अनंतकाल तक इस सपनीले प्रदेश में विचरण करो । मैं तुम्हारी भावनाओं की ढाल बनने का प्रयत्न करूंगी जिससे कोई भी तुम्हारे पक्के होते मन की मिट्टी पर वक्त से पहले किसी भी अनचाही याद की छाप न छोड़ सके ।

तुम स्वतंत्र हो बिटिया¸ अपने संसार में । तुम मुक्त हो अपने निर्णय लेने के लिए । मुझे विश्वास है अपने पालन पोषण पर और तुम्हारे व्यक्तित्व पर कि तुम कभी भी अपने आप को और अपने परिवार को कष्ट में नहीं डालोगी ।

अब तुम फूलों को देखकर नई कल्पनाएं करो बेटी । पढ़ाई में से कुछ समय बचाकर अपने आप से भी बातें किया करो । अपने बचपन के किसी वस्त्र को देखकर विस्मित होकर मुझसे पूछो कि मम्मी क्या मैं कभी इतनी छोटी भी थी।

और हाँ! कभी कभी ही सही लेकिन तुम्हारा सिर अपनी गोद में लेकर सहलाना मुझे ताउम्र अच्छा लगेगा चाहे कल तुम मेरी उम्र की ही क्यों न हो जाओ ।

तुम्हें कुछ और भी कहना था । अपने दोस्तों और सहेलियों की पहचान कैसे करना चाहिये यह अब तुम्हें सिखाने की आवश्यकता नहीं है लेकिन भावनाएँ तुमसे है तुम भावनाओं से नहीं इस अंतर को कभी मत भूलना।

तुम्हारे लिए मैंने अपने कैशोर्य के कुछ लम्हें चुराकर रखे थे। लेकिन अब वे वक्त का जंग खाकर पुराने पड़ चुके है।

और वैसे भी तुम्हें विरासत में सारा संसार मिला है। तुम उन्मुक्त हो परंतु इसे उन्माद से पहले रोकना जानती हो। तुम स्वतंत्र हो और उच्छृंखलता का अर्थ बड़ी अच्छी तरह से समझती हो । तुम सुन्दर हो और जीवन की क्षणभंगुरता से भी परिचित हो ।

कितनी अजीब सी बात है ना बिटिया¸ मैं तो तुम्हें तुम्हारे किशोर जीवन की शुरूआत पर कुछ समझाईश देने का विचार रखती थी लेकिन तुम अब बड़ी हो गई हो बिटिया । खुशहाल बचपन की यादों के साथ एक स्वप्निल कैशोर्य तुम्हारी बाट जोह रहा है ।

अब सोचो नहीं । बस भर लो एक ऊंची उड़ान ¸ भविष्य के लिए ।

तुम्हारी माँ !

अमृतसर आ गया है – भीष्म साहनी

गाड़ी के डिब्बे में बहुत मुसाफिर नहीं थे। मेरे सामनेवाली सीट पर बैठे सरदार जी देर से मुझे लाम के किस्से सुनाते रहे थे। वह लाम के दिनों में बर्मा की लड़ाई में भाग ले चुके थे और बात-बात पर खी-खी करके हंसते और गोरे फौंजियों की खिल्ली उड़ाते रहे थे। डिब्बे में तीन पठान व्यापारी भी थे, उनमें से एक हरे रंग की पोशाक पहने ऊपर वाली बर्थ पर लेटा हुआ था। वह आदमी बड़ा हंसमुख था और बड़ी देर से मेरे साथ वाली सीट पर बैठे एक दुबले-से बाबू के साथ उसका मंजांक चल रहा था। वह दुबला बाबू पेशावर का रहनेवाला जान पड़ता था क्योंकि किसी-किसी वक्त वे आपस में पश्तो में बातें करने लगते थे। मेरे सामने दायीं ओर कोने में, एक बुढ़िया मुंह-सिर ढाँपे बैठी थी और देर से माला जप रही थी। यही कुछ लोग रहे होंगे। सम्भव है दो-एक और मुसाफिर भी रहे हों, पर वे स्पष्टत: मुझे याद नहीं।

गाड़ी धीमी रंफ्तार से चली जा रही थी, और गाड़ी में बैठे मुसांफिर बतिया रहे थे और बाहर गेहूं के खेतों में हल्की-हल्की लहरियाँ उठ रही थीं, और मैं मन-ही-मन बड़ा खुश था क्योंकि मैं दिल्ली में होने वाला स्वतन्त्रता-दिवस समारोह देखने जा रहा था।

उन दिनों के बारे में सोचता हूं, तो लगता है, हम किसी झुटपुटे में जी रहे हैं। शायद समय बीत जाने पर अतीत का सारा व्यापार ही झुटपुटे में बीता जान पड़ता है। ज्यों-ज्यों भविष्य के पट खुलते जाते हैं, यह झुटपुटा और भी गहराता चलाजाताहै।

उन्हीं दिनों पाकिस्तान के बनाये का ऐलान किया गया था और लोग तरह-तरह के अनुमान लगाने लगे थे कि भविष्य में जीवन की रूपरेखा कैसी होगी। पर किसी की भी कल्पना बहुत दूर तक नहीं जा पाती थी। मेरे सामने बैठे सरदार जी बार-बार मुझसे पूछ रहे थे कि पाकिस्तान बन जाने पर जिन्ना साहिब बम्बई में ही रहेंगे या पाकिस्तान में जाकर बस जाएंगे, और मेरा हर बार यही जवाब होता—बम्बई क्यों छोड़ेंगे, पाकिस्तान में आते-जाते रहेंगे, बम्बई छोड़ देने में क्या तुक है! लाहौर और गुरदासपुर के बारे में भी अनुमान लगाए जा रहे थे कि कौन-सा शहर किस ओर जाएगा। मिल बैठने के ढंग में, गप-शप में, हंसी-मंजांक में कोई विशेष अन्तर नहीं आया था। कुछ लोग अपने घर छोड़कर जा रहे थे, जबकि अन्य लोग उनका मजाक उड़ा रहे थे। कोई नहीं जानता था कि कौन-सा कदम ठीक होगा और कौन-सा गलत। एक ओर पाकिस्तान बन जाने का जोश था तो दूसरी ओर हिन्दुस्तान के आंजाद हो जाने का जोश। जगह-जगह दंगे भी हो रहे थे, और योम-ए-आजादी की तैयारियाँ भी चल रही थीं। इस पूष्ठभूमि में लगता, देश आंजाद हो जाने पर दंगे अपने-आप बन्द हो जाएंगे। वातावरण में इस झुटपुट में आजादी की सुनहरी धूल-सी उड़ रही थी और साथ-ही-साथ अनिश्चय भी डोल रहा था, और इसी अनिश्चय की स्थिति में किसी-किसी वक्त भावी रिश्तों की रूपरेखा झलक दे जाती थी।

शायद जेहलम का स्टेशन पीछे छूट चुका था जब ऊपर वाली बर्थ पर बैठे पठान ने एक पोटली खोल ली और उसमें से उबला हुआ मांस और नान-रोटी के टुकड़े निकाल-निकालकर अपने साथियों को देने लगा। फिर वह हंसी-मंजांक के बीच मेरी बगल में बैठे बाबू की ओर भी नान का टुकड़ा और मांस की बोटी बढ़ाकर खाने का आग्रह करने लगा था—का ले, बाबू, ताकत आएगी। अम जैसा ओ जाएगा। बीवी बी तेरे सात कुश रएगी। काले दालकोर, तू दाल काता ए, इसलिए दुबला ए…

डिब्बे में लोग हंसने लगे थे। बाबू ने पश्तो में कुछ जवाब दिया और फिर मुस्कराता सिर हिलाता रहा।

इस पर दूसरे पठान ने हंसकर कहा—ओ जालिम, अमारे साथ से नई लेता ए तो अपने हाथ से उठा ले। खुदा कसम बर का गोश्त ए, और किसी चीज का नईए।

ऊपर बैठा पठान चहककर बोला—ओ खंजीर के तुम, इदर तुमें कौन देखता ए? अम तेरी बीवी को नई बोलेगा। ओ तू अमारे साथ बोटी तोड़। अम तेरे साथ दाल पिएगा…

इस पर कहकहा उठा, पर दुबला-पतला बाबू हँसता, सिर हिलाता रहा और कभी-कभी दो शब्द पश्तो में भी कह देता।

ओ कितना बुरा बात ए, अम खाता ए, और तू अमारा मुँ देखता ए… सभी पठान मगन थे।

यह इसलिए नहीं लेता कि तुमने हाथ नहीं धोए हैं, स्थूलकाय सरदार जी बोले और बोलते ही खी-खी करने लगे! अधलेटी मुद्रा में बैठे सरदार जी की आधी तोंद सीट के नीचे लटक रही थी—तुम अभी सोकर उठे हो और उठते ही पोटली खोलकर खाने लग गये हो, इसीलिए बाबू जी तुम्हारे हाथ से नहीं लेते, और कोई बात नहीं। और सरदार जी ने मेरी ओर देखकर आँख मारी और फिर खी-खीकरनेलगे।

मांस नई खाता ए, बाबू तो जाओ जनाना डब्बे में बैटो, इदर क्या करता ए? फिर कहकहा उठा।

डब्बे में और भी अनेक मुसांफिर थे लेकिन पुराने मुसांफिर यही थे जो संफर शुरू होने में गाड़ी में बैठे थे। बाकी मुसांफिर उतरते-चढ़ते रहे थे। पुराने मुसांफिर होने के नाते उनमें एक तरह की बेतंकल्लुंफी आ गयी थी।

ओ इदर आकर बैठो। तुम अमारे साथ बैटो। आओ जालिम, किस्सा-खानी की बातें करेंगे।

तभी किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकी थी और नये मुसांफिरों का रेला अन्दर आ गया था। बहुत-से मुसांफिर एक साथ अन्दर घुसते चले आये थे।

कौन-सा स्टेशन है? किसी ने पूछा।

वजीराबाद है शायद, मैंने बाहर की ओर देखकर कहा।

गाड़ी वहाँ थोड़ी देर के लिए खड़ी रही। पर छूटने से पहले एक छोटी-सी घटना घटी। एक आदमी साथ वाले डिब्बे में से पानी लेने उतरा और नल पर जाकर पानी लोटे में भर रहा था तभी वह भागकर अपने डिब्बे की ओर लौट आया। छलछलाते लोटे में से पानी गिर रहा था। लेकिन जिस ढंग से वह भागा था, उसी ने बहुत कुछ बता दिया था। नल पर खड़े और लोग भी, तीन-चार आदमी रहे होंगे—इधर-उधर अपने-अपने डिब्बे की ओर भाग गये थे। इस तरह घबराकर भागते लोगों को मैं देख चुका था। देखते-ही-देखते प्लेटफार्म खाली हो गया। मगर डिब्बे के अन्दर अभी भी हंसी-मजाक चल रहा था।

कहीं कोई गड़बड़ है, मेरे पास बैठे दुबले बाबू ने कहा।

कहीं कुछ था, लेकिन क्या था, कोई भी स्पष्ट नहीं जानता था। मैं अनेक दंगे देख चुका था इसलिए वातावरण में होने वाली छोटी-सी तबदील को भी भाँप गया था। भागते व्यक्ति, खटाक से बन्दर होते दरवाजे, घरों की छतों पर खड़े लोग, चुप्पी और सन्नाटा, सभी दंगों के चिह्न थे।

तभी पिछले दरवाजे की ओर से, जो प्लेटफार्म की ओर न खुलकर दूसरी ओर खुलता था, हल्का-सा शोर हुआ। कोई मुसांफिर अन्दर घुसना चाह रहा था।

कहाँ घुसा आ रहा है, नहीं है जगह! बोल दिया जगह नहीं है, किसी ने कहा।

बन्द करो जी दरवाजा। यों ही मुंह उठाए घुसे आते हैं। आवांजें आ रही थीं।

जितनी देर कोई मुसांफिर डिब्बे के बाहर खड़ा अन्दर आने की चेष्टा करता रहे, अन्दर बैठे मुसांफिर उसका विरोध करते रहते हैं। पर एक बार जैसे-तैसे वह अन्दर जा जाए तो विरोध खत्म हो जाता है, और वह मुसांफिर जल्दी ही डिब्बे की दुनिया का निवासी बन जाता है, और अगले स्टेशन पर वही सबसे पहले बाहर खड़े मुसांफिरों पर चिल्लाने लगता है—नहीं है जगह, अगले डिब्बे में जाओ…घुसे आतेहैं…

दरवाजे पर शोर बढ़ता जा रहा था। तभी मैले-कुचैले कपड़ों और लटकती मूंछों वाला एक आदमी दरवांजे में से अन्दर घुसता दिखाई दिया। चीकट, मैले कपड़े, जरूर कहीं हलवाई की दुकान करता होगा। वह लोगों की शिकायतों-आवांजों की ओर ध्यान दिए बिना दरवाजे की ओर घूमकर बड़ा-सा काले रंग का सन्दूक अन्दर की ओर घसीटने लगा।

आ जाओ, आ जाओ, तुम भी चढ़ जाओ! वह अपने पीछे किसी से कहे जा रहा था। तभी दरवांजे में एक पतली सूखी-सी औरत नंजर आयी और उससे पीछे सोलह-सतरह बरस की सांवली-सी एक लड़की अन्दर आ गयी। लोग अभी भी चिल्लाए जा रहे थे। सरदार जी को कूल्हों के बल उठकर बैठना पड़ा।

बन्द करो जी दरवाजा, बिना पूछे चढ़े आते हैं, अपने बाप का घर समझ रखा है। मत घुसने दो जी, क्या करते हो, धकेल दो पीछे… और लोग भी चिल्ला रहेथे।

वह आदमी अपना सामान अन्दर घसीटे जा रहा था और उसकी पत्नी और बेटी संडास के दरवाजे के साथ लगकर खड़े थे।

और कोई डिब्बा नहीं मिला? औरत जात को भी यहाँ उठा लाया है?

वह आदमी पसीने से तर था और हाँफता हुआ सामान अन्दर घसीटे जा रहा था। सन्दूक के बाद रस्सियों से बंधी खाट की पाटियाँ अन्दर खींचने लगा।

टिकट है जी मेरे पास, मैं बेटिकट नहीं हूं। इस पर डिब्बे में बैठे बहुत-से लोग चुप हो गये, पर बर्थ पर बैठा पठान उचककर बोला—निकल जाओ इदर से, देखता नई ए, इदर जगा नई ए।

और पठान ने आव देखा न ताव, आगे बढ़कर ऊपर से ही उस मुसांफिर के लात जमा दी, पर लात उस आदमी को लगने के बजाए उसकी पत्नी के कलेजे में लगी और वहीं ‘हाय-हाय’ करती बैठ गयी।

उस आदमी के पास मुसांफिरों के साथ उलझने के लिए वक्त नहीं था। वह बराबर अपना सामान अन्दर घसीटे जा रहा था। पर डिब्बे में मौन छा गया। खाट की पाटियों के बाद बड़ी-बड़ी गठरियाँ आयीं। इस पर ऊपर बैठे पठान की सहन-क्षमता चुक गयी। निकलो इसे, कौन ए ये? वह चिल्लाया। इस पर दूसरे पठान ने, जो नीचे की सीट पर बैठा था, उस आदमी का सन्दूक दरवाजे में से नीचे धकेल दिया, जहाँ लाल वर्दीवाला एक कुली खड़ा सामान अन्दर पहुंचा रहा था।

उसकी पत्नी के चोट लगने पर कुछ मुसांफिर चुप हो गये थे। केवल कोने में बैठो बुढ़िया करलाए जा रही थी—ए नेक बख्तो, बैठने दो। आ जा बेटी, तू मेरे पास आ जा। जैसे-तैसे सफर काट लेंगे। छोड़ो बे जालिमो, बैठने दो।

अभी आधा सामान ही अन्दर आ पाया होगा जब सहसा गाड़ी सरकने लगी।

छूट गया! सामान छूट गया। वह आदमी बदहवास-सा होकर चिल्लाया।

पिताजी, सामान छूट गया। संडास के दरवाजे के पास खड़ी लड़की सिर से पाँव तक काँप रही थी और चिल्लाए जा रही थी।

उतरो, नीचे उतरो, वह आदमी हड़बड़ाकर चिल्लाया और आगे बढ़कर खाट की पाटियाँ और गठरियाँ बाहर फेंकते हुए दरवाजे का डंडहरा पकड़कर नीचे उतर गया। उसके पीछे उसकी व्याकुल बेटी और फिर उसकी पत्नी, कलेजे को दोनों हाथों से दबाए हाय-हाय करती नीचे उतर गयी।

बहुत बुरा किया है तुम लोगों ने, बहुत बुरा किया है। बुढ़िया ऊँचा-ऊँचा बोल रही थी—तुम्हारे दिल में दर्द मर गया है। छोटी-सी बच्ची उसके साथ थी। बेरहमो, तुमने बहुत बुरा किया है, धक्के देकर उतार दिया है।

गाड़ी सूने प्लेटफार्म को लाँघती आगे बढ़ गयी। डिब्बे में व्याकुल-सी चुप्पी छा गयी। बुढ़िया ने बोलना बन्द कर दिया था। पठानों का विरोध कर पाने की हिम्मत नहीं हुई।

तभी मेरी बगल में बैठे दुबले बाबू ने मेरे बाजू पर हाथ रखकर कहा—आग है, देखो आग लगी है।

गाड़ी प्लेटफार्म छोड़कर आगे निकल आयी थी और शहर पीछे छूट रहा था। तभी शहर की ओर से उठते धुएँ के बादल और उनमें लपलपाती आग के शोले नंजर आने लगे।

दंगा हुआ है। स्टेशन पर भी लोग भाग रहे थे। कहीं दंगा हुआ है।

शहर में आग लगी थी। बात डिब्बे-भर के मुसांफिरों को पता चल गयी और वे लपक-लपककर खिड़कियों में से आग का दृश्य देखने लगे।

जब गाड़ी शहर छोड़कर आगे बढ़ गयी तो डिब्बे में सन्नाटा छा गया। मैंने घूमकर डिब्बे के अन्दर देखा, दुबले बाबू का चेहरा पीला पड़ गया था और माथे पर पसीने की परत किसी मुर्दे के माथे की तरह चमक रही थी। मुझे लगा, जैसे अपनी-अपनी जगह बैठे सभी मुसांफिरों ने अपने आसपास बैठे लोगों का जायजा ले लिया है। सरदार जी उठकर मेरी सीट पर आ बैठे। नीचे वाली सीट पर बैठा पठान उठा और अपने दो साथी पठानों के साथ ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ गया। यही क्रिया शायद रेलगाड़ी के अन्य डिब्बों में भी चल रही थी। डिब्बे में तनाव आ गया। लोगों ने बतियाना बन्द कर दिया। तीनों-के-तीनों पठान ऊपरवाली बर्थ पर एक साथ बैठे चुपचाप नीचे की ओर देखे जा रहे थे। सभी मुसाफिरों की आँखें पहले से ज्यादा खुली-खुली, ज्यादा शंकित-सी लगीं। यही स्थिति सम्भवत: गाड़ी के सभी डिब्बों में व्याप्त हो रही थी।

कौन-सा स्टेशन था यह? डिब्बे में किसी ने पूछा।

वजीराबाद, किसी ने उत्तर दिया।

जवाब मिलने पर डिब्बे में एक और प्रतिक्रिया हुई। पठानों के मन का तनाव फौरन ढीला पड़ गया। जबकि हिन्दू-सिक्ख मुसांफिरों की चुप्पी और ज्यादा गहरी हो गयी। एक पठान ने अपनी वास्कट की जेब में से नसवार की डिबिया निकाली और नाक में नसवार चढ़ाने लगा। अन्य पठान भी अपनी-अपनी डिबिया निकालकर नसवार चढ़ाने लगे। बुढ़िया बराबर माला जपे जा रही थी। किसी-किसी वंक्त उसके बुदबुदाते होंठ नंजर आते, लगता, उनमें से कोई खोखली-सी आवांज निकल रही है।

अगले स्टेशन पर जब गाड़ी रुकी तो वहाँ भी सन्नाटा था। कोई परिन्दा तक नहीं फड़क रहा था। हां, एक भिश्ती, पीठ पर पानी की मशकल लादे, प्लेटफार्म लांघकर आया और मुसांफिरों को पानी पिलाने लगा।

लो, पियो पानी, पियो पानी। औरतों के डिब्बे में से औरतों और बच्चों के अनेक हाथ बाहर निकल आये थे।

बहुत मार-काट हुई है, बहुत लोग मरे हैं। लगता था, वह इस मार-काट में अकेला पुण्य कमाने चला आया है।

गाड़ी सरकी तो सहसा खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जाने लगे। दूर-दूर तक, पहियों की गड़गड़ाहट के साथ, खिडक़ियों के पल्ले चढाने की आवांज आने लगी।

किसी अज्ञात आशंकावश दुबला बाबू मेरे पास वाली सीट पर से उठा और दो सीटों के बीच फर्श पर लेट गया। उसका चेहरा अभी भी मुर्दे जैसा पीला हो रहा था। इस पर बर्थ पर बैठा पठान उसकी ठिठोली करने लगा—ओ बेंगैरत, तुम मर्द ए कि औरत ए? सीट पर से उटकर नीचे लेटता ए। तुम मर्द के नाम को बदनाम करता ए। वह बोल रहा था और बार-बार हँसे जा रहा था। फिर वह उससे पश्तो में कुछ कहने लगा। बाबू चुप बना लेटा रहा। अन्य सभी मुसाफिर चुप थे। डिब्बे का वातावरण बोझिल बना हुआ था।

ऐसे आदमी को अम डिब्बे में नईं बैठने देगा। ओ बाबू, अगले स्टेशन पर उतर जाओ, और जनाना डब्बे में बैटो।

मगर बाबू की हाजिरजवाबी अपने कण्ठ में सूख चली थी। हकलाकर चुप हो रहा। पर थोड़ी देर बाद वह अपने आप उठकर सीट पर जा बैठा और देर तक अपने कपड़ों की धूल झाड़ता रहा। वह क्यों उठकर फर्श पर लेट गया था? शायद उसे डर था कि बाहर से गाड़ी पर पथराव होगा या गोली चलेगी, शायद इसी कारण खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जा रहे थे।

कुछ भी कहना कठिन था। मुमकिन है किसी एक मुसांफिर ने किसी कारण से खिडक़ी का पल्ला चढ़ाया हो। उसकी देखा-देखी, बिना सोचे-समझे, धड़ाधड़ खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जाने लगे थे। बोझिल अनिश्चत-से वातावरण में सफर कटने लगा। रात गहराने लगी थी। डिब्बे के मुसांफिर स्तब्ध और शंकित ज्यों-के-त्यों बैठे थे। कभी गाड़ी की रंफ्तार सहसा टूटकर धीमी पड़ जाती तो लोग एक-दूसरे की ओर देखने लगते। कभी रास्ते में ही रुक जाती तो डिब्बे के अन्दर का सन्नाटा और भी गहरा हो उठता। केवल पठान निश्चित बैठे थे। हां, उन्होंने भी बतियाना छोड़ दिया था, क्योंकि उनकी बातचीत में कोई भी शामिल होने वाला नहीं था।

धीरे-धीरे पठान ऊँघने लगे जबकि अन्य मुसांफिर फटी-फटी आँखों से शून्य में देखे जा रहे थे। बुढ़िया मुंह-सिर लपेटे, टांगें सीट पर चढ़ाए, बैठी-बैठी सो गयी थी। ऊपरवाली बर्थ पर एक पठान ने, अधलेटे ही, कुर्ते की जेब में से काले मनकों की तसबीह निकाल ली और उसे धीरे-धीरे हाथ में चलाने लगा।

खिड़की के बाहर आकाश में चाँद निकल आया और चाँदनी में बाहर की दुनिया और भी अनिश्चित, और भी अधिक रहस्यमयी हो उठी। किसी-किसी वक्त दूर किसी ओर आग के शोले उठते नंजर आते, कोई नगर जल रहा था। गाड़ी किसी वक्त चिंघाड़ती हुई आगे बढ़ने लगती, फिर किसी वक्त उसकी रंफ्तार धीमी पड़ जाती और मीलों तक धीमी रंफ्तार से ही चलती रहती।

सहसा दुबला बाबू खिड़की में से बाहर देखकर ऊँची आवांज में बोला—हरबंसपुरा निकल गया है। उसकी आवांज में उत्तेजना थी, वह जैसे चीखकर बोला था। डिब्बे के सभी लोग उसकी आवांज सुनकर चौंक गये। उसी वक्त डिब्बे के अधिकांश मुसांफिरों ने मानो उसकी आवांज को ही सुनकर करवट बदली।

ओ बाबू, चिल्लाता क्यों ए?, तसबीह वाला पठान चौंककर बोला—इदर उतरेगा तुम? जंजीर खींचूँ? अैर खी-खी करके हंस दिया। जाहिर है वह हरबंसपुरा की स्थिति से अथवा उसके नाम से अनभिज्ञ था। बाबू ने कोई उत्तर नहीं दिया, केवल सिर हिला दिया और एक-आध बार पठान की ओर देखकर फिर खिड़की के बाहर झाँकने लगा।

डब्बे में फिर मौन छा गया। तभी इंजन ने सीटी दी और उसकी एकरस रंफ्तार टूट गयी। थोड़ी ही देर बाद खटाक्-का-सा शब्द भी हुआ। शायद गाड़ी ने लाइन बदली थी। बाबू ने झाँककर उस दिशा में देखा जिस ओर गाड़ी बढ़ी जा रही थी।

शहर आ गया है। वह फिर ऊँची आवांज में चिल्लाया—अमृतसर आ गया है। उसने फिर से कहा और उछलकर खड़ा हो गया, और ऊपर वाली बर्थ पर लेटे पठान को सम्बोधित करके चिल्लाया—ओ बे पठान के बच्चे! नीचे उतर तेरी मां की…नीचे उतर, तेरी उस पठान बनाने वाले की मैं…

बाबू चिल्लाने लगा और चीख-चीखकर गालियाँ बकने लगा था। तसबीह वाले पठान ने करवट बदली और बाबू की ओर देखकर बोला—ओ क्या ए बाबू? अमको कुच बोला? बाबू को उत्तेजित देखकर अन्य मुसांफिर भी उठ बैठे।

नीचे उतर, तेरी मैं…हिन्दू औरत को लात मारता है! हरामजादे! तेरी उस…।

ओ बाबू, बक-बकर् नई करो। ओ ख्रजीर के तुख्म, गाली मत बको, अमने बोल दिया। अम तुम्हारा जबान खींच लेगा।

गाली देता है मादर…। बाबू चिल्लाया और उछलकर सीट पर चढ ग़या। वह सिर से पाँव तक का/प रहा था।

बस-बस। सरदार जी बोले—यह लड़ने की जगह नहीं है। थोड़ी देर का सफर बाकी है, आराम से बैठो।

तेरी मैं लात न तोडूं तो कहना, गाड़ी तेरे बाप की है? बाबू चिल्लाया।

ओ अमने क्या बोला! सबी लोग उसको निकालता था, अमने बी निकाला। ये इदर अमको गाली देता ए। अम इसका जबान खींच लेगा।

बुढ़िया बीच में फिर बोले उठी—वे जीण जोगयो, अराम नाल बैठो। वे रब्ब दिए बंदयो, कुछ होश करो।

उसके होंठ किसी प्रेत की तरह फड़फड़ाए जा रहे थे और उनमें से क्षीण-सी फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी।

बाबू चिल्लाए जा रहा था—अपने घर में शेर बनता था। अब बोल, तेरी मैं उस पठान बनाने वाले की…।

तभी गाड़ी अमृतसर के प्लेटफार्म पर रुकी। प्लेटफार्म लोगों से खचाखच भरा था। प्लेटफार्म पर खडे लोग झाँक-झाँक कर डिब्बों के अन्दर देखने लगे। बार-बार लोग एक ही सवाल पूछ रहे थे—पीछे क्या हुआ है? कहा/ पर दंगा हुआ है?

खचाखच भरे प्लेटफार्म पर शायद इसी बात की चर्चा चल रही थी कि पीछे क्या हुआ है। प्लेटफार्म पर खड़े दो-तीन खोंमचे वालों पर मुसांफिर टूटे पड़ रहे थे। सभी को सहसा भूख और प्यास परेशान करने लगी थी। इसी दौरान तीन-चार पठान हमारे डिब्बे के बाहर प्रकट हो गये और खिड़की में से झाँक-झाँक कर अन्दर देखने लगे। अपने पठान साथियों पर नंजर पड़ते ही वे उनसे पश्तो में कुछ बोलने लगे। मैंने घूमकर देखा, बाबू डिब्बे में नहीं था। न जाने कब वह डिब्बे में से निकल गया था। मेरा माथा ठिनका। गुस्से में वह पागल हुआ जा रहा था। न जाने क्या कर बैठे! पर इस बीच डिब्बे के तीनों पठान, अपनी-अपनी गठरी उठाकर बाहर निकल गये और अपने पठान साथियों के साथ गाड़ी के अगले डिब्बे की ओर बढ़ गये। जो विभाजन पहले प्रत्येक डिब्बे के भीतर होता रहा था, अब सारी गाड़ी के स्तर पर होने लगा था।

खोंमचे वालों के इर्द-गिर्द भीड़ छंटने लगी। लोग अपने-अपने डिब्बों में लौटने लगे। तभी सहसा एक ओर से मुझे वह बाबू आता दिखाई दिया। उसका चेहरा अभी भी बहुत पीला था और माथे पर बालों की लट झूल रही थी। नजदीक पहुँचा, तो मैंने देखा, उसने अपने दाएं हाथ में लोहे की एक छड़ उठा रखी थी। जाने वह उसे कहाँ मिल गयी थी! डिब्बे में घुसते समय उसने छड़ को अपनी पीठ के पीछे कर लिया और मेरे साथ वाली सीट पर बैठने से पहले उसने हौले से छड़ को सीट के नीचे सरका दिया। सीट पर बैठते ही उसकी आँखें पठान को देख पाने के लिए ऊपर को उठीं। पर डिब्बे में पठानों को न पाकर वह हड़बड़ाकर चारों ओर देखने लगा।

निकल गये हरामी, मादर…सब-के-सब निकल गये! फिर वह सिटपिटा कर उठ खड़ा हुआ चिल्लाकर बोला—तुमने उन्हें जाने क्यों दिया? तुम सब नामर्द हो, बुजदिल!

पर गाड़ी में भीड़ बहुत थी। बहुत-से नये मुसांफिर आ गये थे। किसी ने उसकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया।

गाड़ी सरकने लगी तो वह फिर मेरी वाली सीट पर आ बैठा, पर वह बड़ा उत्तेजित था और बराबर बड़बड़ाए जा रहा था।

धीरे-धीरे हिचकोले खाती गाड़ी आगे बढ़ने लगी। डिब्बे में पुराने मुसांफिरों ने भरपेट पूरियाँ खा ली थीं और पानी पी लिया था और गाड़ी उस इलाके में आगे बढ़ने लगी थी, जहाँ उनके जान-माल को खतरा नहीं था। नये मुसांफिर बतिया रहे थे। धीरे-धीरे गाड़ी फिर समतल गति से चलने लगी थी। कुछ ही देर बाद लोग ऊँघने भी लगे थे। मगर बाबू अभी भी फटी-फटी आँखों से सामने की ओर देखे जा रहा था। बार-बार मुझसे पूछता कि पठान डिब्बे में से निकलकर किस ओर को गये हैं। उसके सिर पर जनून सवार था।

गाड़ी के हिचकोलों में मैं खुद ऊँघने लगा था। डिब्बे में लेट पाने के लिए जगह नहीं थी। बैठे-बैठे ही नींद में मेरा सिर कभी एक ओर को लुढ़क जाता, कभी दूसरी ओर को। किसी-किसी वक्त झटके से मेरी नींद टूटती, और मुझे सामने की सीट पर अस्त-व्यस्त से पड़े सरदार जी के खर्राटे सुनाई देते। अमृतसर पहुँचने के बाद सरदार जी फिर से सामने वाली सीट पर टाँगे पसारकर लेट गये थे। डिब्बे में तरह-तरह की आड़ी-तिरछी मुद्राओं में मुसाफिर पड़े थे। उनकी बीभत्स मुद्राओं को देखकर लगता, डिब्बा लाशों से भरा है। पास बैठे बाबू पर नंजर पड़ती तो कभी तो वह खिड़की के बाहर मुंह किये देख रहा होता, कभी दीवार से पीठ लगाए तनकर बैठा नजर आता।

किसी-किसी वंक्त गाड़ी किसी स्टेशन पर रुकती तो पहियों की गडग़ड़ाहट बन्द होने पर निस्तब्धता-सी छा जाती। तभी लगता, जैसे प्लेटफार्म पर कुछ गिरा है, या जैसे कोई मुसांफिर गाड़ी में से उतरा है और मैं झटके से उठकर बैठ जाता।

इसी तरह जब एक बार मेरी नींद टूटी तो गाड़ी की रंफ्तार धीमी पड़ गयी थी, और डिब्बे में अ/धेरा था। मैंने उसी तरह अधलेटे खिड़की में से बाहर देखा। दूर, पीछे की ओर किसी स्टेशन के सिगनल के लाल कुमकुमे चमक रहे थे। स्पष्टत: गाड़ी कोई स्टेशन लाँघ कर आयी थी। पर अभी तक उसने रंफ्तार नहीं पकड़ी थी।

डिब्बे के बाहर मुझे धीमे-से अस्फुट स्वर सुनाई दिए। दूर ही एक धूमिल-सा काला पुंज नंजर आया। नींद की खुमारी में मेरी आँखें कुछ देर तक उस पर लगी रहीं, फिर मैंने उसे समझ पाने का विचार छोड़ दिया। डिब्बे के अन्दर अँधेरा था, बत्तियाम् बुझी हुई थीं, लेकिन बाहर लगता था, पौ फटने वाली है।

मेरी पीठ-पीछे, डिब्बे के बाहर किसी चीज को खरोचने की-सी आवांज आयी। मैंने दरवांजे की ओर घूमकर देखा। डिब्बे का दरवांजा बन्द था। मुझे फिर से दरवाजा खरोंचने की आवांज सुनाई दी। फिर, मैंने साफ-साफ सुना, लाठी से कोई डिब्बे का दरवाजा पटपटा रहा था। मैंने झाँककर खिड़की के बाहर देखा। सचमुच एक आदमी डिब्बे की दो सीढ़ियाँ चढ़ आया था। उसके कन्धे पर एक गठरी झूल रही थी, और हाथ में लाठी थी और उसने बदरंग-से कपड़े पहन रखे थे और उसके दाढ़ी भी थी। फिर मेरी नंजर बाहर नीचे की ओर आ गयी। गाड़ी के साथ-साथ एक औरत भागती चली आ रही थी, नंगे पाँव, और उसने दो गठरियाँ उठा रखी थीं। बोझ के कारण उससे दौड़ा नहीं जा रहा था। डिब्बे के पायदान पर खडा आदमी बार-बार उसकी ओर मुड़कर देख रहा था और हाँफता हुआ कहे जा रहा था—आ जा, आ जा, तू भी चढ़ आ, आ जा! दरवाजे पर फिर से लाठी पटपटाने की आवांज आयी—खोलो जी दरवांजा, खुदा के वास्ते दरवांजा खोलो।

वह आदमी हांफ रहा था—खुदा के लिंजए दरवाजा खोलो। मेरे साथ में औरत जात है। गाड़ी निकल जाएगी…

सहसा मैंने देखा, बाबू हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ और दरवाजे के पास जाकर दरवाजे में लगी खिड़की में से मुंह बाहर निकालकर बोला—कौन है? इधर जगह नहीं है।

बाहर खड़ा आदमी फिर गिड़गिड़ाने लगा—खुदा के वास्ते दरवाजा खोलो। गाड़ी निकल जाएगी।…

और वह आदमी खिड़की में से अपना हाथ अन्दर डालकर दरवाजा खोल पाने के लिए सिटकनी टटोलने लगा।

नहीं है जगह, बोल दिया, उतर जाओ गाड़ी पर से। बाबू चिल्लाया और उसी क्षण लपककर दरवांजा खोल दिया।

या अल्लाह! उस आदमी के अस्फुट-से शब्द सुनाई दिए। दरवाजा खुलने पर जैसे उसने इत्मीनान की सांस ली हो।

और उसी वक्त मैंने बाबू के हाथ में छड़ चमकते देखा। एक ही भरपूर वार बाबू ने उस मुसांफिर के सिर पर किया था। मैं देखते ही डर गया और मेरी टांगें लरज गयीं। मुझे लगा, जैसे छड़ के वार का उस आदमी पर कोई असर नहीं हुआ। उसके दोनों हाथ अभी भी जोर से डंडहरे को पकड़े हुए थे। कन्धे पर से लटकती गठरी खिसटकर उसकी कोहनी पर आ गयी थी।

तभी सहसा उसके चेहरे पर लहू की दो-तीन धारें एक साथ फूट पड़ीं। मुझे उसके खुले होंठ और चमकते दाँत नंजर आये। वह दो-एक बार ‘या अल्लाह!’ बुदबुदाया, फिर उसके पैर लडख़ड़ा गये। उसकी आँखों ने बाबू की ओर देखा, अधमुंदी-सी आँखें, जो धीर-धीरे सिकुड़ती जा रही थीं, मानो उसे पहचानने की कोशिश कर रही हों कि वह कौन है और उससे किस अदावत का बदला ले रहा है। इस बीच अँधेरा कुछ और छन गया था। उसके होंठ फिर से फड़फड़ाये और उनमें सफेद दाँत फिर से झलक उठे। मुझे लगा, जैसे वह मुस्कराया है, पर वास्तव में केवल क्षय के ही कारण होंठों में बल पड़ने लगे थे।

नीचे पटरी के साथ-साथ भागती औरत बड़बड़ाए और कोसे जा रही थी। उसे अभी भी मालूम नहीं हो पाया था कि क्या हुआ है। वह अभी भी शायद यह समझ रही थी कि गठरी के कारण उसका पति गाड़ी पर ठीक तरह से चढ़ नहीं पा रहा है, कि उसका पैर जम नहीं पा रहा है। वह गाड़ी के साथ-साथ भागती हुई, अपनी दो गठरियों के बावजूद अपने पति के पैर पकड़-पकड़कर सीढ़ी पर टिकाने की कोशिश कर रही थी।

तभी सहसा डण्डहरे से उस आदमी के दोनों हाथ छूट गये और वह कटे पेड़ की भाँति नीचे जा गिरा। और उसके गिरते ही औरत न भागना बन्द कर दिया, मानो दोनों का सफर एक साथ ही खत्म हो गया हो। बाबू अभी भी मेरे निकट, डिब्बे के खुले दरवाजे में बुत-का-बुत बना खड़ा था, लोहे की छड अभी भी उसके हाथ में थी। मुझे लगा, जैसे वह छड़ को फेंके देना चाहता है लेकिन उसे फेंक नहीं पा रहा, उसका हाथ जैसे उठ नहीं रहा था। मेरी सांस अभी भी फूली हुई थी और डिब्बे के अँधियारे कोने में मैं खिड़की के साथ सटकर बैठा उसकी ओर देखे जा रहा था।

फिर वह आदमी खड़े-खड़े हिला। किसी अज्ञात प्रेरणावश वह एक कदम आगे बढ़ आया और दरवांजे में से बाहर पीछे की ओर देखने लगा। गाड़ी आगे निकलती जा रही थी। दूर, पटरी के किनारे अँधियारा पुंज-सा नंजर आ रहा था।

बाबू का शरीर हरकत में आया। एक झटके में उसने छड़ को डिब्बे के बाहर फेंक दिया। फिर घूमकर डिब्बे के अन्दर दाएं-बाएं देखने लगा। सभी मुसांफिर सोये पड़े थे। मेरी ओर उसकी नंजर नहीं उठी। थोड़ी देर तक वह खड़ा डोलता रहा, फिर उसने घूमकर दरवांजा बन्द कर दिया उसने ध्यान से अपने कपड़ों की ओर देखा, अपने दोनों हाथों की ओर देखा, फिर एक-एक करके अपने दोनों हाथों को नाक के पास ले जाकर उन्हें सूंघा, मानो जानना चाहता हो कि उसके हाथों से खून की बू तो नहीं आ रही है। फिर वह दबे पांव चलता हुआ आया और मेरी बगलवाली सीट पर बैठ गया।

धीरे-धीरे झुटपुटा छंटने लगा, दिन खुलने लगा। साफ-सुथरी-सी रोशनी चारों ओर फैलने लगी। किसी ने जंजीर खींचकर गाड़ी को खड़ा नहीं किया था, छड़ खाकर गिरी उसकी देह मीलों पीछे छूट चुकी थी। सामने गेहूं के खेतों में फिर से हल्की-हल्की लहरियाँ उठने लगी थीं।

सरदार जी बदन खुजलाते उठ बैठे। मेरी बगल में बैठा बाबू दोनों हाथ सिर के पीछे रखे सामने की ओर देखे जा रहा था। रात-भर में उसके चेहरे पर दाढ़ी के छोटे-छोटे बाल उग आये थे। अपने सामने बैठा देखकर सरदार उसके साथ बतियाने लगा—बड़े जीवट वाले हो बाबू, दुबले-पतले हो, पर बड़े गुर्दे वाले हो। बड़ी हिम्मत दिखायी है। तुमसे डर कर ही वे पठान डिब्बे में से निकल गये। यहाँ बने रहते तो एक-न-एक की खोपड़ी तुम जरूर दुरुस्त कर देते… और सरदार जी हँसने लगे।

बाबू जवाब में मुसकराया—एक वीभत्स-सी मुस्कान, और देर तक सरदार जी के चेहरे की ओर देखता रहा।

कब सोचेंगे आप – मनोहर चमोली ‘मनु’

मैं अपनी किस्मत पे रो रहा हूं। अब सिर्फ़ खुद को कोसने के अलावा कर भी क्या सकता हूं। मेरी हालत ‘खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे’ वाली हो गई है। वैसे ये हाल सिर्फ़ मेरा है। ऐसा भी नहीं है। मेरे जैसे लाखों हैं। जो खंबा भी नोच नहीं पा रहे हैं। ये देश अनिश्चितताओं से भरा है। इस देश में जब मंत्री-संत्री का भविष्य सुरक्षित नहीं है। सरकार सुरक्षित नहीं है। संसद सुरक्षित नहीं है। एक महिला जो अति-साधरण हो। जैसे-तैसे सांसद बन गई हो। तब वही सांसद सूबा क्या देश क्या। सर्वेसर्वा बनकर अपफसरों को अपनी अंगुलियों पर नचा देती हो। ऐसा हमारे ही देश में हो सकता है।

जिस देश के खिलाड़ी खेल को अनाड़ी का खेल मानकर टट्पूंजों से हार सकते हैं। ऐसे देश के हम और आप नागरिक हैं। मैं तो विधिवत आम नागरिक भी नहीं हूं। दरअसल मतदाता सूची में मेरा नाम आज तक अंकित नहीं हो पाया है। परिणामस्वरूप में मतदान से ही वंचित हूं। मेरे जैसे की पूछ भला कैसे और क्यों कर हो सकती है। मेरी परेशानी का कारण मैं भी नहीं। मेरा बचपन का सहपाठी कलुवा है। जो मानों एकदम खालिस कोयले की खान से निकला हो।

हम टाटपट्टी वाले स्कूल में पढ़े थे। कलुवा दिन में हंसता तो उसकी बत्तीसी ही चमकती। जबकि उसके दांत खासे पीले थे। लेकिन उसके काले चेहरे पर वे गंदले दांत भी चांदी की तरह चमकते। रात के अंधेरे में उसके दांत टार्च का काम करते थे। कलुवा पढ़ाई में निरा कपूत ही था। पर वह चालाक खोपड़ी वाला था। परीक्षा से ठीक एक हफ़्ते पहले वो मुझे अपना जिगरी दोस्त बना लेता। मुझे खाने की चीज़ भेंट करता। मैं परीक्षा में उसे अपनी कॉपी दिखाता। वह हमेशा मुझसे ज्यादा अंक लाकर पास हो जाता। मतलब निकल जाने पर वह मुझे मुंह लगाना बंद कर देता।

कक्षा नौ तक उसने मेरा प्रयोग बड़ी चालाकी से किया। मैं उसकी चालाकी समझता तो था। पर मैं अगर उसे भाव नहीं देता तो वो किसी और को पटा लेता। पटाने में वह माहिर था ही। उसकी कक्षा की लड़कियों से भी अच्छी पटती थी। वो लड़कियों से भी अपना उल्लू कई बार सीधा कर लिया करता था। मसलन वह कॉपी पर मिलने वाला स्कूल का ही नहीं घर का काम भी दूसरों से चुटकियों में करवा लेता था। कार्यात्मक, मिट्टी का कार्य, खेल-कूद, बागवानी, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि में भी वो चतुराई के चलते बाजी मार लेता था।

मास्टरों के व्यक्तिगत काम करके वे उनका कृपा पात्रा बन जाता था। कुल मिलाकर कलुवा जैसा भी था। पर किसी भी कक्षा में वह औसत छात्रा भी नहीं रहा। तब भी वह सालाना परीक्षा में अच्छे अंकों से पास हो जाया करता था। फिर वो अचानक कक्षा दस में प्रवेश के समय गायब हो गया। मैंने एक अच्छे छात्र के रूप में स्नातकोत्तर की परीक्षा पास की। फिर मैंने पी.एच.डी. हासिल की। अब मैं पिछले दस सालों से अंशकालिक तौर पर एक कॉलेज में पढ़ा रहा हूं। वैसे तो सब कुछ सामान्य न होने पर भी सब ठीक-ठाक चल रहा था। फिर अचानक किस्मत पर रोने और कोसने का दौर शुरु हो गया।

नई सरकार बनी। उसने शिक्षा व्यवस्था को सुधारने की शपथ ले ली। शिक्षा पर कलंक मानते हुए सरकार ने हम जैसों को एक राजाज्ञा जारी कर बाहर का रास्ता दिखा दिया। अदालत की भी हम हमदर्दी नहीं हासिल कर पाए। फिर मैंने ट्यूशन शुरू कर पेट और परिवार पालना शुरू किया। अभी मैं ठीक से संभल भी नहीं पाया था, कि न जाने कलुवा कहां से टपक पड़ा।

पीले वस्त्र ओढ़े, हाथ में मंहगा मोबाईल, साथ में चार-पाँच कबीर भक्त टाईप के चेले, चमचमाती कार, गले में सोने की माला, हाथों की सभी अंगुलियों में रत्नजड़ित अंगुठियां, माथे पर सफेद लेप, सिर पर चाणक्य से भी लम्बी चुटिया, लगातार पान खाते रहने से लाल और काली हो चुकी बत्तीसी, कानों में मारवाड़ी छाप कुंडल पहने कलुवा अचानक मुझे घेर कर खड़ा हो गया। मैं तो उसे पहचान भी नहीं पाता, अगर वो बचपन का अपना रटा-रटाया जुमला न बोलता। उसने कहा था, ’’भाई। सुन तो। ये कलुवा तेरा पक्का दोस्त है न। बोल है न।’’

तब तो मैंने तुरंत पहचान लिया। लेकिन मैं हक्का-बक्का खड़ा ही रह गया। वो ही मुझसे चिपट गया। उसने अपनी देह में मनमोहक इत्र लगा रखा था। मेरी नाक के नथुने फडफड़ाते ही रहे। मैं कुछ पूछता, इससे पहले वो बोलने लगा। बस अपनी ही कहता रहा। वो किसी संस्कृत के पंडित का चेला बन गया था। सेवा-भाव करने में वो बचपन से ही माहिर था। पंडित मरते वक्त कलुवा के नाम वसीयत कर गया। चार आश्रम, दस एकड़ जमीन के साथ करोड़ों रुपये का बैंक बैलेंस कलुवा को मिल गया था।

कलुवा ने मुझे अपना चमचमाता हुआ कार्ड दिया। मुझे अपने आश्रम में आने का निमंत्रण दिया। चलते-चलते उसने मेरे हाथ में हजार रुपये का करारा नोट रख हुए कहा, ’’भाई। कोई परेशानी हो तो बोलना। आश्रम चले आना।’’

कलुवा चला गया। पर मेरे जहन में कई सवाल सुनामी की तरह छोड़ गया। आखिर मुझमें क्या कमी है? कलुवा में ऐसे कौन से गुण थे, कि वो असाधारण हो गया। ऐसे सैकड़ों कलुवे हैं जो मेरे जैसे हजारों को पीड़ा पंहुचाते हैं, क्योंकि वे ऐसे गुण विकसित कर लेते हैं, जिन्हें समाज कभी मान्यता नहीं देता। लेकिन जब कलुवा जैसे उन गुणों के चलते समाज में एक अच्छा मुकाम हासिल कर लेते हैं तो मेरे जैसों को कष्ट होने लगता है।

मानव में ईर्ष्या स्वाभाविक है। लेकिन कोई भी अपने बच्चों को कलुवा जैसा नहीं बनाना चाहेगा। लेकिन कोई कलुवा बन जाता है तो हर कोई उसकी प्रशंसा करता नहीं थकता। क्या आप भी चाहते हैं कि आपके बच्चे अपने स्कूली जीवन में कलुवे जैसे हों? नहीं न। फिर हर किसी को धन पंडित मिल जाए, जो अपनी धन-संपत्ति कलुवे की तरह आपके बच्चों के नाम कर दे। यह भी संभव नहीं है।

हम जिंदगी भर जिन मूल्यों की वकालत करते हैं, उन पर हम कितना चल पाते हैं। हम अपने बच्चों को क्या से क्या बनाना चाहते हैं। फिर जो वो बन जाते हैं हम चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं। वे हमारे सामने उन नीतियों, आदतों और कार्य शैलियों को अपना लेते हैं, जिन पर हमने न चलने का उन्हें पाठ पढ़ाया था। हमारा यह दोहरा चरित्र समाज को किस दिशा में ले जा रहा है। इस बारे में हम कब सोचेंगे। क्यों कलुवे जैसे चरित्र हमारे सामने हमें बार-बार जलील करते हैं। आखिर क्यों कलुवे जैसों को ही धन्ना पंडित अपनी ज़मीन-जायदाद सौंप देते हैं। कदम-कदम पर अयोग्य और असपफल व्यक्ति रातों-रात हमारे सामने नायक की तरह प्रकट हो जाता है। संघर्ष, मेहनत, कठोर साधना, ईमानदारी से नहीं चालाकी और चाटूकारी से जो हमारे सामने यकायक शीर्ष पर पंहुच जाते हैं। हम उन्हें क्यों कर सम्मान का दर्जा देने लगते हैं। आखिर समाज के कलुवों का क्या करना है। यह हम कब सोचेंगे। यह तो सोचना ही होगा। कल नहीं आज। कल तो बहुत देर हो जाएगी।

अगर ताज महल में अस्पताल बन गया होता

ताजमहल और जो हो, प्रेम का प्रतीक, हरगिज नहीं है, क्योंकि आप किसी भी भले और बड़े आदमी से पूछ लीजिए, वह यही कहेगा-प्रेम पार्थिव नहीं होता। ताजमहल में तो पत्थर ही पत्थर हैं। ऐसा भी कहीं नहीं कहा गया कि लाल पत्थर क्रांति का और सफेद पत्थर प्रेम का प्रतीक होता हो, क्योंकि व्यवहार में देखा गया है कि गोरे-चिट्टे श्वेत रंग वालों में और चाहे जो गुण हों, प्रेम के कीटाणु उनमें प्रायः नहीं पाए जाते। अगर क्षमा करें तो मुझे आपसे एक बात और कहनी है। वह यह कि पति-पत्नी के बीच जो प्रेम की कल्पना करता है, उसके अक्लमंद होने में कम-से-कम मुझे तो संदेह है। प्रेम उड़ने वाले कबूतरों से तो हो सकता है, पर चौबीस घंटे, घर में विराजमान रहने वाली कबूतरी से नहीं। आप ही बताइए, जो सुबह-सवेरे चादर खींचकर बिस्तर से उठा दे, थोड़े से पैसे देकर ढेर-सा सामान लाने के लिए झोला पकड़ा दे, पैसे-पैसे का हिसाब ले और आने-आने के लिए जान दे, जो न चाय पीने दे, न सिनेमा देखने दे, न किसी से मिलने-जुलने दे, न लिखने दे, न पढ़ने दे, उससे कहीं प्रेम हो सकता है? लेकिन यह जो प्रेम नाम का पदार्थ है, वह हरगिज़ नहीं हो सकता। हमें मालूम नहीं कि बेचारे शाहजहां को मुमताज महल से कितना प्रेम था, क्योंकि महलों और हरमों की बातें बाहर ज़रा कम ही आती हैं। गरीबों के प्रेम के किस्से तो अफसाने बन जाया करते हैं, पर बड़े आदमियों के लिए मोहब्बत फसली आम की तरह हुआ करती है।

चूसा और गुठली फेंक दी। आम को निरखते रहना, उसकी तारीफ के पुल बांधना कि वह किस पेड़ का और किस बगीचे का है-उसके गुण गाना, अहा ! वह आम का वृक्ष कितना विशाल होगा? जिस मंजरी में से यह आम फूटा है वह कितनी महकी होगी? माली ने किस यत्न से इसको डाल से उतारा होगा? वह कितना ऊंचा कलाकार होगा? पाल ने किस ममता और स्नेह से इसे गदगदाया होगा। मंडी में आया होगा तो इसने किस तरह हजारों को ललचाया होगा? और वाह रे आम ! तू, तू ही है। अब ये हैं न बे-सिर पैर की बातें। आपको आम खाने से मतलब या पेड़ गिनने से? बड़े लोग मोहब्बत नहीं किया करते। उन्हें इश्क से नहीं, हुस्न से लेना होता है। वह सीरत पर नहीं, ज़रा-सी देर के लिए सूरत पर रीझते हैं।

और बीवियों की शक्ल- तौबा-तौबा ! सुबह-सुबह जमादारिन जैसी, दिन चढ़ते भटियारिन जैसी, दिन ढलते आम मुख्तयारिन जैसी और रात होते-होते सिंह सरदारिन जैसी। आप कहते हैं प्रेम। बेचारा पति जुबान तक तो खोल नहीं पाता, प्रेम क्या खाक करेगा? प्रेम करने के लिए मियां, डेढ़ हाथ का कलेजा चाहिए, सवा बालिश्त का भेजा चाहिए और चाहिए ढेर सारी फुरसत। अगर आप बीवी वाले हैं तो यह अच्छी तरह जानते होंगे कि शादी करने के बाद आदमी के भेजे और कलेजे वैसे ही गायब हो जाते हैं, जैसे गधे के सिर से सींग। बीवी इन तीनों में से एक चीज बेचारे शौहर के पास नहीं छोड़ती। आप फुरसत से टांगें फैलाकर बैठ तो जाइए घर में। वे लंतरानियां सुनाएगी कि होश हिरन हो जाएंगे। ज़रा भी रंगीनी जताइए तो घूर-घूरकर देखने लगेगी-यह आदमी इठलाता क्यों है? गाता-गुनगुनाता क्यों है? यह क्या किसी के चक्कर में है? काटो इसकी गांठ-‘द्रव्येषु सर्वेवशः’। ‘जिसके हाथ लोई, उसका सब कोई’, ‘पैसा नहीं है पास-मेला लगे उदास’। बीवियां अगर ठान लें तो रंगीनी तो रही दूर, मियां, शेव बनाने को ब्लेड भी मयस्सर नहीं हो सकता। इसलिए मैं नहीं मानता कि पति और पत्नी के बीच कभी प्रेम भी हो सकता है या मुमताज महल और शाहजहां के बीच भी कभी वैसा ही प्रेम रहा होगा, जैसा लैला-मजनूं, हीर-रांझा, सोहिनी-महिवाल, शीरी-फरहाद, ढोला-मारू के बीच रहा था। प्रेमी तो प्रिय के वियोग में आंसुओं का महल खड़ा करता है, पत्थरों को चुनने या चुनवाने की फुरसत उसे कहां होती है, ताजमहल शाहजहां के वैभव का प्रतीक है। यह भले ही सच हो, पर मैं नहीं कहता। यह उसकी यशलिप्सा का जीता-जागता उदाहरण है, ऐसा कहने में भी रुचि नहीं। मैं तो सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि ताजमहल और जो भी हो, प्रेम का प्रतीक नहीं। जब प्रेम का प्रतीक नहीं है तो क्यों प्रेमियों की सैरगाह के रूप में चालू रहने दिया जाए? क्यों वहां जाकर चांदनी रात में आहें भरें? और देख-देखकर ताज के सूने में एक-दूसरे को बांहें भरें? क्यों पुलिसवालों का काम बढ़ जाए। क्यों आगरा के गुंडों को शोहरत मिले? इससे तो अच्छा यह है कि ताजमहल में कोई अस्पताल खोल दिया जाए।

कल्पना कीजिए कि अगर ताजमहल में अस्पताल खुल गया होता तो क्या होता? जब राष्ट्रपति भवन में नुमाइश लग सकती है, जब राजाओं के पुराने महलों में होटल और सरकारी दफ्तर खुल सकते हैं, जब आज की असूर्यपश्या मुमताज महल जैसी रानियां घर-घर जाकर वोट की भीख मांग सकती हैं तो ताजमहल में अस्पताल क्यों नहीं खुल सकता? जब मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बन गईं और मस्जिदों को तोड़कर मंदिर बना दिए गए तो आप नहीं चौंके। जब लोगों को दीवाने बताकर जेल भेजा गया और जेली बाद में मंत्री बन गए, आप नहीं अचकचाए। जब हिन्दी राष्ट्रभाषा बनी और बनाकर मिटा भी दी गई, आपको कुछ नहीं हुआ। तब फिर ताजमहल को अस्पताल बनाने में आपको क्या हिचक है? कितनी बढ़िया जगह है ताजमहल। जमुना का किनारा, चारों तरफ बाग-बगीचों का नज़ारा। कदम-कदम पर चलता हुआ फव्वारा कि देखते-देखते तन-मन का सारा दुःख-दर्द दूर हो जाता है। ऐसी उपयोगी जगह को सिर्फ मौज-मजे़ के लिए और सैर-सपाटे के लिए खुला छोड़ देना हद दर्जे की मूर्खता है। आगरा में जब दिमाग के पागलों का इलाज हो सकता है, तो दिल के दीवानों का इलाज क्यों नहीं हो सकता? हमारी राय में ताजमहल को दिल के माकूल इलाज के लिए आज ही उपयुक्त करार दे देना चाहिए। कल्पना कीजिए कि अगर ताजमहल में दिल के दर्द का इलाज चालू होगया होता तो देश के नौजवान और नवयुवतियों का कितना भला होता? कितनी विदेशी मुद्रा सरकार को इस अस्पताल से मिल गई होती? संसार में तब आगरा का नाम पागलखाने के लिए ही नहीं, आशिकों के इलाज के लिए भी मशहूर होगया होता।

आशिकों का इलाज ! हां, आशिकों का इलाज आज के समाज की बहुत जरूरी आवश्यकता है। हमारी सरकार मलेरिया के उन्मूलन पर करोड़ों रुपये खर्च करती है, लेकिन उसे पता नहीं कि मलेरिया मच्छरों से भी बड़ी तादाद आज हमारे देश में प्रेम के कीटाणुओं की है, लेकिन प्रेम के इन मच्छरों को पहचानने वाली खुर्दबीन अभी तक कहीं तैयार नहीं हुई। मलेरिया का बुखार तो तीन या पांच दिन में जाड़ा देकर उतर भी जाता है, मगर प्रेम का बुखार एक बार चढ़ा तो फिर उतरने का नाम ही नहीं लेता। उसे नष्ट करने वाली कोई कुनैन अभी तक नहीं बनी। यह मर्ज़ तो मरीज़ को लेकर ही जाता है।

देश के करोड़ों युवक-युवतियां वय प्राप्त होने से पहले ही प्रेम के कुंए में आंख मूंदकर कूद पड़ें। इश्क के जाल में फंसकर अपनी जान दे दें, दर्द से कलेजे को दबाए रहें, आसमान को आहों से गुंजाए रहें, सिसकियों से पड़ोसियों को जगाए रहें, आंसुओं से दामन तर-ब-तर बनाए रहें-यह किसी समाज के लिए, शोभा की बात है? जब पशुओं की बीमारी के लिए अस्पताल खुले हुए हैं तो प्रेमियों की बीमारी के लिए क्या कुछ नहीं हो सकता? जब संसार के हर रोग की दवा निकल आई है तो प्रेम के रोग की औषधि का आविष्कार नहीं हो सकता? कोई इस पर ध्यान दे तो, किसी को इस काम के लिए फुर्सत तो हो ! अजी, ये ऊंचे-ऊंचे बांध, बड़े-बड़े कारखाने, लंबी-चौड़ी योजनाएं सब बेकार हैं, अगर प्रेम के रोग का इलाज न हुआ तो इन्हें चलाएगा कौन? हमारे नौजवान तो इश्क की तपेदिक में पड़े जैसे-तैसे अपने बाक़ी जीवन की घड़ियां काट रहे हैं। कोई जीना ही नहीं चाहता। कोई इस पर मर रहा है, कोई उस पर जान दे रहा है।

जब सबने ही मरने की ठान ली है तो भाई मेरे, इन योजनाओं का क्या होगा? उनके दुःख को कौन झेलेगा? उनके सुख को कौन भोगेगा? इसलिए अगर देश को मज़बूत बनाना है, उन्नत करना है तो योजनाओं को अलग रखकर पहले प्रेम की बीमारी का इलाज करो। जैसे चेचक, हैजे या प्लेग के टीके निकले हैं, वैसे ही कोई प्रेम का नश्तर भी तलाश करो। जैसे बड़े-बड़े शहरों में अस्पताल खड़े हो रहे हैं, वैसे ही प्रेमियों के इलाज के लिए शफ़ाख़ाने खोलो। जब तक प्रेम के रोग की सफाई नहीं होगी, जब तक आशिकों की आह की दवाई न होगी, जब तक दिल के अनजान फफोले के लिए मरहम तैयार न होगा और जब तक प्रेमियों को रात में आठ घंटे खर्राटे भरने की सुविधा नहीं होगी, तब तक इस देश की दशा नहीं सुधर सकती।

ताजमहल प्रेमियों के इलाज के लिए बेहतरीन सेंटर बन सकता है। हमारा सुझाव है कि फिलहाल एक दर्जन प्रेमियों को परीक्षण के तौर पर ताजमहल में लाकर रखा जाए। ये बारह वर्ष से लेकर बासठ वर्ष तक की उम्र के हों। इनमें आठ प्रेमी तथा चार प्रेमिकाएं हों। इन प्रेमिकाओं को ताजमहल की चार सुर्रियों पर चढ़ा दिया जाए तथा एक-एक सुर्री के नीचे दो-दो प्रेमियों की खाटें बिछा दी जाएं। प्रेमिका ऊपर से कहे- ‘हाय, मैं मरी’ और प्रेमी नीचे से चिल्लाएं-‘ हाय, मैं चला।’ प्रेमिका ऊपर से कहें-‘एक नदी के दो किनारे मिलने से मजबूर’। प्रेमी नीचे से अलापे- ‘तुम होकर मेरे पास, हाय कितनी हो मुझसे दूर’। सुर्री के नीचे ताला लगा दिया जाए और ऊपर जहां प्रेमिका खड़ी हो, वहां चारों ओर कांटेदार तार लगा दिए जाएं। प्रेमी के पैर चारपाई से बांध दिए जाएं और प्रेमिका के हाथ छतरी के खंभे से। पहले यह प्रयोग चौबीस घंटे के लिए किया जाए। इस बीच मरीज़ों को न खाना मिले, न पानी। उनसे कहा जाए कि हां, अब आहें भरो और ताजमहल को देखकर हिचकियां लो। ख़याल यह है कि चौबीस घंटे के इस उपचार से प्रेम के कीटाणु काफी काबू में आ जाएंगे। यदि इस डोज़ से लाभ न हो तो किसी एक प्रेमी और प्रेमिका के जोड़े का बिस्तर मुमताज महल और शाहजहां की कब्र की बगल में अलग-अलग लगा देना चाहिए और गुंबद के नीचे से उनसे कहना चाहिए कि हां, अब लगाओ आवाज़ें। एक कहे- ‘हां, प्यारी’। दूसरा कहे- ‘हां, प्यारे’। गुबंद से आवाज़ें टकराएं। नीचे लेटकर वही स्वर सुनाएं और नीचे फिर सदाएं जाएं-‘हे प्यारी, हे प्यारे’। ये नज़ारे पूरे आठ घंटे तक चलने चाहिए। डॉक्टरों को पूरी हिदायत रहे कि रोगी कहीं आवाज़ लगाना बंद न कर दे। कहीं पानी न मांग जाए। हमारा विश्वास है, यह दूसरी डोज़ प्रेमियों के दिमाग को दुरुस्त करने में मुफ़ीद साबित होगी। लेकिन अगर बीमारी तीसरी स्टेज पर पहुंची हो तो उसका तीसरा इलाज इस प्रकार होना चाहिए। वह यह कि दोनों प्रेमी-प्रेमिका के बिस्तर ताजमहल की दोनों दिशाओं में लगा दिए जाएं- और उनसे कहा जाए कि वे दिन में ताजमहल के पत्थरों और रात में उनमें जड़े हीरों को गिना करें और सुना करें दिन में कौवों और रात में उल्लुओं की आवाज़ें, और जमुना-पार के गीदड़ों का शोर जो उन्हें प्रेम-डगर में ‘वन्स मोर’ करने से अवश्य ही खींच लाएगा और वे अपने वार्डरों से कह उठेंगे-“नो मोर, प्लीज नो मोर। हम प्रेम से बाज आए। भाड़ में जाए शाहजहां और ऊपर से उनकी मुमताज महल। हम प्रेम नहीं, काम करना चाहते हैं। मरना नहीं, जीना चाहते हैं। लेकिन इस पर भी किसी प्रेमी की अक्ल ठिकाने न हो तो उसे ताजमहल से कुछ दूर बिल्लोचपुरा में पागलखाने में तब तक के लिए भेज देना चाहिए, जब तक वह प्रेम के लिए दोनों कान पकड़कर तौबा न कर ले !

इसलिए हमारी समझ से ताजमहल को केवल पुरातत्व की विशेष कलाकृति मानकर, उसे संसार का आठवां आश्चर्य जानकर, उसको सींचे-सहेजे जाना ठीक नहीं। उसका जनता के लिए उपयोग होना चाहिए। यदि वास्तव में प्रेम की समाधि है, तो यहां प्रेमियों का इलाज होना चाहिए। अगर यह शाहजहां और मुमताज महल के प्रेम का प्रतीक नहीं है और सिर्फ मुमताज महल की आकस्मिक मौत और शाहजहां की बेबसी का नमूना है तो हर माशूका को यहां आकर अपनी मौत और हर आशिक को यहां आकर अपनी बेबसी का अहसास करना चाहिए। हमारा ख़याल है कि अगर प्रेम के रोग में माशूक को अपनी मौत और आशिक को अपनी बेबसी का ठीक-ठीक अहसास हो जाए, तो सौ में से निन्यानबे तक इस प्रेम के चक्कर में से निकल सकते हैं। ताजमहल नवयुवकों और नवयुवतियों के लिए यह शिक्षा और यह सुविधा सहज ही प्रदान कर सकता है। इसीलिए हमें ताजमहल को प्रेम-रोग के उपचार का एक अंतर्राष्ट्रीय अस्पताल बना देना चाहिए।

कल्पना कीजिए कि अगर ताजमहल में ऐसा अस्पताल खुल गया होता तो क्या होता? तब ताजमहल में कुछ दूसरे ही नज़ारे होते। वहां की नक्काशी के कुछ और ही इशारे होते। यहां के पेड़-पौधों, लता-कुंज, गुंबदों-मीनारों का कुछ अलग ही इतिहास होता। वहां के पंछियों की बोली बदल गई होती और उसे देखने को फारेन एक्सचेंज’ यानी विदेशी मुद्रा भारत में खिंची चली आती। खोजी लोगों के दल तब हिमालय में यति ढूढ़ते ही नहीं, ताजमहल में सच्चे प्रेमी को तलाश करने के लिए अपने-अपने घरों से निकल पड़ते। चिकित्सा-शास्त्र में तब एक नया अध्याय जुड़ जाता। मनोविज्ञान के प्रेम-तत्त्व की पहली प्रयोगशाला के रूप में ताजमहल की दुनिया में ऐसी ख्याति फैलती कि संसार के वैज्ञानिक अंतरिक्ष की यात्रा भूलकर, भारत की यात्रा को उड़ पड़ते। कहते कि चंद्रमा में क्या रखा है। चंद्रमुखियों के मन की पर्तों तक पहुंचने की कोशिश की जाती। मंगल में पहुंचने तक आपस में दंगल क्यों किया जाए? जिन्होंने अपने जीवन को भरी जवानी में जंगल बना लिया है, उन प्रेमियों के दिल तक पहले पहुंचा जाए। संसार की संहारक शक्ति का ध्यान तब अणुबम से हटकर प्रेमनाशक कीटाणुओं या प्रेमवर्धक दूरमारकों की ईज़ाद में लगता-यानी दुनिया का नक्शा ही बदल गया होता। यानी आदम के बेटे को मिटाने के लिए ही नहीं, उसके कलेजे में कैंसर की तरह बढ़ते प्रेम के नासूर को कुरेदकर फेंकने के लिए तत्पर हो उठते। भले ही उन्हें इसके लिए खुद किसी के प्रेमपाश में फंस जाना पड़ता। क्योंकि महाकवि ग़ालिब के शब्दों में-

इश्क पर ज़ोर नहीं, है वह आतिश ग़ालिब।

जो लगाए न लगे और बुझाए न बने॥

पर लगाना और बुझाना तो तब होता, जबकि ताजमहल में अस्पताल बन जाता। अभी तो उसमें न ताज है, न महल, फालतू लोग वहां बेकार चहल-पहल किया करते हैं। दुनिया आज से भी ज्यादा मचल गई होती। लोग तब पत्थरों को देखने नहीं आते, वे देखने आते नवीनतम-कोमल प्रेमियों को और पत्थर-दिल प्रेमिकाओं को। वे सोचते, हमने कलकत्ता के चिड़ियाघर में गैंडा देखा है, दिल्ली में भालू के दर्शन किए हैं। लखनऊ का मुर्गा भी खूब है। अब चलो, ताजमहल में चलकर उस जंतु को भी देख आएं जिसे लोग ‘प्रेमी’ कहते हैं। सुनते हैं उसके भी आदमियों के-से हाथ-पैर हैं। आंख-कान हैं। मुंह-बोली है। पर उसका आचरण- देखकर भी नहीं देखता। सुनकर भी नहीं सुनता। उसे न सुध है न बुध। न उसे पागल कहा जा सकता है, न आदमी। न उसे रोगी कहा जा सकता है, न स्वस्थ। क्या अज़ब बात है, उसके रोने और गाने में कोई फर्क ही नहीं है।

ऐसे जंतु विशेष को देखने के लिए देश क्या, दुनिया उमड़ पड़ती। टिकट लग जाता। सरकार की आय बढ़ जाती।

कब आयेंगे अच्छे दिन.. – प्रमोद यादव

‘सुरेंदर भैया…एक गरमागरम अदरक वाली सुपर चाय पिलायेंगे? ‘मैंने सुर्रू चाय वाले को थोड़े अदब के साथ कहा तो वह चौंक सा गया.

‘वाह… क्या बात है गुप्ताजी……सुरेंदर भैया?……अचानक सुर्रू से सुरेंदर भैया….’ वह हंसा फिर धीरे से बोला-’ समझ गए….आज भी आप पैसे नहीं देने वाले…अरे भाई…कब तक उधारी की चाय गटकते रहेंगे?…दो महीने हो गए…’

मैंने तुरंत बात काटी- ‘अरे सुरेंदर भैया… जरा धीरे बोलो…लोग सुन लेंगे…इज्जतदार आदमी हूँ… इज्जत का भाजी-पाला तो मत करो…पैसे कहाँ जायेंगे?.जब भी आयेंगे- मिल ही जायेंगे…हम तो सोच के रखे थे कि जब तक पुराना हिसाब चुकता न कर दें…तुम्हारी दूकान में पैर भी नहीं धरेंगे….पर सुबह-सुबह ही अखबार में पढ़ा कि कल शाम नए पी.एम. साहब शपथ ले रहे तो तुमको बधाई देने आ गए…’

‘अरे गुप्ताजी…पी.एम. शपथ ले रहे तो उन्हें दो न बधाई…मुझे तो बस पैसे दे दीजिये….बधाई समझ रख लूँगा…’ सुर्रू ने रट लगा दी.

‘सुरेंदर भैया…आखिर तुम ठहरे न…बुद्धू के बुद्धू…हम सच्ची कहते हैं-तुमको ही बधाई देने आये हैं…हमने तो कसम खा रखी थी kiकि बिना बिल चुकता किये एक कप भी नहीं पियेंगे… पर बधाई के नाम से आ गए…’ मैंने उसे आने का कारण बताया.

‘अच्छा…बताओ भला…मुझे क्यों बधाई? ‘उसने अदरक छीलते पूछा.

‘अरे भैया…क्या तुम्हें मालुम नहीं कि हमारे नए पी.एम.जो बनने जा रहे, वे तुम्हारी ही बिरादरी से हैं…’ मैंने याद दिलाया.

‘हाँ…वो तो जानते हैं…पिछले महीने जब देश में मुफ्त की चाय पीने-पिलाने का दौर चला तब जाना था… कुछ बड़े नेता हमारी दुकान को एक दिन के लिए किराए पर भी उठाये थे…अच्छे पैसे देने का वादा किये पर काम निकलने के बाद छुट्टे ही थमा गए…नेताओं पर से तो मेरा विश्वास ही उठ गया है…’ बड़ी संजीदगी से उसने कहा.

‘सुरेंदर भैया…क्या छोटी-छोटी बातों से दुखी हो रहे हो…अब तो तुम भी बड़े आदमी बन गए हो…जब तुम्हारी बिरादरी का व्यक्ति देश का पी.एम. बन रहा है तो तुम्हें अब छाती छप्पन इंची कर लेनी चाहिए…वे बार-बार कह रहे हैं-” अब अच्छे दिन आने वाले हैं” किसी के आये न आये लेकिन चाय वालों के तो आ ही गए समझो…जल्द ही दिन फिरने वाले हैं…हो सकता है…कल ही फिर जाए…शपथ ग्रहण के बाद कहीं चाय को”राष्ट्रीय पेय” घोषित न कर दें…मैंने यूं ही फेंक दिया.

‘राष्ट्रीय पेय? ‘वह चौंका.

‘हाँ… राष्ट्रीय पेय…जैसे राष्ट्रीय गीत होता है-”जन-गण-मन”…राष्ट्रीय पकछी मोर…राष्ट्रीय पशु-शेर…राष्ट्रीय खेल- हाकी…आदि…आदि…’

‘तो इससे क्या होगा गुप्ताजी जी?’ उसने कौतुहल से पूछा.

‘अरे…राष्ट्रीय पेय घोषित होगा तो देश भर के लोग देश प्रेम की भावना के साथ केवल चाय ही पियेंगे…काफी,कोला,फेंटा,बीयर,व्हिस्की पीना छोड़ देंगे…तुम लोगों की आमदनी चौगुनी-छः गुनी हो जायेगी…तुम सब शून्य से शिखर तक पहुँच जाओगे…’

‘एक बात बताओ गुप्ताजी…हाकी हमारा राष्ट्रीय खेल है ना? ‘

‘हाँ…बिलकुल है…’ मैंने तुरंत जवाब दिया.

‘तो फिर पूरे देश भर के लोग क्रिकेट में क्यों झपाये रहते हैं? कहीं हमारा हाल भी हाकी जैसे तो नहीं हो जाएगा? ‘वह दुखी सा गया.

‘अरे…बिलकुल नहीं सुरेंदर भैया…ऐसा कदापि नहीं होगा…तुम लोग पी.एम. को ज्ञापन देकर बाकी के पेय को” इनज्युरिअस टू हेल्थ” की श्रेणी में डलवा देना…’

‘हाँ…ठीक कहते हैं…जरा इधर केतली का ख्याल रखना…मैं अग्रवालजी,शर्माजी और सिन्हा साहब को चाय देकर आता हूँ…बड़ी देर से खड़े हैं…फिर आपको देता हूँ…’ इतना कह वह ट्रे लिए आगे बढ़ गया.मैं केतली की ओर ताकता रहा.

वह लौटा तो मैंने अपनी चाय की फरमाइश की…उसने चाय थमाते कहा- ‘गुप्ताजी…शपथ समारोह कब है? क्या हम भी उसमें शरीक हो सकते हैं? ‘

‘हाँ…हाँ…क्यों नहीं…इस बार तो यह समारोह नए पी.एम. के आग्रह पर राष्ट्रपति भवन में न होकर रामलीला मैदान में होने जा रहा है ताकि आमजन भी इसमे हिस्सा ले सके…सब कुछ अपनी आँखों-कानों से देख-सुन सके…तुमको तो जाना ही चाहिए…’

‘पर गुप्ताजी…दूकान छोड़ कैसे जाएँ…इसके चलते तो आज तक शहर छोड़ अपने गाँव तक नहीं जा पाए…ना मामुल कैसे होंगे हमारे दद्दाजी…बूढी बिब्बो चाची…और हमरे गजाधर भैया.’

‘अरे भाई…गाँव को छोडो…अभी तो फिलहाल दिल्ली जरुर जाओ…तुम लोगों को देख पी.एम. काफी खुश होंगे…’

‘लेकिन हम तो कभी दिल्ली गए ही नहीं भैया…भटक जायेंगे वहां….कोई जानकार जाए तो सोच सकते हैं…आप कभी गए क्या? ‘उसने मुझसे मुखातिब होते पूछा.’

‘…हां…कई बार…’ मैंने यूं ही फिर फेंक दिया- ‘स्कूल के दिनों से जाता-आता रहा हूँ…’

‘तो फिर आप साथ चलें तो हम चलें…पर शपथ ग्रहण तो कल शाम ही है न…इतनी जल्दी पहुंचेंगे कैसे? ट्रेन में तो पूरे चौबीस घंटे लगते हैं…’

‘अरे…तो प्लेन से चलो न…कल दोपहर की फ्लाईट है इंडिगो की…समारोह के पहले ही आराम से पहुँच जायेंगे…’

‘पर गुप्ताजी…प्लेन का किराया तो बहुत अधिक होता है…हम चाय वालों के लिए पी.एम. ने कोई रियायत नहीं किया क्या? ‘

‘फिलहाल तो नहीं…एक बार तो जाना है सुरेंदर…क्या मंहगी और क्या सस्ती…’ मैंने समझाया.

‘तो आप साथ चलेंगे न?’ उसने मेरी ओर निहारा.

‘मेरी माली हालत तो देख ही रहे हो… तुम्हारे चाय के पैसे तक….’

उसने तुरंत बात काटते कहा- ‘मत देना भई. अब मागूंगा भी नहीं… और आपका दिल्ली का पूरा खर्च भी उठाऊंगा…कल सुबह आकर एक गरमागरम चाय पीजिये और दो टिकट बुक करा ले आइये…दोपहर की फ्लाईट से निकल जायेंगे…’ इतना कह उसने एक चाय और दी…मैं ख़ुशी के मारे एक सांस में ही गटक गया.

दूसरे दिन सुबह उसे चेताते गया कि चाय की एक केतली जरुर रख लेना…शायद वहां कुछ काम आ जाए… पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार हम समय से काफी पूर्व रामलीला मैदान पहुँच गए.अब सुरेंदर की जिद कि सबसे आगे वाली कुर्सी में (वी.वी.आई.पी.वाले में ) बैठेंगे…उसे काफी समझाया की सुरक्छा व्यवस्था बेहद तगड़ी है…वहां तक घुस पाना मुमकिन नहीं…पर वह जुगाड़ करने की जिद में अडा रहा….चाय की केतली पकडे इधर-उधर डोलता रहा.

ज्योंही पी.एम. साहब मंच पर चढ़े…जनता को”विश” कर हाथ लहराए. सुरक्छा व्यवस्था थोड़ी ढीली हो गई…मैंने आव देखा न ताव उसे सामने की पहली पंक्ति की ओर जोर से धकेल दिया…ज्योंही वह केतली के साथ आगे गिरा कि कई कमांडो ने दौड़कर उसे घेर लिया…तभी मंच से पी.एम. साहब ने इशारा किया कि छोड़ दें. बैठने दे…सारे कमांडो प्रेम के साथ उसे सामने वी.आई.पी.की”रो” में बिठा दिए…सुरेंदर खुशी से पागल हो गया…पी.एम. के दरियादिली का कायल हो गया….

ज्यों ही”जन-गन-मन” के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ पी.एम. साहब मंच से उतरे और सीधे सुरेंदर के पास पहुँच उसके कंधे में हाथ रख कुछ बतियाने लगे… फिर उसके साथ फोटो भी खिंचवाए…एक साथ ढेर सारे कैमरों के फ्लेश चमके…सुरेंदर निहाल हो गया…दुसरे दिन सुबह आठ बजे की ट्रेन से हम अपने शहर के लिए रवाना हो गए…रास्ते भर सुरेंदर पी.एम.के तारीफ के पुल ही बांधते रहा…

दुसरे दिन सुबह जब स्टेशन पर ट्रेन रुकी तो” जिंदाबाद-जिंदाबाद” के नारे ने चोंका दिया…एक भारी भीड़ हमारी ओर बढती नजर आ रही थी…लोगों के हाथों में फूल-माला,गुलाल आदि थे…जैसे ही डिब्बे से उतरे-सुरेंदर को उन्होंने फूलों से लाद दिया… गलती से कुछ फूल-माला मेरे गले भी पड़े… उसे कंधे में उठा,”सुरेंदर भैया…जिंदाबाद” के नारे लगाते जुलुस की शक्ल में शहर घुमाते चाय की दुकान में लाकर उतारे.सुरेंदर हैरान था कि उसकी दूकान कौन चला रहा…उतरा तब मालुम हुआ की उसके गाँव के दद्दाजी,बिब्बो चाची और गजाधर भैया रात को टी.वी. में पी.एम. के साथ सुरेंदर को देख शहर आ गए…चाय की दूकान वे ही खोलकर बैठे थे…सुरेंदर के आग्रह पर मैंने एक कप चाय पी और विदा लिया.सुरेंदर ने तब कहा- ‘आप ठीक कहते थे गुप्ताजी…अच्छे दिन आने वाले हैं…देखो…मेरे तो आ भी गए…मेरे अपने लोग गाँव से शहर आ गए…’

घर आकर मैंने दरवाजा खोला तो देखा- ढेर सारे अखबार बिखरे पड़े थे…न जाने कौन डाल गया था .कुछ अंग्रेजी के भी थे…सबके मुखपृष्ठ पर सुरेंदर और पी.एम. की तस्वीरें छपी थी-केतली के साथ वाला….एकबारगी मुझे सुरेंदर से जलन सी होने लगी…. बीस सालों से कलम घिस रहा हूँ पर किसी अखबार ने आज तक पासपोर्ट फोटो भी नहीं छापा… सोचता हूँ- उसके तो आ गए…मेरे कब आयेंगे अच्छे दिन…

अगर गधे के सिर पर सींग होते? – गोपालप्रसाद व्यास

कुदरत ने अगर फुर्सत से किसी चौपाए को गढ़ा है तो वह है हमारा वैशाखनंदन। क्या सूरत और सीरत पाई है मेरे प्यारे सुकुमार गधे ने। जो मनोहरता और मासूमियत इस प्रजापति के जीवनाधार में दिखाई पड़ी, वह न तो हमें खेचरों में मिली, न खच्चरों में। लोग हाथी का बड़ा मोल-तोल करते हैं। वह बुद्धिमान कहा जाता है। हमें तो वह लंबकर्ण, मिंची-मिचीं आंखों वाला, निहायत थापकथैया ही नज़र आया। कहते हैं कि शेर जंगल का राजा है। जाने कैसा राजा है कि जिसे देखते ही डर लगता है। हमने जो राजा देखे हैं,उनके मूंछ होती है, न कि पूंछ। न उनके खून होता है, न नाखून। निहायत ही कमसिन, बड़े ही खूबसूरत, सजे-धजे गुड्डे-जैसे। और ऊंट ? कितना बेतुका। गर्दन मानो बचपन में किसी ने पकड़कर खींच ली हो। कूबड़ जैसे उसके उबड़-खाबड़ जीवन का प्रतीक हो। टांगें बांस-बांस लंबी, मगर पूंछ आदमी की अक्ल की तरह सूक्ष्म।

हमारे यहां पशुओं में गाय को बड़ा मान दिया गया है। हम हिंदू उसकी मां की तरह पूजा करते हैं, पर यह कैसी माता है,जो बिना चारे-पानी के दूध नहीं देती। गाय मरने पर वैतरणी पार कराती होगी। हमारे सहज-सिद्ध ‘गर्दभराज’ तो अपने आश्रयदाता को लादी सहित इसी जीवन में वैतरणी से पार कराते रहते हैं। रहा कुत्ता जिसके बारे में मसल मशहूर है कि- चाटे-काटे स्वान के दुहूं भांति विपरीत।

मगर गधे के साथ यह बात नहीं है। कम दाम का और बहुत काम का। न बहुत ऊंचा, न बहुत नीचा। न काठी की ज़रूरत, न इसे हांकने के लिए लाठी की ज़रूरत। मौज आए, उछल कर चढ़ जाइए। न बहुत पतला न बहुत मोटा, थोड़ी से थोड़ी जगह में बांध लीजिए। बांधने को भी जगह न हो तो घर के बाहर खुला छोड़ दीजिए, खड़ा रहेगा।

भारतीय नेता की तरह गधे की खाल बहुत मोटी होती है। कोई कुछ कह दे। कोई कुछ लगा दे। मगर यह एकदम निश्छल और निर्विकार। नेता तो मौके-बेमौके रैंक कर मुसीबत भी खड़ी कर देता है, लेकिन हमारे गधे देवता को ऐसी खराब आदत नहीं है। वह कभी भी बेमौके भाषण नहीं देते।

नेता जो जिम्मेदारी की कुर्सी पाकर यानी उनके शब्दों में, सेवा का अवसर मिलते ही आंखें भी फेर लेता है और हाथ नहीं रखने देता, मगर गधे पर जैसे-जैसे उत्तरदायित्व आता है, यानी बोझ पड़ता है, वैसे-वैसे ही वह विनयी, श्रमी और सेवाभावी होता जाता है। नेता तो केवल चुनावों के वक्त में ही काबू में आता है, मगर गधे को जब चाहे कान पकड़कर खींच लाइए। वह अत्यंत सेवाभावी, कभी इनकार नहीं करेगा।

गाय को चारा-पानी न दो तो वह खड़ी हो जाएगी, दूध नहीं देगी। मगर गधा भारतीय पत्नी की तरह भूखा-प्यासा रहकर भी काम में जुटा रहता है। पत्नी तो बड़बड़ाती तब भी है, यह तो मुंह से एक शब्द भी नहीं कहता। गृहस्वामिनियां तो तुनककर असहयोग-आंदोलन भी छेड़ देती हैं, मगर यह अपने स्वामी से रूठकर कभी कोप भवन में नहीं जाता। पत्नियों का तो मायका है, उसकी धमकी होती है, लेकिन गधा इन सबको तिलांजलि देकर स्वामी-सेवा में संलग्न है। कलियुग में शनैःशनैः पतिव्रताओं की संख्या घट रही है। एक समय शायद ऐसा भी आ जाए कि यह पवित्र ‘पतिव्रता’ शब्द केवल शब्दकोश में ही दिखाई पड़े। पर हमें पूरा विश्वास है कि चाहे संविधान बदले, नये-नये कानून बनें, गधों को भी तलाक का अधिकार प्राप्त हो जाए, उन्हें भी अपने स्वामी की संपत्ति में समानाधिकारी घोषित कर दिया जाए, लेकिन कुछ भी हो, गधा अपने शाश्वत धर्म को कदापि नहीं छोड़ेगा। भारत की पतिव्रताएं किसी समय कैसी हुआ करती थीं, आने वाले युग में रिसर्च-स्कॉलर गधे को निकट से देखकर ही उसका कुछ अनुमान लगाया करेंगे। स्वामी चाहे बूढ़ा हो, चाहे अबोध, काना हो या कपटी, कुरूप हो या कोढ़ी, गधे को सिर्फ सेवा से ही काम है।

हम प्रायः यह तय नहीं कर पाते कि आस्तिक रहें या नास्तिक ? खुदा से हमें कई शिकायतें हैं। वह खुदी में खोया है, उसे दूसरों की क्या पड़ी !

वह अपने चक्कर में है, खुदगर्ज कहीं का। मूर्खों को मालामाल कर दिया और ज्ञानियों से कहा-मरो बेटा, भूखों ! कामगार को आराम नहीं और हरामी को करने को काम नहीं। यह ईश्वर का न्याय है, कि गधे पर इतना बोझ लाद दिया, उसे बेजुबान बना दिया, उसे दांतों से काटने योग्य भी नहीं छोड़ा और न उसे लंबे-लंबे नाखून दिए। सारे जानवरों के सिर पर सींग उगा दिए, मगर गधे के वे भी नहीं। कल्पना कीजिए, अगर गधे के सिर पर सींग हुए होते तो क्या होता ?

क्या खुदा को यह डर था कि गधा सींग कटाकर बछड़ों में जा मिलेगा,या सींग होने पर वह आदमी को सींग दिखा जाएगा ? सांड़ ने, भैंसे ने, सींग रखकर मनुष्य का क्या बिगाड़ लिया कि गधे से उसे डर होता ? अल्लाहताला को यह क्या मालुम कि सींग मारने वाले से कहीं भयानक डींग मारने वाले होते हैं। गधा सींग ही तो मारता, डींग तो नहीं मारता कि मैं गोरा हूं, मैं सभ्य हूं, मैं सशक्त हूं, मेरे पास तो जी-हजूरों के इतने पाकेट हैं, इतने बम हैं, इतने राकेट हैं। अगर गधे के सींग होते, दिखाने भर के होते, मारने के नहीं। साहित्य में एक उपमा और बढ़ जाती कि हाथी के दांत ही नहीं, गधे के सींग भी दिखाने के हुआ करते हैं।

हमारा खयाल है कि गधे के सिर पर सींग आने से सबसे बड़ी हानि तो यह हुई होती कि वह दुलत्ती मारना भूल जाता। दुलत्ती मारना, रण-कौशल का एक अचूक भाव है, जिसका प्रयोग सिर्फ गधों को ही आता है। अजी, दुश्मन को सामने से क्या मारना, पीछे से छेड़ना चाहिए। मुंहज़ोरी तो सभी कर लेते हैं। सामने से लात मारना भी कोई बात है। मगर पीठ दिखा करके भी दांत तोड़ देना एक करामात है, एक कला है। इसमें कम-से-कम दुश्मन से आंखें तो नहीं बिगड़तीं। किसी पर हाथ उठाने का पाप तो नहीं आता। मिल-बैठने के लिए इस विधि में हमेशा गुंजाइश रहती है। अगर गधे के सिर पर सींग आ गए होते तो आज के लोग इस अनोखी कला से वंचित रह जाते।

जरा सोचिए कि गधे के सिर पर सींग आ गए होते और वह पीछे वालों को दुलत्तियां न मारकर आगे वालों को सींग घुसेड़ने लगता तो धोबी-कुम्हारों के ही नहीं, बड़े-बड़े अत्तेखांओं के भी लत्ते उड़ जाते ? तब शेर को क्या गधे को मारना बहादुरी समझा जाता। लोगों के नाम शेरसिंह, शमशेर बहादुर, शेरजंग आदि न रखे जाकर गर्दभसिंह, गधाबहादुर, गर्दभजंग रखे जाते।लोग शेर खां न होकर, गधे खां होते। बच्चों के गले में बाघ-नख न पहनाकर, गधे का खुर पहनाया जाता। तब नंदनंदन का नहीं, वैशाखनंदन का वंदन होता। तब गोबर-गणेश को छोड़कर भक्त लोग गर्दभदेव को अक्षत-चंदन चढ़ाते। सूरदास अपने पद में कह जाते- खर को सदा अर्गजा लेपन, मरकट भूषण अंग। करो मन शीतला-वाहन संग।

एक खतरा और भी था। पशु-गधे के सिर पर सींग आए देखकर संसार का हर गधा सींगों की कामना करने लगता। अगर उसे असली नहीं मिलते तो किसी से उधार मांग-मांगकर ही भले आदमियों को वैसे ही डराता रहता जैसे पाकिस्तान अमेरिका से हथियार ले-लेकर हिंदुस्तानियों को धमकाया करता है।

सर्वनाश की ओर तेजी से जाती हुई दुनिया में अगर गधे के सिर पर भी सींग उग आए होते तो डूबतों को तिनके का भी सहारा न मिलता। सृष्टि में केवल गधा ही तो बचा है, जिसे देखकर मनुष्य के मन में करुणा, क्षमा, सहानुभूति, सहिष्णुता, संयम और तप की अनिर्वचनीय प्रेरणा जगती है।

हे जगदीश्वर ! तू सब कुछ करना, मगर गधे के सिर पर सींग न देना। हमें साम्यवाद मंजूर है, मगर गधे के सिर पर सींग स्वीकार नहीं। क्योंकि साम्यवादियों को सह-अस्तित्व सिखाया जा सकता है। मगर सींग निकलने पर गधा पंचशील का परित्याग कर देगा और सह-अस्तित्व को फिर कभी स्वीकार नहीं करेगा।

अंगद का पाँव – श्रीलाल शुक्ल

वैसे तो मुझे स्टेशन जा कर लोगों को विदा देने का चलन नापसंद है, पर इस बार मुझे स्टेशन जाना पड़ा और मित्रों को विदा देनी पड़ी। इसके कई कारण थे। पहला तो यही कि वे मित्र थे। और, मित्रों के सामने सिद्धांत का प्रश्न उठाना ही बेकार होता है। दूसरे, वे आज निश्चय ही पहले दर्जे में सफर करने वाले थे, जिसके सामने खड़े हो कर रूमाल हिलाना मुझे निहायत दिलचस्प हरकत जान पड़ती है।

इसलिए मै स्टेशन पहुँचा। मित्र के और भी बहुत-से मित्र स्टेशन पर पहुँचे हुए थे। उनके विभाग के सब कर्मचारी भी वहीं मौजूद थे। प्लेटफार्म पर अच्छी-खासी रौनक थी। चारों ओर उत्साह फूटा-सा पड़ रहा था। अपने दफ्तर में मित्र जैसे ठीक समय से पहुँचते थे, वैसे ही गाड़ी भी ठीक समय पर आ गई थी। अब उन्होंने स्वामिभक्त मातहतों के हाथों गले में मालाएँ पहनी, सबसे हाथ मिलाया, सबसे दो-चार रस्मी बातें कहीं और फर्स्ट क्लास के डिब्बे के इतने नजदीक खड़े हो गए कि गाड़ी छूटने का खतरा न रहे।

गाड़ी छूटने वाली थी। लोगों ने सिगनल की ओर देखा। वह गिर चुका था।

अब चूँकि कुछ और करना बाकी न था इसलिए उन्होंने उन लोगों में से एक आदमी से बातें करनी शुरु की जो ऊपरी मन से हर काम के आदमी को दावत के लिए बुलाते हैं और जिनकी दावतों को हर आदमी ऊपरी मन से हँस कर टाल दिया करता है। हमारे मित्र भी उनकी दावत टाल चुके थे। इसलिए वे कहने लगे ‘इस बार आऊँगा तो आपके यहाँ रुकूँगा।’

वे हँसने लगे। कहने लगे, ‘आप ही का घर है। आने की सूचना भेज दीजिएगा। मोटर ले कर स्टेशन आ जाएँगे।’ तब मित्र ने कहा, इसमें तकल्लुफ की क्या जरूरत है। तब मित्र बोले कि तकल्लुफ घर वालों से तो किया नहीं जाता। तब वे बोले, ‘जाइए साहब, ऐसा ही घर वाला मानते तो आप बिना एक शाम हमारे गरीबखाने पर रूखा-सूखा खाए यों ही न निकल जाते। तब मित्र ने कहा कि ऐसी क्या बात है; आप ही का खाता हूँ। तब वे हें-हें करने लगे। तभी गाड़ी ने सीटी दे दी और लोग आशापूर्वक सिगनल की ओर झाँकने लगे।”

मैंने इस बातचीत में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई क्योंकि मित्र को हमेशा मेरे ही यहाँ आ कर रुकना था और हम दोनों इस बात को जानते थे।

ठीक वैसे ही जैसे मित्र दफ्तर में आते तो समय से थे पर जाने में हमेशा कुछ देर कर देते थे वैसे ही समय हो जाने पर भी गाड़ी ने सीटी तो दे दी पर चली नहीं। इसलिए फिर रुक-रुक कर इन विषयों पर बातें होने लगी कि मित्र को पहुँचते ही सबको चिठ्ठी लिखनी चाहिए और उस शहर में अमरूद अच्छे मिलते हैं और साहब, आइएगा तो अमरुद जरूर लाइएगा। तब पुराने नौकर ने बताया कि नाश्तेदान को बिस्तर के पीछे रख दिया है। तभी पुराने हेड क्लर्क बोले कि बिस्तर का सिरहाना उधर के बजाय इधर होता तो अच्छा होता क्योंकि उधर कोयला उड़ कर आएगा। तब हेड क्लर्क बोले कि नहीं, कोयला उधर नहीं आएगा बल्कि उधर से सीनरी अच्छी दिखेगी। तभी कैशियर बाबू आ गए; उन्होंने मित्र को दस रुपए की रेजगारी दे दी। तब मित्र ने खुलेआम उनके कंधे को थपथपाया और खुले गले से उन्हें धन्यवाद दिया।

पर इस सबसे न तो कुछ होना था, न हुआ। लोग महीना-भर से जानते थे कि मित्र को जाना है। इसलिए मतलब की सभी बातें पहले ही अकेले में खत्म हो चुकी थीं और सबके सामने वे सभी बातें की जा चुकी थी जो सबके सामने कही जाती हैं। सामान रखा जा चुका था, टिकट खरीदा ही जा चुका था। मालाएँ डाली ही जा चुकी थीं। हाथ या गले या दोनों मिल ही चुके थे और गाड़ी चलने का नाम तक न लेती थी। थियेटर में जब हीरो पर वार करने के लिए विलेन खंजर तान कर तिरछा खड़ा हो जाता है, उस वक्त परदे की डो‌री अटक जाए तो सोचिए क्या होगा? कुछ वैसी ही हालत थी। परदा नहीं गिर रहा था।

चूँकि मेरे पास करने को कोई बात नहीं रह गई थी इसलिए मैं मित्र से कुछ दूर जा कर खड़ा हो गया और किसी ऐसे आदमी की तलाश करने लगा जो बराबर बात कर सकता हो। जो ऐसा आदमी नजर में आया उसे मित्र की ओर ठेल भी दिया। उसने अपनी हमेशा वाली मुस्कान दिखाते हुए कहा, ‘आपके जाने से यहाँ का क्लब सूना हो जाएगा।’ मित्र ने हँस कर इस तारीफ से इनकार किया। उसने कहा, ‘पहले ब्राउन साहब के जमाने में टेनिस इसी तरह चली थी, पर अब देखिए क्या होता है।’ मित्र बोले, ‘होता क्या है? आप चलाइए।’ तभी वे एकदम नाराज हो गए। तुनक कर बोले, ‘मैं क्या चला सकता हूँ जनाब, मुझे तो ये लड़के क्लब का सेक्रेटरी ही नहीं होने देना चाहते। अब कोई टिकियाचोर सेक्रेटरी हो तभी टेनिस चलेगी। मुझे तो ये निकालने पर आमादा हैं।” बोलते-बोलते वे अकड़ कर खड़े हो गए। मित्र ने हँस कर इस विषय को टाला। उसके बाद इनकी बातों का भी दिवाला पिट गया और बात आई-गई हो गई।

पर गाड़ी नहीं चली।

मित्र कुछ देर तक बेचैनी से सिगनल की ओर देखते रहे। कुछ लोग प्लेटफार्म पर इधर-उधर टहल कर पान सिगरेट के इंतजाम में लग गए। कुछ को अंतरराष्ट्रीय समस्याओं ने इस कदर बेजार किया कि वे पास के बुकस्टॉल पर अखबार उलटने लगे। कुछ के मन में कला, कौशल और ग्रामोद्योगों के प्रति एकदम से प्रेम उत्पन्न हो गया। वे पास की एक दूकान पर जा कर हैंडिक्रैफ्ट के कुछ नमूने देखने लगे। तब एक पुराना स्थानीय नौकर मित्र के हाथ लग गया। उसे देखते ही अचानक मित्र के मन में समाज की समाजवादी व्यवस्था के प्रति विश्वास पैदा हो गया। वे हँस कर उसकी प्रशंसा करने लगे। तब वह रो कर अपनी पारिवारिक विपत्तियाँ सुनाने लगा। अब मित्र बड़े करुणाजनक भाव से उसकी बातें सुनने लगे। तब कुछ टिकट-चेकर तेजी से आए और सामने से निकल गए। मित्र ने उनकी ओर देखा, पर जब तक वे कुछ बात करने की बात तय करें कि वे आगे निकल गए। तब तक एक लंबा-सा गार्ड सीटी बजाता हुआ निकला। हेड क्लर्क ने कहा, ‘सुनिए साहब,’ पर यह उसने अनसुना कर दिया और सीटी बजाता हुआ आगे बढ़ गया।

पर गाड़ी फिर भी नहीं चली।

कुछ को पारिस्थिति पर दया आई और वे मित्र के पास सिमट आए। पर घूम-घूम कर कई लोगों ने कई छोटे-छोटे गुट बना लिए और कला के लिए जैसे कला – वैसे बात के लिए बातें चल निकलीं। एक साहब, की निगाह मित्र की फूल-मालाओं पर गई। उनको उसी से प्रेरणा मिली। बोले, ‘गेंदे के फूल भी क्या कमाल पैदा करते हैं असली फूल-मालाएँ तो गेंदे के फूलों की ही बनती है।’

बातचीत की सड़ियल मोटर एक बार जब धक्का खा कर स्टार्ट हो गई तो उसके फटफटाहट फिर क्या पूछ्ना! दूसरे महाशय, ने कहा, ‘इंडिया में अभी तो जैसे हम बैलगाड़ी के लेवल से ऊपर नहीं उठे, वैसे ही फूलों के मामले में गेंदे से ऊपर नहीं उभर पाए। गाड़ियों में बैलगाड़ी, मिठाइयों में पेड़ा, फूलों में गेंदा, लीजिए जनाब, यही है आपका इंडियन कल्चर!’

इसके जवाब में एक-दूसरे साहब ने भीड़ के दूसरे कोने से चीख कर कहा, ‘अंग्रेज चला गया पर अपनी औलाद छोड़ गया।’

इधर से उन्होंने कहा, ‘जी हाँ, आप जैसा हिंदुस्तानी रह गया पर दिमाग बह गया।’ इतना कह कर, जवाब में आनेवाली बात का वार बचाने के लिए वे फिर मित्र की ओर मुखातिब हुए और कहने लगे, ‘बताइए साहब, गुलाब की वो-वो वैरायटी निकाली है कि…।’

तभी गार्ड ने फिर सीटी दी और वे चौंक कर इंजिन की ओर देखने लगे। इंजिन एक नए ढंग से सी-सी करने लगा था। कुछ सेकंड तक यह आवाज चलती रही, पर उसके बाद फिर पहले वाली हालत पर आ गई, ठीक वैसे ही, जैसे दफ्तर छोड़ने के पहले मित्र कभी-कभी कुर्सी से उठ कर भी कोई नया कागज देखते ही फिर से बैठ जाते थे। तब उस पुष्प प्रेमी ने अपना व्याख्यान फिर से शुरु किया, ‘हाँ साहब, तो अंग्रेजों ने गुलाब की वो-वो वैरायटी निकाली है कि कमाल हासिल है! सन बर्स्ट, पिंक पर्ल, लेडी हैलिंग्टन, ब्लैक प्रिंस, वाह, कमाल हासिल है! और अपने यहाँ? यहाँ तो जनाब वही पुराना टुइयाँ गुलाब लीजिए और खुशबू का नगाड़ा बजाइए।’

बात यहीं पर थी कि इस बार गार्ड ने सीटी दी। बहस थम गई। पर कुछ देर गाड़ी में कोई हरकत नहीं हुई। इसलिए वे दूसरे महाशय भी भीड़ को फाड़ कर सामने आ गए। अकड़ कर बोले, ‘हाँ साहब, जरा फिर से तो चालू कीजिए वही पहले का दिमाग वाला मजमून। मेरा तो भई, दिमाग हिंदुस्तानी ही है, पर आइए, आपके दिमाग को भी देख लें।’

तब मित्र महोदय बड़े जोर से हँसे और बोले, ‘हातिम भाई और सक्सेना साहब में यह हमेशा ही चला करता है। याद रहेंगे, ‘साहब, ये झगड़े भी याद रहेंगे।’

इस तरह यह बात भी खत्म हुई, झगड़े को मजबूरन मैदान छोड़ना पड़ा। उधर सिग्नल गिरा हुआ था। इंजिन फिर से ‘सी-सी’ करने लगा था। पर गाड़ी अंगद के पाँव-सी अपनी जगह टिकी थी।

भीड़ के पिछले हिस्से में दर्शन-शास्त्र के एक प्रोफेसर धीरे-धीरे किसी मित्र को समझा रहे थे, ‘जनाब, जिंदगी में तीन बटे चार तो दबाव है, कोएर्शन को बोलबाला है, बाकी एक बटे चार अपनी तबीयत की जिंदगी है। देखिए न, मेरा काम तो एक तख्त से चल जाता है, फिर भी दूसरों के लिए ड्राइंग-रूम में सोफे डालने पड़ते हैं। तन ढाँकने को एक धोती बहुत काफी है, पर देखिए, बाहर जाने के लिए यह सूट पहनना पड़ता है। यही कोएर्शन है। यही जिंदगी है। स्वाद खराब होने पर भी दूध छोड़ कर कॉफी पीता हूँ, जासूसी उपन्यास पढ़ने का मन करता है पर कांट और हीगेल पढ़ता हूँ, और जनाब गठिया का मरीज हूँ, पर मित्रों के लिए स्टेशन आ कर घंटों खड़ा रहता हूँ।’

वे और उनके श्रोता – दोनों रहस्यपूर्ण ढंग से हँसने लगे और फिर मुझे अपने नजदीक खड़ा पा कर जोर से खुल कर हँसने लगे ताकि मुझे उनकी निश्छलता पर संदेह न हो सके।

गाड़ी फिर भी नहीं चली।

अब भीड़ तितर-बितर होने लगी थी और मित्र के मुँह पर एक ऐसी दयनीय मुस्कान आ गई थी जो अपने लड़कों से झूठ बोलते समय, अपनी बीवी से चुरा कर सिनेमा देखते समय या वोट माँगने में भविष्य के वादे करते समय हमारे मुँह पर आ जाती होगी। लगता था कि वे मुस्कुराना तो चाहते हैं पर किसी से आँख नहीं मिलाना चाहते।

तभी अचानक गार्ड ने सीटी दी। झंडी हिलाई। इंजिन का भोंपू बजा और गाड़ी चलने को हुई। लोगों ने मित्र से उत्साहपूर्वक हाथ मिलाए। फिर मित्र ही डिब्बे में पहुँच कर लोगों से हाथ मिलाने लगे। कुछ लोग रूमाल हिलाने लगे। मैं इसी दृश्य के लिए बैचैन हो रहा था। मैंने भी रूमाल निकालना चाहा, पर रूमाल सदा की भाँति घर पर ही छूट गया था। मैं हाथ हिलाने लगा।

एक साहब वजन लेनेवाली मशीन पर बड़ी देर से अपना वजन ले रहे थे और दूसरों का वजन लेना देख रहे थे। गार्ड की सीटी सुनते ही वे दौड़ कर आए और भीड़ को चीरते हुए मित्र तक पहुँचे। गाड़ी के चलते-चलते उन्होंने उत्साह से हाथ मिलाया। फिर गाड़ी को निश्चित रूप से चलती हुई पा कर हसरत से साथ बोले, ‘काश, कि यह गाड़ी यहीं रह जाती।’

1968-69 के वे दिन – शरद जोशी

आज से सौ वर्ष पहले अर्थात 1969 के वर्ष में सामान्‍य व्‍यक्ति का जीवन इतना कठिन नहीं था जितना आज है। न ऐसी महँगाई थी और न रुपयों की इतनी किल्‍लत। सौ वर्ष पूर्व यानी लगभग 1968 से 1969 के काल की आर्थिक स्थिति संबंधी जो सामग्री आज उपलब्‍ध है उसके आधार पर जिन तथ्‍यों का पता चलता है वे सचमुच रोचक हैं। यह सच है कि आम आदमी का वेतन कम था और आय के साधन सीमित थे पर वह संतोष का जीवन बिताता था और कम रुपयों में उसकी जरूरतें पूरी हो जाती थीं।

जैसे एक रुपये में एक किलो गेहूँ या गेहूँ का आटा आ जाता था और पूरे क्विण्‍टल गेहूँ का दाम सौ रुपये से कुछ ही ज्‍यादा था। एक सौ बीस रुपये में अच्‍छा क्‍वालिटी गेहूँ बाज़ार में मिल जाता है। शरबती, कठिया, पिस्‍सी के अलावा भी कई तरह का गेहूँ बाज़ार में नज़र आता था। दालें रुपये में किलो भर मिल जाती थीं। घी दस-बारह से पंद्रह तक में किलो भर आ जाता था और तेल इससे भी सस्‍ता पड़ता था। आम आदमी डालडा खाकर संतोष करता था जिसके तैयार पैकबंद डिब्‍बे अधिक महँगे नहीं पड़ते थे। सिर्फ़ अनाज और तेल ही नहीं, हरी सब्जि़यों की भी बहुतायत थी। पाँच रुपया हाथ में लेकर गया व्‍यक्ति अपने परिवार के लिए दो टाइम की सब्‍ज़ी लेकर आ जाता था। आने-जाने के लिए तब सायकिल नामक वाहन का चलन था जो दो सौ-तीन सौ रुपयों में नयी मिल जाती थी। छह ह‍ज़ार में स्‍कूटर और सोलह से पच्‍चीस-तीस हज़ार में कारें मिल जाती थीं। पर ज्‍़यादातर लोग बसों से जाते-आते थे, जिस पर बीस-तीस पैसा से अधिक ख़र्च नहीं बैठता था। निश्चित ही आज की तुलना में तब का भारत सचमुच स्‍वर्ग था।

मकानों की बहुतायत नहीं थी पर कोशिश करने पर मध्‍यमवर्गीय व्‍यक्ति को मकान मिल जाता था। तब के मकान भी आज की तुलना में बड़े होते थे, यानी उनमें दो-तीन कमरों के अलावा कुछ खुली जमीन मिल जाती थी। छोटे शहरों में दस-पंद्रह रुपयों में चप्‍पल और पच्‍चीस-चालीस में चमड़े का जूता मिल जाता था जो कुछ बरसों तक चला जाता था। डेढ़ सौ से लेकर तीन-चार सौ तक एक पहनने लायक सूट बन जाता था-टेरीकॉट के सिले-सिलाये। कमीज़ सिर्फ़ पचास-खुद कपड़ा खरीदकर सिलवाने में बीस-पच्‍चीस में बन जाती थी। एक सामान्‍य-व्‍यक्ति अपने पास तीन-चार कमीज़ या बुश्‍शर्ट रखता था। लोगों को पतलून के अंदर लँगोट पहनने का शौक था, जो डेढ़-दो रुपये में मिल जाती थी।

औरतों का भी ख़र्च ज्‍यादा नहीं था। एक साड़ी तीस-पैंतीस से सौ-सवा सौ में पड़ जाती थी। हर औरत के पास ट्रंक भर साडि़याँ आम तौर पर रहती थीं जो वे बदल-बदलकर पहन लेती थीं। स्‍नो की डिबिया दो रुपये में, लि‍पस्टिक ढाई-तीन रुपये में और चूडि़याँ रुपये की छह आ जाती थीं। इसी कारण शादी करके स्‍त्री घर लाना महँगा नहीं माना जाता था। अक्‍सर लोग अपने विवाह तीस साल की उम्र में कर डालते थे। स्त्रियों का बहुत कम प्रतिशत नौकरी करता था। अधिकांश स्त्रियों का मुख्‍य धन्‍धा पत्‍नी बनना ही था। कुछ स्त्रियों के कुँवारी रहकर जीवन बिताने के भी प्रमाण मिलते हैं। पर विवाह का फैशन ही सर्वत्र प्रचलित था। यह कार्य अक्‍़सर माता-पिता करवाते थे, जो बच्‍चों को घरों में रखकर पालते थे।

1969 का भारत सच्‍चे अर्थों में सुखी भारत था। लोग दस-साढ़े दस बजे दफ़्तर जाकर पाँच बजे वापस लौटते थे, पर दफ़्तरों में एक कर्मचारी के पास दो घण्‍टे से अधिक का काम नहीं था। कैंटीन में चाय का कप बीस-तीस पैसों में मिल जाता था। एक ब्‍लेड बारह-पंद्रह पैसों में कम-से-कम मिल जाती थी। और अख़बार बीस पैसे में आ जाता था। जिन्‍हें शराब पीने की आदत नहीं थी वे दो रुपया जेब में रख सारा दिन मज़े से गुज़ार देते थे। सिगरेट की डिबिया में दस सिगरेटें होती हैं और पूरी डिबिया पचास-साठ पैसों में मिल जाती थी। पहले की सिगरेट भी आज की सिगरेटों की तुलना में काफ़ी लंबी होती थी। हाथ की बनी बीड़ियाँ आज की तरह नियामत नहीं थीं। दल-पंद्रह पैसे के बंडल में बीस बीड़ियाँ निकलती थीं। माचिस आठ-दस पैसे में आ जाती थी। जिनमें साठ-साठ तक तीलियाँ होती थीं। हालाँकि लायटर का रिवाज़ भी शुरू हो गया था था।

1968-69 की स्थिति का अध्‍ययन करने पर पता लगता है कि रेडियो सुनने और सिनेमा देख लेने के अलावा कला-संस्‍कृति पर लोग अधिक खर्च नहीं करते थे। हालाँकि अख़बार निकलते थे, पत्रिकाएँ छपती थीं पर उनकी बिक्री कम थी। माँगकर पढ़ने और सांस्‍कृतिक कार्यक्रमों और नाटकों के फ्री पास प्राप्‍त करने का प्रयत्‍न चलता रहता था। उसमें सफलता भी मिलती थी। विद्वानों के भाषण फोकट में सुनने को मिल जाते थे। मुफ्त निमंत्रण बाँट निवेदन किये बग़ैर भीड़ जुटना कठिन होता था। लेखक सस्‍ते पड़ते थे। आठ-दस रोज़ मेहनत कर लिखी रचना पर तीस-पैंतीस से सौ-डेढ़ सौ तक मिल जाता था पर कविताएँ पच्‍चीस से ज्‍़यादा में उठ नहीं पाती थीं। बहुत-सी पत्रिकाएँ बिना लेखकों-कवियों को कुछ दिये ही काम चला लेती थीं। एक पत्रिका आठ-दस रुपये साल में एक बार देने पर बराबर आ जाती थी। अधिकांश पत्रिकाएँ लेखकों-कवियों को मुफ़्त प्रति दे रचनाएँ प्राप्‍त कर लेती थीं। सस्‍ते दिन थे। चार रुपये रीम काग़ज़ मिलता था और साठ पैसों में स्‍याही की बोतल मिल जाती थी। वक्‍़त काफ़ी था, लेखक लोग रचना माँगने पर दे देते थे।

निश्चित ही 2068-69 की तुलना में सौ वर्ष पूर्व के वे दिन बहुत अच्‍छे थे। देश में इफ़रात थी और चीज़ें सस्‍ती थीं। आज उस तुलना में भाव आसमान पर पहुँच गये हैं कि जीना मुश्किल है। कमाई में पूरा नहीं पड़ता बल्कि बहुत से लोगों के लिए दोनों टाइम का भोजन जुटाना भी कठिन है। मकान और फर्नीचर सभी महँगा है कि लोग कठिनाई से ख़रीद पाते हैं। उन दिनों में एक सोफ़ासेट ढाई सौ से सात सौ रुपयों में आ जाता था और साधारण निवाड़ का पलँग (तब निवाड़ के पलँग प्रचलित थे) तीस-चालीस से ज्‍़यादा नहीं पड़ता था। तीस रुपये में रज़ाई और साठ-सत्तर में बढ़िया कम्‍बल मिल जाते थे। कोई आश्‍चर्य नहीं अगर आज 2069 की तुलना में 1969 का आदमी काफ़ी सोता था और घण्‍टों रज़ाई में घुसे रहना सबसे बड़ी ऐयाशी थी। आज वे दिन नहीं रहे, न वैसे लोग। हमारे उन पुरखों ने जैसा शुद्ध वनस्‍पति घी खाया है, वैसा हमें देखने को भी नहीं मिलता। तब की बात ही और थी। एक रुपये में आठ जलेबियाँ चढ़ती थीं, लोग छककर खाते थे। केला रुपये दर्जन तक आ जाता था। फिर क्‍यों नहीं बनेगा अच्‍छा स्‍वास्‍थ्‍य? पुराने लोगों को देखो-साठ-सत्तर से कम में कोई कूच नहीं करता था। लंबी उमर जीते थे और ठाठ से जीते थे। आज की तरह श्मशान में अर्थियों का क्‍यू नहीं लगता था। पाँच रुपये में पूरा शरीर ढँकने का कफ़न आ जाता था। सुख और समृद्धि के वे दिन आज कहानी लगते हैं जिन पर सहसा विश्‍वास नहीं आता। पर यह सच है कि आज से सिर्फ़ सौ वर्ष पूर्व हमारे देश के लोग सुख की जिंदगी बिता रहे थे। तब का भारत आज की तुलना में निश्चित ही स्‍वर्ग था।