ओंकार की 19 शक्तियाँ

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सारे शास्त्र-स्मृतियों का मूल है वेद। वेदों का मूल गायत्री है और गायत्री का मूल है ओंकार। ओंकार से गायत्री, गायत्री से वैदिक ज्ञान, और उससे शास्त्र और सामाजिक प्रवृत्तियों की खोज हुई।

पतंजलि महाराज ने कहा हैः

तस्य वाचकः प्रणवः। परमात्मा का वाचक ओंकार है।

सब मंत्रों में ॐ राजा है। ओंकार अनहद नाद है। यह सहज में स्फुरित हो जाता है। अकार, उकार, मकार और अर्धतन्मात्रायुक्त ॐ एक ऐसा अदभुत भगवन्नाम मंत्र है कि इस पर कई व्याखयाएँ हुई। कई ग्रंथ लिखे गये। फिर भी इसकी महिमा हमने लिखी ऐसा दावा किसी ने किया। इस ओंकार के विषय में ज्ञानेश्वरी गीता में ज्ञानेश्वर महाराज ने कहा हैः

ॐ नमो जी आद्या वेदप्रतिपाद्या जय जय स्वसंवेद्या आत्मरूपा।

परमात्मा का ओंकारस्वरूप से अभिवादन करके ज्ञानेश्वर महाराज ने ज्ञानेश्वरी गीता का प्रारम्भ किया।

धन्वंतरी महाराज लिखते हैं कि ॐ सबसे उत्कृष्ट मंत्र है।

वेदव्यासजी महाराज कहते हैं कि प्रणवः मंत्राणां सेतुः। यह प्रणव मंत्र सारे मंत्रों का सेतु है।

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कोई मनुष्य दिशाशून्य हो गया हो,लाचारी की हालत में फेंका गया हो, कुटुंबियों ने मुख मोड़ लिया हो, किस्मत रूठ गयी हो,साथियों ने सताना शुरू कर दिया हो, पड़ोसियों ने पुचकार के बदले दुत्कारना शुरू कर दिया हो… चारों तरफ से व्यक्ति दिशाशून्य,सहयोगशून्य, धनशून्य, सत्ताशून्य हो गया हो फिर भी हताश न हो वरन् सुबह-शाम 3 घंटे ओंकार सहित भगवन्नाम का जप करे तो वर्ष के अंदर वह व्यक्ति भगवत्शक्ति से सबके द्वारा सम्मानित, सब दिशाओं में सफल और सब गुणों से सम्पन्न होने लगेगा। इसलिए मनुष्य को कभी भी लाचार, दीन-हीन और असहाय मानकर अपने को कोसना चाहिए। भगवान तुम्हारे आत्मा बनकर बैठे हैं और भगवान का नाम तुम्हें सहज में प्राप्त हो सकता है फिर क्यों दुःखी होना?

रोज रात्रि में तुम 10 मिनट ओंकार का जप करके सो जाओ। फिर देखो, इस मंत्र भगवान की क्या-क्या करामात होती है? और दिनों की अपेक्षा वह रात कैसी जाती है और सुबह कैसी जाती है? पहले ही दिन फर्क पड़ने लग जायेगा।

मंत्र के ऋषि, देवता, छंद, बीज और कीलक होते हैं। इस विधि को जानकर गुरुमंत्र देने वाले सदगुरु मिल जायें और उसका पालन करने वाला सतशिष्य मिल जाये तो काम बन जाता है। ओंकार मंत्र का छंद गायत्री है, इसके देवता परमात्मा स्वयं  है और मंत्र के ऋषि भी ईश्वर ही हैं।

भगवान की रक्षण शक्ति, गति शक्ति, कांति शक्ति, प्रीति शक्ति, अवगम शक्ति, प्रवेश अवति शक्ति आदि 19 शक्तियाँ ओंकार में हैं। इसका आदर से श्रवण करने से मंत्रजापक को बहुत लाभ होता है ऐसा संस्कृत के जानकार पाणिनी मुनि ने बताया है।

वे पहले महाबुद्धु थे, महामूर्खों में उनकी गिनती होती थी। 14 साल तक वे पहली कक्षा से दूसरी में नहीं जा पाये थे। फिर उन्होंने शिवजी की उपासना की, उनका ध्यान किया तथा शिवमंत्र जपा। शिवजी के दर्शन किये व उनकी कृपा से संस्कृत व्याकरण की रचना की और अभी पाणिनी मुनी का संस्कृत व्याकरण पढ़ाया जाता है।  

मंत्र में 19 शक्तियाँ हैं-aum_symbol310

रक्षण शक्तिः ॐ सहित मंत्र का जप करते हैं तो वह हमारे जप तथा पुण्य की रक्षा करता है। किसी नामदान के लिए हुए साधक पर यदि कोई आपदा आनेवाली है, कोई दुर्घटना घटने वाली है तो मंत्र भगवान उस आपदा को शूली में से काँटा कर देते हैं। साधक का बचाव कर देते हैं। ऐसा बचाव तो एक नहीं, मेरे हजारों साधकों के जीवन में चमत्कारिक ढंग से महसूस होता है। अरे, गाड़ी उलट गयी, तीन गुलाटी खा गयी किंतु बापू जी ! हमको खरोंच तक नहीं आयी…. बापू जी ! हमारी नौकरी छूट गयी थी, ऐसा हो गया था, वैसा हो गया था किंतु बाद में उसी साहब ने हमको बुलाकर हमसे माफी माँगी और हमारी पुनर्नियुक्ति कर दी। पदोन्नति भी कर दी… इस प्रकार की न जाने कैसी-कैसी अनुभूतियाँ लोगों को होती हैं। ये अनुभूतियाँ समर्थ भगवान की सामर्थ्यता प्रकट करती हैं।

गति शक्तिः जिस योग में, ज्ञान में, ध्यान में आप फिसल गये थे, उदासीन हो गये थे, किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये थे उसमें मंत्रदीक्षा लेने के बाद गति आने लगती है। मंत्रदीक्षा के बाद आपके अंदर गति शक्ति कार्य में आपको मदद करने लगती है।

कांति शक्तिः मंत्रजाप से जापक के कुकर्मों के संस्कार नष्ट होने लगते हैं और उसका चित्त उज्जवल होने लगता है। उसकी आभा उज्जवल होने लगती है, उसकी मति-गति उज्जवल होने लगती है और उसके व्यवहार में उज्जवलता आने लगती है।

इसका मतलब ऐसा नहीं है कि आज मंत्र लिया और कल सब छूमंतर हो जायेगा… धीरे-धीरे होगा। एक दिन में कोई स्नातक नहीं होता,  एक दिन में कोई एम.ए. नहीं पढ़ लेता, ऐसे ही एक दिन में सब छूमंतर नहीं हो जाता। मंत्र लेकर ज्यों-ज्यों आप श्रद्धा से,एकाग्रता से और पवित्रता से जप करते जायेंगे त्यों-त्यों विशेष लाभ होता जायेगा।

प्रीति शक्तिः ज्यों-ज्यों आप मंत्र जपते जायेंगे त्यों-त्यों मंत्र के देवता के प्रति, मंत्र के ऋषि, मंत्र के सामर्थ्य के प्रति आपकी प्रीति बढ़ती जायेगी।

तृप्ति शक्तिः ज्यों-ज्यों आप मंत्र जपते जायेंगे त्यों-त्यों आपकी अंतरात्मा में तृप्ति बढ़ती जायेगी, संतोष बढ़ता जायेगा। जिन्होंने नियम लिया है और जिस दिन वे मंत्र नहीं जपते, उनका वह दिन कुछ ऐसा ही जाता है। जिस दिन वे मंत्र जपते हैं, उस दिन उन्हें अच्छी तृप्ति और संतोष होता है।

जिनको गुरुमंत्र सिद्ध हो गया है उनकी वाणी में सामर्थ्य आ जाता है। नेता भाषण करता है त लोग इतने तृप्त नहीं होते, किंतु जिनका गुरुमंत्र सिद्ध हो गया है ऐसे महापुरुष बोलते हैं तो लोग बड़े तृप्त हो जाते हैं और महापुरुष के शिष्य बन जाते हैं।  

अवगम शक्तिः मंत्रजाप से दूसरों के मनोभावों को जानने की शक्ति विकसित हो जाती है। दूसरे के मनोभावों को आप अंतर्यामी बनकर जान सकते हो। कोई व्यक्ति कौन सा भाव लेकर आया है? दो साल पहले उसका क्या हुआ था या अभी उसका क्या हुआ है? उसकी तबीयत कैसी है? लोगों को आश्चर्य होगा किंतु आप तुरंत बोल दोगे कि ‘आपको छाती में जरा दर्द है… आपको रात्रि में ऐसा स्वप्न आता है….’ कोई कहे कि ‘महाराज ! आप तो अंतर्यामी हैं।’ वास्तव में यह भगवत्शक्ति के विकास की बात है।

प्रवेश अवति शक्तिः अर्थात् सबके अंतरतम की चेतना के साथ एकाकार होने की शक्ति। अंतःकरण के सर्व भावों को तथा पूर्वजीवन के भावों को और भविष्य की यात्रा के भावों को जानने की शक्ति कई योगियों में होती है। वे कभी-कभार मौज में आ जायें तो बता सकते हैं कि आपकी यह गति थी, आप यहाँ थे, फलाने जन्म में ऐसे थे, अभी ऐसे हैं। जैसे दीर्घतपा के पुत्र पावन को माता-पिता की मृत्यु पर उनके लिए शोक करते देखकर उसके बड़े भाई पुण्यक ने उसे उसके पूर्वजन्मों के बारे में बताया था। यह कथा योगवाशिष्ठ महारामायण में आती है।

श्रवण शक्तिः मंत्रजाप के प्रभाव से जापक सूक्ष्मतम, गुप्ततम शब्दों का श्रोता बन जाता है। जैसे, शुकदेवजी महाराज ने जब परीक्षित के लिए सत्संग शुरु किया तो देवता आये। शुकदेवजी ने उन देवताओं से बात की। माँ आनंदमयी का भी देवलोक के साथ सीधा सम्बन्ध था। और भी कई संतो का होता है। दूर देश से भक्त पुकारता है कि गुरुजी ! मेरी रक्षा करो… तो गुरुदेव तक उसकी पुकार पहुँच जाती है !

स्वाम्यर्थ शक्तिः अर्थात् नियामक और शासन का सामर्थ्य। नियामक और शासक शक्ति का सामर्थ्य विकसित करता है प्रणव का जाप।

याचन शक्तिः अर्थात् याचना की लक्ष्यपूर्ति का सामर्थ्य देनेवाला मंत्र।

क्रिया शक्तिः अर्थात् निरन्तर क्रियारत रहने की क्षमता, क्रियारत रहनेवाली चेतना का विकास।

इच्छित अवति शक्तिः अर्थात् वह ॐ स्वरूप परब्रह्म परमात्मा स्वयं तो निष्काम है किंतु उसका जप करने वाले में सामने वाले व्यक्ति का मनोरथ पूरा करने का सामर्थ्य आ जाता है। इसीलिए संतों के चरणों में लोग मत्था टेकते हैं, कतार लगाते हैं, प्रसाद धरते हैं,आशीर्वाद माँगते हैं आदि आदि। इच्छित अवन्ति शक्ति अर्थात् निष्काम परमात्मा स्वयं शुभेच्छा का प्रकाशक बन जाता है।

दीप्ति शक्तिः अर्थात् ओंकार जपने वाले के हृदय में ज्ञान का प्रकाश बढ़ जायेगा। उसकी दीप्ति शक्ति विकसित हो जायेगी।

वाप्ति शक्तिः अणु-अणु में जो चेतना व्याप रही है उस चैतन्यस्वरूप ब्रह्म के साथ आपकी एकाकारता हो जायेगी।

आलिंगन शक्तिः अर्थात् अपनापन विकसित करने की शक्ति। ओंकार के जप से पराये भी अपने होने लगेंगे तो अपनों की तो बात ही क्या? जिनके पास जप-तप की कमाई नहीं है उनको तो घरवाले भी अपना नहीं मानते, किंतु जिनके पास ओंकार के जप की कमाई है उनको घरवाले, समाजवाले, गाँववाले, नगरवाले, राज्य वाले, राष्ट्रवाले तो क्या विश्ववाले भी अपना मानकर आनंद लेने से इनकार नहीं करते।  

हिंसा शक्तिः ओंकार का जप करने वाला हिंसक बन जायेगा? हाँ, हिँसक बन जायेगा किंतु कैसा हिंसक बनेगा? दुष्ट विचारों का दमन करने वाला बन जायेगा और दुष्टवृत्ति के लोगों के दबाव में नहीं आयेगा। अर्थात् उसके अन्दर अज्ञान को और दुष्ट सरकारों को मार भगाने का प्रभाव विकसित हो जायेगा।

दान शक्तिः अर्थात् वह पुष्टि और वृद्धि का दाता बन जायेगा। फिर वह माँगनेवाला नहीं रहेगा, देने की शक्तिवाला बन जायेगा। फिर वह माँगने वाला नहीं रहेगा, देने की शक्तिवाला बन जायेगा। वह देवी-देवता से, भगवान से माँगेगा नहीं, स्वयं देने लगेगा।

निर्बंधदास नामक एक संत थे। वे ओंकार का जप करते-करते ध्यान करते थे, अकेले रहते थे। वे सुबह बाहर निकलते लेकिन चुप रहते। उनके पास लोग अपना मनोरथ पूर्ण कराने के लिए याचक बनकर आते और हाथ जोड़कर कतार में बैठ जाते। चक्कर मारते-मारते वे संत किसी को थप्पड़ मारे देते। वह खुश हो जाता, उसका काम बन जाता। बेरोजगार को नौकरी मिल जाती, निःसंतान को संतान मिल जाती, बीमार की बीमारी चली जाती। लोग गाल तैयार रखते थे। परंतु ऐसा भाग्य कहाँ कि सबके गाल पर थप्पड़ पड़े? मैंने उन महाराज के दर्शन तो नहीं किये हैं किंतु जो लोग उनके दर्शन करके आये और उनसे लाभान्वित होकर आये उन लोगों की बातें मैंने सुनीं।

भोग शक्तिः प्रलयकाल स्थूल जगत को अपने में लीन करता है, ऐसे ही तमाम दुःखों को, चिंताओं को, भयों को अपने में लीन करने का सामर्थ्य होता है प्रणव का जप करने वालों में। जैसे दरिया में सब लीन हो जाता है, ऐसे ही उसके चित्त में सब लीन हो जायेगा और वह अपनी ही लहरों में फहराता रहेगा, मस्त रहेगा… नहीं तो एक-दो दुकान, एक-दो कारखाने वाले को भी कभी-कभी चिंता में चूर होना पड़ता है। किंतु इस प्रकार की साधना जिसने की है उसकी एक दुकान या कारखाना तो क्या, एक आश्रम या समिति तो क्या, 1100, 1200 या 1500 ही क्यों न हों, सब उत्तम प्रकार से चलती हैं ! उसके लिए तो नित्य नवीन रस, नित्य नवीन आनंद, नित्य नवीन मौज रहती है।

हर रात नई इक शादी है, हर रोज मुबारकबादी है।

जब आशिक मस्त फकीर हुआ, तो क्या दिलगिरी बाबा?

शादी अर्थात् खुशी ! वह ऐसा मस्त फकीर बन जायेगा।

वृद्धि शक्तिः अर्थात् प्रकृतिवर्धक, संरक्षक शक्ति। ओंकार का जप करने वाले में प्रकृतिवर्धक और सरंक्षक सामर्थ्य आ जाता है।

स्वास्तिक का अर्थ इतिहास व उपयोग

मंगलकारी स्वास्तिक

पुरातन वैदिक सनातन संस्कृति का परम मंगलकारी प्रतीक चिन्ह स्वास्तिक अपने आप में विलक्षण है। इसे हमारे सभी व्रत, पर्व, त्यौहार, पूजा एवं हर मांगलिक अवसर पर कुंकुम से अंकित किया जाता है। यह मांगलिक चिन्ह अनादि काल से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है।

स्वस्तिक का अर्थ
इसका सामान्य अर्थ शुभ, मंगल एवं कल्याण करने वाला है। स्वास्तिक शब्द सु और अस धातु से बना है, सु का अर्थ है शुभ, मंगल और कल्याणकारी, अस का अर्थ है अस्तित्व में रहना। यह पूर्णतः कल्याणकारी भावना को दर्शाता है। देवताओं के चहुं ओर घूमने वाले आभामंडल का चिन्ह ही स्वास्तिक होने के कारण वे देवताओं की शक्ति का प्रतीक होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ एवं कल्याणकारी माना गया है।

स्वस्तिक की प्राचीनता
स्वास्तिक का प्रयोग अनेक धर्म में किया जाता है। जैन व बौद्ध सम्प्रदाय व अन्य धर्मों में प्रायः लाल, पीले एवं श्वेत रंग से अंकित स्वास्तिक का प्रयोग होता रहा है। सिन्धू घाटी सभ्यता की खुदाई में ऐसे चिन्ह व अवशेष प्राप्त हुए हैं जिनसे यह प्रमाणित हो जाता है कि लगभग 2-3 हजार वर्ष पूर्व में भी मानव सम्भ्यता अपने भवनों में इस मंगलकारी चिन्ह का प्रयोग करती थी। द्वितीय विश्व युद्ध के समय एडोल्फी हिटलर ने उल्टे स्वास्तिक का चिन्ह अपनी सेना के प्रतीक रूप में शामिल किया था। सभी सैनिकों की वर्दी एवं टोपी पर यह उल्टा स्वास्तिक चिन्ह अंकित था। उल्टा स्वास्तिक ही उसकी बर्बादी का कारण बना। उसके शासन का नाश हुआ एवं भारी तबाही के साथ युद्ध में उसकी हार हुई |
स्वास्तिक का प्रयोग शुद्ध, पवित्र एवं सही ढंग से उचित स्थान पर करना चाहिए। शौचालय एवं गन्दे स्थानों पर इसका प्रयोग वर्जित है। ऐसा करने वाले की बुद्धि एवं विवेक समाप्त हो जाता है। दरिद्रता, तनाव एवं रोग एवं क्लेश में वृद्धि होती है। स्वास्तिक की आकृति श्रीगणेश की प्रतीक है और विष्णु जी एवं सूर्यदेव का आसन मानी जाती है। इसे भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है। प्रत्येक मंगल व शुभ कार्य में इसे शामिल किया जाता है। इसका प्रयोग रसोईघर, तिजोरी, स्टोर, प्रवेशद्वार, मकान, दुकान, पूजास्थल एवं कार्यालय में किया जाता है। यह तनाव, रोग, क्लेश, निर्धनता एवं शत्रुता से मुक्ति दिलाता है।

स्वस्तिक रंग लाल क्यों?
भारतीय संस्कृति में लाल रंग का सर्वाधिक महत्व है और मांगलिक कार्यों में इसका प्रयोग सिन्दूर, रोली या कुंकुम के रूप में किया जाता है। सभी देवताओं की प्रतिमा पर रोली का टीका लगाया जाता है। लाल रंग शौर्य एवं विजय का प्रतीक है। लाल टीका तेजस्विता, पराक्रम, गौरव और यश का प्रतीक माना गया है। लाल रंग प्रेम, रोमांच व साहस को दर्शाता है। यह रंग लोगों के शारीरिक व मानसिक स्तर को शीघ्र प्रभावित करता है। यह रंग शक्तिशाली व मौलिक है। यह रंग मंगल ग्रह का है जो स्वयं ही साहस, पराक्रम, बल व शक्ति का प्रतीक है। यह सजीवता का प्रतीक है और हमारे शरीर में व्याप्त होकर प्राण शक्ति का पोषक है। मूलतः यह रंग ऊर्जा, शक्ति, स्फूर्ति एवं महत्वकांक्षा का प्रतीक है। नारी के जीवन में इसका विशेष स्थान है और उसके सुहाग चिन्ह व श्रृंगार में सर्वाधिक प्रयुक्त होता है। स्त्राी के मांग का सिन्दूर, माथे की बिन्दी, हाथों की चूड़ियां, पांव का आलता, महावर, करवाचौथ की साड़ी, शादी का जोड़ा एवं प्रेमिका को दिया लाल गुलाब आदि सभी लाल रंग की महत्ता है। नाभि स्थित मणिपुर चक्र का पर्याय भी लाल रंग है। शरीर में लाल रंग की कमी से अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। लाल रंग से ही केसरिया, गुलाबी, मैहरुन और अन्य रंग बनाए जाते हैं। इन सब तथ्यों से प्रमाणित होता है कि स्वास्तिक लाल रंग से ही अंकित किया जाना चाहिए या बनाना चाहिए।

स्वस्तिक का उपयोग
स्वास्तिक बनाने के लिए धन चिन्ह बनाकर उसकी चारों भुजाओं के कोने से समकोण बनाने वाली एक रेखा दाहिनी ओर खींचने से स्वास्तिक बन जाता है। रेखा खींचने का कार्य ऊपरी भुजा से प्रारम्भ करना चाहिए। इसमें दक्षिणवर्त्ती गति होती है। सदैव कुंकुम, सिन्दूर व अष्टगंध से ही अंकित करना चाहिए। वैज्ञानिक हार्टमेण्ट अनसर्ट ने आवेएंटिना नामक यन्त्र द्वारा लाल कुंकुम से अंकित स्वास्तिक की सकारात्मक ऊर्जा को 100000 बोविस यूनिट में नापा है। ऊं (70000 बोविस) चिन्ह से भी अधिक सकारात्मक ऊर्जा स्वास्तिक में है। ऊं एवं स्वास्तिक का सामूहिक प्रयोग नकारात्मक ऊर्जा को शीघ्रता से दूर करता है।
भवन, कार्यालय, दूकान या फैक्ट्री या कार्य स्थल के मुख्य द्वार के दोनों ओर स्वास्तिक अंकित करने से सकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है। पूजा स्थल, तिजोरी, कैश बॉक्स, अलमारी में भी स्वास्तिक स्थापित करना चाहिए। स्वास्तिक को धन-देवी लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। इसकी चारों दिशाओं के अधिपति देवताओं, अग्नि, इन्द्र, वरूण एवं सोम की पहूजा हेतु एवं सप्तऋषियों के आशीर्वाद को प्राप्त करने में प्रयोग किया जाता है। इसके अपमान व गलत प्रयोग से बचना चाहिए। स्वास्तिक के प्रयोग से धनवृद्धि, गृहशान्ति, रोग निवारण, वास्तुदोष निवारण, भौतिक कामनाओं की पूर्ति, तनाव, अनिद्रा व चिन्ता से मुक्ति भी दिलाता है। जातक की कुण्डली बनाते समय या कोई शुभ कार्य करते समय सर्वप्रथम स्वास्तिक को ही अंकित किया जाता है। ज्योतिष में इस मांगलिक चिन्ह को प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, सफलता व उन्नति का प्रतीक माना गया है। मुख्य द्वार पर 6.5 इंच का स्वास्तिक बनाकर लगाने से से अनेक प्रकार के वास्तु दोष दूर हो जाते हैं। हल्दी से अंकित स्वास्तिक शत्राु शमन करता है। स्वास्तिक 27नक्षत्रों का सन्तुलित करके सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है। यह चिन्ह नकारात्मक ऊर्जा का सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित करता है। इसका भरपूर प्रयोग अमंगल व बाधाओं से मुक्ति दिलाता है।
स्वास्तिक का भारतीय संस्कृति में बडा महत्व है। विघ्नहर्ता गणेश जी की उपासना धन, वैभव और ऎश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ ही शुभ लाभ, और स्वास्तिक की पूजा का भी विधान है। विभिन्न प्रकार के सुख और समृद्धि का प्रतीक स्वास्तिक घर, द्वार, आंगन आदि में प्रत्येक शुभ एवं मांगलिक कार्य के आरम्भ बनाया जाता है।
यह मंगल भावना और सुख-सौभाग्य का द्योतक है। इसे सूर्य और विष्णु का प्रतीक माना जाता है। ऋग्वेद में स्वास्तिक के देवता संतृन्त का उल्लेख है। सविन्तृ सूत्र के अनुसार इस देवता को मनोवांछित फलदाता, सम्पूर्ण जगत का कल्याण करने और देवताओं को अमरत्व प्रदान करने वाला कहा गया है।

इसे ब्रम्हाण्ड का प्रतीक माना जाता है। इसके मघ्य भाग को विष्णु की नाभि, चारों रेखाओं को ब्रम्हाजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित करने की भावना है।
देवताओं के चारों ओर घूमने वाले आभामंडल का चिह्न ही स्वास्तिक के आकार का होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ माना जाता है। तर्क से भी इसे सिद्ध किया जा सकता है।
श्रुति, अनुभूति तथा युक्ति इन तीनों का यह एक-सा प्रतिपादन प्रयागराज में होने वाले संगम के समान है। दिशाएं मुख्यत: चार हैं, खडी और सीधी रेखा खींचकर, जो धन चिह्न (+) जैसा आकार बनता है। यह आकार चारों दिशाओं का द्योतक है, ऎसी मान्यता सर्वत्र है। स्वस्ति का अर्थ है�क्षेम, मंगल अर्थात् शुभता और क अर्थात कारक या करने वाला। इसलिए देवताओं के तेज के रूप में शुभत्व देने वाला स्वास्तिक है।

-आपने देखा होगा कि लोग पूजा स्थान में अथवा किसी शुभ अवसर पर स्वास्तिक का चिन्ह बनाते हैं। इसके पीछे मान्यता है कि स्वास्तिक चिन्ह शुभ और लाभ में वृद्घि करने वाला होता है।
-वास्तुशास्त्र के अनुसार स्वास्तिक का संबंध असल में वास्तु से है। इसकी बनावट ऐसी होती है कि यह हर दिशा में एक जैसा दिखता है। अपनी बनावट की इसी खूबी के कारण यह घर में मौजूद हर प्रकार के वास्तुदोष को कम करने में सहायक होता है।
-शास्त्रों में स्वास्तिक को विष्णु का आसन एवं लक्ष्मी का स्वरुप माना गया है। चंदन, कुमकुम अथवा सिंदूर से बना स्वास्तिक ग्रह दोषों को दूर करने वाला होता है और यह धन कारक योग बनाता है।वास्तुशास्त्र के अनुसार अष्टधातु का स्वास्तिक मुख्य द्वार के पूर्व दिशा में रखने से सुख समृद्घि में वृद्घि होती है।
-स्वास्तिक की आकृति भगवान श्रीगणेश का प्रतिक, विश्वधारक विष्णु और सूर्य का आसन माना जाता हैं । स्वास्तिक को भारतीय संस्कृति में विशेष महत्व प्राप्त हैं । स्वास्तिक संस्कृत शब्द स्वस्तिका से लिया गया है जिसका अर्थ है खुशाली। स्वस्तिक का महत्व सभी धर्मों में बताया गया है। इसे विभिन्न देशों में अलग-अलग नामों से भी जाना जाता है। चार हजार साल पहले सिंधु घाटी की सभ्यताओं में भी स्वस्तिक के निशान मिलते हैं। बौद्ध धर्म में स्वस्तिक का आकार गौतम बुद्ध के हृदय पर स्थल दिखाया गया है। मध्य एशिया देशों में स्वस्तिक का निशान मांगलिक एवं सौभाग्य का सूचक माना जाता है।
-नेपाल में हेरंब के नाम से पूजित होते हैं। मेसोपोटेमिया में अस्त्र-शस्त्र पर विजय प्राप्त करने हेतु स्वस्तिक चिह्न का प्रयोग किया जाता है। हिटलर ने भी इस स्वस्तिक चिह्न को अपनाया था। वास्तु शास्त्र के अनुसार स्वास्तिक में चार दिशाएँ होती हैं। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। इसलिए इसे हिन्दू धर्म में हर शुभ कार्य में पूजा जाता है, और इसी तरह हर धर्म में इसे किसी ना किसी रूप में पूजा है। तो आइये जाने स्वास्तिक का महत्व।गणपति को चिंतामणि क्यों कहा जाता है

हिंदू धर्म में स्वास्तिक का महत्व
हिन्दू धर्म में किसी भी शुभ कार्यों में स्वास्तिक का अलग अलग तरीके से प्रयोग किया जाता है, फिर चाहे वह शादी हो, बच्चे का मुंडन हो इसे हर छोटी या बड़ी पूजा से पहले पूजा।

बौद्ध धर्म में स्वास्तिक का महत्व
बौद्ध धर्म में स्वास्तिक को अच्छे भाग्य का प्रतीक माना गया है। यह भगवान बुद्धा के पग़ चिन्हों को दिखता है दिखाता है, इसलिए इसे इतना पवित्र माना जाता है। यही नहीं स्वास्तिक भगवान बुद्धा के हृदय, हथेली और पैरों में भी अंकित है।

जैन धर्म में स्वास्तिक का महत्व
हिन्दू धर्म से कई ज्यादा महत्व स्वास्तिक जैन धर्म में है। जैन धर्म में यह सातवें जीना का प्रतिक है जिसे सब तृथंकरा सुपरसवा के नाम से भी जानते हैं। स्वेताम्बर जैन सांस्कृतिक में स्वस्तिक को अष्ट मंगल का मुख्य प्रतीक है।
The Swastika sign has four criss-crossed arms. It represents the four directions. It also represents the Purushartha or the basic desires in a human being that is, Dharma (order), Artha (money), Kama (lust) amd Moksha (salvation). The sign has been interpreted in a number of ways. That is why the significance of Swastika changes with various interpretations. Take a look at the significance of the Swastika sign.
-स्वस्तिक मंत्र शुभ और शांति के लिए प्रयुक्त होता है। ऐसा माना जाता है कि इससे हृदय और मन मिल जाते हैं। मंत्रोच्चार करते हुए दर्भ से जल के छींटे डाले जाते थे तथा यह माना जाता था कि यह जल पारस्परिक क्रोध और वैमनस्य को शांत कर रहा है। गृहनिर्माण के समय स्वस्तिक मंत्र बोला जाता है। मकान की नींव में घी और दुग्ध छिड़का जाता था। ऐसा विश्वास है कि इससे गृहस्वामी को दुधारु गाएँ प्राप्त हेती हैं एवं गृहपत्नी वीर पुत्र उत्पन्न करती है। खेत में बीज डालते समय मंत्र बोला जाता था कि विद्युत् इस अन्न को क्षति न पहुँचाए, अन्न की विपुल उन्नति हो और फसल को कोई कीड़ा न लगे। पशुओं की समृद्धि के लिए भी स्वस्तिक मंत्र का प्रयोग होता था जिससे उनमें कोई रोग नहीं फैलता था। गायों को खूब संतानें होती थीं।
-यात्रा के आरंभ में स्वस्तिक मंत्र बोला जाता था। इससे यात्रा सफल और सुरक्षित होती थी। मार्ग में हिंसक पशु या चोर और डाकू नहीं मिलते थे। व्यापार में लाभ होता था, अच्छे मौसम के लिए भी यह मंत्र जपा जाता था जिससे दिन और रात्रि सुखद हों, स्वास्थ्य लाभ हो तथा खेती को कोई हानि न हो।
-पुत्रजन्म पर स्वस्तिक मंत्र बहुत आवश्यक माने जाते थे। इससे बच्चा स्वस्थ रहता था, उसकी आयु बढ़ती थी और उसमें शुभ गुणों का समावेश होता था। इसके अलावा भूत, पिशाच तथा रोग उसके पास नहीं आ सकते थे। षोडश संस्कारों में भी मंत्र का अंश कम नहीं है और यह सब स्वस्तिक मंत्र हैं जो शरीररक्षा के लिए तथा सुखप्राप्ति एवं आयुवृद्धि के लिए प्रयुक्त होते हैं।

संकलनकर्ता – पं. गिरिजा शंकर शुक्ल

क्या आप जानते हैं कि … हमारे हिन्दू सनातन धर्म में …. दूब अथवा दूर्वा घास का इतना अधिक महत्व क्यों है…?

क्या आप जानते हैं कि … हमारे हिन्दू सनातन धर्म में …. दूब अथवा दूर्वा घास का इतना अधिक महत्व क्यों है…?????

एक पौराणिक कथा के अनुसार …..कहा जाता है कि …. समुद्र मंथन के दौरान जब देवतागण अमृतकलश को लेकर जा रहे थे… तो, उस अमृतकलश से छलक कर अमृत की कुछ बूंदें पृथ्वी के दूर्वा घास पर गिर गयी थी…. इसीलिए, दूर्वा घास अमर होते हैं…!

दूर्वा घास के बारे में .भगवान कृष्ण भी….. गीता ( 9-26 ) में कहते हैं कि :

जो भी भक्ति के साथ… मेरे पास में दूर्वा की एक पत्ती , एक फूल , एक फल या पानी के साथ मेरी पूजा करता है…. मैं उसे दिल से स्वीकार करता हूँ…!

खैर….

दूर्वा एक जंगली घास है….. और , आमतौर पर भारत में हर जगह पाया जाता है…. पर, कुछेक हिंदू घरों में इसकी खेती भी की जाती है …!

यह घास एक बारहमासी घास है और, तेजी से बढ़ती है.. तथा, गहरे हरे रंग की होती है …. और, इसके नोड में जड़ें होती है जो उलझे हुए गुच्छों के रूप में होती है …!

इस घास को पूरी तरह उखाड़ लेने के बाद भी…..यह वापस जल्द ही उग आती है….. और, इस तरह ..इसका बार-बार अंकुरित होना …. जीवन के उत्थान का एक शक्तिशाली प्रतीक , नवीकरण , पुनर्जन्म और प्रजनन क्षमता को परिलक्षित करता है…!

वैदिक काल से ही ….भगवान गणेश और विश्व पालक नारायण की पूजा में … दूर्वा घास , आवश्यक तौर पर इस्तेमाल किया जाता है…!

लेकिन…. जैसा कि हम सभी जानते हैं कि…. हमारे हिन्दू सनातन धर्म में ….. किसी भी परंपरा को बनाने से पीछे … उसका एक ठोस वैज्ञानिक आधार हुआ करता है….. और, दूर्वा घास के साथ भी यही है….!

पवित्र दूर्वा घास का आध्यात्मिक और औषधीय महत्व

यह प्रत्येक और प्राचीन हिंदू धर्म में हर रस्म न केवल आध्यात्मिक महत्व का है , लेकिन यह भी बहुत हमारे भौतिक जीवन में महत्व है कि यह भी रहते उदाहरणों में से एक है . हिंदू अनुष्ठान में प्राचीन काल से, दूर्वा घास एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. घास से बने छल्ले अक्सर या तो होमा की रस्म शुरू करने से पहले पहने जाते हैं – प्रसाद आग के लिए – और पूजा . घास प्रतिभागियों पर एक सफ़ाई प्रभाव माना जाता है . घास भी गणेश मंदिरों में एक भेंट के रूप में प्रयोग किया जाता है .

दूर्वा घास का औषधीय लाभ

दूर्वा घास या बरमूडा घास ( वानस्पतिक नाम Cynodan dactylon ) में कई औषधीय गुण पाए जाते हैं …. और, आधुनिक शोधों से यह स्थापित हो चूका है कि ….. दूर्वा घास का रस…. अपने आप में ही कई बीमारियों के लिए एक शानदार उपाय के तौर पर भारत में प्रयोग किया जाता है .

दूर्वा घास में गेहूँ की घास से भी जयादा …. क्रूड प्रोटीन , फाइबर , कैल्शियम , फास्फोरस और पोटाश मौजूद होता है…!

1) ख़ास बात यह है कि…..दूर्वा घास क्षारीय होता है…. और, अगर हमारा भोजन अधिक अम्लीय है तो…. ये दूर्वा घास … अपने क्षारीय गुण के कारण हमारे शरीर में अम्ल की तीव्रता को कम कर हमारे शरीर को ख़राब होने से बचाता है… ( ध्यान रहे कि पानी का PH 7 होता है ).

2) साथ ही….. दूर्वा घास … हमारे तंत्रिका तंत्र टन के लिए एक बहुत अच्छा टॉनिक है …. तथा, यह सभी उम्र के लिए उपयुक्त है …!

असहज महसूस करने पर….. प्रारंभिक चरण में इसे … कम मात्रा के साथ शुरू किया जा सकता है…!

3) सिर्फ इतना ही नहीं… बल्कि … ये दूर्वा घास … हमारे शरीर से विषाक्त पदार्थों को भी निकालता है…

और, जैसा कि …. आप सभी जानते हैं कि….कब्ज, बहुत सारी बीमारियों की जननी है …तो , इस हालत में …..दूर्वा घास का रस … अमृत के समान है … और, दूर्वा घास आपके शरीर से विषाक्त पदार्थों को दूर कर … हमारी रक्त प्रणाली शुद्ध कर देती है….!

शायद …. दूर्वा घास के इन्ही औषधीय गुणों के कारण … दूर्वा घास को पूजा-पाठ के माध्यम से …. इसे पूजनीय एवं हमारे जीवन का अभिन्न अंग बना दिया गया है…..!

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शिवपुराण के अनुसार बिल्वपत्र(bilvapatra according to shivpurana)

शिव पुराण के अनुसार शिवलिंग पर कई प्रकार की सामग्री फूल-पत्तियां चढ़ाई जाती हैं। इन्हीं में से सबसे महत्वपूर्ण है बिल्वपत्र। बिल्वपत्र से जुड़ी खास बातें जानने के बाद आप भी मानेंगे कि बिल्व का पेड बहुत चमत्कारी है-

पुराणों के अनुसार रविवार के दिन और द्वादशी तिथि पर बिल्ववृक्ष का विशेष पूजन करना चाहिए। इस पूजन से व्यक्ति से ब्रह्महत्या जैसे महापाप से भी मुक्त हो जाता है।

क्या आप जानते हैं कि बिल्वपत्र छ: मास तक बासी नहीं माना जाता। इसका मतलब यह है कि लंबे समय शिवलिंग पर एक बिल्वपत्र धोकर पुन: चढ़ाया जा सकता है।

आयुर्वेद के अनुसार बिल्ववृक्ष के सात पत्ते प्रतिदिन खाकर थोड़ा पानी पीने से स्वप्न दोष की बीमारी से छुटकारा मिलता है। इसी प्रकार यह एक औषधि के रूप में काम आता है।

शिवलिंग पर प्रतिदिन बिल्वपत्र चढ़ाने से सभी समस्याएं दूर हो जाती हैं। भक्त को जीवन में कभी भी पैसों की कोई समस्या नहीं रहती है।

शास्त्रों में बताया गया है जिन स्थानों पर बिल्ववृक्ष हैं वह स्थान काशी तीर्थ के समान पूजनीय और पवित्र है। ऐसी जगह जाने पर अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।

बिल्वपत्र उत्तम वायुनाशक, कफ-निस्सारक व जठराग्निवर्धक है। ये कृमि व दुर्गन्ध का नाश करते हैं। इनमें निहित उड़नशील तैल व इगेलिन, इगेलेनिन नामक क्षार-तत्त्व आदि औषधीय गुणों से भरपूर हैं। चतुर्मास में उत्पन्न होने वाले रोगों का प्रतिकार करने की क्षमता बिल्वपत्र में है।

ध्यान रखें इन कुछ तिथियों पर बिल्वपत्र नहीं तोडऩा चाहिए। ये तिथियां हैं चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, द्वादशी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति और सोमवार तथा प्रतिदिन दोपहर के बाद बिल्वपत्र नहीं तोडऩा चाहिए। ऐसा करने पर पत्तियां तोडऩे वाला व्यक्ति पाप का भागी बनता है।

शास्त्रों के अनुसार बिल्व का वृक्ष उत्तर-पश्चिम में हो तो यश बढ़ता है, उत्तर-दक्षिण में हो तो सुख शांति बढ़ती है और बीच में हो तो मधुर जीवन बनता है।

घर में बिल्ववृक्ष लगाने से परिवार के सभी सदस्य कई प्रकार के पापों के प्रभाव से मुक्त हो जाते हैं। इस वृक्ष के प्रभाव से सभी सदस्य यशस्वी होते हैं, समाज में मान-सम्मान मिलता है। ऐसा शास्त्रों में वर्णित है।

  • बिल्ववृक्ष के नीचे शिवलिंग पूजा से सभी मनोकामना पूरी होती है।
    – बिल्व की जड़ का जल अपने सिर पर लगाने से उसे सभी तीर्थों की यात्रा का पुण्य पा जाता है।
    – गंध, फूल, धतूरे से जो बिल्ववृक्ष की जड़ की पूजा करता है, उसे संतान और सभी सुख मिल जाते हैं।
    – बिल्ववृक्ष के बिल्वपत्रों से पूजा करने पर सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं।
    – बिल्व की जड़ के पास किसी शिव भक्त को घी सहित अन्न या खीर दान देता है, वह कभी भी धनहीन या दरिद्र नहीं होता। क्योंकि यह श्रीवृक्ष भी पुकारा जाता है। यानी इसमें देवी लक्ष्मी का भी वास होता है।

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नंदी की स्थापना गर्भ-गृह के बाहर क्यों ?

यह बात देखने में अटपटी लग सकती है कि शिव परिवार का महत्वपूर्ण और अभिन्न हिस्सा होने के बावजूद असीम शक्तियों के स्वामी नंदी शिव परिवार के साथ न होकर गर्भ-गृह के बाहर क्यों स्थापित होते हैं. इसके पीछे भी रहस्य है. नंदी गर्भ-गृह के बाहर खुली आंखों की अवस्था में समाधि की स्थिति में होते हैं, लेकिन उनकी दृष्टि शिव की ओर ही रहती है.

महाभारत के रचयिता के अनुसार खुली आंखों से ही आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है और इस आत्मज्ञान के सहारे जीवन मुक्ति पाना सरल हो जाता है. शिव दर्शन से पहले नंदी के दर्शन करना शास्त्रसम्मत है, ताकि व्यक्ति अपने अहंकार सहित समस्त बुराइयों से मुक्त हो जाए. मद, मोह, छल, कपट और ईर्ष्या जैसे अपने विकारों को नंदीश्वर के चरणों में त्याग कर वह शिव के पास जाए और उनकी कृपा प्राप्त करे.

नंदी का अर्थ है— प्रसन्नता यानी जिनके दर्शन मात्र से ही समस्त दुख दूर हो जाते हों. नंदी जीवन में प्रसन्नता और सफलता के प्रतीक हैं. ऋषि शिलाद के अयोनिज पुत्र नंदी शिव के ही अंश हैं, इसलिए अजर-अमर हैं.

नंदी के सींग विवेक और वैराग्य के प्रतीक हैं. दाहिने हाथ के अंगूठे और तजर्नी से नंदी के सींगों को स्पर्श करते हुए शिव के दर्शन किए जाते हैं. नंदी की कृपा के बिना शिव कृपा संभव नहीं. आपने मंदिरों में अक्सर देखा होगा कि कुछ लोग नंदी के कान के पास जाकर कुछ बुदबुदाते हैं. यह बुदबुदाना और कुछ नहीं, एक तरह से सिफारिश की गुहार लगाना ही है.

इससे भक्त नंदी के जरिये अपनी मनोकामना महादेव तक पहुंचाते हैं. भोले बाबा अपने नंदी की बात को कभी नहीं टालते.दरअसल नंदी, शिव और भक्तों के बीच उस सेतु का कार्य करते हैं, जिसके सहारे व्यक्ति शिव की शरण में पहुंच कर उनकी कृपा का पात्र हो जाता है.

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भारतीय संस्कृति की परम्पराओं में दीपक कलश स्वस्तिक और शंख का महत्व

किसी भी देश की संस्कृति उसकी आत्मा होती है। भारतीय संस्कृति की गरिमा अपार है। इस संस्कृति में आदिकाल से ऐसी परम्पराएँ चली आ रही हैं, जिनके पीछे तात्त्विक महत्त्व एवं वैज्ञानिक रहस्य छिपा हुआ है। उनमें से मुख्य निम्न प्रकार हैं ।

दीपक

मनुष्य के जीवन में चिह्नों और संकेतों का बहुत उपयोग है। भारतीय संस्कृति में मिट्टी के दिये में प्रज्जवलित ज्योत का बहुत महत्त्व है।

दीपक हमें अज्ञान को दूर करके पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने का संदेश देता है। दीपक अंधकार दूर करता है। मिट्टी का दीया मिट्टी से बने हुए मनुष्य शरीर का प्रतीक है और उसमें रहने वाला तेल अपनी जीवनशक्ति का प्रतीक है। मनुष्य अपनी जीवनशक्ति से मेहनत करके संसार से अंधकार दूर करके ज्ञान का प्रकाश फैलाये ऐसा संदेश दीपक हमें देता है। मंदिर में आरती करते समय दीया जलाने के पीछे यही भाव रहा है कि भगवान हमारे मन से अज्ञान रूपी अंधकार दूर करके ज्ञानरूप प्रकाश फैलायें। गहरे अंधकार से प्रभु! परम प्रकाश की ओर ले चल।

दीपावली के पर्व के निमित्त लक्ष्मीपूजन में अमावस्या की अन्धेरी रात में दीपक जलाने के पीछे भी यही उद्देश्य छिपा हुआ है। घर में तुलसी के क्यारे के पास भी दीपक जलाये जाते हैं। किसी भी नयें कार्य की शुरूआत भी दीपक जलाने से ही होती है। अच्छे संस्कारी पुत्र को भी कुल-दीपक कहा जाता है। अपने वेद और शास्त्र भी हमें यही शिक्षा देते हैं- हे परमात्मा! अंधकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमरता की ओर हमें ले चलो। ज्योत से ज्योत जगाओ इस आरती के पीछे भी यही भाव रहा है। यह है भारतीय संस्कृति की गरिमा।

कलश

भारतीय संस्कृति की प्रत्येक प्रणाली और प्रतीक के पीछे कोई-ना-कोई रहस्य छिपा हुआ है, जो मनुष्य जीवन के लिए लाभदायक होता है।

ऐसा ही प्रतीक है कलश। विवाह और शुभ प्रसंगों पर उत्सवों में घर में कलश अथवा घड़े वगैरह पर आम के पत्ते रखकर उसके ऊपर नारियल रखा जाता है। यह कलश कभी खाली नहीं होता बल्कि दूध, घी, पानी अथवा अनाज से भरा हुआ होता है। पूजा में भी भरा हुआ कलश ही रखने में आता है। कलश की पूजा भी की जाती है।

कलश अपना संस्कृति का महत्त्वपूर्ण प्रतीक है। अपना शरीर भी मिट्टी के कलश अथवा घड़े के जैसा ही है। इसमें जीवन होता है। जीवन का अर्थ जल भी होता है। जिस शरीर में जीवन न हो तो मुर्दा शरीर अशुभ माना जाता है। इसी तरह खाली कलश भी अशुभ है। शरीर में मात्र श्वास चलते हैं, उसका नाम जीवन नहीं है, परन्तु जीवन में ज्ञान, प्रेम, उत्साह, त्याग, उद्यम, उच्च चरित्र, साहस आदि हो तो ही जीवन सच्चा जीवन कहलाता है। इसी तरह कलश भी अगर दूध, पानी, घी अथवा अनाज से भरा हुआ हो तो ही वह कल्याणकारी कहलाता है। भरा हुआ कलश मांगलिकता का प्रतीक है।

भारतीय संस्कृति ज्ञान, प्रेम, उत्साह, शक्ति, त्याग, ईश्वरभक्ति, देशप्रेम आदि से जीवन को भरने का संदेश देने के लिए कलश को मंगलकारी प्रतीक मानती है। भारतीय नारी की मंगलमय भावना का मूर्तिमंत प्रतीक यानि स्वस्तिक।

स्वस्तिक

स्वस्तिक शब्द मूलभूत सु+अस धातु से बना हुआ है।
सु का अर्थ है अच्छा, कल्याणकारी,मंगलमय और अस का अर्थ है अस्तित्व, सत्ता अर्थात कल्याण की सत्ता और उसका प्रतीक है स्वस्तिक। किसी भी मंगलकार्य के प्रारम्भ में स्वस्तिमंत्र बोलकर कार्य की शुभ शुरूआत की जाती है।

स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदा:।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।

महान कीर्ति वाले इन्द्र हमारा कल्याण करो, विश्व के ज्ञानस्वरूप पूषादेव हमारा कल्याण करो। जिसका हथियार अटूट है ऐसे गरूड़ भगवान हमारा मंगल करो। बृहस्पति हमारा मंगल करो।
यह आकृति हमारे ऋषि-मुनियों ने हजारों वर्ष पूर्व निर्मित की है। एकमेव और अद्वितीय ब्रह्म विश्वरूप में फैला, यह बात स्वस्तिक की खड़ी और आड़ी रेखा स्पष्ट रूप से समझाती हैं। स्वस्तिक की खड़ी रेखा ज्योतिर्लिंग का सूचन करती है और आड़ी रेखा विश्व का विस्तार बताती है। स्वस्तिक की चार भुजाएँ यानि भगवान विष्णु के चार हाथ। भगवान श्रीविष्णु अपने चारों हाथों से दिशाओं का पालन करते हैं।

स्वस्तिक अपना प्राचीन धर्मप्रतीक है। देवताओं की शक्ति और मनुष्य की मंगलमय कामनाएँ इन दोनों के संयुक्त सामर्थ्य का प्रतीक यानि स्वस्तिक। स्वस्तिक यह सर्वांगी मंगलमय भावना का प्रतीक है।

जर्मनी में हिटलर की नाजी पार्टी का निशान स्वस्तिक था। क्रूर हिटलर ने लाखों यहूदियों को मार डाला। वह जब हार गया तब जिन यहूदियों की हत्या की जाने वाली थी वे सब मुक्त हो गये। तमाम यहूदियों का दिल हिटलर और उसकी नाजी पार्टी के लिए तीव्र घृणा से युक्त रहे यह स्वाभाविक है। उन दुष्टों का निशान देखते ही उनकी क्रूरता के दृश्य हृदय को कुरेदने लगे यह स्वाभाविक है। स्वस्तिक को देखते ही भय के कारण यहूदी की जीवनशक्ति क्षीण होनी चाहिए। इस मनोवैज्ञानिक तथ्य के बावजूद भी डायमण्ड के प्रयोगों ने बता दिया कि स्वस्तिक का दर्शन यहूदी की भी जीवनशक्ति को बढ़ाता है। स्वस्तिक का शक्तिवर्धक प्रभाव इतना प्रगाढ़ है।

अपनी भारतीय संस्कृति की परम्परा के अनुसार विवाह-प्रसंगों, नवजात शिशु की छठ्ठी के दिन, दीपावली के दिन, पुस्तक-पूजन में, घर के प्रवेश-द्वार पर, मंदिरों के प्रवेशद्बार पर तथा अच्छे शुभ प्रसंगों में स्वस्तिक का चिह्न कुमकुस से बनाया जाता है एवं भावपूर्वक ईश्वर से प्रार्थना की जाती है कि हे प्रभु! मेरा कार्य निर्विघ्न सफल हो और हमारे घर में जो अन्न, वस्त्र, वैभव आदि आयें वह पवित्र बनें।

शंख –

शंख दो प्रकार के होते हैं- दक्षिणावर्त और वामवर्त। दक्षिणावर्त शंख दैवयोग से ही मिलता है। यह जिसके पास होता है उसके पास लक्ष्मीजी निवास करती हैं।
यह त्रिदोषनाशक, शुद्ध और नवनिधियों में एक है। ग्रह और गरीबी की पीड़ा, क्षय, विष, कृशता और नेत्ररोग का नाश करता है। जो शंख श्वेत चंद्रकांत मणि जैसा होता है वह उत्तम माना जाता है। अशुद्ध शंख गुणकारी नहीं है। उसे शुद्ध करके ही दवा के उपयोग मे लाया जा सकता है।

भारत के महान वैज्ञानिक श्री जगदीशचन्द्र बसु ने सिद्ध करके दिखाया कि शंख बजाने से जहाँ तक उसकी ध्वनि पहुँचती है वहाँ तक रोग उत्पन्न करने वाले हानिकारक जीवाणु (बैक्टीरिया) नष्ट हो जाते हैं। इसी कारण अनादि काल से प्रातःकाल और संध्या के समय मंदिरों में शंख बजाने का रिवाज चला आ रहा है।

संध्या के समय शंख बजाने से भूत-प्रेत-राक्षस आदि भाग जाते हैं। संध्या के समय हानिकारक जीवाणु प्रकट होकर रोग उत्पन्न करते हैं। उस समय शंख बजाना आरोग्य के लिए फायदेमंद है।

गूँगेपन में शंख बजाने से एवं तुतलेपन, मुख की कांति के लिए, बल के लिए, पाचनशक्ति के लिए और भूख बढ़ाने के लिए, श्वास-खाँसी,जीर्णज्वर और हिचकी में शंखभस्म का औषधि की तरह उपयोग करने से लाभ होता है।

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FAQ on Hinduism

प्रश्न- पुराकल्पे तु नारीणां मौञ्जीबन्धनमिष्यते। अध्यापनं च वेदानां गायत्रीवचनं तथा॥ (वेदार्थ कल्पलता, भूमिका पृष्ठ ११६-११८)
संस्कृत श्लोके व्याख्या -पृष्ठ ३४-३८

उत्तर -शास्त्रकारों ने स्पष्ट कहा है कि ” मनुस्मृति के विपरीत धर्मादि का प्रतिपादन करने वाली स्मृति श्रेष्ठ नहीं है क्योंकि वेदार्थ के अनुसार रचित होने के कारण मनु स्मृति की ही प्रधानता है –
मनुस्मृति विरुद्धा या सा स्मृतिर्न प्रशस्यते |
वेदार्थोपनिबद्धत्त्वात् प्राधान्यो हि मनोः स्मृतेः || (-मनुस्मृति भूमिका पृष्ठ ६ )
तैत्तिरीय संहिता एवं तांड्य-महाब्राह्मण के अनुसार मनु ने जो कुछ कहा है , वह सब औषध है –
यद् वै किंच मनुरवदत् तद् भेषजम् | (-तै० सं० २/२/१०२)
मनुर्वै यत् किंचावदत् तत् भैषाज्यायै | (- ता० २३/१६/१७ )
मनु से पैदा होने के कारण हम मानव कहलाते हैं | ” मानव्यो हि प्रजाः ” | मनु और शतरूपा की कथा विश्रुत ही है | ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के ८० वें सूक्त में यह प्रार्थना है कि ” हम मनु के मार्ग से कहीं गिर ना जाएँ ” , फिर वहीं यह भी कहा गया है कि भारतवर्ष में सबसे पहले मनु ने ही यज्ञ किया |-
यामथर्वा मनुष्पिता दध्यङ् धियमत्नतः |
तस्मिन् ब्रह्माणि पूर्वथेन्द्र उक्था समग्मतार्चन्ननु स्वराज्यम् || (-ऋग्वेद १/८०/१५ )
अतः मनु- स्मृति का सर्वतो प्राबल्य सुस्पष्ट है |
अस्तु, अब स्त्रियों के यज्ञोपवीत से सम्बन्धित उक्त प्रसंग में मनु -स्मृति का निर्णय देखिये –
शरीर संस्कार हेतु( प्रसंगक्रमेण प्राप्त) पूर्वोक्त समय और क्रम से स्त्रियों के सब संस्कारों को बिना मन्त्र के ही करना चाहिए-
अमन्त्रिका तु कार्येयं स्त्रीणामावृदशेषतः |
संस्कारार्थे शरीरस्य यथाकालं यथाक्रमम् || (-मनु० २/६६)
फिर इसी श्लोक के आगे मनु कहते हैं कि स्त्रियों का विवाहसंस्कार ही वैदिकसंस्कार(यज्ञोपवीत ) , पति-सेवा ही गुरुकुल-निवास(वेदाध्ययानरूप) और गृहकार्य ही अग्निहोत्रकर्म बताया गया है –
वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारों वैदिकः स्मृतः |
पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोsग्नि परिक्रिया || (- मनु० २/६७)
इस प्रकार मनु-स्मृति के प्रबल प्रमाणों से स्त्रियों का तथाकथित यज्ञोपवीतादि-कर्म -निषेध स्वतः स्पष्ट हो जाता है |
अस्तु ||
……………..इसी प्रकार से इस नारियों के तथाकथित यज्ञोपवीतकार्य रूप सिद्धान्त की धज्जियां उड़ाता हुआ दूसरा उत्तर सुनिए –
वेद से भिन्न जो स्मृतियां हैं उनका प्रामाण्य वेदमूलकत्वेन ही है ,वेदविरुद्ध होने पर वे अप्रमाण की कोटि में चली जाती हैं –ये दोनो सिद्धान्त क्रमशः ” स्मृत्यधिकरण “– 1/3/1/2, ” विरोधाधिकरण “– 1/3/1/3-4, पूर्वमीमांसा से सर्वमान्य हैं । ” विरोधे त्वनपेक्ष्यं स्यादसति ह्यनुमानम् ” – 1/3/1/3, सूत्र तो इस विषय में अति प्रसिद्ध है । अतः अपौरुषेय वेद–वसन्ते ब्राह्मणमपनयीत,ग्रीष्मे राजन्यं , शरदि वैश्यम् “ से विरुद्ध ” पुराकल्पे कुमारीणां मौञ्जीबन्धनमिष्यते ” स्मृति सर्वथा अप्रामाणिक है । इससे वेदप्रतिपादित सिद्धान्त को सञ्कुचित नही किया जा सकता । अतः स्त्रियों का उपनयन किसी भी कल्प में नही होता है और सभी कल्पों में पुंस्त्वविशिष्टों का ही उपनयन वैदिक सिद्धात है । इससे यह भी सिद्ध होता है कि जब उनका उपनयन ही नही तब वेदाधिकार न होने से वेदमन्त्रसाध्य यज्ञादि कर्मों के आचार्यत्व का वे निर्वहन भी नही कर सकतीं । हां पति के साथ वे प्रत्येक कार्य का सम्पादन करेंगी । पत्नी के विना पति किसी यज्ञादि कर्म का अनुष्ठान नही कर सकता ;क्योंकि आज्यावेक्षण जैसे कर्म यदि नही हुए तो अंगवैकल्य से कर्म फलप्रद नही हो सकता । –यह तथ्य पूर्वमीमांसा में –6/1/4/8से 20वें सूत्र तक विस्तार से वर्णित है ।
इसप्रकार स्त्रियों का यज्ञोपवीतादि संस्कार करना पूर्णतः शास्त्रविरुद्ध कृत्य है | पतिसेवा रूप स्वधर्मपालन द्वारा इन वैदिक मर्यादाओं के परम आदेशदाता परमपिता परमेश्वर की अर्चना करना – यही स्त्रियों का वैदिकधर्म है |
एकहि धर्म एक व्रत नेमा | काय वचन मन पतिपद प्रेमा ||

प्रश्न- वेदों में वर्णित प्रतीकोपासना(मूर्ति -पूजा ) करते समय क्या प्रतीक (मूर्ति ) में आत्मभाव करना चाहिए ?

उत्तर- न प्रतीके न हि सः (-ब्रह्मसूत्र ४/१/४)

प्रतीके = प्रतीक में न= आत्मभाव नहीं करना चाहिए, हि = क्योंकि सः = वह न = उपासक का आत्मा नहीं है |

व्याख्या :- मन ही ब्रह्म है , इस प्रकार उपासना करे ( छा० उ० ३/१८/१), आकाश ब्रह्म है (छा० उ० ३/१८/१ ),आदित्य ब्रह्म है, यह आदेश है (छा० ३/१९/१ ) इत्यादि जो भिन्न-भिन्न प्रकार के पदार्थों से ब्रह्म की उपासना करने का कथन है , वही प्रतीकोपासना है | वहां प्रतीकों से उपासना करते समय प्रतीक में आत्मभाव नहीं करना चाहिए क्योंकि वह उपासक का अंतरात्मा नहीं है | जैसे मूर्ति आदि में भगवान की भावना करके उपासना की जाती है ,उसी प्रकार मन आदि प्रतीक में भी उपासना करने का विधान है |
भाव यह है कि पूर्वोक्त मन, आकाश,आदित्य आदि को प्रतीक बनाकर उसमे भगवान के उद्देश्य से की हुई जो उपासना है , उसे परम दयालु पुरुषोत्तम परमात्मा अपनी ही उपासना मानकर ग्रहण करते हैं और उपासक को उसकी भावना के अनुसार फल भी प्रदान करते हैं |

प्रश्न – प्रतीकोपासना करने वाले को प्रतीक में ब्रह्म भाव करना चाहिए वा ब्रह्म में उस प्रतीक का भाव करना चाहिए ?

उत्तर- ब्रह्मदृष्टिरुत्कर्षात् (-ब्रह्मसूत्र ४/१/५)

उत्कर्षात् = ब्रह्म ही श्रेष्ठ है , इसलिए , ब्रह्मदृष्टिः = प्रतीक में ब्रह्म दृष्टि करनी चाहिए |
(क्योंकि निकृष्ट वस्तु में ही उत्कृष्ट भावना यही न्यायसंगत है , उत्कृष्ट में निकृष्ट न्यायसंगत नहीं | )

व्याख्या :- सर्वंत्र ब्रह्मभाव प्राप्त होने से पूर्व तक अत्यन्त उपादेय प्रतीकोपासना (मूर्ति-पूजा ) काल में प्रतीक में ही ब्रह्मदृष्टि उपयुक्त है ना कि ब्रह्म में प्रतीकदृष्टि | ब्रह्म में प्रतीक ( मूर्ति) का दर्शन ना करके प्रतीक ( मूर्ति) में ही ब्रह्म का दर्शन -यह अधिक न्यायसंगत है क्योंकि ब्रह्म ही उत्कृष्ट है और उत्कृष्ट को ही निकृष्ट में देखना अधिक न्यायसंगत होता है , निकृष्ट को उत्कृष्ट में देखना नहीं |
…………………इस प्रकारस्पष्ट है कि प्रतीक में ब्रह्मभाव करके उपासना करने से वह परब्रह्म-परमात्मा उस उपासना को अपनी ही उपासना मानते हैं |

प्रश्न – श्री आद्य शंकराचार्य जी ने भक्ति से भी श्रेष्ठ वैराग्य को बतलाया है जबकि वैराग्य को भक्ति देवी का पुत्र कहा गया है | इसका क्या रहस्य है ?

उत्तर – देखिये वैराग्य को भक्ति देवी का पुत्र कहना भक्ति के साफल्य का सूचन है | इसीलिये उस प्रकरण में भी बिना वैराग्य के भक्ति निराशा के सागर में गोते लगाती हुई प्रदर्शित होती हैं | मोक्ष कारण सामग्रियों में भी भक्ति का सर्वोत्कर्ष अवश्य है तथापि सर्वोत्तम वस्तु वही होती है जिसके आने पर पुरुष निर्भय हो जाता है और फिर उस वस्तु के प्रभाव से उसे किसी के आश्रय की आवश्यक्ता नहीं होती | एक भक्त को भी सदैव अपने उपास्य के प्रति भक्ति में कमी अथवा त्रुटी रहने का भय बना रहता है | केवल यही नहीं , आप श्री अर्जुन जी का जीवन देखिये इतने उत्तम भक्त थे किन्तु कहते हैं – “वेपथुश्च शरीरो मे रोमहर्षश्च जायते | ” यानी मेरा शरीर भय से कांप रहा है अर्थात् भक्त होने के बाद भी भय बना है जबकि श्री भगवान बार बार उसे समझाते हैं – “भक्तोsसि मे” , “प्रियोचेति ” यानी तू मेरा भक्त है ; , तू मेरा प्रिय है ;…… पर ये सब होने के बाद भी फिर भी श्री अर्जुन जी में भय आ ही जाता है |

इसी प्रकार संसार की प्रत्येक उत्तम वस्तु में भय बना है , यथा –

भोगों में रोगादि का, कुल में गिरनेका, धन में राजाका, मान में दैन्य का, बल में शत्रु का, रूप में बुढ़ापे का, शास्त्र में विवाद का,  गुण में दुर्जन का और शरीर में मृत्यु का…..आदि-आदि |

………. इस प्रकार इन सब उत्तम पदार्थों में भी इनका भय सदा बना रहता है किन्तु वैराग्य ही एकमात्र ऐसी उत्तम वस्तु है , जिसके प्राप्त होने पर स्वतः निर्भयता प्राप्त हो जाती है ।
…….इसीलिये श्री भर्तृहरि जी कहते हैं –

भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम् ।
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं
सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ॥

प्रश्न- भक्ति और ज्ञान में कौन श्रेष्ठ है ? शास्त्रों में कहीं भक्ति का माहात्म्य मिलता है तो कहीं ज्ञान का … इसका क्या रहस्य है ???

उत्तर – भक्ति और ज्ञान ये दोनों शब्द प्रकरण के अनुसार विविध अर्थों में प्रयुक्त होते हैं |
भज धातु सेवार्थक भी है और प्राप्त्यर्थक भी इस प्रकार दोनों प्रकार से अर्थ संभव हैं | इसलिए जब भक्ति सेवार्थ में प्रयुक्त होती है , तब उसे उपासनात्मक समझना चाहिए और जब प्राप्त्यर्थक हो तो ब्रह्मभाव की प्राप्ति अर्थ समझना चाहिए |
शास्त्रों में दोनों के पृथक् -पृथक् माहात्म्य प्राप्ति का रहस्य यह है कि यदि ज्ञान शब्द का अर्थ शास्त्र ज्ञान है , तब तो भक्ति (उपासना ) श्रेष्ठ है और यदि ज्ञान का आत्मज्ञान अर्थ है तब भक्ति (उपासना ) से ज्ञान (आत्मज्ञान ) श्रेष्ठ है |
और जहां पर ज्ञान और भक्ति दोनों को बराबर बताया गया है वहां भक्ति का अर्थ आत्मज्ञान समझना चाहिए |

अक्सर अनेकों लोग शास्त्रों के एक पक्ष को उद्धृत कर स्वयं भी भ्रमित होते हैं और औरों को भी भ्रमित करते हैं , और अक्सर हमारे सनातन धर्म में इसी भ्रम की परम्परा का निर्वाह करते भी दृष्टिगोचर होते हैं |
…….ऐसे लोगों से सावधान रहना चाहिए |

– शंकर सन्देश

प्राचीन भारतीय गोत्र प्रणाली

 

गोत्र शब्द का अर्थ होता है वंश/कुल (lineage)
गोत्र प्रणाली का मुख्या उद्देश्य किसी व्यक्ति को उसके मूल प्राचीनतम व्यक्ति से
जोड़ना है।
उदहारण के लिए यदि को व्यक्ति कहे की उसका गोत्र भरद्वाज है तो इसका अभिप्राय
यह है की उसकी पीडी वैदिक ऋषि भरद्वाज से प्रारंभ होती है या ऐसा समझ लीजिये
की वह व्यक्ति ऋषि भरद्वाज की पीढ़ी में जन्मा है ।
इस प्रकार गोत्र एक व्यक्ति के पुरुष वंश में मूल प्राचीनतम व्यक्ति को दर्शाता है.
The Gotra is a system which associates a person with his most ancient
or root ancestor in an unbroken male lineage.
ब्राह्मण स्वयं को निम्न आठ ऋषियों (सप्तऋषि +अगस्त्य ) का वंशज मानते है ।
जमदग्नि,अत्रि ,गौतम,कश्यप,वशिष्ठ ,विश्वामित्र,भरद्वाज,अगस्त्य
Brahmins identify their male lineage by considering themselves to be the descendants of the 8 great Rishis ie Saptarshis (The Seven Sacred Saints)
Agastya
उपरोक्त आठ ऋषि मुख्य गोत्रदायक ऋषि कहलाते है ।
तथा इसके पश्चात जितने भी अन्य गोत्र अस्तित्व में आये है वो इन्ही आठ मे से
एक से फलित हुए है और स्वयं के नाम से गौत्र स्थापित किया .
उदा० => अंगीरा की ८ वीं पीडी में कोई ऋषि क हुए तो परिस्थतियों के अनुसार उनके
नाम से गोत्र चल पड़ा।
और इनके वंशज क गौत्र कहलाये किन्तु क गौत्र स्वयं अंगीरा से उत्पन्न हुआ है ।
इस प्रकार अब तक कई गोत्र अस्तित्व में है ।
किन्तु सभी का मुख्य गोत्र आठ मुख्य गोत्रदायक ऋषियों मेसे ही है ।
All other Brahmin Gotras evolved from one of the above Gotras.
What this means is that the descendants of these Rishis over time
started their own Gotras.
All the established Gotras today,each of them finally trace back to
one of the root 8 Gotrakarin Rishi.
गौत्र प्रणाली में पुत्र का महत्व | Importance of Son in the Gotra System:
गौत्र द्वारा पुत्र व् उसे वंश की पहचान होती है ।
यह गोत्र पिता से स्वतः ही पुत्र को प्राप्त होता है ।
परन्तु पिता का गोत्र पुत्री को प्राप्त नही होता ।
उदा ० माने की एक व्यक्ति का गोत्र अंगीरा है और उसका एक पुत्र है ।
और यह पुत्र एक कन्या से विवाह करता है जिसका पिता कश्यप गोत्र से है ।
तब लड़की का गोत्र स्वतः ही गोत्र अंगीरा में परिवर्तित हो जायेगा जबकि कन्या
का पिता कश्यप गोत्र से था ।
इस प्रकार पुरुष का गोत्र अपने पिता का ही रहता है और स्त्री का पति के
अनुसार होता है न की पिता के अनुसार ।
यह हम अपने देनिक जीवन में देखते ही है,कोई नई बात नही !
परन्तु ऐसा क्यू ?
पुत्र का गोत्र महत्वपूर्ण और पुत्री का नही ।
क्या ये कोई अन्याय है ??
बिलकुल नही !!
देखें कैसे :
गुणसूत्र का अर्थ है वह सूत्र जैसी संरचना जो सन्तति में माता पिता के गुण पहुँचाने
का कार्य करती है ।
हमने स्कूल में पढ़ा था की मनुष्य में २ ३ जोड़े गुणसूत्र होते है ।
प्रत्येक जोड़े में एक गुणसूत्र माता से तथा एक गुणसूत्र पिता से आता है ।
इस प्रकार प्रत्येक कोशिका में कुल ४ ६ गुणसूत्र होते है जिसमे २ ३ माता से व् २ ३
पिता से आते है ।
जैसा की कुल जोड़े २ ३ है ।
इन २ ३ में से एक जोड़ा लिंग गुणसूत्र कहलाता है यह होने वाली संतान का लिंग
निर्धारण करता है अर्थात पुत्र होगा अथवा पुत्री ।
यदि इस एक जोड़े में गुणसूत्र xx हो तो सन्तति पुत्री होगी और यदि xy हो तो पुत्र होगा ।
परन्तु दोनों में x सामान है ।
जो माता द्वारा मिलता है और शेष रहा वो पिता से मिलता है ।
अब यदि पिता से प्राप्त गुणसूत्र x हो तो xx मिल कर स्त्रीलिंग निर्धारित करेंगे और
यदि पिता से प्राप्त y हो तो पुर्लिंग निर्धारित करेंगे ।
इस प्रकार x पुत्री के लिए व् y पुत्र के लिए होता है ।
इस प्रकार पुत्र व् पुत्री का उत्पन्न होना पूर्णतया पिता से प्राप्त होने वाले x अथवा y
गुणसूत्र पर निर्भर होता है माता पर नही ।
अब यहाँ में मुद्दे से हट कर एक बात और बता दूँ की जैसा की हम जानते है की पुत्र
की चाह रखने वाले परिवार पुत्री उत्पन्न हो जाये तो दोष बेचारी स्त्री को देते है जबकि
अनुवांशिक विज्ञानं के अनुसार जैसे की अभी अभी उपर पढ़ा है की “पुत्र व् पुत्री का
उत्पन्न होना पूर्णतया पिता से प्राप्त होने वाले x अथवा y गुणसूत्र पर निर्भर होता है
न की माता पर ”
फिर भी दोष का ठीकरा स्त्री के माथे मांड दिया जाता है ।
है ना मूर्खता !
अब एक बात ध्यान दें की स्त्री में गुणसूत्र xx होते है और पुरुष में xy होते है ।
इनकी सन्तति में माना की पुत्र हुआ (xy गुणसूत्र). इस पुत्र में y गुणसूत्र पिता से
ही आया यह तो निश्चित ही है क्यू की माता में तो y गुणसूत्र होता ही नही !
और यदि पुत्री हुई तो (xx गुणसूत्र). यह गुण सूत्र पुत्री में माता व् पिता दोनों से आते है ।
१. xx गुणसूत्र ;-
xx गुणसूत्र अर्थात पुत्री . xx गुणसूत्र के जोड़े में एक x गुणसूत्र पिता से तथा दूसरा x
गुणसूत्र माता से आता है ।
तथा इन दोनों गुणसूत्रों का संयोग एक गांठ सी रचना बना लेता है जिसे Crossover
कहा जाता है ।
२. xy गुणसूत्र ;-
xy गुणसूत्र अर्थात पुत्र . पुत्र में y गुणसूत्र केवल पिता से ही आना संभव है क्यू की माता
में y गुणसूत्र है ही नही ।
और दोनों गुणसूत्र असमान होने के कारन पूर्ण Crossover नही होता केवल ५ %
तक ही होता है । और ९ ५ % y गुणसूत्र ज्यों का त्यों (intact) ही रहता है ।
तो महत्त्वपूर्ण y गुणसूत्र हुआ । क्यू की y गुणसूत्र के विषय में हम निश्चिंत है की
यह पुत्र में केवल पिता से ही आया है ।
बस इसी y गुणसूत्र का पता लगाना ही गौत्र प्रणाली का एकमात्र उदेश्य है जो
हजारों/लाखों वर्षों पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था ।
वैदिक गोत्र प्रणाली य गुणसूत्र पर आधारित है अथवा y गुणसूत्र को ट्रेस करने का
एक माध्यम है।
उदहारण के लिए यदि किसी व्यक्ति का गोत्र कश्यप है तो उस व्यक्ति में विधमान y
गुणसूत्र कश्यप ऋषि से आया है या कश्यप ऋषि उस y गुणसूत्र के मूल है ।
चूँकि y गुणसूत्र स्त्रियों में नही होता यही कारन है की विवाह के पश्चात स्त्रियों को
उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है ।
वैदिक/ हिन्दू संस्कृति में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित होने का मुख्य कारन यह है की
एक ही गोत्र से होने के कारन वह पुरुष व् स्त्री भाई बहिन कहलाये क्यू की उनका
पूर्वज एक ही है ।
परन्तु ये थोड़ी अजीब बात नही ? की जिन स्त्री व् पुरुष ने एक दुसरे को कभी देखा
तक नही और दोनों अलग अलग देशों में परन्तु एक ही गोत्र में जन्मे,
तो वे भाई बहिन हो गये .?
इसका एक मुख्य कारन एक ही गोत्र होने के कारन गुणसूत्रों में समानता का भी है ।
आज की आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार यदि सामान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों
में विवाह हो तो उनकी सन्तति आनुवंशिक विकारों का साथ उत्पन्न होगी ।
ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक सी विचारधारा,पसंद, व्यवहार आदि में कोई
नयापन नहीं होता। ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है।
विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है कि सगौत्र शादी करने पर
अधिकांश ऐसे दंपत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात् मानसिक विकलांगता,
अपंगता, गंभीर रोग आदि जन्मजात ही पाए जाते हैं।
शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगौत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया था।
first cousin marriage increases the risk of passing on genetic abnormalities.
But for Bittles,35 years of research on the health effects of cousin marriage
have led him to believe that the risks of marrying a cousin have been greatly exaggerated.
There’s no doubt that children whose parents are close biological relatives
are at a greater average risk of inheriting genetic disorders,
Bittles writes.
Studies of cousin marriages worldwide suggest that the risks of illness
and early death are three to four percent higher than in the rest of the
population.

http://www.eurekalert.org/pub_re…/2012-04/nesc-wnm042512.php

http://www.huffingtonpost.com/…/why-ban-cousin-marriages_b_…

http://www.thenews.com.pk/Todays-News-9-160665-First-cousin…

अब यदि हम ये जानना चाहे की यदि चचेरी,ममेरी,मौसेरी, फुफेरी आदि बहिनों से विवाह
किया जाये तो क्या क्या नुकसान हो सकता है ।
इससे जानने के लिए आप उन समुदाय के लोगो के जीवन पर गौर करें जो अपनी चचेरी,
ममेरी,मौसेरी,फुफेरी बहिनों से विवाह करने में १ सेकंड भी नही लगाते ।
फलस्वरूप उनकी संताने बुद्धिहीन,मुर्ख,प्रत्येक उच्च आदर्श व् धर्म (जो धारण करने
योग्य है ) से नफरत,मनुष्य-पशु-पक्षी आदि से प्रेमभाव का आभाव आदि जैसी
मानसिक विकलांगता अपनी चरम सीमा पर होती है ।
या यूँ कहा जाये की इनकी सोच जीवन के हर पहलु में विनाशकारी (destructive) व्
निम्नतम होती है तथा न ही कोई रचनात्मक (constructive), सृजनात्मक,
कोई वैज्ञानिक गुण,देश समाज के सेवा व् निष्ठा आदि के भाव होते है ।
यही इनके पिछड़ेपन का प्रमुख कारण होता है ।
उपरोक्त सभी अवगुण गुणसूत्र,जीन व् डीएनए आदि में विकार के फलस्वरूप ही
उत्पन्न होते है।
इन्हें वर्ण संकर (Genetic Mutations) भी कह सकते है !!
ऐसे लोग (?) अक्ल के पीछे लठ लेकर दौड़ते है ।
यदि आप कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के जानकार है तो गौत्र प्रणाली को आधुनिक सॉफ्टवेयर
निर्माण की भाषा ऑब्जेक्ट ओरिएंटेड प्रोग्रामिंग (Object Oriented Programming :
oop) के माध्यम से भी समझ सकते है ।
Object Oriented Programming के inheritance नामक तथ्य को देखें ।
हम जानते है की inheritance में एक क्लास दूसरी क्लास के function, variable
आदि को प्राप्त कर सकती है ।
ऊपर फोटो में एक चित्र मल्टीप्ल इनहेरिटेंस का है
इसमें क्लास b व् c क्लास a के function, variable को प्राप्त (inherite) कर रही है ।
और क्लास d क्लास b,c दोनों के function, variable को एक साथ प्राप्त (inherite)
कर रही है।
अब यहाँ भी हमें एक समस्या का सामना करना पड़ता है जब क्लास b व् क्लास c में
दो function या variable एक ही नाम के हो !
उदा ० यदि माने की क्लास b में एक function abc नाम से है और क्लास c में भी
एक function abc नाम से है।
जब क्लास d ने क्लास b व् c को inherite किया तब वे एक ही नाम के दोनों function
भी क्लास d में प्रविष्ट हुए ।
जिसके फलस्वरूप दोनों functions में टकराहट के हालात पैदा हो गये ।
इसे प्रोग्रामिंग की भाषा में ambiguity (अस्पष्टता) कहते है ।

जिसके फलस्वरूप प्रोग्राम में error उत्पन्न होता है ।
अब गौत्र प्रणाली को समझने के लिए केवल उपरोक्त उदा ० में क्लास को स्त्री व् पुरुष
समझिये , inherite करने को विवाह,समान function, variable को समान गोत्र तथा
ambiguity को आनुवंशिक विकार ।
ऋषियों के अनुसार कई परिस्थतियाँ ऐसी भी है जिनमे गोत्र भिन्न होने पर भी विवाह नही होना चाहिए ।
देखे कैसे :
असपिंडा च या मातुरसगोत्रा च या पितु:
सा प्रशस्ता द्विजातिनां दारकर्मणि मैथुने ….मनुस्मृति ३ /५
-जो कन्या माता के कुल की छः पीढ़ियों में न हो और पिता के गोत्र की न हो,
उस कन्या से विवाह करना उचित है ।
When the man and woman do not belong to six generations from the
maternal side and also do not come from the father’s lineage,marriage
between the two is good.
-Manusmriti 3/5
उपरोक्त मंत्र भी पूर्णतया वैज्ञानिक तथ्य पर आधारित है देखें कैसे :
वह कन्या पिता के गोत्र की न हो अर्थात लड़के के पिता के गोत्र की न हो ।
लड़के का गोत्र = पिता का गोत्र
अर्थात लड़की और लड़के का गोत्र भिन्न हो।
माता के कुल की छः पीढ़ियों में न हो ।
अर्थात पुत्र का अपनी माता के बहिन के पुत्री की पुत्री की पुत्री …………६ पीढ़ियों तक
विवाह वर्जित है।
Manusmriti 3/5

वैदिक काल गणना

वैदिक समय मापन, (काल व्यवहार) का सार निम्न लिखित है :-
लघुगणकीय पैमाने पर, वैदिक समय इकाइयाँ
नाक्षत्रीय मापन :-
एक परमाणु मानवीय चक्षु के पलक झपकने का समय = लगभग 4 सैकिण्ड
एक विघटि = ६ परमाणु = (विघटि) २४ सैकिण्ड
एक घटि या घड़ी = 60 विघटि = २४ मिनट
एक मुहूर्त = 2 घड़ियां = 48 मिनट
एक नक्षत्र अहोरात्रम या नाक्षत्रीय दिवस = 30 मुहूर्त (दिवस का आरम्भ सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक, ना कि अर्धरात्रि से)
10 पलक झपकने का समय = 1 काष्ठा
35 काष्ठा= 1 कला
20 कला= 1 मुहूर्त
10 मुहूर्त= 1 दिवस (24 घंटे)
३0 दिवस= 1 मास
6 मास= 1 अयन
2 अयन= 1 वर्ष, = १ दिव्य दिवस
छोटी वैदिक समय इकाइयाँ :-
एक तॄसरेणु = 6 ब्रह्माण्डीय ‘.
एक त्रुटि = 3 तॄसरेणु, या सैकिण्ड का 1/1687.5 भाग
एक वेध =100 त्रुटि.
एक लावा = 3 वेध
एक निमेष = 3 लावा, या पलक झपकना
एक क्षण = 3 निमेष.
एक काष्ठा = 5 क्षण, = 8 सैकिण्ड
एक लघु =15 काष्ठा, = 2 मिनट
15 लघु = एक नाड़ी, जिसे दण्ड भी कहते हैं. इसका मान उस समय के बराबर होता है, जिसमें कि छः पल भार के (चौदह आउन्स) के ताम्र पात्र से जल पूर्ण रूप से निकल जाये, जबकि उस पात्र में चार मासे की चार अंगुल लम्बी सूईं से छिद्र किया गया हो. ऐसा पात्र समय आकलन हेतु बनाया जाता है.
2 दण्ड = एक मुहूर्त.
6 या 7 मुहूर्त = एक याम, या एक चौथाई दिन या रत्रि.[3]
4 याम या प्रहर = एक दिन या रात्रि
चाँद्र मापन :-
एक तिथि वह समय होता है, जिसमें सूर्य और चंद्र के बीच का देशांतरीय कोण बारह अंश बढ़ जाता है। तिथियाँ दिन में किसी भी समय आरम्भ हो सकती हैं, और इनकी अवधि उन्नीस से छब्बीस घंटे तक हो सकती है.
एक पक्ष या पखवाड़ा = पंद्रह तिथियाँ
एक मास = २ पक्ष ( पूर्णिमा से अमावस्या तक कॄष्ण पक्ष; और अमावस्या से पूर्णिमा तक शुक्ल पक्ष)[4]
एक ॠतु = २ मास
एक अयन = 3 ॠतुएं
एक वर्ष = 2 अयन
ऊष्ण कटिबन्धीय मापन
एक याम = 7½ घटि
8 याम अर्ध दिवस = दिन या रात्रि
एक अहोरात्र = नाक्षत्रीय दिवस (जो कि सूर्योदय से आरम्भ होता है)
अन्य अस्तित्वों के सन्दर्भ में काल-गणना
पितरों की समय गणना:-
15 मानव दिवस = एक पितॄ दिवस
30 पितॄ दिवस = 1 पितॄ मास
12 पितॄ मास = 1 पितॄ वर्ष
पितॄ जीवन काल = 100 पितॄ वर्ष= 1200 पितृ मास = 36000 पितॄ दिवस= 18000 मानव मास = 1500 मानव वर्ष
देवताओं की काल गणना
1 मानव वर्ष = एक दिव्य दिवस
30 दिव्य दिवस = 1 दिव्य मास
12 दिव्य मास = 1 दिव्य वर्ष
दिव्य जीवन काल = 100 दिव्य वर्ष= 36000 मानव वर्ष
चार युग :-
2 अयन (छः मास अवधि, ऊपर देखें) = 360 मानव वर्ष = एक दिव्य वर्ष
4,000 + 400 + 400 = 4,800 दिव्य वर्ष = 1 सत युग
3,000 + 300 + 300 = 3,600 दिव्य वर्ष = 1 त्रेता युग
2,000 + 200 + 200 = 2,400 दिव्य वर्ष = 1 द्वापर युग
1,000 + 100 + 100 = 1,200 दिव्य वर्ष = 1 कलि युग
12,000 दिव्य वर्ष = 4 युग = 1 महायुग (दिव्य युग भी कहते हैं)
ब्रह्मा की काल गणना :-
1000 महायुग= 1 कल्प = ब्रह्मा का 1 दिवस (केवल दिन) (चार खरब बत्तीस अरब मानव वर्ष; और यही सूर्य की खगोलीय वैज्ञानिक आयु भी है).
(दो कल्प ब्रह्मा के एक दिन और रात बनाते हैं)
30 ब्रह्मा के दिन = 1 ब्रह्मा का मास (दो खरब 59 अरब 20 करोड़ मानव वर्ष)
12 ब्रह्मा के मास = 1 ब्रह्मा के वर्ष (31 खरब 10 अरब 4 करोड़ मानव वर्ष)
50 ब्रह्मा के वर्ष = 1 परार्ध
2 परार्ध= 100 ब्रह्मा के वर्ष= 1 महाकल्प (ब्रह्मा का जीवन काल)(31 शंख 10 खरब 40अरब मानव वर्ष)
ब्रह्मा का एक दिवस 10,000 भागों में बंटा होता है, जिसे चरण कहते हैं:
चारों युग :-
4 चरण (1,728,000 सौर वर्ष) सत युग
3 चरण (1,296,000 सौर वर्ष) त्रेता युग
2 चरण (864,000 सौर वर्ष) द्वापर युग
1 चरण (432,000 सौर वर्ष) कलि युग
यह चक्र ऐसे दोहराता रहता है, कि ब्रह्मा के एक दिवस में 1000 महायुग हो जाते हैं
एक उपरोक्त युगों का चक्र = एक महायुग (43 लाख 20 हजार सौर वर्ष)
श्रीमद्भग्वदगीता के अनुसार “सहस्र-युग अहर-यद ब्रह्मणो विदुः”, अर्थात ब्रह्मा का एक दिवस = 1000 महायुग. इसके अनुसार ब्रह्मा का एक दिवस = 4 अरब 32 खरब सौर वर्ष. इसी प्रकार इतनी ही अवधि ब्रह्मा की रात्रि की भी है.
एक मन्वन्तर में 71 महायुग (306,720,000 सौर वर्ष) होते हैं. प्रत्येक मन्वन्तर के शासक एक मनु होते हैं.
प्रत्येक मन्वन्तर के बाद, एक संधि-काल होता है, जो कि कॄतयुग के बराबर का होता है (1,728,000 = 4 चरण) (इस संधि-काल में प्रलय होने से पूर्ण पॄथ्वी जलमग्न हो जाती है.)
एक कल्प में 864,000,0000 – ८ अरब ६४ करोड़ सौर वर्ष होते हैं, जिसे आदि संधि कहते हैं, जिसके बाद 14 मन्वन्तर और संधि काल आते हैं
ब्रह्मा का एक दिन बराबर है:
(14 गुणा 71 महायुग) + (15 x 4 चरण)
= 994 महायुग + (60 चरण)
= 994 महायुग + (6 x 10) चरण
=994 महायुग + 6 महायुग
= 1,000 महायुग
वर्तमान तिथि :-
वैवस्वत मनु के शासन में श्वेतवाराह कल्प के द्वितीय परार्ध में, अठ्ठाईसवें कलियुग के प्रथम वर्ष के प्रथम दिवस में विक्रम संवत 2072 में हैं। इस प्रकार अबतक १ अरब, ९६ करोड़, ०८ लाख, ५३ हज़ार, ११६ वर्ष इस ब्रह्मा को सॄजित हुए हो गये हैं।
ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार वर्तमान कलियुग दिनाँक 17 फरवरी / 18 फरवरी को 3102 ई.पू. में हुआ था ।

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ब्रह्मांड के रहस्य

ब्रह्मांड; उपनिषदों में प्रश्न-उत्तरों के माध्यम से ऋषियों ने इस ब्रह्मांड के रहस्य को अपने शिष्यों के सामने उजागर किया और फिर अपनी शिक्षाओं में उन्होंने सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य आदि की शिक्षा दी। उनकी तमाम शिक्षाओं में भी ब्रह्मचर्य को उन्होंने सबसे प्रधान माना। ब्रह्मचर्य को उन्होंने जीवन में सबसे महत्वपूर्ण माना।
ब्रह्मचर्य से बढ़कर कुछ नहीं। ब्रह्मचर्य से शक्ति, सेहत और समृद्धि मिलती है, लेकिन ब्रह्मचर्य से बढ़कर भी कुछ है।
*अन्न ही ब्रह्म : अन्न ही ब्रह्मचर्य से बढ़कर है। अन्न और धरती पर पाई जाने वाली सभी वनस्पतियों की हमारे ऋषि-मुनि प्रार्थना करते थे। अन्न हमें ओज और ब्रह्मचर्य प्रदान करता है। अन्न हमारे लिए अमूल्य पदार्थ है। अन्न के बगैर व्यक्ति शक्तिहीन हो जाता है। अन्न हमें तभी शक्ति प्रदान करता है जबकि हम उपवास का पालन करते हैं।

अन्न से ही हमारा शरीर बनता है और अन्न से ही यह शरीर बिगड़ भी सकता है अत: अन्न का भक्षण धार्मिक रीति अनुसार करना चाहिए।
*धरती मां : पृथ्वी अन्न से भी बड़ी है। वह हमारी माता है। हमारी दो प्रकार की माताएं होती हैं। एक तो भौतिक माता जो हमारी जननी है और दूसरी पृथ्वी माता है (जो हमें गर्भाशय से मृत्युपर्यंत पालती है)। पुराणों अनुसार हम हमारी भौतिक माता के गर्भ से निकलकर धरती माता के गर्भाशय में प्रविष्ट हो जाते हैं। यह माता हमारा लालन-पालन करती है। यह धरती हमें विभिन्न वनस्पतियां देकर हमारा पोषण करती है। उसे वेद-पुराण में धेनु कहते हैं (कामधेनु एक ऐसी गाय है, जो ऋषि वशिष्ठ से संबंधित थी और संपूर्ण कामना पूर्ण कर देती थी)।

यह धरती हमारा ही नहीं, बल्कि समस्त जीव-जंतु, पेड़-पौधे, जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर आदि सभी जीवों को समान रूप से पालती है और उन्हें संपूर्ण उम्र तक जिंदा बनाए रखने का प्रयास करती है, लेकिन मानव अपनी इस माता पर तरह-तरह के अत्याचार करता रहता है।
*जल : जल से धरती की उत्पत्ति हुई : सचमुच ऐसा ही हुआ। जलता हुआ जल कहीं जमकर बर्फ बना तो कहीं भयानक अग्नि के कारण काला कार्बन होकर धरती बनता गया। कहना चाहिए कि ज्वालामुखी बनकर ठंडा होते गया। अब आप देख भी सकते हैं कि धरती आज भी भीतर से जल रही है और हजारों किलोमीटर तक बर्फ भी जमी है। धरती पर 75 प्रतिशत जल ही तो है। कोई कैसे सोच सकता है कि जल भी जलता होगा या वायु भी जलती होगी?

हिंदू धर्म में नदियों की पूजा इसीलिए की जाती है। जल नहीं होता तो जीवन भी नहीं होता। जल के देवता वरुण और इंद्र की वेदों में स्तुतियां मिल जाएंगी। जल को सबसे महत्वपूर्ण तत्व माना जाता है। जल उतना ही जाग्रत और बोध करने वाला तत्व है जितना कि मानव सोच-समझ सकता है। जीवों को उत्पन्न करने वाली धरती कैसे निर्जीव मानी जा सकती है और धरती को उत्पन्न करने वाला जल कैसे सिर्फ एक पदार्थ माना जा सकता है।
*अग्नि; अग्नि से जल की उत्पत्ति : ब्रह्मांड में विराट अग्नि के गोले देखे जा सकते हैं, धरती भी अग्नि का एक गोला थी। अग्नि से ही जल तत्व की उत्पत्ति हुई। अं‍तरिक्ष में आज भी ऐसे समुद्र घुम रहे हैं जिनके पास अपनी कोई धरती नहीं है लेकिन जिनके भीतर धरती बनने की प्रक्रिया चल रही है और जो कभी अग्नि के समुद्र थे।
जल से बड़ा यह अग्नि तत्व है, जो कि सारे ब्रह्माण्ड को चला रहा है जिसने सारे संसार में चेतना का प्रसार कर रखा है। अग्नि तत्व के कारण वर्षा होती है जिससे हर प्रकार का अन्न पैदा होता है। जब यह समुद्र पर कार्य करती है तो वाष्प बनती है जिससे बादल बनते हैं, जो वर्षा का कारण होते हैं। वर्षा से वनस्पति जगत उत्पन्न होता है।

प्रत्येक व्यक्ति के भीतर अग्नि तत्व होता है। अग्नि से ही बल मिलता है इसीलिए हिंदू धर्म में अग्नि की पूजा होती है, प्रार्थना होती है और यज्ञ किए जाते हैं। घर-घर दीपक इसीलिए जलाए जाते हैं कि हमें अग्नि का महत्व ज्ञात रहे। अग्निदेव साक्षात हमारे बीच रहते हैं।
अग्नि से बढ़कर है वायु : धरती के 75 प्रतिशत भाग में जल है व 100 प्रतिशत वायु है। वायु हर जगह है। समुद्र के भीतर भी और धरती से सैकड़ों किलोमीटर ऊपर भी। वायु की सत्ता सबसे बड़ी है। वायु के बगैर व्यक्ति एक क्षण भी जिंदा नहीं रह सकता। यही हमारे प्राण हैं।
*वायु; वायु में ही अग्नि और जल तत्व छुपे हुए रूप में रहते हैं। वायु ठंडी होकर जल बन जाती है व गर्म होकर अग्नि का रूप धारण कर लेती है। वायु का वायु से घर्षण होने से अग्नि की उत्पत्ति हुई। अग्नि की उत्पत्ति ब्रह्मांड की सबसे बड़ी घटना थी। वायु जब तेज गति से चलती है तो धरती जैसे ग्रहों को उड़ाने की ताकत रखती है। वायु धरती पर भी है और धरती के बाहर अंतरिक्ष में भी प्रत्येक ग्रह पर वायु है और प्रत्येक ग्रह की वायु भिन्न-भिन्न है। वेदों में 8 तरह की वायु का वर्णन मिलता है।

आप सोचिए कि सूर्य से धरती तक जो सौर्य तूफान आता है वह किसकी शक्ति से यहां तक आता है? संपूर्ण ब्रह्मांड में वायु का साम्राज्य है, लेकिन हमारी धरती की वायु और अंतरिक्ष की वायु में फर्क है।
आकाश तत्व : बहुत से दार्शनिक आकाश को अनुमान ही मानते हैं। आकाश से वायु की उत्पत्ति हुई। आकाश एक अनुमान है। दिखाई देता है लेकिन पकड़ में नहीं आता। धरती के एक सूत ऊपर से, ऊपर जहां तक नजर जाती है उसे आकाश ही माना जाता है।
*आकाश; आकाश अर्थात वायुमंडल का घेरा- स्काई। खाली स्थान अर्थात स्पेस। जब हम खाली स्थान की बात करते हैं तो वहां अणु का एक कण भी नहीं होना चाहिए, तभी तो उसे खाली स्थान कहेंगे। है ना? हमारे आकाश-अंतरिक्ष में तो हजारों अणु-परमाणु घूम रहे हैं।

*अंतरिक्ष: अंतरिक्ष : अंतरिक्ष अग्नि, वायु और आकाश से महान है। हम जो भी शब्द उच्चारण करते हैं वे इस अंतरिक्ष में विचरण करते रहते हैं। आकाश में वायु साक्षात है लेकिन अंतरिक्ष में वायु सूक्ष्म रूप है। अंतरिक्ष ही सभी का आधार है। सभी ग्रह-नक्षत्र अंतरिक्ष के बल पर ही स्थिर और चलायमान हैं।
अंतरिक्ष को खाली स्थान माना जाता है यानी स्पेस। खाली स्थान को अवकाश कहते हैं। अवकाश था तभी आकाश की उत्पत्ति हुई अर्थात अवकाश से आकाश बना। अवकाश अर्थात अनंत अंधकार। अनंत अं‍तरिक्ष। अंधकार के विपरीत प्रकाश होता है, लेकिन यहां जिस अंधकार की बात कही जा रही है उसे समझना थोड़ा कठिन जरूर है। यही अद्वैतवादी सिद्धांत है।

अंतरिक्ष को सबसे महान माना गया है। ऊपर देखो और ऊपर से ही कुछ मांगो। नीचे मूर्ति या मंदिर में प्रार्थना करने वाले क्या यह जानते हैं कि वैदिक ऋषि ऊपर वाले की ही प्रार्थना करते थे। ध्यान लगाकर वे अपने भीतर के अंतरिक्ष को खोजते थे।
अंतरिक्ष से सब कुछ प्राप्त किया जाता जाता है और अपनी बुद्धि के अनुसार इनको ग्रहण किया जाता है। मेधा बुद्धि का संबंध अंतरिक्ष से होता है। अंतरिक्ष हमारी बुद्धि को बढ़ाने वाला है। यह हमारे भीतर जीवन को प्रबल करता है। इसी से वायु को गति मिलती है। इसी में अग्नि भी विद्यमान रहती है।
*अंतरिक्ष से बढ़कर है प्राण: अंतरिक्ष से बढ़कर है प्राण : यह प्राण ही है जिसके अवतरण से धरती और अन्य जगत में हलचल हुई और द्रुत गति से आकार-प्रकार का युग प्रारंभ हुआ। ब्रह्मांड और प्रकृति भिन्न-भिन्न रूप धारण करती गई। प्राण को ही जीवन कहते हैं। प्राण के निकल जाने पर प्राणी मृत अर्थात जड़ माना जाता है। यह प्राणिक शक्ति ही संपूर्ण ब्रह्मांड की आयु और वायु है अर्थात प्राणवायु ही आयु है, स्वास्थ्य है।

पत्थर, पौधे, पशु और मानव, ग्रह-नक्षत्र के प्राण में जाग्रति और सक्रियता का अंतर है। देव, मनुष्य, पशु आदि सभी प्राण के कारण चेष्टावान हैं।
मन की सत्ता : मानव का मन वायु, ध्वनि और प्रकाश की गति से भी तेज है। यह क्षणभर में ब्रह्मांड के किसी भी कोने में जा सकता है। वेद-पुराणों में मन की शक्ति को सबसे बड़ी शक्ति माना गया है। मन के भी कई प्रकार हैं। हमारा और आपका मन मिलकर समूहगत मन का निर्माण होता है। इसी तरह धरती का भी मन है और वायु का भी। किसी में मन सुप्त है तो किसी में जाग्रत।
*मन : जिस तरह हमारे शरीर का आधार है हमारे प्राण और प्राण का आधार है मन, उसी तरह सभी जीव-जंतु आदि का आधार भी है मन। मानसिक शक्ति में इतनी ताकत होती है कि वह तूफानों को रोक दे, आग को बुझा दे और जल को सूखा दे। हमारे ऋषि-मुनियों में यह शक्ति थी।

सृष्‍टि के जन्म और विकास में मन एक महत्वपूर्ण घटना थी। मन के गुण, भाव और विचारों के प्रत्यक्षों से हैं। मन 5 इंद्रियों के क्रिया-कलापों से उपजी प्रतिक्रिया मात्र नहीं है- इस तरह के मन को सिर्फ ऐंद्रिक मन ही कहा जाता है, जो प्राणों के अधीन है, लेकिन मन इससे भी बढ़कर है।
मनुष्यों, तुम मन की मनमानी के प्रति जाग्रत रहो वेदों में यही श्रेष्ठ उपाय बताया गया है।
*बुद्धि; बन से बढ़कर बुद्धि : मन के अलावा और भी सूक्ष्म चीज होती है जिसे बुद्धि कहते हैं, जो गहराई से सब कुछ समझती और अच्छा-बुरा जानने का प्रयास करती है, इसे ही ‘सत्यज्ञानमय’ कहा गया है। प्रत्येक जीव-जंतु में बुद्धि होती है। बुद्धि से ही हम अपने होने की स्थिति का ज्ञान करते हैं। बुद्धि से ही धरती जान जाती है कि मैं असंतुलित हो रही हूं तो मुझे संतुलन कायम करने के लिए क्या करना चाहिए। यह बुद्धि ही सही और गलत मार्ग बताती है।
सृष्‍टि के जन्म और विकास में मन एक महत्वपूर्ण घटना थी। मन के गुण, भाव और विचारों के प्रत्यक्षों से हैं। मन 5 इंद्रियों के क्रिया-कलापों से उपजी प्रतिक्रिया मात्र नहीं है- इस तरह के मन को सिर्फ ऐंद्रिक मन ही कहा जाता है, जो प्राणों के अधीन है, लेकिन मन इससे भी बढ़कर है।
कहते हैं कि फलां-फलां की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है या विनाश काले विपरीत बुद्धि…। जब मनुष्य को अपने अज्ञान में पड़े रहने का ज्ञान होता है, तब शुरू होता है मन पर नियंत्रण। मन को नियंत्रित कर उसे बुद्धि-संकल्प में स्थित करने वाला ही विवेकी कहलाता है। विवेकी में तर्क और विचार की सुस्पष्टता होती है। किंतु जो बुद्धि का भी अतिक्रमण कर जाता है उसे अंतर्दृष्टि संपन्न मानस कहते हैं अर्थात जिसका साक्षीत्व गहराने लगा। इसे ही ज्ञानीजन संबोधि का लक्षण कहते हैं, जो विचार से परे निर्विचार में स्‍थित है।
*आत्मा : बुद्धि से बढ़कर आत्मा : ईश्वर और जगत के मध्य की कड़ी आत्मा। इस आत्मा के होने के कारण ही सब कुछ हो गया। इसकी उपस्थिति के कारण ब्रह्मांडों की उत्पत्ति हुई और सभी कुछ फैलता गया। वेद कहते हैं ज्ञानी नहीं आत्मवान बनो।

अत: अब तक हमने जाना ब्रह्मचर्य, अन्न, धरती, जल, अग्नि, वायु, आकाश, अंतरिक्ष, प्राण, मन, बुद्धि और आत्मा के क्रम को। हमने वेद-पुराणों के क्रम का सरलीकरण करके बताया, हालांक‍ि इन क्रम के बीच भी अन्य कई तत्व मौजूद है।

गीता अनुसार यह क्रम इस प्रकार है :
ब्रह्मांड का मूलक्रम- अनंत-महत्-अंधकार-आकाश-वायु-अग्नि-जल-पृथ्वी। अनंत जिसे आत्मा कहते हैं। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार यह प्रकृति के 8 तत्व हैं।

*ब्रह्म ही सत्य है :
।।ॐ।। ।।यो भूतं च भव्‍य च सर्व यश्‍चाधि‍ति‍ष्‍ठति‍।
स्‍वर्यस्‍य च केवलं तस्‍मै ज्‍येष्‍ठाय ब्रह्मणे नम:।।-अथर्ववेद 10-8-1

भावार्थ : जो भूत, भवि‍ष्‍य और सब में व्‍यापक है, जो दि‍व्‍यलोक का भी अधि‍ष्‍ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है।

हिंदू धर्म की लगभग सभी विचारधाराएँ (चर्वाक को छोड़कर) यही मानती हैं कि कोई एक परम शक्ति है जिसे ईश्वर कहा जाता है। वेद, उपनिषद, पुराण और गीता में उस एक ईश्वर को ‘ब्रह्म’ कहा गया है।

ब्रह्म शब्द बृह धातु से बना है जिसका अर्थ बढ़ना, फैलना, व्यास या विस्तृत होना। ब्रह्म परम तत्व है। वह जगत्कारण है। ब्रह्म वह तत्व है जिससे सारा विश्व उत्पन्न होता है, जिसमें वह अंत में लीन हो जाता है और जिसमें वह जीवित रहता है।
।।ॐ।।।।ॐ।।।।ॐ।।।।ॐ

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