अब ये लड़ाई कूटनीति से लड़ी जायेगी

आज घोड़े पर चढ़कर कोई तलवार आपकी गर्दन पर लगा कर हिन्दुओं का धर्मांतरण नहीं करवा रहा, लोकतंत्र और धर्म-निरपेक्षता की आड़ में सैकड़ों प्रकार के प्रपंच आज धर्मांतरण हेतु प्रयोग किये किये जा रहे हैं, जिन्हें हिन्दुओं का अधिकाँश वर्ग समझ नहीं पा रहा l

और जो समझ भी पा रहे हैं उनमें भी अधिकाँश वर्ग ऐसा है जो समझता सब कुछ है परन्तु कर कुछ नहीं प् रहा l

वर्तमान में स्थिति ऐसी हो चुकी है कि अधिकाँश हिन्दुओं को टेलीविजन, रेडिओ, फिल्मो के माध्यम से उल्टी सीधी बातें, किस्से, डायलाग आदि  सुना सुना कर उन्हें हिन्दू धर्म के विरुद्ध करने का प्रयास किया जाता है और वो दुनिया का सबसे Soft Target बनता है, क्यूंकि उसके पास न तो अपनी धार्मिक मान्यताओं का उपहास उड़ाने वालों के लिए कोई उत्तर है न ही तोड़…

ऐसे हिन्दू अपने धर्म, संस्कृति, सभ्यता, परम्पराओं का उपहास उड़ते हुए देखते हैं… परन्तु कर कुछ नहीं पाते, ये उपहास उड़ाने वालों को उचित Reply ही नहीं दे पाते, Counter करना तो बहुत दूर की बात है … Because… The War has been Intellectual

मेरी इस पोस्ट से कोई यह निष्कर्ष न निकाल बैठे कि मैं भक्ति उपासकों या भक्ति सम्प्रदायों का निंदक या आलोचक हो गया हूँ, ऐसा नहीं है, यह स्पष्टीकरण इसलिए आवश्यक है कि FaceBook पर कई लोग ऐसे भी होते हैं जिनका मूल स्वभाव आज भी Orkut के चिरकुट वाला ही रहता है, बिना सोचे समझे Comment करना उनका स्वभाव बन चुका है, ऐसे लोग कृपया इस Post से दूर रहें, यदि कुछ समझ में आये तो अपने सुझाव दें, अन्यथा उचित दूरी बनाए रखें आपकी अति कृपा होगी l

भक्ति काल ने सनातन धर्म को इस्लामिक आक्रमणों के कारण हो रही हानियों से बचाने हेतु एक प्रकार से संजीवनी का कार्य किया, जो कि सराहनीय था, है और रहेगा l
वर्तमान शिक्षा पद्धति में धर्म, अध्यात्म आदि की शिक्षा किसी विद्यालय में तो मिलती नहीं, अपितु थोड़ी बहुत शिक्षा जो घर पर या मन्दिर में मिलती है वो भक्ति की और ही प्रेरित कर देती है, परन्तु यदि अब क्या सारा जीवन भक्ति भक्ति भक्ति … और केवल भक्ति ?

ये तो कुछ ऐसा हुआ मानो… आपने 10वीं कक्षा पास कर ली है, परन्तु फिर भी हर साल 10वीं की ही पुस्तकें पढ़ रहे हो, और 10वीं की ही परीक्षा की तैयारी हो रही हो … यह कब तक चलेगा l
वैसे तो आजकल के पढ़े लिखे SICKULAR लोग धर्म को एक फालतू की चीज समझते हैं, और जो लोग धर्म को अपने जीवन में महत्व देते भी हैं वे मन्दिर जाकर आरती और कीर्तन करने को ही धर्म समझ लेने की गलती करते रहते हैं, परमात्मा को प्रेम करना कोई बुरी बात नहीं होती, पर केवल भजन कीर्तन को ही धर्म समझ लेना गीता का अपमान स्वरूप है,

वेदों में तथा गीता में मुक्ति के तीन मार्ग बतलाये गए हैं…
१. ज्ञान मार्ग … २. कर्म मार्ग … ३. उपासना मार्ग …

क्यों हमारे धार्मिक लोग केवल कीर्तन की ढोलकी बजाने को ही धर्म समझ लेते हैं, क्या उनको जाकिर नाईक जैसे लोग दिखाई नही देते, जाकिर नाईक ने अपने Pisslam के पैशाचिक ग्रन्थ पढ़े हैं और साथ ही उसने वैदिक ग्रन्थों का भी अध्ययन किया है पर यह और बात है कि जिसकी सनातन धर्म में आस्था ही न हो वो वेदों का अध्ययन कर भी लेगा तो उनकी व्याख्या तो मैक्स-मुलेर के रूप में ही करेगा… नास्तिक व्यक्ति या फिर वेदों में आस्था न रखने वाले व्यक्ति यदि वेदों का अध्ययन कर भी लेंगे तो वे अर्थ का अनर्थ ही करेंगे …
और जाकिर नाईक अकेला नहीं है, मैक्स मुलर ने भी वेदों का अध्ययन किया और सत्यानाश किया, अर्थ का अनर्थ किया, आप सब लोग ठंडे दिमाग से सोचिये, क्या जाकिर नाईक और मैक्स मुलर जैसे लोगों को उत्तर देने के लायक बना जा सकता है …. कीर्तन आदि करके या ढोलकी आदि बजा कर के …???

आखिर क्यों धार्मिक लोग शास्त्र-अध्ययन नहीं करते, धार्मिक लोग ही नही करेंगे तो फिर कौन करेगा …??

यही समस्या है… और इस समस्या को जाकिर नाईक तथा फादर डोमिनिक जैसे लोग भली भांति पहचानते हैं … कि हिन्दू या तो सो रहा है…. और जो जाग रहा है वो बस ढोलकी बजा रहा है, या कीर्तन आदि कर रहा है ….
उनके ग्रन्थों का सत्यानाश करने का अच्छा अवसर है …?

फिर तैरा कर दिखाओ पानी में लकड़ी का क्रास … और सूरत के प्लेग के रोगियों को पिलाओ दवाई वाला पानी .. Holy-Water कह कर… और करो धर्मांतरण … क्योंकि उनके कुतर्कों का उत्तर देने हेतु तो कोई आपको प्रशिक्षित करने वाला है नहीं … न ही आपको कोई सिखाने वाला है कि उचित मार्ग क्या है …. ??

भक्ति काल एक प्रकार का आपातकाल था जो कि अब गुजर चुका है, अब पुन: वापिस अपने ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग की और लौटने की है … परन्तु पूरे विश्व को केवल भक्ति भक्ति की और ही प्रेरित करते रहना क्या यह मुर्खता की पराकाष्ठा जैसी प्रतीत नही होती l

एक वो समय था जब आक्रमणकारी घोड़ों पर बैठ कर आते थे और सनातन धर्म को भांति भांति प्रकार से हानियाँ पहुंचाने के प्रयास करते रहते थे, उस समय ज्ञान, पराक्रम, भक्ति, सहनशीलता, कूटनीति के तहत जितना जितना जिसका सामर्थ्य हुआ …उसने वो बचा लिया l

आज के समय में युद्ध बोद्धिक हो चुका है, अवैदिक मत और वेद-विरोधी मत दोनों वैदिक धर्म की ईंट से ईंट बजाने हेतु आये दिन कोई न कोई नये प्रकार का प्रपंच चलाये रहते हैं, जिनमे रूपये के लालच में बिके हुए अहिंदुओं का भी उल्लेख आवश्यक है, जैसे सतलोक आश्रम का कबीर-पंथी गुरु रामलाल जो पिछले दिनों जाकिर नाईक से पैसा खाकर हिन्दू विश्वास को चोट पहुंचाने के लक्ष्य में असफल हो हुआ, जिसमे कि एक बहुत बड़ा हाथ है पंडित महेंद्र पाल आर्य जी का l

आज यदि कुल मिलाकर देखा जाए तो पंडित महेंद्र पाल आर्य जैसे लोग ही बहुत कम मिलेंगे आपको जो सनातन धर्म के शत्रुओं को उनके कुतर्कों का वैदिक धर्म के वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर उन्हें हरा सकें l
क्या सारा जीवन कीर्तन करने वाला प्राणी कभी जाकिर नाईक के कुचक्रों का उत्तर दे सकता है ?
वर्तमान में जाकिर नाईक जैसे लोगों के पास अपना TV Channel भी है, और अरब देशों से जो वित्तीय सहायता प्राप्त होती है वो भी किसी से छुपी हुई नही है l

अब जाकिर नाईक के रिसर्च सेंटर में हजारों मुस्लमानों की भर्ती की जा रही है, जो कि जाकिर नाईक के कुचक्रों को लोगों के बीच फैलाने का कार्य सड़क पर उतर कर करने वाले हैं, मन्दिर में कीर्तन, हवन आदि करने वालों को वे दिग-भ्रमित करने उतरने वाले हैं l
ये सब होगा आने वाले कानून “अंध-श्रद्धा निर्मूलन कानून” के अंतर्गत …

अब अखिल भारत हिन्दू युवक सभा द्वारा ऐसे “वैदिक – ज्ञानोदय” कार्यक्रम के माध्यम से युवकों को चुन चुन कर तैयार किया जायेगा…
जिसमे वैदिक ज्ञान, वैदिक मत, वैदिक सिद्धांत, वैदिक साहित्यों, दर्शनों, समस्त श्रुतियों-स्मृतियों आदि का ज्ञान दिया जायेगा, उसके उपरान्त समस्त अवैदिक और वेद-विरोधी पुस्तकों का भी तुलनात्मक अध्ययन करवाया जायेगा l

अंत में मुख्य रूप से इसमें सभी युवकों को गैर-हिन्दुओं के शुद्धि-करण की विधि भी सिखाई जाएगी, जिसके माध्यम से किसी भी पैशाचिक सम्प्रदाय के अंतर्गत पैशाचिक जीवन जीने वाले किसी भी अहिंदू को आप कभी भी – कहीं भी शुद्धिकरण करके एक विशुद्ध मनुष्य जीवन जीने का अवसर प्रदान कर सकते हैं l

अज्ञानता के चलते हम यह निष्कर्ष नहीं निकाल पाते ना ही आकलन कर पाते हैं कि क्या सही है और क्या गलत …
सही अर्थों में कहा जाए तो जिस व्यक्ति को धर्म-सत्य-नीति का वास्तविक ज्ञान ही न हो, वो अधर्म असत्य अनीति का विरोध किस प्रकार कर पायेगा ?

इस पवित्र कार्य में सहयोगी बनने वाले समस्त सनातनी भाइयों का हार्दिक स्वागत है, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक कार्यक्रमों में सक्रीय रूप से भाग लेकर जाकिर नाईक जैसे लोगों के कुचक्रों से सनातन धर्मियों को बचाने हेतु आगे आयें l

हिन्दू महासभा प्रचंड हो, भारत देश अखंड हो

ॐ सर्वोपरि सर्वगुण संपन्न सनातन धर्मं

|| सनातनधर्मः महत्मो विश्व्धर्मः ||

…”विश्व महाशक्ति बनना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, और हम इस पद को लेकर रहेंगे ।”

जय श्री राम कृष्ण परशुराम ॐ

साभार-लवी भरद्वाज सावरकर

गाँधी वध का रहस्य – कौन थे महात्मा गाँधी और गोडसे

Unveil The Mystery of Gandhi Vadh – Who is Mahatma, Gandhi or Godse?

गांधी वध का वस्तविक सत्य 

गांधी एक महात्मा या दुरात्मा, इस प्रश्न के खड़े होते ही लोगों के मत विभिन्न धारणाओं तथा गलतफहमियों के कारण वास्तविक निष्कर्ष पर नहीं प्शुंच पाते l

ये बात अपने आप में ही एक रहस्य लेकर सिमटी रह गयी या फिर तथ्य छुपा दिए गए, क्योंकि ये तो वो देश है जो जिसमे कुछ देशद्रोही मिल कर हराम खोर को भी हे-राम बना कर अपनी राजनीति करते हैं…

राम को रावण और रावण को राम बना कर पढ़ाया-लिखाया गया, परन्तु उससे सत्य बदल तो नही जाता, गाँधी वध से संबंधित मूल कारणों से संबधित जितने भी तथ्य तथा सत्य हैं वे आज हम सबके सामने होते यदि उस समय सोशल मीडिया का अस्त्र समाज को उपलब्ध होता l

हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे एक हिंदूवादी कार्यकर्ता होने के साथ साथ एक जाने माने पत्रकार भी थे, जो ‘अग्रणी’ नाम से अपना एक अखबार भी चलाते थे, आखिर एक पत्रकार को ओसो क्या आवश्यकता पड़ी कि उसने कलम छोड़ कर बंदूक उठाने का साहसिक निर्णय लिया, भारतीय पत्रकारों ने तो सदैव गोडसे के साथ पत्रकारिता के सन्दर्भ में भी सदैव भेदभाव ही किया गया l
गांधी वध के असली तथ्य सदा छिपाए गए…..

किसी को भी मारने के 2 मूल कारण होते हैं …
1. किसी व्यक्ति ने अतीत में कुछ ऐसा किया हो जो आपको पसंद नहीं
2. और कोई व्यक्ति भविष्य में कुछ ऐसा करने वाला हो जो आपको पसंद नहीं

इन दोनों कारणों के इर्द गिर्द कारण अनेक हो सकते हैं ….
ऐसा ही एक कारण गंधासुर वध के साथ तथा भारत के भविष्य का जुड़ा हुआ था
गंधासुर वध 30 जनवरी को किया गया था…
बहुत ही कम लोग इस तथ्य से अवगत हैं कि गांधी वध का एक प्रयास 20 जनवरी 1948 को भी किया गया था l

20 जनवरी, 1948 को गाँधी के ठिकाने बिरला हाउस पर बम फेंका गया था जिसमें वो बच गया था, यह बम पाकिस्तानी पंजाब से भारत आये एक 19 वर्ष के युवा शूरवीर मदनलाल पाहवा ने फेंका था, वह दुर्भाग्यशाली रहा और गाँधी सौभाग्यशाली l

मदन लाल पाहवा का सबसे ज्वलंत प्रश्न आज भी सोचने पर मजबूर करता है कि आखिर भारतीय सत्तालोलुपों की राजनितिक विफलता के कारण जो लोग विस्थापित हुए उन्हें शरणार्थी (Refugee) क्यों कहा जाता था ?

विभाजन की त्रासदी में जो हिन्दू पाकिस्तान से भारत आये उन्हें दुरात्मा गांधी की बद्दुआओं का कोपभाजक बनना पड़ा, दुरात्मा गांधी पाकिस्तान से आये हुए हिन्दुओं को क्रोधवश कोसते हुए कहता था कि “तुम लोग यहाँ क्यों आये हो? जाओ वापिस चले जाओ, यदि मुसलमान तुम्हारी हत्या करके खुश होते हैं, तो उन्हें खुश करने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दो l”
ऐसे अनेकों लांछनों और आलोचनाओं से क्षुब्ध एक 19 वर्षीय युवा जो निस्संदेह अभी जीवन के उतार चढ़ावों की वास्तविकता से परिचित भी न हुआ था, उसके रक्त में उबाल भरने का कार्य गांधी तथा उसके सत्तालोलुप राजनेताओं ने किया l

क्या गांधी तथा अन्य सत्तालोलुप नेताओं द्वारा ऐसी आलोचनाएं और टिप्पणियाँ वास्तविक दोषी नही थीं, मदन लाल पाहवा जैसे युवाओं को उकसाने हेतु ?

मदनलाल पाहवा को गिरफ्तार कर लिया गया और अन्य साथियों की भी खोज की जाने लगी l
और ठीक 10 दिन बाद 30 जनवरी, 1948 को दुरात्मा गाँधी का वध किया जाता है, यहाँ एक आवश्यक प्रश्न उभर कर आता है कि यह 10 दिन के अंदर ही क्यों हुआ ? थोडा और समय भी लिया जा सकता था l परन्तु 10 दिन ही क्यों ? ऐसा कौन सा संकटकाल आने वाला था कि 10 दिन के अंदर अंदर ही मारना पड़ा ?

मैं समझता हूँ जब तक प्रश्नों का कारण से कोई अवगत न हो तब तक उसे गाँधी वध के बारे में कुछ भी कहने से स्वयं को रोकना चाहिए, और एक बार सभी तथ्यों तथा साक्षों से अवगत होकर अपना वंक्त्व्य देना चाहिए l

अंग्रेज़ जब भारत को सत्ता का हस्तांतरण सौंप कर गये तब भारत के राजकोष में 155 करोड़ रूपये छोड़ कर गये थे, जिसमे दुरात्मा गांधी की यह मांग थी कि पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपये दे दिए जाएँ l

यह 55 करोड़ और 75 करोड़ रूपये के तथ्य भी आजतक भारीयों की जानकारी से दूर रखे गये जबकि वास्तविकता यह है कि पकिस्तान को दी जाने वाली राशी जो निर्धारित हुई थी वह 55 करोड़ न होकर 75 करोड़ रूपये थी, जिसमे से 20 करोड़ का अग्रिम भुगतान पहले ही भारत सरकार द्वारा कर दिया गया था l

परन्तु 20 करोड़ का अग्रिम भुगतान करने के तुरंत बाद ही पाकिस्तान ने कबाइली आतंकवादियों की सहायता से कश्मीर पर सैन्य हमला आरम्भ किया जिसके बाद भारत सरकार ने शेष 55 करोड़ का भुगतान रोक लिया, और यह कहा गया कि पाकिस्तान पहले कश्मीर विवाद को सुलझाए क्यूंकि यह विश्वास और संदेह सबको था कि पाकिस्तान 55 करोड़ रूपये का उपयोग सैन्य क्षमता बढाने हेतु ही करेगा l

नेहरु और पटेल की असहमति के बाद क्रोधवश गांधी द्वारा हठपूर्वक आमरण अनशन करके नेहरु और सरदार पटेल पर जो राजनितिक दबाव की राजनीती खेल कर पाकिस्तान को हठपूर्वक 55 करोड़ दिलवाए गये, वह समूचे देश के नागरिकों के रक्त को उबाल गया था l
गाँधी द्वारा हठपूर्वक अनशन करके 55 करोड़ की राशि प्राप्त होने के कुछ घंटों में ही पकिस्तान ने कश्मीर पर पुन: सैनिक आक्रमण आरम्भ कर दिए l

अभी भारत सरकार कश्मीर की चुनौतियों से निपटने की रणनीति बना ही रही थी कि गांधी ने अचानक पकिस्तान जाने का निर्णय ले लिया, विश्वस्त कारण यह बताये जा रहे थे कि भारत और पाकिस्तान के बीच हुए विभाजन के बाद पाकिस्तान की नाजायज़ मांगों को मनवाने हेतु भारत सरकार के ऊपर दबाव बनाने हेतु गाँधी 7 फरवरी, 1948 को अनशन पर बैठने वाला है l यह अनशन लाहौर में होना था जो कि उस समय पाकिस्तान की राजधानी थी, इस्लामाबाद को पाकिस्तान की राजधानी बाद में बनाया गया l

यह नाजायज़ मांगें कौन सी थीं, इन पर आज तक भारत सरकार द्वारा पर्दा डाल कर रखा गया है साथ ही न्यायालय में हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे द्वारा गांधी वध हेतु गिनवाए गये 150 कारणों को भी तत्कालीन सरकार द्वारा सार्वजनिक किये जाने पर प्रतिबन्ध लगाया गया l
आखिर क्या भय था… और क्या कारण थे, इन पर से पर्दा हारना अत्यंत आवश्यक है ?

जिन्ना एक हिन्दू से मुस्लिम बने परिवार की पहली पीढ़ी का एक भाटिया राजपूत था काठियावाड़ क्षेत्र का, जिसके बाप का नाम था पुन्ना (पुंजा/पुन्ज्या) लाल ठक्कर जिन्ना ने गंधासुर को आमंत्रित किया था पाकिस्तान की यात्रा के लिए l

मुहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग ने कुछ मांगें रखी थीं, जो कि सरासर अमर्यादित और नाजायज़ थीं, और उन मांगों के पीछे इस्लामिक राष्ट्र के पैशाचिक षड्यंत्र भी थे, जिनको कि आप सबके सामने रखना अत्यंत आवश्यक है l

इन मांगों में जो सबसे विषैली मांग थी उसका आकलन आपको अत्यंत गंभीरता से करना होगा :
जिन्ना और मुस्लिम लीग ने मांग रखी कि हमें इस पाकिस्तान से उस पाकिस्तान जाने में समुद्री रस्ते से बहुत लम्बा मार्ग तय करना पड़ता है और पाकिस्तानी जनता अभी हवाई यात्रा करने में सक्षम नही है, इसलिए हमें भारत के बीचो बीच एक नया मार्ग (Corridor) बना कर दिया जाए… उसकी भी शर्तें थीं जो बहुत भयानक थीं l

  1. जो कि लाहोर से ढाका तक जाता हो अर्थात राष्ट्रीय राजमार्ग -1 (NH – 1 : Delhi – Amritsar) और राष्ट्रीय राजमार्ग -2 (NH – 2 : Delhi – Calcutta) को मिलाकर एक कर दिया जाए तत्पश्चात इसे बढ़ाकर लाहोर से ढाका तक कर दिया जाये l
  2. जो दिल्ली के पास से जाता हो …
  3. जिसकी चौड़ाई कम से कम 10 मील की हो अर्थात 16 किलोमीटर (10 Miles = 16.0934 KM)
  4. इस 16 किलोमीटर चौड़ाई वाले गलियारे (Corridor) में बस, ट्रेन, सडक मार्ग आदि बनाने के बाद जो भी स्थान शेष बचेंगे उनमे केवल पाकिस्तानी मुसलमानों की ही बस्तियां बसाई जाएँगी l

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भारतीय हिन्दुओं की तो छोडिये, उस गलियारे (Corridor) में मात्र पाकिस्तानी मुसलमान ही रहेगा भारत में रहने वाला कोई मुसलमान नही रहेगा और इस मांग का यदि गंभीरता से आकलन करें आप तो यह पाएंगे कि यह सीधा सीधा इस गलियारे के ऊपर के उत्तर भारत को पाकिस्तान के दोनों हिस्सों (पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान) से जोड़ने का षड्यंत्र था जिसको कि नाम दिया गया था मुगालिस्तान l

अमर्यादित तथा नाजायज़ मांगों की यह सूची बहुत लम्बी है, जिसका सम्पूर्ण अध्ययन करने के पश्चात आपको यह सोचने पर विवश होना पड़ेगा कि आखिर गाँधी की निष्ठा भारत के प्रति थी या पाकिस्तान के प्रति… और उसके बाद आपको भी यह कहना पड़ेगा कि दुरात्मा गांधी राष्ट्रपिता नही अपितु पाक-पिता था (पाकिस्तान का पिता ) l

इन समस्त जानकारियों को खोजने के लिए एक लंबा समय लगा,  परन्तु इस लम्बे समय में बहुत से तथ्य भी सामने आये जिनको देखने पर प्रथम दृष्टी में ही दुरात्मा गांधी एक कुत्सित मानसिकता का व्यक्ति लगता है कि क्यों उसने मांगों को मानने हेतु भारत सरकार पर दबाव बनाया ? क्या दुरात्मा गाँधी ने इन मांगों का विस्तृत अध्ययन भी किया था या नही ?

इसमें सबसे आश्चर्यजनक तो नगालैंड के एक दुर्गम हिस्से में नियुक्त एक जिला आयुक्त के पास जमाखुदरा रोकड़ जो कि 75 रुपए थे, उसके भी आनुपातिक विभाजन का एक रिकॉर्ड प्राप्त होता है l

प्रत्येक देश को विरासत में मिलीं रेलगाड़ियाँ तथा रेल ट्रैक और सड़क राजमार्गों के लाभ अनुपात भी विभाजित किये गये l

टेंकों का बंटवारा…
हवाई जहाज़ों का बंटवारा…
युद्ध विमानों का बंटवारा…
रेल की पटरियों का बंटवारा…
कोयला, तेल, गैस के प्राकृतिक संसाधनो में रायल्टी l

कराची और ढाका बन्दरगाहों में से एक बन्दरगाह भी भारत के भाग में आना तय किया गया था, परन्तु दुरात्मा गांधी के आदेश पर एम. सी. सीतलवाड नामक एक व्यक्ति जो कि भारत के पहला Attorny General भी नियुक्त किया गया, उसने जाकर कुछ ऐसी शर्तों पर सहमती बनाई कि भारत के हिस्से में न तो कराची का बन्दरगाह आया और न ही ढाका, क्योंकि दोनों में जो भी बन्दरगाह भारत के भाग में आता, उससे पाकिस्तान के नक्शे भारी परिवर्तन होता l

कराची जो कि पाकिस्तान का व्यावसायिक केंद्र था, और मुंबई (Bombay) भारत का, दोनों की शहरों की चल तथा अचल सम्पत्तियों में जमीन आसमान का अंतर था उसे भी गांधी ने बराबर करने को कहा, उदाहरणार्थ यदि मुंबई का मूल्यांकन 1000 रूपये हो और कराची का 25 रूपये तो कराची को 500 रूपये के लगभग दिए जायें, जिससे कि दोनों शहरों को बराबर किया जा सके l
जबकि इसके विपरीत लाहौर के एक शीर्ष पुलिस अधिकारी ने पुलिस विभाग का विभाजन आधा आधा बाँट दिया हिन्दू अधिकारी और मुस्लिम अधिकारी के बीच, जिसमे लाठियां, राइफलें, वर्दी, जूते आदि शामिल थे l

लाहौर स्थित पंजाब सरकार के पुस्तकालय में जो Encyclopedia Britannica की एक प्रति थी उसेधार्मिक आधार पर विभाजित कर के दोनों देशों को आधा-आधा दे दिया गया l पुस्तकालय की पुस्तकें जो भारत भेजने पर सहमती बनाई गई, उन्हें भेजते समय अधिकाँश बहुमूल्य ग्रन्थ, पुस्तकें, अभिलेख आदि नष्ट कर दिए गये l

सबसे हास्यापद तो यह तथ्य सामने आया कि अंग्रेजी शब्दकोश की एक डिक्शनरी को फाड़ कर दो भागों में विभाजित कर दिया गया, A-K शब्दकोश भारत भेजे गये और बाकी पाकिस्तान में रखे गये l

मुस्लिम शराब व्यापारियों को भारत में रहने को कहा गया, क्योंकि इस्लाम में शराब हराम है, परन्तु पाकिस्तान की बेशर्मी देखिये कि इन शराब कि फेक्टरियों का मुआवजा भी माँगा और भविष्य में होने वाले लाभ में हिसा भी l

भारत सरकार के पास एक सरकारी मुद्रा छपने की मशीन थी जिसे देने से भारत सरकार ने स्पष्ट मना कर दिया था l

भारत के वायसराय के पास दो शाही गाड़ियां थीं जिसमे से एक सोने की थी और एक चांदी की थी, दोनों पर विवाद हुआ तो लार्ड माउन्टबेटन के सैन्यादेशवाहक (ADC means Aide-de-camp) ने सिक्का उछाल कर निर्णय किया तो सोने की गाड़ी भारत के हिस्से में आई l वायसराय की साज सज्जा के सामान, कवच, चाबुक, वर्दियां आदि सब बराबर बराबर बाँट ली गई l

अंत में वायसराय के सामान में एक भोंपू (तुरही) शेष बची, जो कि विशेष आयोजनों में बजाने हेतु उपयोग में लाई जाती थी, अब यदि उसे आधा आधा बाँट दिया जाए तो किसी काम का नही और एक देश को देने पर विवाद होना तय था, तो अंत में उसे ADC ने ही अपने पास एक यादगार के रूप में रख लिया l

जनसंख्या के आधार पर हुए इस विभाजन के आधार पर आकलन करें तो समस्त चल और अचलपरिसंपत्तियों में भारत की हिस्सेदारी 82.5% थी, और पाकिस्तान 17.5% की हिस्सेदारी थी, जिसमेतरल संपत्ति, मुद्रित मुद्रा भंडार, सिक्के, डाक और राजस्व टिकटें, सोने के भंडार और भारतीय रिजर्वबैंक की संपत्ति भी शामिल है।

सभी चल और अचल संपत्ति में से भारत और पाकिस्तान के बीच का अनुपात 80-20 में निर्धारित होने की सहमती बनने का अनुमान था, पाकिस्तान ने बेशर्मी की समस्त हदें पार करते हुए मांगें रखीं जिसमे मेज, कुर्सियां, स्टेशनरी, बिजली के बल्ब, स्याही बर्तन, झाडू और सोख्ता कागज (InkPads) का भी विभाजन किया जाना था l
उपरोक्त समस्त सन्दर्भों तथा तथ्यों का आकलन करने पर एक मूल प्रश्न खड़ा होता है कि यदि उपरोक्त वर्णित अनुपात के रूप में पाकिस्तान को 75 करोड़ रुपए देने के लिए दुरात्मा गांधी दबाव बना रहा था तो उस अनुपात की दृष्टि से भारत के लिए कितना कोष बनता था… उत्तर मिलेगा 470 करोड़रुपए l

जबकि अंग्रेज भारत के राजकोष में मात्र 155 करोड़ रूपये छोड़ कर गये थे, शेष धन गांधी ने अंग्रेजों से क्यों नही माँगा ?

इन अमर्यादित तथा नाजायज़ मांगों के प्रति तत्कालीन भारत सरकार ने नाराजगी प्रस्तुत की और और सरदार पटेल ने मांगें मांगने से स्पष्ट मन कर दिया जिसके कारण दुरात्मा गाँधी ने पाकिस्तान जाकर हठपूर्वक आमरण अनशन करने की जिन्ना के सुझाव को स्वीकार किया जिससे कि यह विवाद अंतर्राष्ट्रीय विवाद का रूप ले तथा भारत सरकार पर दबाव बना कर अमर्यादित तथा नाजायज़ मांगों को स्वीकार करवाया जा सके l

यहाँ मैं यह कहने में मुझे कोई झिझक नही है कि श्री मदन लाल पाहवा, श्री नथुराम गोडसे, श्री नारायण आप्टे, श्री विष्णु करकरे, श्री गोपाल गोडसे आदि ने कोई अपराध नही किया अपितु राष्ट्रभक्ति की भावना से ओतप्रोत होकर उन अमर्यादित तथा नाजायज़ मांगों को रुकवाया जिन्हें रुकवा पाने में स्वयं नेहरु और पटेल भी असमर्थ थे l

गांधी वध के अंतिम दिनों के बार में भी यदि हम आकलन करेंगे तो पायेंगे कि 20 जनवरी, 1948 के बम फेंकने के प्रकरण के बाद बिरला हॉउस की सुरक्षा बढाने के स्थान पर घटा दी गई थी, जिससे यह पक्ष उजागर होता है कि नेहरु सरकार उस समय गांधी वध के खतरे को समझते हुए भी इस महान कार्य को होने देना चाहती थी l

परन्तु आखिर 10 दिन ही क्यों …
जबकि उस समय न इंटरनेट था, न मोबाइल, न ही पेजर, न ही फैक्स आदि की सुविधायें थीं अर्थात संचार माध्यम इतने विकसित नही थे, और 20 जनवरी के असफल प्रयास के बाद छिपने के स्थान पर 10 दिन के अंदर ही अंदर ट्रेनों में घूम कर स्वयं को छिपाना, सुरक्षित रखना और नई योजना बना कर संसाधन एकत्रित करके पुन: मात्र 10 दिन में ही क्यों गांधी वध की योजना को पूर्ण किया गया… जबकि आज भी यदि ऐसा कोई प्रयास असफल हो जाये तो स्वयं को छिपाने हेतु व्यक्ति कम से कम 6 महीने से एक वर्ष का समय ले लेता है… आखिर ऐसा क्या संकटकाल था ?

संकटकाल यही था कि 3 फरवरी, 1948 को गांधी लाहौर जा रहा था, और 7 फरवरी 1948 को वह लाहौर में हठपूर्वक आमरण अनशन भारत सरकार पर दबाव बना कर अमर्यादित तथा नाजायज़ मांगों को स्वीकार करवाने के राष्ट्रद्रोही दुष्कृत्य को रोका जा सके l

अन्यथा चल-अचल सम्पत्ति तो जो जाती सो जाती साथ ही सम्पूर्ण उत्तर भारत के मुग्लिस्तान बनाये जाने हेतु इस्लामीकरण का खतरा भी बढ़ जाता l

शुक्रवार, 30 जनवरी 1948, की शाम को बिरला हॉउस में जब गांधी शाम की प्रार्थना सभा हेतु जा रहा था, तो सबकी योजना यह थी कि जब गाँधी प्रार्थना सभा से लौटेगा तो उस समय उसे गोली मारी जाएगी, परन्तु इसके विपरीत हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे ने आदमी शौर्य का साहस देते हुए एक साहसिक निर्णय लिया कि बाद में न जाने अवसर प्राप्त हो या न हो, अभी अवसर है तो योजना को अभी पूर्ण कर दिया जाए, और यही सोचकर उन्होंने तुरंत आगे चल रहे गांधी को तेज़ कदमों से पार किया और आगे बढ़कर गांधी के सीने में अपनी बरेटा रिवोल्वर से गोलियां ठोंक कर एक … नर-पिशाच दुरात्मा मोहनदास करमचन्द ग़ाज़ी का वध किया l

इसे हत्या का नाम देना मर्यादा के विपरीत होगा, इसे वध ही कहा जायेगा, The Righteous Killing,

गांधी वध के पश्चात हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे, नारायण आप्टे तथा विष्णु करकरे वहां से भागे नही, और न ही पुलिस जांच तथा न्यायालय में कभी भी किसी ने गाँधी वध के आरोप को अस्वीकार किया जो कि एक आदमी शौर्य की वीरगाथा की अनुभूति करवाते हैं l

आज भारत के नागरिक या सम्पूर्ण विश्व के नागरिक जो हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे तथा नारायण आप्टे को हत्यारा कह कर सम्बोधित करते हैं उन्हिएँ आवश्यकता है समस्त तथ्यों तथा सन्दर्भों से परिचित होकर इनका आकलन करने की l

कम से कम उत्तर भारत के समस्त राज्यों के निवासियों को तो यह समझना चहिये कि हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे, नारायण आप्टे, मदनलाल पाहवा, विष्णु करकरे, गोपाल गोडसे आदि द्वारा किये गये इस पवित्र कार्य से वे सब मुस्लिम होने से बच गये, अन्यथा जिस प्रकार पकिस्तान में फंसे बड़े बड़े धनवान, बलवान हिन्दू भी मुसलमान हो गये आज उसी भाँती उत्तर भारत के राज्यों के निवासियों का भी इस्लामीकरण तलवार की नोक पर कर दिया जाना था l

अयोध्या, काशी, मथुरा, हरिद्वार, ऋषिकेश आदि की परिस्थिति आज कुछ और ही होतीं l
गाँधी वध से संबंधित इन मूल कारणों की अज्ञानता ही प्रमुख कारण है कि आज भी हुतात्मा पंडित नाथूराम गोडसे का चरित्र चित्रण एक हत्यारे की भांति किया जाता है l

न्याय व्यवस्था और संविधान का गठन इस हेतु किया जाता है कि नागरिकों को कठोर कानूनों से भी उत्पन्न हो और जो उसके बावजूद भी छोटे अपराध, बड़े अपराध करे उसे उसके अनुसार दंड मिले, छोटा दंड छोड़ी सज़ा, बड़ा दंड बड़ी सज़ा l

प्राचीन भारत की न्याय व्यवस्था तथा ऋषियों द्वारा निर्मित दंड संहिताओं का अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि न्याय की मूल भावना होनी चाहिए कि…
1. नागरिकों को अपराध प्रवृत्ति से दूर रखा जाये l
2. अपराधी को दंड देने के बाद पुन: समाज में आम नागरिक का सम्मान प्राप्त हो l

परन्तु गाँधी वध हेतु दोषी पाए जाने पर भारतीय न्याय व्यवस्था द्वारा जो मृत्यु दंड हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे को दिया गया उसके बाद भारतीय जनता को इस प्रकार पढ़ाया लिखाया गया कि आज तक हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे को अपराध मुक्त नही किया जा सका और उन्हें एक हत्यारे के रूप में ही लिखाया पढ़ाया गया l यह एक बहुत बड़ी विडम्बना है l

गान्धी-वध के न्यायिक अभियोग के समय न्यायमूर्ति जी.डी.खोसला से नाथूराम गोडसे ने अपना वक्तव्य स्वयं पढ़ कर सुनाने की अनुमति माँगी थी और उसे यह अनुमति मिली थी। नाथूराम गोडसे का यह न्यायालयीन वक्तव्य भारत सरकार द्वारा प्रतिबन्धित कर दिया गया था।

इस प्रतिबन्ध के विरुद्ध नाथूराम गोडसे के भाई तथा गान्धी-वध के सह-अभियुक्त गोपाल गोडसे ने कई वर्षों तक न्यायिक लडाई लड़ी और उसके फलस्वरूप सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रतिबन्ध को हटा लिया तथा उस वक्तव्य के प्रकाशन की अनुमति दी। नाथूराम गोडसे ने न्यायालय के समक्ष गान्धी-वध के जो 150 कारण बताये थे उनमें से प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं: –

  1. अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ गोली काण्ड (1919) से समस्त देशवासी आक्रोश में थे तथा चाहते थे कि इस नरसंहार के नायक जनरल डायर पर अभियोग चलाया जाये। गान्धी ने भारतवासियों के इस आग्रह को समर्थन देने से स्पष्ठ मना कर दिया।
  2. भगत सिंह व उसके साथियों के मृत्युदण्ड के निर्णय से सारा देश क्षुब्ध था व गान्धी की ओर देख रहा था, कि वह हस्तक्षेप कर इन देशभक्तों को मृत्यु से बचायें, किन्तु गान्धी ने भगत सिंह की हिंसा को अनुचित ठहराते हुए जनसामान्य की इस माँग को अस्वीकार कर दिया।
  3. 6 मई, 1946 को समाजवादी कार्यकर्ताओं को दिये गये अपने सम्बोधन में गान्धी ने मुस्लिम लीग की हिंसा के समक्ष अपनी आहुति देने की प्रेरणा दी।
  4. मोहम्मद अली जिन्ना आदि राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं के विरोध को अनदेखा करते हुए 1921 में गान्धी ने खिलाफ़त आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की। तो भी केरल के मोपला मुसलमानों द्वारा वहाँ के हिन्दुओं की मारकाट की जिसमें लगभग 1500 हिन्दू मारे गये व 2000 से अधिक को मुसलमान बना लिया गया। गान्धी ने इस हिंसा का विरोध नहीं किया, वरन् खुदा के बहादुर बन्दों की बहादुरी के रूप में वर्णन किया।
  5. 1926 में आर्य समाज द्वारा चलाए गए शुद्धि आन्दोलन में लगे स्वामी श्रद्धानन्द की अब्दुल रशीद नामक मुस्लिम युवक ने हत्या कर दी, इसकी प्रतिक्रियास्वरूप गान्धी ने अब्दुल रशीद को अपना भाई कह कर उसके इस कृत्य को उचित ठहराया व शुद्धि आन्दोलन को अनर्गल राष्ट्र-विरोधी तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिये अहितकारी घोषित किया।
  6. गान्धी ने अनेक अवसरों पर शिवाजी एवं महाराणा प्रताप को पथभ्रष्ट कहा।
  7. गान्धी ने जहाँ एक ओर कश्मीर के हिन्दू राजा हरि सिंह को कश्मीर मुस्लिम बहुल होने से शासन छोड़ने व काशी जाकर प्रायश्चित करने का परामर्श दिया, वहीं दूसरी ओर हैदराबाद के निज़ाम के शासन का हिन्दू बहुल हैदराबाद में समर्थन किया।
  8. यह गान्धी ही थे जिन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना को कायदे-आज़म की उपाधि दी।
  9. कांग्रेस के ध्वज निर्धारण के लिये बनी समिति (1931) ने सर्वसम्मति से चरखा अंकित भगवा वस्त्र पर निर्णय लिया किन्तु गान्धी की जिद के कारण उसे तिरंगा कर दिया गया।
  10. कांग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को बहुमत से काँग्रेस अध्यक्ष चुन लिया गया किन्तु गान्धी पट्टाभि सीतारमय्या का समर्थन कर रहे थे, अत: सुभाष बाबू ने निरन्तर विरोध व असहयोग के कारण पद त्याग दिया।
  11. लाहौर कांग्रेस में वल्लभभाई पटेल का बहुमत से चुनाव सम्पन्न हुआ किन्तु गान्धी की जिद के कारण यह पद जवाहरलाल नेहरु को दिया गया।
  12. 14-15 जून, 1947 को दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में भारत विभाजन का प्रस्ताव अस्वीकृत होने वाला था, किन्तु गान्धी ने वहाँ पहुँच कर प्रस्ताव का समर्थन करवाया। यह भी तब जबकि उन्होंने स्वयं ही यह कहा था कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा।
  13. जवाहरलाल की अध्यक्षता में मन्त्रीमण्डल ने सोमनाथ मन्दिर का सरकारी व्यय पर पुनर्निर्माण का प्रस्ताव पारित किया, किन्तु गान्धी जो कि मन्त्रीमण्डल के सदस्य भी नहीं थे; ने सोमनाथ मन्दिर पर सरकारी व्यय के प्रस्ताव को निरस्त करवाया और 13 जनवरी 1948 को आमरण अनशन के माध्यम से सरकार पर दिल्ली की मस्जिदों का सरकारी खर्चे से पुनर्निर्माण कराने के लिए दबाव डाला।
  14. पाकिस्तान से आये विस्थापित हिन्दुओं ने दिल्ली की खाली मस्जिदों में जब अस्थाई शरण ली तो गान्धी ने उन उजड़े हिन्दुओं को जिनमें वृद्ध, स्त्रियाँ व बालक अधिक थे मस्जिदों से खदेड़ बाहर ठिठुरते शीत में रात बिताने पर मजबूर किया गया।
  15. 22 अक्टूबर, 1947 को पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया, उससे पूर्व माउण्टबैटन ने भारत सरकार से पाकिस्तान सरकार को 55 करोड़ रुपये की राशि देने का परामर्श दिया था। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने आक्रमण के दृष्टिगत यह राशि देने को टालने का निर्णय लिया किन्तु गान्धी ने उसी समय यह राशि तुरन्त दिलवाने के लिए आमरण अनशन शुरू कर दिया जिसके परिणामस्वरूप यह राशि पाकिस्तान को भारत के हितों के विपरीत दे दी गयी।

नाथूराम गोडसे को सह-अभियुक्त नारायण आप्टे के साथ 15 नवम्बर, 1949 को पंजाब की अम्बाला जेल में फाँसी पर लटका कर मार दिया गया। उन्होंने अपने अन्तिम शब्दों में कहा था:

“यदि अपने देश के प्रति भक्तिभाव रखना कोई पाप है तो मैंने वह पाप किया है और यदि यह पुण्य है तो उसके द्वारा अर्जित पुण्य पद पर मैं अपना नम्र अधिकार व्यक्त करता हूँ l मुझे विश्वास है कि मनुष्योँ द्वारा स्थापित न्यायालय के ऊपर यदि कोई न्यायालय है, तो उसमेँ मेरे कार्य को अपराधनहीँ समझा जाएगा, मैंने देश और जाति की भलाई हेतु यह पुण्य  किया। ”
– नाथूराम विनायक गोडसे

हुतात्मा पंडित नथुराम गोडसे जी की अंतिम इच्छा आप सबके समक्ष रख रहा हूँ :

“मेरी अस्थियाँ पवित्र सिन्धु नदी में ही उस दिन प्रवाहित करना जब सिन्धु नदी एक स्वतन्त्र नदी के रूप में भारत के झंडे तले बहने लगे, भले ही इसमें कितने भी वर्ष लग जायें, कितनी ही पीढ़ियाँ जन्म लें, लेकिन तब तक मेरी अस्थियाँ विसर्जित न करना…”
प्रतीक्षारत हैं एक राष्ट्रभक्त की अस्थियाँ… मुक्ति हेतु …

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जय जय श्री राम कृष्ण परशुराम

हिन्दुओं का राजनीतिक प्रतिरोध

विश्व की सभ्यताओं तथा संस्कृतियों के सृजन तथा विकास में भारत का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। प्राचीनतम देशों में होने के कारण यह देश विश्व की अनेक घुमक्कड़ जातियों, कबीलों तथा काफिलों की शरणस्थली रहा है। यूनानी, ईरानी, शक, हूण, पठान तथा मुगल समय-समय पर भारत में घुसपैठ करते रहे हैं, परन्तु वे सभी शीघ्र ही या तो यहां के जनजीवन में समरस हो गये या पराजित होकर भाग गये। 16वीं शताब्दी के प्रारम्भ में मुगल बाबर भी भारत में एक विदेशी, आक्रमणकारी तथा लुटेरे के रूप में आया था। उसने मजहबी उन्माद तथा जिहाद की भावना से इस देश के कुछ भाग में लूटमार की, परन्तु वह यहां के जनजीवन को अस्त-व्यस्त न कर सका।

यदि केवल बाबर से लेकर औरंगजेब (1526-1707 ई.) के काल की कुछ प्रमुख घटनाओं का विश्लेषण करें तो सहज ही जानकारी हो जाएगी कि उस समय यहां के प्रमुख हिन्दू समाज ने उसका तीव्र प्रतिकार तथा संघर्ष किया था। यह संघर्ष राजनीतिक तथा सांस्कृतिक, दोनों ही धरातलों पर था। परन्तु मुगल आक्रमणकारी न तो इस देश को दारुल हरब से दारुल इस्लाम ही बना सके और न ही यहां के सांस्कृतिक जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर सके।

विदेशी लुटेरा बाबर

मुगल शासकों में बाबर पहला विदेशी आक्रमणकारी था जिसका पिता उमर शेख मध्य एशिया के एक छोटे से राज्य फरगना (आधुनिक खोकन्द) का स्वामी था। कई संघर्षों में असफल होने पर उसने भारत की ओर रुख किया। 1504 ई. में उसने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया था। 1519-1526 ई. के बीच उसने भारत पर पांच आक्रमण किए। अप्रैल, 1526 ई. में वह पानीपत के युद्ध में इब्राहीम लोदी को हराने में सफल हुआ था।

“बाबरनामा” के अनुसार हिन्दुस्थान पर अधिकार करने की उसकी इच्छा थी। परन्तु बाबर को न यहां के लोगों से कोई लगाव था और न ही हिन्दुस्थान से। उसे केवल यहां की विस्तृत भूमि तथा अपार धन सम्पदा से लगाव था। वह यहां के हिन्दुओं को सर्वदा “काफिर” कहकर पुकारता था। हुमायूं की बहन गुलबदन बेगम ने “हुमायूंनामा” में बाबर की लूट का वर्णन किया है। उसने लिखा है कि पानीपत के युद्ध के पश्चात्, “हजरत बादशाह (बाबर) को पांच बादशाहों का खजाना प्राप्त हुआ और उसने सब खजाना बांट दिया।” बाबर ने भारत के खजाने को अपने परिवार, रिश्तेदारों, दरबारियों में बांटा तथा किसी को भी इससे वंचित नहीं किया। समरकन्द, खुरासन, काश्गर तथा ईरान, अफगानिस्तान तक धन तथा उपहार भेजे। मक्का व मदीना धन भेजा। उसने स्वयं माना कि भेरा से बिहार तक (1528ई.) तक उसके पास 52 करोड़ की सम्पत्ति लूट के रूप में थी।

राणा संग्राम सिंह का महान संघर्ष

बाबर ने पानीपत के युद्ध को तो जीत लिया परन्तु हिन्दू समाज ने उसे केवल एक विदेशी, आक्रमणकारी तथा लुटेरे से अधिक स्वीकार न किया। बाबर के आगरा पहुंचने पर उसके अधिकारियों तथा सेना को तीन दिन तक भोजन नहीं मिला। घोड़ों को चारा भी उपलब्ध नहीं हुआ। अबुल फजल ने स्वीकार किया है कि हिन्दुस्थानी बाबर से घृणा करते थे। इस विदेशी लुटेरे बाबर का अपने जीवन का महानतम संघर्ष खानवा के मैदान में मेवाड़ के शक्तिशाली शासक राणा संग्राम सिंह (राणा सांगा) से हुआ। राणा सांगा महाराणा कुंभा के पौत्र तथा महाराणा रायमल के पुत्र थे। वे अपने समय के महानतम विजेता तथा “हिन्दूपति” के नाम से विख्यात थे। वे भारत में हिन्दू-साम्राज्य की स्थापना के लिए प्रयत्नशील थे। उन्होंने मालवा तथा गुजरात पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था। बाबर के साथ इस संघर्ष के बारे में इतिहासकार लेनपूल ने लिखा है, “अब बाबर को ऐसे उच्च कोटि के कुछ योद्धाओं का सामना करना पड़ा जिनसे इससे पहले कभी टक्कर न हुई थी।”

इस भीषण युद्ध के प्रारंम्भ में ही बाबर की करारी हार हुई तथा उसकी विशाल सेना भाग खड़ी हुई। वास्तव में इस युद्ध में ऐसा कोई राजपूत कुल नहीं था जिसके श्रेष्ठ नायक का रक्त न बहा हो। परन्तु बाबर भागती हुई अपनी सेना को पुन: एकत्रित करने में सफल हुआ। उसने अपने सैनिकों में मजहबी उन्माद तथा भविष्य के सुन्दर सपने देकर जोश भरा तथा लड़ने के लिए तैयार किया, जिसमें उसे सफलता मिली। चन्देरी दुर्ग के रक्षक, राणा सांगा द्वारा नियुक्त मेदिनी राय ने 4,000 राजपूत सैनिकों के साथ संघर्ष किया। संख्या अत्यधिक कम होने पर भी केसरिया वस्त्र धारण कर सैनिकों ने अंतिम सांस तक संघर्ष किया।

राती घाटी का महायुद्ध

मुगल वंश का दूसरा शासक हुमायूं था, जो बाबर का चहेता तथा ज्येष्ठ पुत्र था। व्यक्तिगत जीवन में जहां बाबर शराब का व्यसनी था, वहीं हुमायूं पक्का अफीमची था। हुमायूं जीवन भर लुढ़कता रहा तथा उसकी मौत भी लुढ़ककर (सीढ़ियों से) हुई थी। उसने अपने शासनकाल में कुछ गिने-चुने संघर्ष किए, जिसमें उसे नाममात्र की सफलता मिली। हिन्दू जनता ने उसे पूर्णत: विदेशी शासक के रूप में जाना।

वस्तुत: कामरान बाबर का योग्यतम पुत्र था जो दिल्ली का शासक बनना चाहता था। उसने दिल्ली पर अधिकार करने के लिए पहले राजस्थान को जीतने की योजना बनाई। इस संदर्भ में राती घाटी युद्ध भारतीय शौर्य की एक अमर गाथा है। तात्कालीन मुगल इतिहासकारों ने इस घटना का जानबूझकर वर्णन नहीं किया है। यह युद्ध बीकानेर की भूमि पर 26 अक्तूबर, 1534 ई. को लड़ा गया। इसका वर्णन तत्कालीन लेखक बीठू सूजन ने 1535ई. में अपनी पुस्तक “छन्दराय जैतसी” में किया है। बाद में “वीर विनोद” तथा राजस्थान के अन्य इतिहासकारों ने वर्णन किया है।

इस संघर्ष में कामरान की सेना के साथ घमासान युद्ध हुआ। बीकानेर के शासक जैतसी ने इसमें समस्त राजस्थान के शासकों का सहयोग लिया। जैतसी ने एक विशेषज्ञ रणनीति अपनाई। इसके अनुसार भैंसों तथा बैलों के सीगों पर मशालें बांधी गईं तथा उन्हें भारी संख्या में बीकानेर के जंगलों में बिखेर दिया गया। बीकानेर की जनता को भी अपना बहुमूल्य सामान लेकर शहर छोड़ने की आज्ञा दी। उसने अपनी सेना को भी छुपा दिया। कामरान की विशाल सेनाएं जब बीकानेर पहुंचीं तथा नगर को उजाड़ पाया, यह देख कामरान अति प्रसन्न हुआ। विजय का जश्न मनाया। परन्तु जैतसी ने उसी रात्रि कामरान की सेना पर आक्रमण कर दिया। पशुओं की सींगों पर बंधी हुई मशालों की रोशनी में यह भयंकर संघर्ष हुआ। कामरान की सेना में भगदड़ मच गई, भाग्य से कामरान बच निकला परन्तु उसका शिरस्त्राण वहीं गिर पड़ा। कामरान की सेना को महान क्षति हुई, अत: इस युद्ध को खानवा युद्ध की पराजय के प्रतिकार के रूप में लिया गया।

हेमू द्वारा स्वराज्य स्थापना का प्रयत्न

मुगल वंश का तीसरा शासक अकबर भी विदेशी था। उसकी रगो में भी भारतीय रक्त की एक बूंद न थी। वह अफीम मिली शराब का व्यसनी था। निरक्षर था परन्तु उसकी बुद्धि विलक्षण थी। व्यक्तिगत रूप में उसमें महिला विषयक सभी लत थी। अबुल फजल के अनुसार उसके हरम में लगभग 3000 महिलायें थीं।

अकबर की भारत में विजय तैमूर की वंश-परम्परा के अनुरूप थी, जो नृशंसता, क्रूरता तथा दमन से पूर्ण थी। उसके युद्ध का उद्देश्य धन सम्पदा की प्राप्ति तथा साम्राज्य विस्तार की भावना थी। वह भी छल-कपट से दूसरों पर आक्रमण करने और जीत लेने के पागलपन से युक्त था। अनेक विद्वानों ने उसके कार्यों का असन्तुलित तथा बढ़ा चढ़ाकर वर्णन किया है। खासकर अकबर के हिन्दू प्रतिद्वंदियों के सन्दर्भ में एकपक्षीय वर्णन है। इन संघर्षों में हेमू, महारानी दुर्गावती तथा महाराणा प्रताप के नाम उल्लेखनीय हैं। उस युग में हेमू एक साधारण व्यक्ति से उठकर ऊंचे पद पर पहुंचा था। आदिलशाह सूरी के काल में वह एक विशाल सेना का सेनापति बन गया था। अपने जीवन में उसने 24 लड़ाईयां लड़ी थीं, जिसमें से उसने 22 में विजय प्राप्त की थी। 7 अक्तूबर, 1556 ई. को वह दिल्ली का सम्राट घोषित किया गया था। उसने “विक्रमादित्य” की उपाधि धारण की थी। उसके नाम के सिक्के भी खुदवाये गये थे। मध्यकालीन भारत में वह प्रथम तथा एकमात्र हिन्दू राजा हुआ था, जिसने दिल्ली के सिंहासन पर अधिकार किया था। उसका अकबर से 5 नवम्बर, 1556 ई. को पानीपत के मैदान में संघर्ष हुआ। हेमू ने अकबर की सेना के तीन भागों में से दो को तितर-बितर कर दिया था। तीसरे अर्थात् केन्द्रीय भाग में स्वयं नेतृत्व कर युद्ध किया। परन्तु दायीं आंख में तीर लगने से युद्ध का पासा पलट गया। हेमू को बेहाशी की हालत में गिरफ्तार किया गया। वी.ए. स्मिथ के अनुसार उसका सर काटकर काबुल भेज दिया। उसके पिता को भरतपुर से पकड़कर दिल्ली लाया गया। इस्लाम मजहब न अपनाने पर उनका वध कर दिया गया।

विचारणीय है कि देश की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्नशील हेमू की प्रशंसा क्यों नहीं की गई? एक प्रसिद्ध इतिहासकार डा. आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव ने गंभीर विवेचना करते हुए सही लिखा, “इतिहास का कोई भी निष्पक्ष विद्यार्थी हेमू के सफल नेतृत्व की सराहना किये बिना नहीं रह सकता कि उसने देश से विदेशी शासन को समाप्त करने के लिए कितनी तत्परता से चेष्टा की।” भारत में यह हेमू का न्यायोचित अधिकार था। कम से कम भारत भूमि की विदेशियों से रक्षा करने में उसका योगदान अद्वितीय है। 350 वर्षों के विदेशी शासन को देश से उखाड़ फेंकने और दिल्ली में स्वदेशी शासन को पुन: स्थापित करने के लिए हेमू के साहसपूर्ण प्रयत्न की जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम होगी।

वीरांगना दुर्गावती का बलिदान

सन् 1564 ई. में अकबर का गोंडवाना की विख्यात महारानी दुर्गावती पर एक विशाल सेना के साथ आक्रमण अकारण तथा साम्राज्यवादी लिप्सा का परिचायक है। रानी अपने पुत्र वीर नारायण की संरक्षिका के रूप में शासन चला रही थी। वह अत्यन्त लोकप्रिय तथा अनेक युद्धों की सफल संचालिका थी। वह शेरों का शिकार करती थी। अकबर के अतिक्रमण पर, उसने मुगल सेना से दो दिन तक भयंकर संघर्ष किया। शत्रु द्वारा पकड़े जाने व अपमानित होने की आशंका से उसने स्वयं छुरा भोंककर बलिदान दिया। राजमहल की महिलाओं ने जौहर किया।

जयमल राठौर व फतेहसिंह का बलिदान

मेवाड़ पर अकबर का आक्रमण उत्तरी भारत में सर्वोच्चता प्राप्त करने, साम्राज्य-विस्तार तथा वहां संचित अपार धन सम्पदा प्राप्त करने के लिए था। उसने चित्तौड़ पर दो आक्रमण किए। प्रथम 1567-1568 ई. में तथा दूसरा 1576 ई. में। प्रथम संघर्ष महाराणा उदय सिंह के साथ हुआ, जो मुगल शासक को एक “म्लेच्छ विदेशी” कहता था। उदय सिंह बड़ा दूरदर्शी शासक था। अकबर की नीयत को जानते हुए, उदय सिंह ने चित्तौड़ का समस्त खजाना पहले भामाशाह के पिता, अपने विश्वासपात्र भारमल की देखरेख में रख दिया था। साथ ही एक समानान्तर राजधानी तथा उदयपुर झील का निर्माण किया था। अकबर के आक्रमण के समय किले में 8,000 सैनिकों के साथ जयमल राठौर उसकी देखभाल कर रहा था। अकबर ने स्वयं चार महीने (20 अक्तूबर, 1567-23 फरवरी 1568 ई.) तक किले का घेरा डाला। किले पर अधिकार न होता देख बारूद से सुरंग बनाने की योजना बनाई। इसी में जयमल राठौर घायल हो गया। केलवा के 16 वर्षीय फतेह सिंह (फत्ता) ने संघर्ष जारी रखा और लड़ते-लड़ते अपने प्राणों की आहुति दे दी। अकबर ने दुर्ग पर कब्जा करने के पश्चात कत्लेआम की आज्ञा दी तथा 30,000 हिन्दुओं का कत्ल किया गया। अनेक कलाकृतियां नष्ट हो गईं, महिलाओं ने जौहर किया। “वीर विनोद” में इसका विस्तृत वर्णन किया गया है। क्या विश्व का कोई इतिहासकार अकबर के इस कालिमायुक्त कारनामे को भुला सकेगा?

हल्दी घाटी का महासंग्राम

चित्तौड़ हाथ से निकल जाने पर भी हिन्दू निराश नहीं हुए। 1572 ई. में उदय सिंह की मृत्यु के पश्चात महाराणा प्रताप का गोगुण्डा में राज्याभिषेक किया गया। विपरीत परिस्थितियों में भी उसके स्वतंत्रता के प्रयत्न चलते रहे। इन साहसपूर्ण प्रयत्नों के लिए कौन महाराणा प्रताप की अतुल प्रशंसा न करेगा?

अप्रैल, 1576 ई. में अकबर ने कुंवर मानसिंह व आसफ खां को आक्रमण के लिए भेजा। इस युद्ध की खास बात यह थी कि हिन्दू समाज के प्रत्येक वर्ग ने इसमें बढ़-चढ़कर सहयोग दिया। वनवासी भील भी किसी से पीछ न रहे। यह युद्ध ऐसा था जिसमें दोनों दलों ने अपने को विजयी माना। तत्कालीन सभी भारतीय स्रोतों-राज प्रशस्ति, अमर काव्य वंशावली, राणा रासो तथा जगदीश मंदिर के अभिलेख -जो 13 मई 1652 ई. का है, से यह स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि महाराणा प्रताप की सेना ने मानसिंह की सेना को खदेड़ दिया था। प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीनाथ हीराचन्द ओझा ने उपरोक्त अभिलेख को उद्धृत किया है। आधुनिक विद्वान डा. राजेन्द्र सिंह कुशवाहा ने हल्दी घाटी के संघर्ष के परिणामों की विशद व्याख्या की है। इस संघर्ष ने मुगलों की सेना के अजेय होने के विश्वास को समूल नष्ट कर दिया। संघर्ष में मुगलों के हाथ कुछ भी नहीं लगा, सिवाय महाराणा प्रताप के एक हाथी “राम प्रसाद” के, जिसका नाम अकबर ने “पीर प्रसाद” रख दिया। इस युद्ध से भारतीय नागरिकों में स्वतंत्रता की भावना का जागरण हुआ। यह कहना मूर्खतापूर्ण होगा कि अकबर महाराणा प्रताप की वीरता से इतना प्रसन्न हुआ कि उसने अपने शेष जीवन काल में राणा प्रताप से संघर्ष नहीं किया। वस्तुत: महाराणा प्रताप को नीचा दिखलाने के लिए अकबर के निष्फल प्रयास चलते रहे। इसी काल में महाराणा प्रताप ने छीने गए अधिकांश प्रदेशों पर पुन: अधिकार कर लिया। वास्तव में महाराणा प्रताप सरीखे देशभक्ति के उदाहरण मिलने दुर्लभ हैं, उनकी तुलना अकबर जैसे साम्राज्यवादी से करना उचित नहीं है।

संक्षेप में, अकबर के काल में हेमू विक्रमादित्य, महारानी दुर्गावती तथा महाराणा प्रताप के हिन्दुओं के लिए संघर्षों की स्वर्णिम गाथा का कोई भी निष्पक्ष भारतीय इतिहासकार विश्लेषण तथा विवेचना करेगा तो निश्चय ही उपरोक्त तीन विजेताओं के देश की स्वतंत्रता के लिए, परकीय सत्ता को अस्वीकार करने वाले शासकों की कोटि में रखकर इतिहास में यथोचित सम्मान देगा।

जहांगीर तथा शाहजहां में टकराव

अकबर के पश्चात क्रमश: जहांगीर, शाहजहां तथा औरंगजेब शासक बने। ये तीनों ही मतान्ध थे। इनकी मजहबी कट्टरता तथा राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के विरुद्ध हिन्दू प्रतिकार चलता रहा। मेवाड़ के साथ इनका महाराणा प्रताप की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र राणा अमर सिंह के साथ संघर्ष चलता रहा। 1599 ई. में अकबर ने अपने पुत्र सलीम तथा मानसिंह को भेजा था। जहांगीर के काल में 1606, 1608, 1609 तथा 1613 ई. में परस्पर युद्ध होते रहे। अंत में 1613 ई. में मेवाड़ से संधि हुई, जो औरंगजेब के काल तक प्रभावी रही।

इसी भांति बुन्देलों से टकराव बना रहा। 1626-1628 व 1635-1636 ई. में बुन्देलों ने शहाजहां को चैन से बैठने नहीं दिया। जोधपुर का अमर सिंह राठौर भी उसके लिए चुनौती बना रहा।

औरंगजेब के विरुद्ध हिन्दुओं का प्रतिकार

हिन्दुओं का महानतम संघर्ष तथा प्रतिकार मतान्ध तथा क्रूर अत्याचारी औरंगजेब के काल में हुआ। यह प्रतिकार उत्तर तथा दक्षिण भारत में हुआ। यह प्रतिकार गोकुल जाट के नेतृत्व में मथुरा से प्रारंभ हुआ। औरंगजेब के अधिकारी अब्दुल नबी को मार दिया गया, जिसने केशवराय मंदिर में आग लगा दी थी। बाद में गोकुल पकड़ा गया तथा आगरा ले जाकर उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर पुलिस चौकी पर फेंक दिया गया। उसके परिवार को जबरदस्ती मुसलमान बनाया गया। बाद में राजाराम, राम चेरा व चूड़ामल ने इस संघर्ष को जारी रखा। नारनौल व मेवात के क्षेत्र में सतनामी सम्प्रदाय ने संघर्ष किया, जिसमें 2000 सतनामी शहीद हुए।

मुगलों का सिख गुरुओं से टकराव गुरुनानक देव से ही प्रारंभ हो गया था जब गुरुनानक देव ने अपनी वाणी में बाबर के भारत पर अत्याचारों की कटु आलोचना की थी। जहांगीर ने पांचवे गुरु अर्जुन देव को अनेक कष्ट दिए थे। औरंगजेब के काल में गुरु तेग बहादुर का बलिदान हुआ। गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना कर मुगलों से टक्कर ली। इन्हीं संघर्षों में उनके चारों पुत्रों का भी बलिदान हुआ था। बुन्देलखण्ड में चम्पत राय के नेतृत्व में मुगलों को चुनौती दी गई थी। बुन्देलखण्ड सतत् संघर्ष का केन्द्र बन गया। बाद में छत्रसाल के नेतृत्व में स्वतंत्र राज्य की स्थापना हुई थी। इसी काल में मेवाड़ तथा मारवाड़ में राजसिंह व अजीत सिंह से संघर्ष हुए।

औरंगजेब का सबसे भयंकर संघर्ष महाराष्ट्र के साथ हुआ जो उसके लिए युद्ध का अखाड़ा बन गया। शिवाजी के रूप में हिन्दू शक्ति का अभ्युदय तथा जागरण औरंगजेब के लिए अभिशाप बन गया। शिवाजी का लक्ष्य भारत भूमि से विदेशियों के साम्राज्य को नष्ट कर सुविशाल हिन्दू साम्राज्य की स्थापना करना था। इसी कारण औरंगजेब से अनेक संघर्ष कर उन्होंने 1674 ई. में हिन्दू साम्राज्य का राज्याभिषेक मनाया था। विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार श्री जदुनाथ सरकार ने लिखा “शिवाजी के राष्ट्रव्यापी कार्य से औरंगजेब तथा अन्य सभी मुगल ताकतें विचलित हो गई थीं। औरंगजेब शिवाजी के विरुद्ध अनेक सेनापति भेजता था, पर हर बार एक ही प्रश्न रहता था कि अब किसे भेजा जाए।” शिवाजी के पश्चात संभा जी, राजाराम व ताराबाई उसके लिए विनाशकारी साबित हुए थे।

वामपंथी इतिहासकारों द्वारा फैलाई गई भ्रांतियां

यहां पर यह उल्लेखनीय है कि कुछ तथाकथित सेकुलरवादी तथा वामपंथी इतिहासकारों ने मुगल साम्राज्य को भारत का “शानदार” काल तथा मुगल शासकों की “महान मुगल” कहा है। इनके अनुसार अकबर तथा औरंगजेब तत्कालीन राणा प्रताप, शिवाजी की तुलना में “राष्ट्रीय शासक” थे। यहां तक कि वामपंथी लेखकों ने औरंगजेब को “जिंदा पीर” तक लिख डाला। जबकि उन्होंने राणा प्रताप, शिवाजी तथा गुरु गोविन्द का प्रभाव कुछ क्षेत्रों तक सीमित बतलाया। वस्तुत: 1960 के दशक से वामपंथी इतिहासकारों ने मुगल शासकों की तुलना करते हुए उन्हें महाराणा प्रताप, शिवाजी तथा गुरु गोविन्द सिंह से श्रेष्ठ बताते हुए एक झूठे प्रचार तंत्र तथा राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप अवसरवादिता को प्रश्रय दिया।

समझने के लिए यदि महाराणा प्रताप के संघर्षमय जीवन को लें तो विदेशी मुगल शासन की स्थापना के पश्चात पचास वर्षों में यह पहला मुगलों के विरुद्ध संघर्ष था, जिसमें मुगलों की अजेय सेना की धारणा को समूल नष्ट कर दिया था। हल्दी घाटी के महान संघर्ष ने हिन्दू समाज में नव चेतना, आत्मविश्वास तथा वीजिगीषु वृति को जगाया। वामपंथी इतिहासकारों ने महाराणा प्रताप को केवल दिल्ली के सम्राट के संदर्भ में ही देखने का प्रयत्न किया या मेवाड़ के राजाओं की श्रृंखला की एक कड़ी भर माना। वस्तुत: किसी शासक का मूल्यांकन तत्कालीन विद्वानों ने राष्ट्र जीवन मूल्यों के लिए किए गए प्रयत्नों के रूप में आंका जाना चाहिए। कर्नल टाड का यह कथन अकाट है कि “अरावली पर्वत-श्रृंखलाओं का कोई भी पथ ऐसा नहीं है जो प्रताप के किसी कार्य से पवित्र न हुआ हो-किसी शानदार विजय अथवा उससे भी शानदार पराजय से। हल्दी (घाटी) मेवाड़ की धर्मों पल्ली है तथा दिवेर का मैदान उसकी मैराथन है।” आगामी भारत के इतिहास में राणा प्रताप हमेशा प्रेरक रहे, अकबर नहीं। शचीन्द्र नाथ सान्याल की क्रांतिकारी समिति का कोई भी सदस्य ऐसा नहीं हो एकता था जो चितौड़ के विजय स्तम्भ के नीचे शपथ न ले। चितौड़ की तीर्थ यात्रा और हल्दी घाटी का तिलक अनिवार्य हो गया था। वस्तुत: अंग्रेजों के शासनकाल में दासता से मुक्ति दिलाने में प्रताप के नाम ने जादू का काम किया। 1913 में अपनी पत्रिका का पहला अंक प्रताप को समर्पित करते हुए प्रसिद्ध राष्ट्रवादी गणेश शंकर विद्यार्थी ने लिखा था “संसार के किसी भी देश में तू (प्रताप) होता तो तेरी पूजा होती और तेरे नाम पर लोग अपने को न्योछावर करते। “अमरीका में होता तो वाशिंगटन या लिंकन से तेरी किसी तरह कम पूजा न होती, इंग्लैण्ड में होता तो वेलिंग्टन या नेलशन को तेरे आगे झुकना पड़ता, फ्रांस में जान आफ आर्क तेरी टक्कर में गिनी जाती और इटली तुझे मैजिनी के मुकाबले रखती।” एक विद्वान ने ठीक ही प्रताप को अकबर के विरुद्ध “भारत के प्रबल तात्विक भावना का प्रतीक” माना है।

इसी भांति महादेव गोविन्द रानडे ने शिवाजी को एक महान संघर्ष तथा तपस्या का परिणाम माना है। वामपंथी इतिहासकार शिवाजी को भी औरंगजेब की तुलना में राष्ट्रीय मानने को तैयार नहीं हैं, उनके संघर्षों को देश के साथ जोड़ने में उन्हें शर्म आती है। बल्कि वे सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, जस्टिस रानडे, पं. मदन मोहन मालवीय, आर.सी. दत्त व लोकमान्य तिलक का भी कटु आलोचना करते हैं, जिन्होंने राणा प्रताप, शिवाजी तथा गुरुगोविन्द सिंह को राष्ट्रीय पुरुष माना।

यह सर्वविदित है कि शिवाजी द्वारा हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना का लक्ष्य औरंगजेब जैसे “जार” शासक से भिन्न था। उनके द्वारा प्रारंभ किया गया आन्दोलन कोई व्यक्तिगत आन्दोलन नहीं था बल्कि एक देशव्यापी आन्दोलन था। जिसका लक्ष्य था हिन्दुत्व की रक्षा तथा भारत भूमि से विदेशी साम्राज्य को पूर्णत: नष्ट कर एक विशाल हिन्दू साम्राज्य की स्थापना करना। यहां पर यह लिखना अनुचित न होगा कि शिवाजी के काल में भारत में आठ विदेशी राज्य थे। यह उल्लेखनीय है कि न केवल मुगलों ने बल्कि इन सभी शक्तियों ने शिवाजी का लोहा माना था। ऐसी परिस्थिति में, हर समय घोड़े की पीठ पर रहने वाले शिवाजी की तुलना पालकी में बैठकर युद्ध करने वाले औरंगजेब से करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में कहीं भी राष्ट्रीय स्फूर्ति एवं जागरण के लिए औरंगजेब का एक भी नाद सुनाई नहीं देता, जबकि शिवाजी के जयघोष के बिना कोई राष्ट्रीय संघर्ष पूरा नहीं होता।

इसी भांति श्री गुरु गोविन्द सिंह का व्यक्तित्व एवं कृतित्व भारतीय इतिहास का ज्वलन्त उदाहरण है। श्री गुरु गोविन्द सिंह ने समस्त समाज को भययुक्त तथा नि:स्वार्थ भावना से ओतप्रोत किया था। नि:संदेह वे मुगल शासन के विरुद्ध एक प्रखर धर्मनिष्ठ योद्धा थे।

उपरोक्त विवेचन से निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मुगल सम्राट विदेशी साम्राज्यवादी तथा अधिकतर मतान्ध थे। उन्हें भारत तथा भारतीय जनता से लगाव नहीं था। इसलिए राष्ट्रीय आन्दोलन के काल में भारतीयों को राणा प्रताप, शिवाजी तथा गुरु गोविन्द सिंह से प्रेरणा मिली, न कि अकबर या औरंगजेब से। इन तीनों का वैशिष्ट्य इस बात में था कि तीनों ने ही पराधीनता को नकार कर स्वाधीनता के लिए जीवन भर संघर्ष किया। बाबर से औरंगजेब तक राणा सांगा, हेमू विक्रमादित्य, राणा प्रताप, शिवाजी तथा गुरु गोविन्द सिंह के रूप में भारत में स्वराज्य की स्थापना के लिए सतत संघर्ष होते रहे।

ईसाई धर्मान्तरण-मदर टेरेसा, अल्फांसो और जॉन पॉल की पोल खोल

विश्व इतिहास इस बात का प्रबल प्रमाण हैं की हिन्दू समाज सदा से शांतिप्रिय समाज रहा हैं। एक ओर मुस्लिम समाज ने पहले तलवार के बल पर हिन्दुओं को मुस्लमान बनाने की कोशिश करी थी, अब सूफियो की कब्रों पर हिन्दूओं के सर झुकवाकर, लव जिहाद या ज्यादा बच्चे बनाकर भारत की सम्पन्नता और अखंडता को चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं दूसरी ओर ईसाई समाज हिन्दुओ को ईसा मसीह की भेड़ बनाने के लिए रुपये, नौकरी, शिक्षा अथवा प्रार्थना से चंगाई के पाखंड का तरीका अपना रहे हैं।
आज के समाचार पत्र में छपी खबर की चर्च द्वारा दिवंगत पोप जॉन पॉल द्वितीय को संत घोषित किया गया हैं ने सेमेटिक मतों की धर्मांतरण की उसी कुटिल मानसिकता की ओर हमारा ध्यान दिलाया हैं। पहले तो हम यह जाने की यह संत बनाने की प्रक्रिया क्या हैं?
सबसे पहले ईसाई समाज अपने किसी व्यक्ति को संत घोषित करके उसमे चमत्कार की शक्ति होने का दावा करते हैं। विदेशो में ईसाई चर्च बंद होकर बिकने लगे हैं और भोगवाद की लहर में ईसाई मत मृतप्राय हो गया हैं। इसलिए अपनी संख्या और प्रभाव को बनाये रखने के लिए एशिया में वो भी विशेष रूप से भारत के हिन्दुओं से ईसाई धर्म की रक्षा का एक सुनहरा सपना वेटिकन के संचालकों द्वारा देखा गया हैं। इसी श्रृंखला में सोची समझी रणनीति के अंतर्गत पहले भारत से दो हस्तियों को नन से संत का दर्जा दिया गया था ।पहले मदर टेरेसा और बाद में सिस्टर अलफोंसो को संत बनाया गया था और अब जॉन पॉल को घोषित किया गया हैं।

यह संत बनाने की प्रक्रिय अत्यंत सुनियोजीत होती हैं। पहले किसी गरीब व्यक्ति का चयन किया जाता हैं जिसके पास इलाज करवाने के लिए पैसे नहीं होते, जो बेसहारा होता हैं, फिर यह प्रचलित कर दिया जाता हैं की बिना किसी ईलाज के केवल मात्र प्रार्थना से उसकी बीमारी ठीक हो गई और यह कृपा एक संत के चमत्कार से हुई। गरीब और बीमारी से पीड़ित जनता को यह सन्देश दिया जाता हैं की सभी को ईसा मसीह को धन्यवाद देना चाहिए और ईसाइयत को स्वीकार करना चाहिए क्योंकि पगान पूजा अर्थात हिन्दुओं के देवता जैसे श्रीराम और श्रीकृष्ण में चंगाई अर्थात बीमारी को ठीक करने की शक्ति नहीं हैं अन्यथा उनको मानने वाले कभी के ठीक हो गए होते।

अब जरा ईसाई समाज के दावों को परिक्षा की कसौटी पर भी परख लेते हैं।

मदर टेरेसा जिन्हें दया की मूर्ति, कोलकाता के सभी गरीबो को भोजन देने वाली, अनाथ एवं बेसहारा बच्चो को आश्रय देने वाली, जिसने अपने जन्म देश को छोड़ कर भारत के गटरों से अतिनिर्धनों को सहारा दिया, जो की नोबेल शांति पुरस्कार की विजेता थी, एक नन से संत बना दी गयी की उनकी हकीकत से कम ही लोग वाकिफ हैं। जब मोरारजी देसाई की सरकार में धर्मांतरण के विरुद्ध बिल पेश हुआ तो इन्ही मदर टेरेसा ने प्रधान मंत्री को पत्र लिख कर कहाँ था की ईसाई समाज सभी समाज सेवा की गतिविधिया जैसे की शिक्षा, रोजगार, अनाथालय आदि को बंद कर देगा अगर उन्हें अपने ईसाई मत का प्रचार करने से रोका जायेगा। तब प्रधान मंत्री देसाई ने कहाँ था इसका अर्थ क्या यह समझा जाये की ईसाईयों द्वारा की जा रही समाज सेवा एक दिखावा मात्र हैं और उनका असली प्रयोजन तो धर्मान्तरण हैं।
यही मदर टेरेसा दिल्ली में दलित ईसाईयों के लिए आरक्षण की हिमायत करने के लिए धरने पर बैठी थी। महाराष्ट्र में 1947 में एक चर्च के बंद होने पर उसकी संपत्ति को आर्यसमाज ने खरीद लिया। कुछ दशकों के पश्चात ईसाईयों ने उस संपत्ति को दोबारा से आर्यसमाज से ख़रीदने का दबाव बनाया। आर्यसमाज के अधिकारीयों द्वारा मना करने पर मदर टेरेसा द्वारा आर्यसमाज के पदाधिकारियों को देख लेने की धमकी दी गई थी।
प्रार्थना से चंगाई में विश्वास रखने वाली मदर टेरेसा खुद विदेश जाकर तीन बार आँखों एवं दिल की शल्य चिकित्सा करवा चुकी थी। यह जानने की सभी को उत्सुकता होगी की हिन्दुओं को प्रार्थना से चंगाई का सन्देश देने वाली मदर टेरेसा को क्या उनको प्रभु ईसा मसीह अथवा अन्य ईसाई संतो की प्रार्थना द्वारा चंगा होने का विश्वास नहीं था जो वे शल्य चिकित्सा करवाने विदेश जाती थी?

अब सिस्टर अलफोंसो का उदहारण लेते हैं। वह केरल की रहने वाली थी। अपनी करीब तीन दशकों के जीवन में वे करीब २० वर्ष तक अनेक रोगों से स्वयं ग्रस्त रही थी। केरल एवं दक्षिण भारत में निर्धन हिन्दुओं को ईसाई बनाने की प्रक्रिया को गति देने के लिए संभवत उन्हें भी संत का दर्जा दे दिया गया और यह प्रचारित कर दिया गया की उनकी प्रार्थना से भी चंगाई हो जाती हैं।
अभी हाल ही में सुर्ख़ियों में आये दिवंगत पोप जॉन पॉल स्वयं पार्किन्सन रोग से पीड़ित थे और चलने फिरने से भी असमर्थ थे। यहाँ तक की उन्होंने अपना पद अपनी बीमारी के चलते छोड़ा था।

पोप जॉन पॉल को संत घोषित
पोप जॉन पॉल को संत घोषित करने के पीछे कोस्टा रिका की एक महिला का उदहारण दिया जा रहा हैं जिसके मस्तिष्क की व्याधि का ईलाज करने से चिकित्सकों ने मना कर दिया था। उस महिला द्वारा यह दावा किया गया हैं की उसकी बीमारी पोप जॉन पॉल द्वितीय की प्रार्थना करने से ठीक हो गई हैं। पोप जॉन पॉल चंगाई करने की शक्ति से संपन्न हैं एवं इस करिश्मे अर्थात चमत्कार को करने के कारण उन्हें संत का दर्ज दिया जाये।

इस लेख का मुख्य उद्देश्य आपस में वैमनस्य फैलाना नहीं हैं अपितु पाखंड खंडन हैं। ईसाई समाज से जब यह पूछा जाता हैं की आप यह बताये की जो व्यक्ति अपनी खुद की बीमारी को ठीक नहीं कर सकता, जो व्यक्ति बीमारी से लाचार होकर अपना पद त्याग देता हैं उस व्यक्ति में चमत्कार की शक्ति होना पाखंड और ढोंग के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं। अपने आपको चंगा करने से उन्हें कौन रोक रहा था?
यह तो वही बात हो गई की खुद निसंतान मर गए औरो को औलाद बक्शते हैं। ईसाई समाज को जो अपने आपको पढ़ा लिखा समाज समझता हैं इस प्रकार के पाखंड में विश्वास रखता हैं यह बड़ी विडम्बना हैं। मदर टेरेसा, सिस्टर अल्फोंसो, पोप जॉन पॉल सभी अपने जीवन में गंभीर रूप से बीमार रहे। उन्हें चमत्कारी एवं संत घोषित करना केवल मात्र एक छलावा हैं, ढोंग हैं, पाखंड हैं, निर्धन हिन्दुओं को ईसाई बनाने का एक सुनियोजित षडयन्त्र हैं। अगर प्रार्थना से सभी चंगे हो जाते तब तो किसी भी ईसाई देश में कोई भी अस्पताल नहीं होने चाहिए, कोई भी बीमारी हो जाओ चर्च में जाकर प्रार्थना कर लीजिये। आप चंगे हो जायेगे। खेद हैं की गैर ईसाईयों को ऐसा बताने वाले ईसाई स्वयं अपना ईलाज अस्पतालों में करवाते हैं।
मेरा सभी हिन्दू भाइयों से अनुरोध हैं की ईसाई समाज के इस कुत्सित तरीके की पोल खोल कर हिन्दू समाज की रक्षा करे और सबसे आवश्यक अगर किसी गरीब हिन्दू को ईलाज के लिए मदद की जरुरत हो तो उसकी धन आदि से अवश्य सहयोग करे जिससे वह ईसाईयों के कुचक्र से बचा रहे।

क्या आप मुसलमान हो???

  1. अगर आप को शराब से परहेज है पर आपको अफीम से हेरोइन बना कर बेचने में कोई ऐतराज नहीं है तो आप मुसलमान हो।

  2. अगर आपके पैरों में जूते नहीं है पर 3000 डॉलर
    की मशीनगन और 5000 डॉलर का रॉकेट लॉन्चर खरीद सकते हो तो आप मुसलमान हो।

  3. अगर आपके अपने दाँतों से ज्यादा आपके बच्चे हैं
    तो आप मुसलमान हो।

  4. अगर आप समझते हो कि जैकेट सिर्फ दो ही काम के लिए होती है या तो सुसाइड बम्ब के लिए होती है या बुलेट प्रूफ होती है तो आप मुसलमान हो ।

  5. अगर आप को ऐसा कोई नजर नहीं आता जिसके खिलाफ आपने जिहाद न छेडा हो या छेड़ना न चाहते हो तो आप मुसलमान हो।

  6. अगर आप को ये जानकर हैरानी होती है कि मोबाइल
    फोन का इस्तेमाल भीडभाड वाले इलाकों में बम्ब विस्फोट करने के अलावा भी हो सकता है तो आप मुसलमान हो।

  7. अगर आपको लगता है औरत सिर्फ गुलाम है और
    हरेक के पास कम से कम चार होनी चाहिए तो आप मुसलमान हो।

  8. अगर आपको ये पोस्ट आक्रामक और नस्लभेदी लगती है और आप इसे शेयर नहीं करते तो आप
    मुसलमान हो।

इसलिए हिंदू नापाक हैं और मुस्लिम पाक

मुसलमान अपने आप को पाक कहते हैं और हिंदु को नापाक सिर्फ इसलिए कि उनका लिंग कटा होता है इसलिए पेशाब करने के बाद वो मिट्टी के ढेले से उसे साफ कर लेते हैं और चूँकि हिंदुओं का लिंग कटा नहीं होता इसलिए वो नापाक होते हैं क्योंकि बिना कटे लिंग को अगर पानी से धो दिया भी जाय तो भी कुछ ना कुछ अंश तो फसा रह ही जाएगा ना लिंग में..
इस तरह की बातें ये अपने आपको तसल्ली देने के लिए करते हैं या सच में मुसलमान धर्म अपना लेने के बाद कुरान, अल्लाह और मुहम्मद सब मिलकर इनकी बुद्धियों को डाका डाल कर लेते जाते हैं क्योंकि इन तीनों(कुरान,मुहम्मद और अल्लाह) को बुद्धि की सख्त आवश्यकता है क्योंकि ये चीज इनके पास नहीं है…
वैसे तो पेशाब करने के बाद उसे पानी से धोने के बारे में हिंदु धर्म में भी बताया गया है लेकिन जबसे हिंदुओं ने धोती को त्यागकर फूलपैन्ट पहनना शुरु किया तबसे बैठकर पेशाब करने और पानी से धोने की परम्परा को त्यागकर अंग्रेजों की तरह खड़े-खड पेशाब करना शुरु कर दिया..पर उल्लेखनीय बात ये है कि क्या शुद्धता का पैमाना बस यही पेशाब की कुछ बूँदें….?? बाँकि मल त्याग करने के बाद अगर गुदा ना धोओ तो भी पाक कोई बात नहीं..!.? अगर शौच के बाद हाथ को साबुन से ना धोओ फिर भी पाक..!.?अगर ६ दिन ना नहाओ फिर भी पाक.!.?
ये भारतीय संस्कार इनलोगों में अबतक है कि शौच के बाद गुदा धो लेते हैं पानी से पर हाथ धोने का संस्कार क्यों भुला दिए यार..?कहीं मुसलमान धर्म में ये भी कोई गुनाह तो नहीं…..??
चलिए अब जरा इनके पाक होने का एक और हास्यास्पद तरीका दिखिए…नमाज पढ़ने के पहले इन्हें वजू करना पड़ता है..वजू के लिए इन्हें जोड़ के नीचे वाले भाग को धोना पड़ता है यनि केहुनी से नीचे,ठेहुने से नीचे तथा गर्दन से उपर वाले भाग को..चलिए यहाँ तक ठीक है पर समस्या तब आती है जब वजू करने के बाद ये नवाज के लिए तैयार होते हैं और इनके पीछे से अपानवायु छूट जाती है..क्योंकि हवा के निकलते ही वजू टूट जाती है और इन्हें फिर से वजू करना पड़ता है यनि कि फिर से हाथ पैर और सर भिगोंना पड़ता है…अब प्रश्न ये है कि अगर वायु कमर के नीचे से निकली है तो कमर के पूरे नीचे वाले भाग को भिंगोना चाहिए..!! और फिर केहुनी और सर का क्या दोष जो उसे भी फिर से कष्ट……!
पता नहीं इनलोगों में शुद्ध होने के लिए नहाने की भी कोई परम्परा है या नहीं..!
एक बात तो आपलोग जानते ही होंगे कि यहाँ भी हिंदु के विपरीत जाने के लिए ये पानी को केहुनी से हाथ की तरफ नहीं बल्कि हथेली से केहुनी की तरफ गिराते हैं…
चलिए छोड़िए ये सब छोटी मोटी बातें हैं..मुझे बस ये पूछना है कि क्या शुद्धता का पैमाना सिर्फ लिंग तक ही सीमित है,बाकि अंग से कोई लेना-देना नहीं…?जो हिंदु पूरे तन को सिर्फ पानी से ही नहीं बल्कि विभिन्न प्रकार के अपमार्जक का उपयोग करके गंगा जल छिड़ककर अपने मन को गंदे विचारों से दूर रखकर उसे भगवान की भक्ति से भरकर अपने तन के साथ-साथ अपने मन को भी शुद्ध रखने पर ध्यान देते हैं..जिस हिंदु का पैर भी अगर मैले पर चला जाता है तो पहने हुए सारे कपड़े को अपमार्जक में धोने के बाद खुद स्नान करता है वो हिंदु नापाक और जो मुस्लिम जहाँ-तहाँ से ढेले को उठाकर अपना लिंग पॊछ लेते हैं वो पाक….!!क्या ये न्याय है..??
जैसा कि मैंने अपने पिछले लेख में बताया था कि उम्रभर मुसलमानों का सारा ध्यान सिर्फ लिंग पर ही केन्द्रित होता है यनि उनकी हरेक बात बस यहीं आकर खत्म हो जाती है…
अल्लाह की भक्ति क्यों….
इसलिए कि जन्नत में हूरें मिलेंगी जो इस लिंग को सुख देंगी…(अल्लाह की भक्ति भी लिंग पर आकर खत्म)
आत्मघाती बन बनते हैं क्यॊं… इस बात का भी अंतिम लक्ष्य यहीं पूरा होता है..
इनके शुद्ध होने का भी क्रिया-विधि बस यहीं आकर खत्म होता है….यनि बस लिंग को मिट्टी से सटा दो हो गए पाक…
लिंग-काटने की परम्परा इनके काटने-छाँटने की प्रवृति का ही परिणाम है..और जाहिर सी बात है जिसका बचपन में ही इतना महत्त्वपूर्ण अंग काट दिया जाय उसमें भी मारने-काटने की प्रवृति तो आयेगी ही लेकिन बात यहीं पर आकर खत्म हो जाती तो कोई बात नहीं..दुःख की बात ये है कि ये लड़कियों के लिंग को भी नहीं छोड़ते….उनके लिंग को भी ६-७ साल की उम्र में काट देते हैं ये..और ये क्रिया बहुत ही कष्टकारी होती है..ये क्रिया इसलिए की जाती है ताकि लड़कियाँ संभोग का सुख प्राप्त ना कर सके,यनि वो सिर्फ मर्दों के भोगने की चीज है,उसके सुख दुख से इन्हें कोई लेना-देना नहीं..इस तरह की परम्परा के बारे में भारत के बहुत कम ही लोग जानते हैं क्योंकि ये भरतीय संस्कृति का प्रभाव है कि भारतीय मुसलमान औरतें इस तरह के कष्ट से बच गई लेकिन मुस्लिम बहुल देशों की औरतें अभी भी सह रही हैं जैसे बंग्ला-देश,पाकिस्तान आदि.मैंने ये लेख बंग्ला देश की एक औरत की आत्मकथा में पढ़ा था.उसमें जिसतरह वर्णन किया गया था सचमुच हृदय-विदारक घटना थी वो..

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क्रिश्चियनिटी का सच

क्या कोई बता सकता है की अपने समय की हॉलीवुड की सबसे बड़ी ब्लॉकबस्टर फ़िल्म The Vinci code को भारत में क्यों बैन कर दिया गया????
क्या कोई बता सकता है की ओशो रजनीश ने ऐसा क्या कह दिया था जिससे उदारवादी कहे जाने वाले और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ढिंढोरा पीटने वाला अमेरिका रातों-रात उनका दुश्मन हो गया था और उनको जेल में डालकर यातनायें दी गयी और जेल में उनको थैलियम नामक धीमा जहर दिया गया जिससे उनकी बाद में मृत्यु हो गयी?????

क्यों वैटिकन का पोप बेनेडिक्ट उनका दुश्मन हो गया और पोप ने उनको जेल में प्रताड़ित किया? दरअसल इस सब के पीछे ईसाइयत का वो बड़ा झूठ है जिसके खुलते ही पूरी ईसाईयत भरभरा के गिर जायेगी। और वो झूठ है प्रभु इसा मसीह के 13 वर्ष से 30 वर्ष के बीच के गायब 17 वर्षों का, आखिर क्यों इसा मसीह की कथित रचना बाइबिल में उनके जीवन के इन 17 वर्षों का कोई ब्यौरा नहीं है? ईसाई मान्यता के अनुसार सूली पर लटका कर मार दिए जाने के बाद इसा मसीह फिर जिन्दा हो गया था। तो अगर जिन्दा हो गए थे तो वो फिर कहाँ गए इसका भी कोई अता-पता बाइबिल में नहीं है। ओशो ने अपने प्रवचन में ईसा के इसी अज्ञात जीवनकाल के बारे में विस्तार से बताया था। जिसके बाद उनको ना सिर्फ अमेरिका से प्रताड़ित करके निकाला गया बल्कि पोप ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके उनको 21 अन्य ईसाई देशों में शरण देने से मना कर दिया गया।

असल में ईसाईयत/Christianity की ईसा से कोई लेना देना नहीं है। अविवाहित माँ की औलाद होने के कारण बालक ईसा समाज में अपमानित और प्रताडित करे गए जिसके कारण वे 13 वर्ष की उम्र में ही भारत आ गए थे। यहाँ उन्होंने हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्म के प्रभाव में शिक्षा दीक्षा ली। एक गाल पर थप्पड़ मारने पर दूसरा गाल आगे करने का सिद्धान्त सिर्फ भारतीय धर्मो में ही है, ईसा के मूल धर्म यहूदी धर्म में तो आँख के बदले आँख और हाथ के बदले हाथ का सिद्धान्त था। भारत से धर्म और योग की शिक्षा दीक्षा लेकर ईसा प्रेम और भाईचारे के सन्देश के साथ वापिस जूडिया पहुँचे। इस बीच रास्ते में उनके प्रवचन सुनकर उनके अनुयायी भी बहुत हो चुके थे। इस बीच प्रभु ईसा के 2 निकटतम अनुयायी Peter और Christopher थे। इनमें Peter उनका सच्चा अनुयायी था जबकि Christopher धूर्त और लालची था।जब ईसा ने जूडिया पहुंचकर अधिसंख्य यहूदियों के बीच अपने अहिंसा और भाईचारे के सिद्धान्त दिए तो अधिकाधिक यहूदी लोग उनके अनुयायी बनने लगे। जिससे यहूदियों को अपने धर्म पर खतरा मंडराता हुआ नजर आया तो उन्होंने रोम के राजा Pontius Pilatus पर दबाव बनाकर उसको ईसा को सूली पर चढाने के लिए विवश किया गया। इसमें Christopher ने यहूदियों के साथ मिलकर ईसा को मरवाने का पूरा षड़यंत्र रचा। हालाँकि राजा Pontius को ईसा से कोई बैर नहीं था और वो मूर्तिपूजक Pagan धर्म जो ईसाईयत और यहूदी धर्म से पहले उस क्षेत्र में काफी प्रचलित था और हिन्दू धर्म से अत्यधिक समानता वाला धर्म है का अनुयायी था। राजा अगर ईसा को सूली पर न चढाता तो अधिसंख्य यहूदी उसके विरोधी हो जाते और सूली पर चढाने पर वो एक निर्दोष व्यक्ति की हत्या के दोष में ग्लानि अनुभव् करता तो उसने Peter और ईसा के कुछ अन्य विश्वस्त भक्तों के साथ मिलकर एक गुप्त योजना बनाई। अब पहले मैं आपको यहूदियों की सूली के बारे में बता दूँ। ये विश्व का सजा देने का सबसे क्रूरतम और जघन्यतम तरीका है। इसमें व्यक्ति के शरीर में अनेक कीले ठोंक दी जाती हैं जिनके कारण व्यक्ति धीरे धीरे मरता है। एक स्वस्थ व्यक्ति को सूली पर लटकाने के बाद मरने में 48 घंटे तक का समय लग जाता है और कुछ मामलो में तो 6 दिन तक भी लगे हैं। तो गुप्त योजना के अनुसार ईसा को सूली पर चढाने में जानबूझकर देरी की गयी और उनको शुक्रवार को दोपहर में सूली पर चढ़ाया गया। और शनिवार का दिन यहूदियों के लिए शब्बत का दिन होता हैं इस दिन वे कोई काम नहीं करते। शाम होते ही ईसा को सूली से उतारकर गुफा में रखा गया ताकि शब्बत के बाद उनको दोबारा सूली पर चढ़ाया जा सके। उनके शरीर को जिस गुफा में रखा गया था उसके पहरेदार भी Pagan ही रखे गए थे। रात को राजा के गुप्त आदेश के अनुसार पहरेदारों ने Peter और उसके सथियों को घायल ईसा को चोरी करके ले जाने दिया गया और बात फैलाई गयी की इसा का शरीर गायब हो गया और जब वो गायब हुआ तो पहरेदारों को अपने आप नींद आ गयी थी। इसके बाद कुछ लोगों ने पुनर्जन्म लिये हुए ईसा को भागते हुए भी देखा। असल में तब जीसस अपनी माँ Marry Magladin और अपने खास अनुयायियों के साथ भागकर वापिस भारत आ गए थे। इसके बाद जब ईसा के पुनर्जन्म और चमत्कारों के सच्चे झूठे किस्से जनता में लोकप्रिय होने लगे और यहदियों को अपने द्वारा उस चमत्कारी पुरुष/ देव पुरुष को सूली पर चढाने के ऊपर ग्लानि होने लगी और एक बड़े वर्ग का अपने यहूदी धर्म से मोह भंग होने लगा तो इस बढ़ते असंतोष को नियंत्रित करने का कार्य इसा के ही शिष्य Christopher को सौंपा गया क्योंकि Christopher ने ईसा के सब प्रवचन सुन रखे थे। तो यहूदी धर्म गुरुओं और christopher ने मिलकर यहूदी धर्म ग्रन्थ Old Testament और ईसा के प्रवचनों को मिलकर एक नए ग्रन्थ New Testament अर्थात Bible की रचना की और उसी के अधार पर एक ऐसे नए धर्म ईसाईयत अथवा Christianity की रचना करी गयी जो यहूदियों के नियंत्रण में था। इसका नामकरण भी ईसा की बजाये Christopher के नाम पर किया गया।

और एक बड़े वर्ग का अपने यहूदी धर्म से मोह भंग होने लगा तो इस बढ़ते असंतोष को नियंत्रित करने का कार्य इसा के ही शिष्य Christopher को सौंपा गया क्योंकि Christopher ने ईसा के सब प्रवचन सुन रखे थे। तो यहूदी धर्म गुरुओं और christopher ने मिलकर यहूदी धर्म ग्रन्थ Old Testament और ईसा के प्रवचनों को मिलकर एक नए ग्रन्थ New Testament अर्थात Bible की रचना की और उसी के अधार पर एक ऐसे नए धर्म ईसाईयत अथवा Christianity की रचना करी गयी जो यहूदियों के नियंत्रण में था। इसका नामकरण भी ईसा की बजाये Christopher के नाम पर किया गया।
ईसा के इसके बाद के जीवन के ऊपर खुलासा जर्मन विद्वान् Holger Christen ने अपनी पुस्तक Jesus Lived In India में किया है। Christen ने अपनी पुस्तक में रुसी विद्वान Nicolai Notovich की भारत यात्रा का वर्णन करते हुए बताया है कि निकोलाई 1887 में भारत भ्रमण पर आये थे। जब वे जोजिला दर्र्रा पर घुमने गए तो वहां वो एक बोद्ध मोनास्ट्री में रुके, जहाँ पर उनको Issa नमक बोधिसत्तव संत के बारे में बताया गया। जब निकोलाई ने Issa की शिक्षाओं, जीवन और अन्य जानकारियों के बारे में सुना तो वे हैरान रह गए क्योंकि उनकी सब बातें जीसस/ईसा से मिलती थी। इसके बाद निकोलाई ने इस सम्बन्ध में और गहन शोध करने का निर्णय लिया और वो कश्मीर पहुंचे जहाँ जीसस की कब्र होने की बातें सामने आती रही थी। निकोलाई की शोध के अनुसार सूली पर से बचकर भागने के बाद जीसस Turkey, Persia(Iran) और पश्चिमी यूरोप, संभवतया इंग्लैंड से होते हुए 16 वर्ष में भारत पहुंचे। जहाँ पहुँचने के बाद उनकी माँ marry का निधन हो गया था। जीसस यहाँ अपने शिष्यों के साथ चरवाहे का जीवन व्यतीत करते हुए 112 वर्ष की उम्र तक जिए और फिर मृत्यु के पश्चात् उनको कश्मीर के पहलगाम में दफना दिया गया। पहलगाम का अर्थ ही गड़रियों का गाँव हैं। और ये अद्भुत संयोग ही है कि यहूदियों के महानतम पैगम्बर हजरत मूसा ने भी अपना जीवन त्यागने के लिए भारत को ही चुना था और उनकी कब्र भी पहलगाम में जीसस की कब्र के साथ ही है। संभवतया जीसस ने ये स्थान इसीलिए चुना होगा क्योंकि वे हजरत मूसा की कब्र के पास दफ़न होना चाहते थे। हालाँकि इन कब्रों पर मुस्लिम भी अपना दावा ठोंकते हैं और कश्मीर सरकार ने इन कब्रों को मुस्लिम कब्रें घोषित कर दिया है और किसी भी गैरमुस्लिम को वहां जाने की इजाजत अब नहीं है। लेकिन इन कब्रों की देखभाल पीढ़ियों दर पीढ़ियों से एक यहूदी परिवार ही करता आ रहा है। इन कब्रों के मुस्लिम कब्रें न होने के पुख्ता प्रमाण हैं। सभी मुस्लिम कब्रें मक्का और मदीना की तरफ सर करके बनायीं जाती हैं जबकि इन कब्रों के साथ ऐसा नहीं है। इन कब्रों पर हिब्रू भाषा में Moses और Joshua भी लिखा हुआ है जो कि हिब्रू भाषा में क्रमश मूसा और जीसस के नाम हैं और हिब्रू भाषा यहूदियों की भाषा थी। अगर ये मुस्लिम कब्र होती तो इन पर उर्दू या अरबी या फारसी भाषा में नाम लिखे होते।
सूली पर से भागने के बाद ईसा का प्रथम वर्णन तुर्की में मिलता है। पारसी विद्वान् F Muhammad ने अपनी पुस्तक Jami- Ut- Tuwarik में लिखा है कि Nisibi(Todays Nusaybin in Turky) के राजा ने जीसस को शाही आमंत्रण पर अपने राज्य में बुलाया था। इसके आलावा तुर्की और पर्शिया की प्राचीन कहानियों में Yuj Asaf नाम के एक संत का जिक्र मिलता है। जिसकी शिक्षाएं और जीवन की कहनियाँ ईसा से मिलती हैं। यहाँ आप सब को एक बात का ध्यान दिला दू की इस्लामिक नाम और देशों के नाम पढ़कर भ्रमित न हो क्योंकि ये बात इस्लाम के अस्तित्व में आने से लगभग 600 साल पहले की हैं। यहाँ आपको ये बताना भी महत्वपूर्ण है कि कुछ विद्वानों के अनुसार ईसाइयत से पहले Alexendria तक सनातन और बौध धर्म का प्रसार था। इसके आलावा कुछ प्रमाण ईसाई ग्रंथ Apocrypha से भी मिलते हैं। ये Apostles के लिखे हुए ग्रंथ हैं लेकिन चर्च ने इनको अधिकारिक तौर पर कभी स्वीकार नहीं किया और इन्हें सुने सुनाये मानता है। Apocryphal (Act of Thomas) के अनुसार सूली पर लटकाने के बाद कई बार जीसस sant Thomus से मिले भी और इस बात का वर्णन फतेहपुर सिकरी के पत्थर के शिलालेखो पर भी मिलता है। इनमे Agrapha शामिल है जिसमे जीसस की कही हुई बातें लिखी हैं जिनको जान बुझकर बाइबिल में जगह नहीं दी गयी और जो जीसस के जीवन के अज्ञातकाल के बारे में जानकारी देती हैं। इसके अलावा उनकी वे शिक्षाएं भी बाइबिल में शामिल नहीं की गयी जिनमे कर्म और पुनर्जन्म की बात की गयी है जो पूरी तरह पूर्व के धर्मो से ली गयी है और पश्चिम के लिए एकदम नयी चीज थी। लेखक Christen का कहना है की इस बात के 21 से भी ज्यादा प्रमाण हैं कि जीसस Issa नाम से कश्मीर में रहा और पर्शिया व तुर्की का मशहूर संत Yuj Asaf जीसस ही था।

जीसस का जिक्र कुर्द लोगों की प्राचीन कहानियों में भी है। Kristen हिन्दू धर्म ग्रंथ भविष्य पुराण का हवाला देते हुए कहता है कि जीसस कुषाण क्षेत्र पर 39 से 50 AD में राज करने वाले राजा शालिवाहन के दरबार में Issa Nath नाम से कुछ समय अतिथि बनकर रहा। इसके अलावा कल्हण की राजतरंगिणी में भी Issana नाम के एक संत का जिक्र है जो डल झील के किनारे रहा। इसके अलावा ऋषिकेश की एक गुफा में भी Issa Nath की तपस्या करने के प्रमाण हैं। जहाँ वो शैव उपासना पद्धति के नाथ संप्रदाय के साधुओं के साथ तपस्या करते थे। स्वामी रामतीर्थ जी और स्वामी रामदास जी को भी ऋषिकेश में तप करते हुए उनके दृष्टान्त होने का वर्णन है।

विवादित हॉलीवुड फ़िल्म The Vinci Code में भी यही दिखाया गया है कि ईसा एक साधारण मानव थे और उनके बच्चे भी थे। इसा को सूली पर टांगने के बाद यहूदियों ने ही उसे अपने फायदे के लिए भगवान बनाया। वास्तव में इसा का Christianity और Bible से कोई लेना देना नहीं था। आज भी वैटिकन पर Illuminati अर्थात यहूदियों का ही नियंत्रण है और उन्होंने इसा के जीवन की सच्चाई और उनकी असली शिक्षाओं कोको छुपा के रखा है।
वैटिकन की लाइब्रेरी में बहार के लोगों को इसी भय से प्रवेश नहीं करने दिया जाता। क्योंकि अगर ईसा की भारत से ली गयी शिक्षाओं, उनके भारत में बिताये गए समय और उनके बारे में बोले गए झूठ का अगर पर्दाफाश हो गया तो ये ईसाईयत का अंत होगा और Illuminati की ताकत एकदम कम हो जायेगी। भारत में धर्मान्तरण का कार्य कर रहे वैटिकन/Illuminati के एजेंट ईसाई मिशनरी भी इसी कारण से ईसाईयत के रहस्य से पर्दा उठाने वाली हर चीज का पुरजोर विरोध करते हैं। प्रभु जीसस जहाँ खुद हिन्दू धर्मं/भारतीय धर्मों को मानते थे, वहीँ उनके नाम पर वैटिकन के ये एजेंट भोले-भाले गरीब लोगों को वापिस उसी पैशाचिकता की तरफ लेकर जा रहे हैं जिन्होंने प्रभु Issa Nath को तड़पा तड़पाकर मारने का प्रयास किया था। जिस सनातन धर्म को प्रभु Issa ने इतने कष्ट सहकर खुद आत्मसात किया था उसी धर्म के भोले भाले गरीब लोगों को Issa का ही नाम लेकर वापिस उसी पैशाचिकता की तरफ ले जाया जा रहा है।.

भारत मुसलमानों के लिए स्वर्ग क्यों है ?

विश्व की कुल जनसंख्या में प्रत्येक चार में से एक मुसलमान है। मुसलमानों की 60 प्रतिशत जनसंख्या एशिया में रहती है तथा विश्व की कुल मुस्लिम जनसंख्या का एक तिहाई भाग अविभाजित भारत यानी भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में रहता है। विश्व में 75 देशों ने स्वयं को इस्लामी देश घोषित कर रखा है। पर, विश्व में जितने भी बड़े-बड़े मुस्लिम देश माने जाते हैं, मुस्लिमों को कहीं भी इतनी सुख-सुविधाएं या मजहबी स्वतंत्रता नहीं है जितनी कि भारत में। इसीलिए किसी ने सच ही कहा है कि ‘मुसलमानों के लिए भारत बहिश्त (स्वर्ग) है।’ परन्तु यह भी सत्य है कि विश्व के एकमात्र हिन्दू देश भारत में इतना भारत तथा हिन्दू विरोध कहीं भी नहीं है, जितना ‘इंडिया दैट इज भारत’ में है। इस विरोध में सर्वाधिक सहयोगी हैं-सेकुलर राजनीतिक स्वयंभू बुद्धिजीवी तथा कुछ चाटुकार नौकरशाह। उनकी भावना के अनुरूप तो इस देश का सही नाम ‘इंडिया दैट इज मुस्लिम’ होना चाहिए .क्योंकि विश्व में भारत एकमात्र ऐसा देश है जहाँ केवल जनसंख्या के आधार पर मुसलमानों की जायज नाजायज मांगें पूरी कर दी जाती हैं , भले वह देश को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ें ,

1-कम्युनिस्ट देश तथा मुस्लिम

आज जो कम्यूनिस्ट सेकुलरिज्म के बहाने मुसलमानों के अधिकारों की वकालत करते हैं , उन्हें पता होना चाहिए कि कम्युनिस्ट देशों में मुसलमानों की क्या हालत है।
विश्व के दो प्रसिद्ध कम्युनिस्ट देशों-सोवियत संघ (वर्तमान रूस) तथा चीन में मुसलमानों की जो दुर्गति हुई वह सर्व विदित है तथा अत्यन्त भयावह है। कम्युनिस्ट देश रूस में भयंकर मुस्लिम नरसंहार तथा क्रूर अत्याचार हुए। नारा दिया गया ‘मीनार नहीं, मार्क्स चाहिए।’ हजारों मस्जिदों को नष्ट कर हमाम (स्नान घर) बना दिए गए। हज की यात्रा को अरब पूंजीपतियों तथा सामन्तों का धन बटोरने का तरीका बताया गया। चीन में हमेशा से उसका उत्तर-पश्चिमी भाग शिनचियांग-मुसलमानों की वधशाला बना रहा। इस वर्ष भी मुस्लिम अधिकारियों तथा विद्यार्थियों को रमजान के महीने में रोजे रखने तथा सामूहिक नमाज बढ़ने पर प्रतिबन्ध लगाया गया।

2-यूरोपीय देश तथा मुस्लिम

सामान्यत: यूरोप के सभी प्रमुख देशों-ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, आदि में मुसलमानों के अनेक सामाजिक रीति-रिवाजों पर प्रतिबंध है। प्राय: सभी यूरोपीय देशों में मुस्लिम महिलाओं के बुर्का पहनने तथा मीनारों के निर्माण तथा उस पर लाउडस्पीकर लगाने पर प्रतिबंध है। बिट्रेन में इंडियन मुजहीद्दीन सहित 47 मुस्लिम आतंकवादी संगठनों पर प्रतिबंध लगा हुआ है। ब्रिटेन का कथन है कि ये संगठन इस्लामी राज्य स्थापित करने और शरीयत कानून को लागू करने का अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए हिंसा का प्रयोग करते हैं। जर्मनी में भी बुर्के पर पाबन्दी है। जर्मनी के एक न्यायालय ने मुस्लिम बच्चों के खतना (सुन्नत) को ‘मजहबी अत्याचार’ कहकर प्रतिबंध लगा दिया है तथा जो डाक्टर उसमें सहायक होगा, उसे अपराधी माना जाएगा। जर्मनी के कोलोन शहर की अदालत ने बुधवार को सुनाए गए एक फैसले में कहा कि धार्मिक आधार पर शिशुओं का खतना करना उनके शरीर को कष्टकारी नुकसान पहुंचाने के बराबर है.और प्राकृतिक नियमों में हस्तक्षेप है
जर्मनी में मुस्लिम समुदाय इस फैसले का कड़ा विरोध कर रहे हैं और वे इस बारे में कानूनविदों से मशविरा कर रहे हैं.
आशा है विश्व के सारे देश जल्द ही जर्मनी का अनुसरण करने लगेंगे.इसी तरह फ्रांस विश्व का पहला यूरोपीय देश था जिसने पर्दे (बुर्के) पर प्रतिबंध लगाया।

3-मुस्लिम देशों में मुसलमानों की हालत

विश्व के बड़े मुस्लिम देशों में भी मुसलमानों के मजहबी तथा सामाजिक कृत्यों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध है। तुर्की में खिलाफत आन्दोलन के बाद से ही रूढ़िवादी तथा अरबपरस्त मुल्ला- मौलवियों की दुर्गति होती रही है। तुर्की में कुरान को अरबी भाषा में पढ़ने पर प्रतिबंध है। कुरान का सार्वजनिक वाचन तुर्की भाषा में होता है। शिक्षा में मुल्ला-मौलवियों का कोई दखल नहीं है। न्यायालयों में तुर्की शासन के नियम सर्वोपरि हैं। रूढ़िवादियों की सोच तथा अनेक पुरानी मस्जिदों पर ताले डाल दिए गए हैं। (पेरेवीज, ‘द मिडिल ईस्ट टुडे’ पृ. 161-190; तथा ऐ एम चिरगीव -इस्लाम इन फरमेन्ट, कन्टम्परेरी रिव्यू, (1927)। ईरान व इराक में शिया-सुन्नी के खूनी झगड़े-जग जाहिर हैं। पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग ने भी यह स्वीकार किया है कि यहां मुसलमान भी सुरक्षित नहीं हैं। यहां मुसलमान परस्पर एक-दूसरे से लड़ते रहते हैं। उदाहरण के लिए जमात-ए-इस्लामी पाकिस्तान ने अहमदिया सम्प्रदाय के हजारों लोगों को मार दिया। इसके साथ हिन्दुओं के प्रति उनका क्रूर व्यवहार, जबरन मतान्तरण, पवित्र स्थलों को अपवित्र करना, हिन्दू को कोई उच्च स्थान न देना आदि भी जारी है। उनकी क्रूरता के कारण पाकिस्तानी हिन्दू वहां से जान बचाकर भारत आ रहे हैं। वहां हिन्दुओं की जनसंख्या घटकर केवल एक प्रतिशत के लगभग रह गई है। हिन्दुओं की यही हालत 1971 में बने बंगलादेश में भी है। वहां भी उनकी जनसंख्या 14 प्रतिशत से घटकर केवल 1 प्रतिशत रह गई है। साथ ही बंगलादेशी मुसलमान भी लाखों की संख्या में घुसपैठियों के रूप में जबरदस्ती असम में घुस रहे हैं।
अफगानिस्तान की अनेक घटनाओं से ज्ञात होता है जहां उन्होंने हिन्दुओं तथा बौद्धों के अनेक स्थानों को नष्ट किया, वहीं जुनूनी मुस्लिम कानूनों के अन्तर्गत मुस्लिम महिलाओं को भी नहीं बख्शा, नादिरशाही फतवे जारी किए। मंगोलिया में यह प्रश्न विवादास्पद बना रहा कि यदि अल्लाह सभी स्थानों पर है तो हज जाने की क्या आवश्यकता है? सऊदी अरब में मुस्लिम महिलाओं के लिए कार चलाना अथवा बिना पुरुष साथी के बाहर निकलना मना है। पर यह भी सत्य है कि किसी व्यवधान अथवा सड़क के सीध में न होने की स्थिति में मस्जिद को हटाना उनके लिए कोई मुश्किल नहीं है।

4-भारत में मुस्लिम तुष्टीकरण

अंग्रेजों ने भारत विभाजन कर, राजसत्ता का हस्तांतरण कर उसे कांग्रेस को सौंपा। साथ ही इन अलगाव विशेषज्ञों ने, अपनी मनोवृत्ति भी कांग्रेस का विरासत के रूप में सौंप दी। अंग्रेजों ने जो हिन्दू-मुस्लिम अलगाव कर तुष्टीकरण की नीति अपनाई थी, वैसे ही कांग्रेस ने वोट बैंक की चुनावी राजनीति में इस अलगाव को अपना हथियार बनाया। उसने मुस्लिम तुष्टीकरण में निर्लज्जता की सभी हदें पार कर दीं। यद्यपि संविधान में ‘अल्पसंख्यक’ की कोई निश्चित परिभाषा नहीं दी गई हैं, परन्तु व्यावहारिक रूप से चुनावी राजनीति को ध्यान में रखते हुए मुसलमानों को अल्पसंख्यक मान लिया गया तथा उन्हें खुश करने के लिए उनकी झोली में अनेक सुविधाएं डाल दीं। उनके लिए एक अलग मंत्रालय, 15 सूत्री कार्यक्रम व बजट में विशेष सुविधाएं, आरक्षण, हज यात्रा पर आयकर में छूट तथा सब्सिडी आदि। सच्चर कमेटी तथा रंगनाथ आयोग की सिफारिशों ने इन्हें प्रोत्साहन दिया। भारतीय संविधान की चिन्ता न कर, न्यायालय के प्रतिरोध के बाद भी, मजहबी आधार पर आरक्षण के सन्दर्भ में कांग्रेस के नेता वक्तव्य देते रहते हैं।

5-हज सब्सिडी में घोटाले

विश्व में मुस्लिम देशों में हज यात्रा के लिए कोई विशेष सुविधा नहीं है। बल्कि मुस्लिम विद्वानों ने हज यात्रा के लिए दूसरे से धन या सरकारी चंदा लेना गुनाह बतलाया है। पर कांग्रेस शासन में 1959 में बनी पहली हज कमेटी के साथ ही सिलसिला शुरू हुआ हज में सुविधाओं का। सरकारी पूंजी का खूब दुरुपयोग हुआ। हज घोटालों के लिए कई जांच आयोग भी बैठे। हज सद्भावना शिष्ट मण्डल, हज में भी ‘वी.आई.पी. कोटा’ आदि की सूची बनने लगी। सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी के बाद जम्मू-कश्मीर के अब्दुल रसीद ने सरकार द्वारा सदभावना शिष्टमण्डल के सदस्यों के चयन पर प्रश्न खड़ा किया। क्योंकि उसमें 170 हज यात्रियों के नाम बदले हुए पाए गए। आखिर सर्वोच्च न्यायालय ने दखल दिया तथा ‘अति विशिष्टों की’ संख्या घटाकर 2500 से केवल 300 कर दी।
सामान्यत: प्रत्येक हज यात्री पर सरकार का लगभग एक लाख रु. खर्च होता है, परन्तु सरकारी प्रतिनिधियों पर आठ से अट्ठारह लाख रु. खर्च कर दिए जाते हैं। गत वर्ष राष्ट्रीय हज कमेटी ने यात्रियों को कुछ कुछ अन्य सुविधाएं प्रदान की, जिसमें 70 वर्ष के आयु से अधिक के आवेदक व्यक्तियों के लिए निश्चित यात्रा, चुने गए आवेदकों को आठ महीने रहने का परमिट तथा हज यात्रा पर जाने वाले यात्री के लिए पुलिस द्वारा सत्यापन में रियायत दी गई। इसके विपरीत श्रीनगर से 135 किलोमीटर की कठिन अमरनाथ यात्रा के लिए, जिसमें इस वर्ष 6 लाख 20 हजार यात्री गए, और आने-जाने के 31 दिन में 130 श्रद्धालु मारे गए, जिनके शोक में एक भी आंसू नहीं बहाया गया।

6-भारत का इस्लामीकरण

असम में बंगलादेश के लाखों मुस्लिम घुसपैठियों के प्रति सरकार की उदार नीति, कश्मीर में तीन वार्ताकारों की रपट पर लीपा-पोती, मुम्बई में 50,000 मुस्लिम दंगाइयों द्वारा अमर जवान ज्योति या कहें कि राष्ट्र के अपमान पर कांग्रेस राज्य सरकार और केन्द्र की सोनिया सरकार की चुप्पी तथा दिल्ली के सुभाष पार्क में अचानक उग आयी अकबराबादी मस्जिद के निर्माण को न्यायालय द्वारा गिराने के आदेश पर भी सरकारी निष्क्रियता, क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि गत अप्रैल में भारत के तथाकथित सेकुलरवादियों ने हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में गोमांस भक्षण उत्सव मनाया तथा उसकी पुनरावृत्ति का प्रयास दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में किया गया? मांग की गई थी कि छात्रावासों में गोमांस भक्षण की सुविधा होनी चाहिए। पर सरकार न केवल उदासीन बनी रही बल्कि जिन्होंने इसका विरोध किया, उनके ही विरुद्ध डंडा चलाया गया। इस विश्लेषण के बाद गंभीर प्रश्न यह है कि सरकार की मुस्लिम तुष्टीकरण अथवा वोट बैंक को खुश करने की इस नीति से मुस्लिम समाज का अरबीकरण हो रहा है या भारतीयकरण? क्या इससे वे भारत की मुख्य धारा से जुड़ रहे हैं या अलगावादी मांगों के पोषण से राष्ट्रीय स्थिरता के लिए खतरा बन रहे हैं? क्या चुनावी वोट बैंक की राजनीति, राष्ट्रहित से भी ऊपर है? देश के युवा विशेषकर पढ़े-लिखे युवकों को इस पर गंभीरत से विचार करना होगा, ताकि समाज की उन्नति के साथ राष्ट्र निर्माण में उनका सक्रिय सहयोग हो सके।

गाँधी और सरला देवी के सम्बन्ध

 

गांधी जी के पोते के मुताबिक रविंद्र नाथ ठाकुर
की भतीजी सरला देवी और महात्मा गाँधी के प्रेम
सम्बन्ध इतने गहरे थे कि गांधी जी ने
कहा था कि सरला के साथ उनका ‘अध्यात्मिक विवाह’
हो चुका है।
नयी दिल्ली | गांधी जी के पोते के मुताबिक रविंद्र
नाथ ठाकुर की भतीजी सरला देवी और
महात्मा गाँधी के प्रेम सम्बन्ध इतने गहरे थे
कि गांधी जी ने कहा था कि सरला के साथ
उनका ‘अध्यात्मिक विवाह’ हो चुका है।
राजमोहन गांधी के अनुसार गांधीजी का यह प्रेम
प्रकरण सीक्रेट नहीं था, बल्कि यह बात
दोनों परिवारों में सबको मालूम थी।
गांधी जी की पत्नी कस्तूरबा गांधी को जब इस रिश्ते
का पता चला तो वह काफी तनाव में रहने लगी थीं।
गांधीजी के 71वर्षीय पोते राजमोहन गांधी ने
अपनी एक पुस्तक “मोहनदास : अ ट्रू स्टोरी ऑफ ए मैन,
हिज पीपुल एंड एन एंपायर” में लिखा है
कि अपनी विवेकबुद्धि के लिए प्रख्यात
महात्मा गांधी विवाहित और चार संतानों के
पिता होने के बावजूद 50 वर्ष के उम्र में सरला देवी के
प्रेम में पड़ गए थे। इतना ही नहीं, वे 47 साल
की शादीशुदा महिला सरला से शादी करने के लिए
भी तैयार हो गए थे। उल्लेखनीय है
कि सरला देवी नोबल पुरस्कार विजेता कवि लेखक
रवींद्रनाथ टैगोर की बड़ी बहन स्वर्ण
कुमारी की बेटी थीं।
इतिहास की अनेकों पुस्तकों में महात्मा गांधी से कई
स्त्रियों के संबधों का दावा किया गया है। लेकिन
महात्मा गांधी और सरला देवी के सम्बन्ध सबसे
चर्चास्पद रहा है। साबरमती आश्रम में भी गांधी और
सरला देवी के रिश्तों की चर्चा थी।
राजमोहन गांधी के अनुसार गांधीजी का यह प्रेम
प्रकरण सीक्रेट नहीं था, बल्कि यह बात
दोनों परिवारों में सबको मालूम थी।
गांधी जी की पत्नी कस्तूरबा गांधी को जब इस रिश्ते
का पता चला तो वह काफी तनाव में रहने लगी थीं।
हालांकि यह बात अलग है कि सरला देवी ने
अपनी आत्मकथा में इस बात का जिक्र नहीं किया है।
सरला देवी के पति चौधरी राम भाजी दत्त
स्वतंत्रता संग्राम में मुख्य रूप से सक्रिय थे। जब वे जेल में
थे, तब उन्होंने सरला देवी को महात्मा गांधी के घर पर
रहने के लिए कहा था। बताया जाता है कि इसी बीच
महात्मा गांधी और सरला देवी एक-दूसरे के नजदीक आए
थे। महात्मा गांधी और सरला देवी ने ‘आध्यात्मिक लग्न’
कर लेने का आयोजन भी कर लिया था, लेकिन गांधीजी के
बेटे देवदास गांधी के भारी विरोध के बाद इस रोक
दिया गया।
परिवार और राष्ट्रहित के लिए उन पर भी गांधीजी से
संबंधों पर पूर्ण विराम लगाने का दबाव डाला गया।
उस समय कांग्रेस के सभी बड़े नेताओ में ये सुनकर और
जानकर भूचाल सा आ गया था | तब डॉ राजेन्द्र
प्रसाद ने
सी राजगोपालचारी को गाँधी जी को समझाने के लिए
तैयार किया था। आखिर
सी राजगोपालाचारी गाँधी जी को समाज और उंच नीच
सब बाते समझाने में सफल हो गये। इसके बाद रविन्द्र
नाथ जी ने सरला देवी को विदेश भेज दिया।
सरलादेवी का एक बेटा भी था जिसका नाम दीपक
चौधरी था। सरलादेवी के मोहपाश में बंधे गांधीजी ने
दीपक चौधरी के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू से
बेटी इंदिरा गांधी का हाथ भी मांगा था। लेकिन
पंडित नेहरू ने इसके लिए स्पष्ट मना कर दिया था।
गांधीजी के कुछ अन्य स्त्रियों से
संबंधों का भी दावा किया जाता है। इसमें ब्रिटिश
एडमिरल की बेटी मेडेलीन स्लेड, सुशीला नायर और
दो मानसपुत्रियों मनु तथा आभा गांधी का भी नाम
शामिल है। इतना ही नहीं, महात्मा गांधी अपने
ब्रह्मचर्य की परीक्षा लेने के लिए सुशीला नायर और
टीनएज मनु तथा आभा के साथ सह-स्नान और नग्न होकर
सोने के प्रयोग भी किया करते थे। महात्मा गांधी के ये
प्रयोग भारी विवाद का मुद्दा भी बना था। इसे लेकर
आश्रमवासियों और उनके परिवारजनों ने उनसे
नाराजगी भी प्रकट की थी।
महात्मा पर अब तक लिखी पुस्तकें या तो श्रद्धाभाव से
लिखी गई हैं या फिर हंसराज रहबर जैसे लोगों ने
गांधी के व्यक्तित्व की धज्जियां उड़ाने की कोशिश कर
ख़ुद को प्रचारित करने की कोशिश की है। लेकिन
राजमोहन की इस किताब में गांधी के पारिवारिक
जीवन के अलावा पोरबंदर की कई ऐसी घटनाओं
का ज़िक्र भी है, जिसका असर बाद में गांधी के जीवन
पर पड़ा। मोहनदास की ज़िंदगी के इस तरह के कई
दिलचस्प प्रसंग इस किताब में है। निजी जीवन से आगे
निकल कर मोहनदास कैसे अंग्रेजों के ख़िला़फ लड़ाई के
लिए प्रेरित हुए और कैसे करोड़ों लोगों को एकजुट
किया, इसकी भी दास्तां यह किताब बयां करती है।
राजमोहन गांधी की किताब में
गांधी जी को किशोरावस्था में कैसे मांस और
मदिरा की लत लगी और किस तरह वह अपने ऊपर
लगी पाबंदियों से तंग आकर धथूरा का बीज खाकर
ख़ुदकुशी की सोचने लगे थे, उसका भी ज़िक्र है।

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नोबेल पुरस्कारों का ‘असली सच’ क्या है

बचपन बचाओ’ आंदोलन के नेता कैलाश सत्यार्थी और पाकिस्तानी छात्रा मलाला को शांति का नोबेल पुरस्कार मिलने पर पूरा देश चमत्कृत है और नोबेल पुरस्कार के निर्णयकर्त्ताओं का यशोगान जोर-शोर से हो रहा है। यह जताने की कोशिश हो रही है कि पहली बार शुद्ध रूप से किसी भारतीय को शांति का नोबेल पुरस्कार मिला है, जो गौरव की बात है व भारत की प्रतिष्ठा दुनिया भर में एक बार फिर स्थापित हुई है। यह सही भी है कि नोबेल पुरस्कार पाना एक गौरव की बात है और नोबेल पुरस्कार पाने वाले व्यक्ति और उसके देश की प्रतिष्ठा बढ़ती है और पूरी दुनिया से यह उम्मीद भी होती है कि नोबेल पुरस्कार पाने वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व व कृतित्व से वह प्रेरणा ले व उस प्रेरणा से मानव के जीवन में परिवर्तनकारी विचार की जागरूकता भी सुनिश्चित करे।

पर मेरे जैसा जागरूक व्यक्ति यह जानता है कि नोबेल पुरस्कार क्यों दिए जाते हैं, किसे दिए जाते हैं और नोबेल पुरस्कार पाने वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व और कृतित्व कैसा होता है, उसका समर्पण किसके प्रति होता है, उसकी मान्य- अमान्य व तथ्यात्मक प्रत्यारोपित ख्याति को विश्वव्यापी बनाने के रहस्य क्या हैं?

एनजीओवाद और कार्पोरेटवाद के खिलाफ भारत में बढ़ती सक्रियता और जनाक्रोश पर विजय प्राप्त करने के लिए पश्चिमी और मजहबी देशों ने कई हथकंडे चला रखे हैं, कई प्रलोभन और कई पुरस्कारों की चमत्कृत करने वाली नीतियां बना रखी हैं। निश्चित तौर पर ही नहीं, तथ्यात्मक तौर भी दुनिया भर में यह बात गहरे रूप में विदित है कि पश्चिमी देश अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए नोबेल और अन्य पुरस्कारों का हथकंडा अपनाते हैं। आज तक मरणोपरांत भी महात्मा गांधी को शांति का नोबेल पुरस्कार क्यों नहीं मिला, जबकि शांति ही नहीं बल्कि सत्य व अहिंसा का अडिग हस्ताक्षर महात्मा गांधी ही थे, महात्मा गांधी से बड़ा शांति का मसीहा और कौन है? कैलाश सत्यार्थी को हिन्दू और मलाला को मुस्लिम की कसौटी पर रखने के अर्थ व अनर्थ क्या हैं?

कैलाश सत्यार्थी को शांति का नोबेल पुरस्कार मिलना चाहिए था या नहीं, कैलाश सत्यार्थी सामाजिक परिवर्तन के प्रतीक हैं या फिर एनजीओवाद के प्रतीक हैं? इस विवाद में उलझे बिना हम यह देखते हैं कि नोबेल पुरस्कारों से जुड़े तथ्य और रहस्य क्या-क्या हैं, पूर्व में किन-किन लोगों को नोबेल का पुरस्कार मिला है जो नोबेल पुरस्कार पाने की पात्रता ही नहीं रखते थे और न ही उनका समर्पण दुनिया की शांति के प्रति था। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि हमें यह देखना चाहिए कि क्या उनका समर्पण हिंसा, लूट और औपनिवेशिक मानसिकता के प्रति भी था क्या? बराक ओबामा भी शांति का नोबेल पुरस्कार पाकर अपने आपको शांति का मसीहा और शांति के प्रमुख हस्ताक्षर व प्रतीक के रूप में स्थापित कर चुके हैं। क्या बराक ओबामा सही में शांति के प्रतीक हैं?

आपने आर.के. पचौरी का नाम सुना होगा। आर.के. पचौरी संयुक्त राष्ट्रसंघ के पर्यावरण शाखा के भारतीय चैप्टर के अध्यक्ष थे। पचौरी की अध्यक्षता वाली संयुक्त राष्ट्रसंघ की पर्यावरण शाखा के भारतीय चैप्टर को भी शांति का नोबेल पुरस्कार मिल चुका है। भारतीय चैप्टर ने पर्यावरण के क्षेत्र में कथित तौर पर चमत्कृत करने वाली रिपोर्ट दी थी, जिसके आधार पर उसे नोबेल पुरस्कार मिला था। बाद में छान-बीन हुई, गहरी जांच-पड़ताल हुई थी तब आर.के. पचौरी का झूठ और श्रेय हासिल करने की साजिश का खुलासा हुआ। जिस पर्यावरण रिपोर्ट पर उसने वाहवाही लूटी थी वह रिपोर्ट एक पश्चिमी देश के मेधावी छात्र की पी.एच.डी. थीसिस का हिस्सा थी। उस मेधावी छात्र की पी.एच.डी. थीसिस के भाग को चुरा कर आर.के. पचौरी और उसकी शाखा ने यह रिपोर्ट जारी की थी कि दुनिया के ग्लेशियर कुछ ही साल में पिघलने वाले हैं और दुनिया में जानलेवा जलसंकट और अन्य पर्यावरणीय संकट उत्पन्न होंगे? मामला खुलने पर पचौरी की जगहंसाई तो हुई पर शांति का नोबेल पुरस्कार उससे वापस नहीं लिया गया।

आप ‘लोलिता’ नामक पुस्तक की कहानी भी सुन लीजिए, जिसके रूसी लेखक को साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला था। ‘लोलिता’ नामक पुस्तक सिर्फ और सिर्फ रूसी लेखक को बाल यौनाचार्य व बाल सैक्स विकृति से ग्रसित होने के रूप में स्थापित करती है। अश्लील और घृणित व पागलपन की मानसिकता से निकले साहित्य को भी नोबेल पुरस्कार का प्रतीक मान लिया गया था। तब की ही नहीं बल्कि आज की दुनिया के श्रेष्ठ साहित्यकार किसी भी रूप में व किसी भी परिस्थिति में ‘लोलिता’ को श्रेष्ठ साहित्य में जगह देने के लिए तैयार नहीं हैं। संदीप पांडेय लखनऊ की जिस गली में रहते थे, उस गली के लोग भी नहीं जानते थे कि उनकी गली में बच्चों को न्याय दिलाने वाला संदीप पांडेय रहता है।

कैलाश सत्यार्थी को हिन्दू और मलाला को मुसलमान के रूप में स्थापित करने के पीछे रहस्य क्या है? नोबेल पुरस्कारों की घोषणा करते हुए कहा गया था कि एक हिन्दू और एक मुस्लिम को शांति का नोबेल पुरस्कार दिया जा रहा है। कैलाश सत्यार्थी की प्रेरणा के पीछे रामेश्वरम, महाश्वेता देवी और स्वामी अग्रिवेश की बड़ी भूमिका रही है।

बंधुआ मुक्ति मोर्चा के प्रणेता रामेश्वरम थे, प्रेणास्रोत महाश्वेता देवी थीं और कर्णधार स्वामी अग्रिवेश थे, काफी बाद में कैलाश सत्यार्थी जुड़े थे। बंधुआ मुक्ति मोर्चा से हटकर कैलाश सत्यार्थी ने अलग ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ नामक संगठन बनाया था। अगर सम्पूर्णता में जांच-पड़ताल हुई तो अवश्य ही यह धारणा को भी पुष्ट करेगी कि पश्चिमी देश अपनी करतूत और अपने स्वार्थ को हासिल करने के लिए ही नोबेल पुरस्कारों और अन्य वैश्विक पुरस्कारों के माध्यम से मान्य-अमान्य हस्तियों को स्थापित करते हैं। अगर देश में ईमानदारीपूर्वक जांच हो और ईमानदारीपूर्वक कार्रवाई हो तो अधिकतर समाजसेवी व परिवर्तन अभियान के लिए कथित तौर पर चर्चित हस्तियां बेनकाब हो सकती हैं और उनका तिहाड़ दर्शन सुनिश्चित हो सकता है।

विष्णु गुप्त

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