क्या है भारतीय संस्कृति?

कभी कभी मेरे अंग्रेज और अन्य अभारतीय मित्र मेरे से कई तरह के सवाल पूछते है, जैसे हमारी संस्कृति कैसी है, हमारे इतने सारे देवी देवता क्यों है, अगर हम सभी एक जैसे है तो हमारे यहाँ विभिन्न प्रकार की जातिया प्रजातिया क्यों है? वर्ण सिस्टम का क्या महत्व है? और हमारे हर त्योहारों के साथ कोई ना कोई कथा क्यो जुड़ी हुई है? भारत मे इतनी भाषाओ के बावजूद कौन सी चीज लोगो को जोड़े रखती है? जब आप लोग अपने को एक मानते हो तो फिर दंगे फसाद क्यो होते है, आपके धर्म और संस्कृति मे इतने विरोधाभास क्यों है? वगैरहा वगैरहा….. मैने उन्हे समझाने की कुछ कोशिश की है, आइये आप भी देखिये कि मै इसमे कितना सफल हो सकी हूँ.

किसी भी देश का अपना इतिहास होता है, परम्परा होती है. यदि हम देश को शरीर माने तो, संस्कृति उसकी आत्मा होती है, या शरीर मे दौड़ने वाला रक्त होता है या फिर सांस…..जो शरीर को चलाने के लिये अतिआवश्यक है. किसी भी संस्कृति में अनेक आदर्श रहते हैं, आदर्श मूल्य है, और मूल्यों का मुख्य संवाहक संस्कृति होती है. भारतीय संस्कृति में मुख्य रूप से चार मूल्यों की प्रधानता दी गयी है – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष लेकिन कोई भी व्यक्ति इन चारों पुरुषार्थों अथवा मूल्यो को एक ही काल में एक ही साथ चरितार्थ नहीं कर सकता है, क्योंकि व्यक्ति का जीवन सीमित होता है, इसलिए हिन्दू धर्म में वर्णाश्रम व्यवस्था एवं पुनर्जन्म पर बल दिया गया है. वर्णाश्रम व्यवस्था को यदि गुण और कर्म पर आधारित माने तो यह व्यवस्था आज भी अत्यन्त वैज्ञानिक एवं उपादेय प्रतीत होती है. अगर देखा जाय तो यह वर्णाश्रम धर्म ही है इसकी बदौलत ऊँचे से ऊँचे ब्राह्मण पैदा हुए, ब्राह्मणों ने तो अपने लिए धर्म का काम लिया दान देना लेना, विद्या पढ़ना पढ़ाना, क्षत्रियों का कर्तव्य था कि जहाँ जरूरत पड़े वहाँ जान दे लेकिन मान को न जाने दें. वैश्य का कर्तव्य था कि वेद – वेदांग पढ़े और व्यापार करता रहे और शुद्रो को कर्तव्य था कि अन्य सभी कामो को अन्जाम देना. जब शुद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था तब वेदव्यासजी ने चारों वेदों का अर्थ महाभारत में भर दिया ताकि सब प्राणी लाभ उठा सकें. यह हिन्दू संस्कृति की समानता का एक प्रतीक है.

भारत पर विदेशियो ने अनेक बार आक्रमण किया और हिन्दु संस्कृति को नष्ट करने की कोशिश की,लेकिन वो संस्कृति ही क्या जो मिट जाये, भारत आये अनेक आक्रमणकारियो ने भी माना कि इस देश की संस्कृति को नष्ट करना नामुमकिन है, बल्कि उनमे से कई लोग अपने साथ विभिन्न प्रकार के धर्म और सम्प्रदाय ले आये, और कई यहीं पर बस गये, जिससे गंगा जमुनी संस्कृति का जन्म हुआ,जिसे भारतीय संस्कृति ने बड़ी ही सहनशीलता के साथ स्वीकारा और गले लगाया. विभिन्न वेद शास्त्र हमारी संस्कृति का हिस्सा है, इसके अतिरिक्त भारत की अन्य परम्परायें जैसे अतिथि देवो भवः, सामाजिक आचार व्यवहार,शरणागत रक्षा,सर्वधर्म समभाव,वसुधैव कुटुम्बकम,अनेकता मे एकता जैसी प्रमुख है.

पुराने जमाने से ही हमे समझाया गया है कि घर आया अतिथि भगवान के समान है, हम खुद भले ही भूखे रह जाये,लेकिन अतिथि का पेट भरना जरूरी है.इसी तरह से हमे समाज मे कैसा व्यवहार एवं आचरण करना चाहिये,इसकी शिक्षा हमारी संस्कृति हमे देती है, विभिन्न कहानियो एव लोकोत्तियो के द्वारा, हमे बड़ो की इज्जत करनी चाहिये और छोटो के प्रति स्नेह का आचरण करना चाहिये, एवम महिलाओ और बुजुर्गो के प्रति विशेष सम्मान दिखाना चाहिये.इसके अतिरिक्त शरण मे आये व्यक्ति की रक्षा करना हमारा परम धर्म है.

भारत ही केवल एक ऐसा देश है जहाँ सर्वधर्म समभाव का पूरा पूरा ध्यान रखा गया है, जितनी इज्जत हम अपने धर्म की करते है, उतनी ही इज्जत हमे दूसरो के धर्म की करनी चाहिये.यहाँ सुबह सुबह मंदिर से मन्त्रोचार की ध्वनि,मस्जिद से अजान,गुरूद्वारे से शबद कीर्तन की आवाज और चर्च से प्रार्थना की पुकार एक साथ सुनी जा सकती है.जितनी भाषाये यहाँ बोली जाती है, विश्व मे कहीं और नही बोली जाती.बोल-चाल,खान-पान,रहन-सहन मे अनेकता होते हुए भी हम एक साथ रहते है, एक दूसरे के तीज त्योहार मे शिरकत करते है, होली,दीवाली,ईद,बाराबफात, मुहर्रम,गुरपर्ब और क्रिसमस साथ साथ मनायी जाती है. मजारो ‌और मकबरो पर हिन्दूओ द्वारा चादर चढाना, और दूसरे सम्प्रदाय के लोगो का मंदिरो और गुरद्वारो पर दर्शन करना,मत्था टेकना बहुत आम बात है. यह हमारे धर्म और लोकाचार की सहनशीलता का जीता जागता उदाहरण है.

रही बात हमारे विभिन्न प्रकार के देवी देवता होने की…तो हिन्दू धर्म मे प्रकृति को हर तरह से पूजा गया है, चाहे वह वायू,जल,पृथ्वी, अग्नि या आकाश हो. इस प्रकार से हम प्रकृति के हर रूप की पूजा करते है, चाहे वह पहाड़ हो या कोई जीव जन्तु या हमारी वन्य सम्प्रदा, हमारी संस्कृति मे इन सबको विशेष स्थान दिया गया है.दुनिया मे ऐसी कोई संस्कृति नही होगी जहाँ प्रकृति को विभिन्न रूपो और स्वरूपो में पूजा गया है, रही बात त्योहारो से जुड़ी कहानियो की तो, सामान्य जनता जो उपनिषदो और वेदो की लिखी गूढ बातो को नही समझ सकती, उनके लोक आचरण के लिये विभिन्न ऋषि मुनियो ने अनेक गाथाये लिखी और उनको विभिन्न त्योहारो से इस तरह से जोड़ा कि सामान्य जन भी उसके साथ जुड़ सके और उसे अपना सके साथ ही ईश्वर का ध्यान और मनन कर सके.

इसके अतिरिक्त और भी चीजे हमारी संस्कृति मे जुड़ती रही, सारो का उल्लेख करना तो सम्भव नही हो सकेगा.. प्रमुख रूप से क्रिकेट की संस्कृति है, यह खेल अब हमारी संस्कृति मे शामिल हो गया है, क्रिकेटरो के अच्छे बुरे प्रदर्शन पर हमे हंसते रोते है, इनको अपने बच्चो से भी ज्यादा प्यार करते है, भगवान जैसी पूजा करते है, जब जीतते है तो तालिया बचाते है, जब हारते है तो गालिया देते है.

अब समस्या यहाँ आती है कि हम अपनी संस्कृति का कितना मान रख पाते है, वेद शास्त्र आपको रास्ता दिखा सकते है, लेकिन आपको उनपर चलने के लिये बाध्य नही कर सकते….एक और बात चूंकि ये सारे शास्त्र गूढ भाषा मे लिखे गये थे, इसलिये समय समय पर अनेक स्वार्थी धर्माचार्यो ने अपने और कुछ राजनीतिज्ञो के निहित स्वार्थो के लिये, इन शास्त्रो का मनमाने ढंग से विवेचना की और अपने फायदे के लिये इस्तेमाल किया. और अपनी दुकाने चलायी …भाई को भाई से लड़ाया और विभिन्न समुदायो मे आपस मे बैर और नफरत फैलायी……और जो आज तक जारी है.इन्ही लोगो की वजह से हमारे यहाँ कभी कभी दंगे फसाद होते है, लेकिन आपसी भाईचारा कभी खत्म नही होता.

मार्क ट्वेन ने १८५६ मे जब भारत का दौरा किया था तो उसने लिखा था, भारत सांस्कृतिक रूप से परिपूर्ण राष्ट्र है. वैसे भी समय समय पर कई विदेशी विद्वानो ने भारत का दौरा किया और यहाँ की संस्कृति को दूनिया मे सबसे उन्नत माना.यही हमारी संस्कृति है, और हम सभी भारतीयो को इस पर गर्व है.

भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व..

विश्व की सर्वोत्कृष्ट संस्कृति भारतीय संस्कृति है, यह कोई गर्वोक्ति नहीं अपितु वास्तविकता है ।। भारतीय संस्कृति को देव संस्कृति कहकर सम्मानित किया गया है ।। आज जब पूरी संस्कृति पर पाश्चात्य सभ्यता का तेजी से आक्रमण हो रहा है, यह और भी अनिवार्य हो जाता है कि, उसके हर पहलू को जो विज्ञान सम्मत भी है तथा हमारे दैनन्दिन जीवन पर प्रभाव डालने वाला भी, हम जन-जन के समक्ष प्रस्तुत करें ताकि हमारी धरोहर- आर्य संस्कृति के आधार भूत तत्व नष्ट न होने पायें ।।

भारतीय संस्कृति का विश्व संस्कृति परक स्वरूप तथा उसकी गौरव गरिमा का वर्णन तो इस वाङ्मय के पैंतीसवें खण्ड ‘समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान’ में किया गया है किंतु इस खण्ड में संस्कृति के स्वरूप, मान्यताएँ, कर्म काण्ड- परम्पराएँ पद्धतियाँ एवं अंत में इसके सामाजिक पक्ष पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है ।। इस प्रकार दोनों खण्ड मिलकर एक दूसरे के पूरक बनते हैं ।।

भारतीय संस्कृति हमारी मानव जाति के विकास का उच्चतम स्तर कही जा सकती है ।। इसी की परिधि में सारे विश्वराष्ट्र के विकास के- वसुधैव कुटुम्बकम् के सारे सूत्र आ जाते हैं ।। हमारी संस्कृति में जन्म के पूर्व से मृत्यु के पश्चात् तक मानवी चेतना को संस्कारित करने का क्रम निर्धारित है ।। मनुष्य में पशुता के संस्कार उभरने न पाये, यह इसका एक महत्त्वपूर्ण दायित्व है ।। भारतीय संस्कृति मानव के विकास का आध्यात्मिक आधार बनाती है और मनुष्य में संत, सुधारक, शहीद की मनोभूमि विकसित कर उसे मनीषी, ऋषि, महामानव, देवदूत स्तर तक विकसित करने की जिम्मेदारी भी अपने कंधों पर लेती है ।। सदा से ही भारतीय संस्कृति महापुरुषों को जन्म देती आयी है व यही हमारी सबसे बड़ी धरोहर है ।।

भारतीय संस्कृति की अन्यान्य विशेषताओं सुख का केन्द्र आंतरिक श्रेष्ठता, अपने साथ कड़ाई, औरों के प्रति उदारता, विश्वहित के लिए स्वार्थों का त्याग, अनीतिपूर्ण नहीं- नीतियुक्त कमाई पारस्परिक सहिष्णुता, स्वच्छता- शुचिता का दैनन्दिन जीवन में पालन, परिवार- व राष्ट्र् के प्रति अपनी नैतिक जिम्मेदारी का परिपालन, अनीति से लड़ने संघर्ष करने का साहस- मन्यु, पितरों की तृप्ति हेतु तथा पर्यावरण संरक्षण हेतु स्थान- स्थान पर वृक्षारोपण कर हरीतिमा विस्तार तथा अवतारवाद का हेतु समझते हुए तदनुसार अपनी भूमिका निर्धारण सभी पक्षों का बड़ा ही तथ्य सम्मत- तर्क विवेचन पूज्यवर ने इसमें प्रस्तुत किया है ।।

संस्कृति का अर्थ है वह कृति- कार्य पद्धति जो संस्कार संपन्न हो ।। व्यक्ति की उच्छृंखल मनोवृत्ति पर नियंत्रण स्थापित कर कैसे उसे संस्कारी बनाया जाय यह सारा अधिकार क्षेत्र संस्कृति के मूर्धन्यों का है एवं इसी क्षेत्र पर हमारे ऋषिगणों ने सर्वाधिक ध्यान दिया है ।। परम पूज्य गुरुदेव ने भारतीय संस्कृति की कुछ मान्यताओं पर बड़ी गहराई से प्रकाश डाला है व प्रत्येक का तथ्य सम्मत विवेचन विज्ञान की- शास्त्रों की सम्मति के साथ प्रस्तुत किया है, पुनर्जन्म में विश्वास, स्वर्ग और नरक कहाँ है, कैसे हैं, ब्राह्मणत्व क्या है- कैसे अर्जित किया जाता है- वर्णाश्रम धर्म परम्परा क्यों व किस रूप में ऋषियों ने स्थापित की, जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म- अर्थ का आधार क्या है तथा आस्तिकता व कमर्फल के सिद्धान्तों को संस्कृति का मूल प्राण क्यों माना जाता है, पूज्यवर ने बड़ी सुगम शैली में यह सब समझाने का प्रयास किया है ।। आपद धर्म- युगधर्म तथा यज्ञ की व्याख्या भी इसमें सशक्त रूप में आयी है ।। यद्यपि ये सभी विस्तार से अलग- अलग खण्डों में भी प्रसंगानुसार आये हैं, किंतु यहाँ उनका संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में विवेचन है ।।

मूर्तिपूजा- प्रतीकों की उपासना के पीछे क्या वैज्ञानिकता है तथा शिखा- सूत्र, तिलक- माला आदि के पीछे क्या रहस्य छिपे पड़े हैं जो हमारे ऋषियों ने उन्हें इतना महत्त्व दिया, यह विवेचन पाठकगण इसमें पढ़ सकेंगे ।। षोडश संस्कारों से लेकर पर्व त्यौहारों तक तथा तीर्थ यात्राओं, मेलों से लेकर कथा पारायण तक देवसंस्कृति का विस्तृत फैलाव है ।। इन सभी के स्वरूप को एक पाठक को जैसे प्रारंभिक कक्षा के छात्र को पढ़ाया जाता है, पूज्यवर ने समझाया है ।। बहुदेव वाद क्या है- हमें इसके माध्यम से एक पर ब्रह्म की उपासना के मार्ग तक कैसे पहुँचाना है, यह समग्र तत्त्व दर्शन तथा श्राद्ध- तर्पण आदि मान्यताओं की वैज्ञानिक व्याख्या भी इस में है ।।

अंतिम अध्याय में पूज्यवर ने चारों वर्णों व चारों आश्रमों के विभिन्न पक्षों को विस्तार से लिखा है ।। वर्णाश्रम पद्धति हमारी संस्कृति की विशेषता है एवं समाज की सुव्यवस्था की एक सुदृढ़ आधार शिला है ।। आज इस संबंध में अनेकानेक भ्रान्तियाँ फैला दी गयी हैं पर वस्तुतः यह सारी विधि व्यवस्था मानवी जीवन को व उसकी सामाजिक जिम्मेदारियों को एक निर्धारित क्रम में बाँधने के लिए बनी थीं ।। इसी सामाजिक पक्ष में संस्कृति के खान- पान, जाति- पाँति, ऊँच- नीच, भाषा वेश, गुण- कर्म की परिष्कार से समाज की आराधना जैसे अनेकानेक पक्ष आ जाते हैं इनका वर्णन विस्तार से हुआ है ।। गुरु, गायत्री, गंगा, गौ व गीता ये पाँच हमारी संस्कृति के महत्त्वपूर्ण आधारस्तंभ माने जाते हैं ।। इनके प्रति श्रद्धा रख हम अपनी सांस्कृतिक गौरव गरिमा का अभवर्धन करते हैं एवं इनके माध्यम से अनेकानेक अनुदान भी दैनन्दिन जीवन में पाते हैं ।।

सांस्कृतिक पुनरुत्थान के महत् प्रयोजन व उस निमित्त योजनाओं के विस्तार के साथ इस वाङ्मय का समापन है ।। भारतीय संस्कृति के आधार भूत तत्त्वों को सीखने- धारण करने वालों के लिए इस खण्ड में बहुत कुछ अमूल्य सामग्री भरी पड़ी है ।।
भारतीय संस्कृति हमारी मानव जाति के विकास का उच्चतम स्तर कही जा सकती है ।। इसी की परिधि में सारे विश्वराष्ट्र के विकास के- वसुधैव कुटुम्बकम् के सारे सूत्र आ जाते हैं ।। हमारी संस्कृति में जन्म के पूर्व से मृत्यु के पश्चात् तक मानवी चेतना को संस्कारित करने का क्रम निर्धारित है ।। मनुष्य में पशुता के संस्कार उभरने न पायें, यह इसका एक महत्त्वपूर्ण दायित्व है ।। भारतीय संस्कृति मानव के विकास का आध्यात्मिक आधार बनाती है और मनुष्य में संत, सुधारक, शहीद की मनोभूमि विकसित कर उसे मनीषी, ऋषि, महामानव, देवदूत स्तर तक विकसित करने की जिम्मेदारी भी अपने कंधों पर लेती है ।। सदा से ही भारतीय संस्कृति महापुरुषों को जन्म देती आयी है व यही हमारी सबसे बड़ी धरोहर है ।।

भारतीय संस्कृति की अन्यान्य विशेषताओं सुख का केन्द्र आंतरिक श्रेष्ठता, अपने साथ कड़ाई, औरों के प्रति उदारता, विश्वहित के लिए स्वार्थों का त्याग, अनीतिपूर्ण नहीं- नीतियुक्त कमाई पारस्परिक सहिष्णुता, स्वच्छता- शुचिता का दैनन्दिन जीवन में पालन, परिवार- व राष्ट्र के प्रति अपनी नैतिक जिम्मेदारी का परिपालन, अनीति से लड़ने संघर्ष करने का साहस- मन्यु, पितरों की तृप्ति हेतु तथा पर्यावरण संरक्षण हेतु स्थान- स्थान पर वृक्षारोपण कर हरीतिमा विस्तार तथा अवतारवाद का हेतु समझते हुए तदनुसार अपनी भूमिका निर्धारण सभी पक्षों का बड़ा ही तथ्य सम्मत- तर्क विवेचन पूज्यवर ने इसमें प्रस्तुत किया है ।।

भारतीय बुद्धिमता की चमक

विदेशी इतिहासकारों का यह कथन महत्वपूर्ण है कि सिकन्दर के आक्रमण से पूर्व भी विदेशों से विद्यार्थी भारत स्थित तक्षशिला और नालन्दा के विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने के लिये आते थे। इस के विपरीत भारत के स्नात्क शिक्षा का प्रसारण करने के लिये  ही विदेशों में जाते थे।

लार्ड मैकाले की भारत में शिक्षा प्रसारण नीति के बाद जो भी इतिहास की पुस्तकें भारत के स्कूलों और कालेजों में पढाई जाने लगीं थीं उन में सिकन्दर के आक्रमण से पूर्व काल का इतिहास ही नदारद था। केवल इतना ही उल्लेख मिलता है कि मगध सम्राट महा पद्म घनानन्द की सैनिक शक्ति की आहट मात्र से सिकन्दर के सैनिक इतने डर गये थे कि उन्हों ने अपने विश्व विजेता को स्वदेश लौटने के लिये विवश कर दिया। लेकिन नन्द वँश या उस से पहले के वँशों के बारे में कोई उल्लेख अंग्रेज़ी इतिहास में नहीं मिलते। ऐसा तो हो नहीं सकता कि ऩन्द जैसा शक्तिशाली साम्राज्य ऐक ही वर्ष में पैदा हो गया था जिस से विश्व विजेता सिकन्दर की सैना भी डर जाये।

वह कौन थे जिन्हों ने तक्षशिला और नालन्दा जैसे विश्व विद्यालय स्थापित किये थे? सपेरे? लुटेरे, या फिर अन्धविशवासी? किन्तु इन सभी प्रश्नो पर इतिहास मौन है। पाश्चात्य इतिहासकारों ने सिकन्दर पूर्व इतिहास को माइथोलोजी बता कर उसे नकार रखा है और उसी दिशा में हमारी पहचान को मिटाने की भरसक कोशिशें आज भी जारी हैं। दुर्भाग्यवश मैकाले शिक्षानीति के दुष्प्रभाव के कारण अपने देश के नक्काल ‘बुद्धिजीवी’ भी अंग्रेज़ी इतिहास को ही सत्य मान कर अपने साँस्कृतिक इतिहास को भुलाना स्वीकार कर बैठे हैं। हमारे इतिहास पर काला पर्दा डालने के पीछे ईसाईयों की स्वार्थी कुटिल नीति और सोची समझी साजिश थी।

सत्य को दबाया तो गया परन्तु विदेशी सर्जित इतिहास में से भी भारत के गौरवमय तथ्य सिर उठा कर सत्य को छिपाने के प्रमाण स्वरूप बोलते हैं।

योरुप की प्रथम जागृति

भारत की समृद्धि तथा विकास के चर्चे तो यूनान तथा सभी देशों में सिकन्दर के भारत आगमन से पूर्व ही थे। सिकन्दर भारत के सीमावर्ती पंजाब क्षेत्र के तक्षशिला विश्व विद्यालय से अति प्रभावित था। उसी से प्रेरणा ले कर सिकन्दर ने मिस्त्र में सिकन्दरिया (एलेग्ज़ेन्डरिया) नाम के विश्व विद्यालय का निर्माण करवाया था जो कालान्तर भारतीय तथा यूनानी विद्या प्रसार के केन्द्र के तौर पर विकसित हो गया। इस के पश्चात ही सिकन्दर ने मिस्त्र, ऐशिया माईनर, ईरान, बेकटीरिया तथा उत्तर पश्चिमी भारत के प्रान्तों को मिला कर अपनी हैलेनिस्टिक ऐम्पायरस्थापित की थी जिस के माध्यम से भारतीय कलाओं और ज्ञान विज्ञान का यूनान की ओर निर्यात बढ गया।

प्रचुर संख्या में भारतीय ग्रन्थों का यूनानी भाषा में अनुवाद किया गया तथा उन्हे सिकन्दरिया के पुस्कालय में रखा गया। सिकन्दर अपने साथ कई बुद्धिजीवियों और ब्राह्मणों को भी यूनान ले गया था । कालान्तर सिकन्दरिया मैडिटरेनियन प्रदेश में ऐक महत्वशाली महानगर के रूप में विकसित हुआ। वहाँ का पुस्कालय तथा पुरातत्वालय योरुप का प्रथम अन्तराष्ट्रीय विद्याध्यन केन्द्र बन गया था। योरुपीय देशों की प्रथम जागृति की शुरात यहीं से हुयी थी।

सिकन्दर के यूनानी सिपाहियों ने भारतीय तथा ईरानी महिलाओं से विवाह भी किये थे और उन्हें अपने साथ स्वदेश ले गये थे। दोनो देशों के बीच व्यापारिक तथा राजनैतिक सम्बन्ध भी स्थापित हो गये थे। सिकन्दर के उत्तराधिकारी सैल्युकस ने तो अपनी पुत्री का विवाह सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य से कर दिया था और उसी के फलस्वरूप यूनानी राजदूत मैगस्थनीज़ चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहने लगा था। मैगस्थनीज़ ने भारत के गौरवशाली वातावर्ण के इतिहास पाश्चात्य बुद्धजीवियों के लिये लिख छोडा है।

पाईथागोरस

य़ोरुप में विद्या के आधुनिकीकरण की नींव पाईथागोरस ने भारतीय गणित को यूनान में प्रसारित कर के डाली थी। पाईथागोरस की जीवनी उस की मृत्यु के लगभग दो शताब्दी पश्चात टुकडों में उजागर हुयी जिस से पता चलता है कि उस का जन्म ईसा से 560 वर्ष पूर्व ऐशिया माईनर के ऐक दूीप सामोस पर हुआ था। संगीत और जिमनास्टिक की प्रारम्भिक शिक्षा के बाद वह मिस्त्र चला गया और बेबीलोन तथा उस के आसपास के क्षेत्रों में कुछ काल तक रहा था। उस क्षेत्र में भारतीय दर्शन ज्ञान, उपनिष्दों, गणित तथा रेखागणित का प्रसार और प्रभाव था सिकन्द्रीया विश्वविद्यालय स्थापित होने से पूर्व ही था। भारतीय संगीत के धरातल पर ही पाईथागोरस ने पाशचात्य संगीत पद्धति की आधार शिला बनाई थी।

जब पाईथागोरस भारतीय प्रभाव के क्षेत्र में था तब ईरान ने मिस्त्र पर आक्रमण किया। पाईथागोरस को भी बन्दियों के साथ ईरान ले जाया गया । कालान्तर पाईथागोरस ईरान से पंजाब तक भारत में भी गया जहाँ उस ने यूनानी रीति रिवाज और वस्त्र त्याग कर भारत के पहाडी ढंग केटराउजर्स की तरह के परिधान अपना लिये थे। उसी तरह का परिधान पहने महारज कनिष्क को भी ऐक प्रतिमा में दिखाया गया है जो अफगानिस्तान में पाई गई थी। प्रतिमा में सम्राट कनिष्क को डबल ब्रेस्टिड कोट के साथ टराउजर्स पहने दिखाया गया है। यूनान में उस समय तकटराउजर्स नहीं पहनी जाती थीँ। टराउजर्स की ही तरह के पायजामे और सलवारें भारत ईरान घाटी में पहने जाते थे। अतः पाईथागोरस ने भारतीय रेखागणित के साथ साथ भारतीय वेश भूषा भी योरुप में प्रचिल्लत की थी।

भारतीय विचारघारा का प्रसार

लगभग बीस वर्षों तक पूर्वी देशों में रहने के उपरांत पाईथागोरस योरुप वापस जा कर इटली के क्रोटोन प्रान्त में रहने लगा। वहाँ पर यूनानी भाषा का प्रचार भी था। उस ने अपने मित्रों तथा शिष्यों की ऐक मणडली बनाई। उस टोली ने संसार को विश्व स्तरीय परिवार  – वसुदैव कुटम्बकम् के अनुरूप प्रचार किया तथा निजि जीवन में अनुशासित रहने पर भी बल दिया।

पाईथागोरस ने पुनर्जीवन में विभिन्न शरीर पाने के भारतीय विचार को भी व्यक्त किया। उस ने अपने पुनर्जन्मों के समर्ण रखने का दावा किया तथा सभी जीवों में ऐकीकरण का भारतीय सिद्धान्त दोहराया। अपनी टोली के सदस्यों को जीवों  के प्रति दया और अहिंसा का बर्ताव करने को कहा। पाईथागोरस का कथन था कि जो जीवों के साथ हिंसात्मक व्यवहार करे गा वह पुनर्जन्म अनुसार अगला जन्म पशु योनि में लेगा।

पाईथागोरस के प्रचार के फलस्वरूप यूनान में बुद्धिजीवियों का समाज जिन में सुकरात, अफलातून, अरस्तु (क्रमशः सोक्रेटिस, प्लेटो, अरिस्टोटल) आदि तथा कई अन्य उस के विचारों का उनुमोदन करने लगे। उन्हों ने भारतीय परम्परा के चार महाभूतों- पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु का अनुमोदन तो किया किन्तु आकाश का यथार्थ नहीं समझ पाये। अतः यूनानी बुद्धिजीवियों ने आकाश तत्व का प्रतिपादन महाभूतों में नहीं किया।

योरूपीय जागरुक्ता के प्रेरक

जिन ग्रन्थों और सिद्धान्तों ने सिकन्द्रीया विश्वविद्यालय के माध्यम से पाश्चात्य जगत में विचार क्रान्ति को प्रोत्साहन दे कर योरुप वासियों की प्रथम चेतना या प्रथम जागृति (फर्स्ट अवेकनिंग) को जगाया उन में से कुछ मुख्य भारतीय विषय इस प्रकार हैं –

  • सिकन्द्रीया के पुरात्तवालय में काम करने वाले ऐक यूनानी खगोल शास्त्री अरिस्टारक्स ने  300 –250 में सौर मण्डल का सिद्धान्त घोषित किया जो कालान्तर शताब्दियों पश्चात कोपरनिकस नें भी अपनाया और उसे विकसित किया।
  • सिकन्द्रीया के पुरात्तवालय में ही काम करने वाले ऐक अन्य यूनानी खगोल शास्त्री इराटोस्थनीज ने 250-200 में आकाश का ऐक मानचित्र बनाया जिस में 675 तारे दिखाये। उस ने पृथ्वी का व्यास भी नापा जो लगभग आधुनिक आँकडों के समीप मिलता जुलता था।
  • रोमन सैना के साथ काम करने वाले ऐक य़ूनानी चिकित्साशास्त्री डियोकोरिडिस 01 –100 ने वनस्पतियों का अध्ययन कर के उन से औषधि तैयार करने पर शोध किया और डी माटेरा मैडिका नाम का ऐक ग्रन्थ रचा जिसे बाद में अरब वासियों ने भी संरक्षित किया। वह योरुप का प्रथम औषधि ग्रन्थ था तथा उस में 600 पौधों और 1000 औषधियों का उल्लेख किया गया था।
  • मिस्त्र में खगोल शास्त्री पटोल्मी (127 ईस्वी) ने पटोल्मी सिद्धान्त की व्याख्या कर के पृथ्वी को स्थिर और ग्रहों को पृथ्वी की परिक्रमा करते उल्लेखित किया। पाश्चात्य जगत में पटोल्मी सिद्धान्त का यही भ्रमात्मिक सिद्धानत 16 वी शताब्दी तक मान्य रहा। इस भ्रम का निकोलस कोपरनिकस ने खण्डन किया था और कहा कि सौर मण्डल का केन्द्र पृथ्वी नहीं, अपितु सूर्य है जो केन्द्र में स्थिर है। वास्तव में तो यह सिद्धान्त भी प्राचीन भारतीय उल्लेखों के सामने अधूरा ही था क्यों कि भारतीय अपने सूर्य को भी अस्थिर घोषित कर चुके थे और कोटि कोटि ब्रह्माण्डों की घोषणा भी कर चुके थे।
  • ईसा के 200 वर्ष पश्चात पलोटिनस नें अपनी रचना इनीडस में जगत को ऐक ही स्त्रोत्र से व्यक्त हो रही श्रंखलाओं की कडी बताया। उस का कथन हिन्दू मतानुसार यय़ार्थ के अधिक निकट था।

सिकंद्रिया का विनाश

47 ईस्वी में जुलियस सीजर तथा पोम्पी महान के बीच युद्ध हुआ जिस के फलस्वरूप सिकन्द्रीया पुस्तकालय जल गया। ज्ञान के क्षेत्र में यह मानवता के लिये बहुत बडी दुर्घटना थी क्यों कि इस विनाश में 40,000 से अधिक ग्रन्थ अग्नि में क्षति ग्रस्त हो गये थे।

दूसरी शताब्दी में रोम ऐक महाशक्ति के रूप में उजागर हुआ। नये नये ईसाई रंग में डूबे रोम-वासियों ने यूनानी सभ्यता के सभी चिन्हों और उन की अर्जित अथवा संकलित की हुई ज्ञान सम्पदा का विनाश कर दिया। रोम वासियों ने अपने राज्य का विस्तार उत्तरी अफरीका, ऐशिया माईनर तथा दक्षिणी योरूप तक फैला दिया जिस के फलस्वरूप ज्ञान विज्ञान के सभी अंश जो चर्च की सम्मति से मेल नहीं खाते थे नष्ट कर दिये गये। यूनानी नगर ध्वस्त कर दिये गये, ज्ञान अर्जन – सर्जन रुक गये तथा बुद्धिजीवी मार डाले गये। कुछ थोडे यूनानी बुद्धिजीवी जान बचा कर योरुप के अन्य भागों में छिप सकने में सफल हो गये थे। वह कुछ ग्रंथों को अपने साथ ले जा पाये थे और चोरी छिपे बिजेन्टिन काल तक गुप्त ढंग से शोध कार्य करते रहै।

529 ईस्वी में जसटिन लेन ले ऐथेंस (यूनान) में अफलातून (प्लेटो) की अकादमी के बचे खुचे अवशेष भी नष्ट कर दिये और यूनानी ज्ञान भण्डार योरुप से पूर्णत्या मिट गये। ईसाईयो नेपेगनिज्म फैलाने का आरोप लगा कर बुद्धिजीवियों को मार डाला और उन के ग्रन्थ नष्ट कर दिये। इस प्रकार आज ज्ञान विज्ञान का ढिंढोरा पीटने वाले ईसाईयों ने ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में अपना विनाशात्मिक योगदान दिया जो इतिहास के पृष्टों पर सुरक्षित है।

जो यूनानी बुद्धिजीवी संयोगवश बच सके थे उन्हों ने ईरान में शरण ली तथा वनवास में ही उन्हों ने अपनी अकादमी स्थापित कर के निजि ज्ञान यात्रा जारी रखी।

योरुपीय जागृति 

आधुनिक विज्ञान का पुनर्जन्म योरुप में 14-15 वीं शताब्दी में हुआ जिसे उन के अपने इतिहास में पुनर्जागृति (रिनेसाँ) कहा जाता है। प्राचीन ग्रंथ फिर से खोज निकाले गये जिन में से युक्लिड की ज्योमैट्री, पटोल्मी की जियोग्राफी तथा गालेन की मेडिसन मुख्य थीं। यह वह समय था जब भारत में तुगलक तथा लोधी वंशजकों का राज्य था और उत्तर – पश्चिम दिशा से मुगलों के आक्रमण भी हो रहे थे। राजनैतिक उथल पथल तथा राजकीय संरक्षण के अभाव के कारण भारत का प्राचीन ज्ञान विज्ञान भी लुप्त अवस्था में पहुँच चुका था।

यह वह काल था जब पूर्व में सूर्यास्त हो कर पश्चिम दिशा से उदय हो रहा था। भारत में मुसलिम शासकों ने अन्धकार युग फैला दिया था। हिन्दू ज्ञान विज्ञान ग्रन्थों के ढेर कुफर के नाम से जलाये जा रहे थे तथा हिन्दू बुद्धजीवियों का कत्ले आम साधारण दिनचर्या की बात बन चुकी थी। सभी वर्गों से सर्वाधिक शोषण ब्राह्मणों का हो रहा था।

सौभाग्य से उस समय कुछ ग्रन्थ विनाश से बचा लिये गये थे। कुछ भारत से बाहर ले जाये जा चुके थे और वहाँ भी बचा लिये गये थे। उन्हीं ग्रन्थों से आधुनिक विज्ञान के अंकुर ने योरुप में पुनर्जन्म लिया और उस को रिनेसाँ का नाम दिया गया। जैसे जैसे योरुपीय उपनेषवाद फैला तो योरुपीय संयोजकों ने उसी ज्ञान को अपना व्याख्यात कर के उन पर नये स्रजनकर्ताओं के नाम लिख दिये। भारतीय विद्या भण्डारों का हस्तान्तिकरण हो गया।

भारतीय बुद्धिमता की चमभारतीय ज्ञान का हस्तान्तिकरण

आठवी शताब्दी में मध्य ऐशिया क्षेत्र अरबों के राजनैतिक प्रभाव में आ चुका था और उन का शासन क्षेत्र सिन्धु से स्पेन तक फैल गया था। भारतीय ज्ञान का प्रभाव बग़दाद तक फैल तो चुका था किन्तु उस क्षेत्र की सत्ता अरबों के हाथ में थी जो इस्लाम कबूल कर चुके थे। समस्त अब्बासि सलतनत में अरबी भाषा के मदरस्से खुल चुके थे। अतः भारत से जो भी ज्ञान अभी तक वहाँ पहुँचा था उसे अरबी भाषा में अनुवाद कर के ही प्रयोग किया जा रहा था। जैसे जैसे भारतीय ज्ञान का प्रसार आगे बढा उस की पहचान मिट कर बदलती गयी।

सभी क्षेत्रों की उन्नति के लिये राजनैतिक स्थिरता का होना अति आवश्यक है। उस के बिना सभी कुछ बिखर जाता है। जब भारत में राजनैतिक अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न हो गयी तो सभी कुछ नष्ट होने लगा। हिन्दू धर्म का कोई संरक्षक भारत में ही नहीं रहा था जिस के कारण हिन्दूओं के सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक संस्थान ऐक ऐक कर के चर्मराने लगे। भारतीय ज्ञान को भी अब अरबी फारसी का लिबास पहनाया जाने लगा था।

संस्कृत से अरबी के अनुवाद केन्द्र

सभी सूत्रों से ऐकत्रित किये गये ज्ञान को अरबी भाषा में अनुवाद करने का क्रम निम्नलिखित केन्द्रों पर चलने लगा थाः-

  • स्पेन – खलीफा अब्दुल रहमान III (891–961)  ने ऐक बडा पुस्तकालय कोरडोबा (स्पेन) में खुलवाया जिस में बग़दाद से लाये गये ग्रन्थों को रखा गया। इस पुस्तकालय में लगभग  400,000 पुस्तकों का संग्रह था।
  • सिसली – सिसली में भी अरबों का शासन था। उन्हों ने भी बग़दाद से प्राचीन ग्रन्थों को ला कर स्थानीय पुस्तकालय को भर दिया था। संस्कृत से अरबी अनुवाद का क्रम सोहलवीं शताब्दी के अन्त तक निरन्तर चलता रहा।
  • सीरिया – स्पेन के अतिरिक्त अनुवाद केन्द्र सीरिया, दमास्कस, पालेर्मो में भी काम कर रहे थे। इन्हीं स्थलों पर आर्यभट्ट की कृतियों का अनुवाद भी किया गया था।
  • योरुप – 1120 ईस्वी में ऐक स्पेन वासी अंग्रेज रोबर्ट आफ चैस्टर अलख्वारिसमि की कृतिअलगोरित्मी डी न्यूमरो इनडोरम को लेटिन भाषा में अनुवाद किया। यह कृति आर्य भट्ट के ग्रन्थ पर आधारित थी। इस अनुवाद के फलस्वरूप  भारतीय मूल के अंक, गणित, अंक-गणित तथा खगोल शास्त्र लेटिनी भाषा में प्रचलित हो कर योरुप वासियों तक पहुँचे तथा उन्ही के माध्यम से फ्रैक्शनंस, क्वार्डिक समीकर्ण, वर्गीकर्ण आदि के ज्ञान का प्रकाश योरुपीय देशों में हुआ।
  • फलस्तीन – 1224 ईस्वी में फ्रेड्ररिक ने नेप्लस में ऐक विश्व विद्यालय स्थापित किया जिस में संस्कृत तथा अरबी भाषा के ग्रन्थों का ऐक बडा संग्रह था। कई संस्कृत भाषा के मूल ग्रन्थो की अरबी भाषा में व्याख्या भी थी। वहाँ स्पेन से ऐक अनुवादक को भी लाया गया जिस ने अरस्तु के जीव विज्ञान के क्षेत्र की कृतियों को लेटिन भाषा में अनुवाद किया। अनुवादित ग्रन्थों की लेटिनी प्रतियाँ पैरिस तथा बोल्गना के विश्व विद्यालयों को भी प्रदान की गयीं थीं। फ्रेड्ररिक ने  1228-1229 ईस्वी में फिल्सतीन (पेलेस्टाईन) के विरुद्ध पंचम धर्म युद्ध भी छेडा और योरोश्लम, बेथेलहम तथा नजारथ नाम के ईसाई धर्म केन्द्रों को अरबों से पुनः विजय कर लिया। इस विजय के फलस्वरूप सुकरात, अफलातून तथा अरस्तु (सोक्रेटस, प्लेटो, एरिस्टोटल) की कृतियाँ पुनः योरप वासियों को प्राप्त हो गयीं। उन के साथ ही भारतीय प्राचीन ग्रन्थों का ज्ञान भी योरुप में पहुँच गया जो गणित, खगोल शासत्र, चिकित्सा, भौतिक शास्त्र, रसायन, दर्शन तथा संगीत के क्षेत्र में विशष्ट ज्ञान था।

भ्रमात्मिक पडी भारतीय पहचान

समर्ण रहै यह वह समय था जब योरुपीय इतिहासकारों के अनुसार योरुप में ‘अंधकार-युग’ चल रहा था और रिनेसाँ का पदार्पण अभी नहीं हुआ था। इस समय भारत में तुग़लक वंश का शासन चल रहा था। ईसा के बाद भी ऐक हजार वर्षों तक उस काल के योरूप वासियों में भारत के बारे में कितनी अज्ञानता थी इस का अनुमान निम्नलिखित तथ्यों से लगाया जा सकता हैः-

  • यद्यपि अरब देशों में भारतीय अंकों को ‘हिन्दसे’ – (भारत से) के नाम से ही पुकारा जाता था तो भी भारतीय अंक 976 ईस्वी तक योरुपीय देशों में अरेबिक न्यूमेरल्स के भ्रमात्मिक नाम से पहचाने जाते थे। 1202 ईस्वी में लियोनार्डो पिसानो ने औपचारिक रुप से भारतीय हिन्दसों को योरुप में प्रसारित किया जिस के पश्चात हिन्दसे विश्व भर में लेन देन के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय अंकों के रुप में प्रचिल्लत हो गये।
  • स्पेन की मोनास्ट्री सेन्टा मेरिया डि रिपौल में बहुत सारे अरबी भाषा के ग्रन्थो का अनुवाद लेटिन भाषा में हो चुका था। वास्तव में इन में से अधिकांश ग्रन्थ मूलतः संस्कृत से अरबी भाषा में अनुवाद किये गये थे किन्तु स्पेन वासियों को मौलिक ग्रंथों की जानकारी नहीं थी।
  • दसवीं शताब्दी में गरबर्ट आरिलैक (946-1003) ने पोप का पद सम्भाला। उन्हों ने भारतीय गिनती का विधान स्पेन के मूर विदूानों से सीखा था तथा उसी से प्रभावित होने के कारण 990 ईस्वी में उन्हों ने हिन्दसों के माध्यम से गिनती करना अपने शिष्यों को भी सिखाया। उन्हों ने उत्तरी स्पेन की यात्रा भी की और वहाँ से ‘अबाकस’ तथा ‘अस्ट्रोबल्स’ के अरबी अनुवादों का ला कर लेटिन भाषा में अनुवादित करवाया। समुद्री नाविकों तथा व्यापारियों को उन का प्रयोग करने के लिये प्रोत्साहित किया जिस के फलस्वरुप योरुपीय व्यापारिक तथा लेखा जोखा के क्षेत्रों में बहुत प्रगति हुयी।

अंग्रेजी पर संस्कृत का प्रभाव

सम्बन्ध बोधक शब्द – संस्कृत भाषा का ‘पित्र’ शब्द अरबी फारसी में ‘पिदर’ और अंग्रेजी में ‘फादर’ बन गया। उसी प्रकार ‘मातृ’ – ‘मादर’ और ‘मदर’ बन गया, ‘भ्रातृ’ – ‘बिरादर’ से ‘ब्रदर’ बन गया। अंग्रेजी़ भाषा का ‘हजबैंड’ शब्द भी संस्कृत से ही जन्मा है। हजबैंड से तात्पर्य उस पुरुष से है जिस के हाथ किसी महिला के हाथों के साथ ऐक ‘बैंड’ लगा कर बाँध दिये गये हों ताकि वह अन्य महिलाओं के पीछा ना करे। यह विचार वैदिक विवाह पद्धति की उस परम्परा की ओर संकेत करता है जिस में पति अपनी पत्नी का दाहिना हाथ पकडता है और पति-पत्नी के हाथों में ऐक पवित्र धागा बाँध दिया जाता है।

नामकरण – विदेशों में नगरों के कई नाम भी संस्कृत से ही प्रभावित हुये हैं। उदाहरण स्वरूप ताशकन्द ‘तक्षकखण्ड’ का अपभ्रंश है। भारत का नाम कभी ‘भरतखण्ड’ भी था और उसी परम्परानुसार भारत में ‘बुन्देलखण्ड’ तथा ‘रोहेलखण्ड’ आदि इलाके आज भी हैं। दुर्गम नगरों को ‘गढ’ कहा जाता था जैसे कि – ‘लक्ष्मणगढ’, ‘पिथौरागढ’ आदि। लेनिनग्राद, स्टालिनग्राद आदि के नाम ‘गढ’ परम्परागत हैं। ‘लक्ष्मणबुर्ज’ की तर्ज पर ‘लक्ष्मबर्ग’ और इस प्रकार के अन्य नगरों के नाम बने हैं। इन के अतिरिक्त ‘सिहंपुर’ से सिंगापुर, ‘मलय’ से मलाया, ‘काम्बोज’ से कम्बोडिया आदि नाम परिवर्तित होते चले गये। कुछ भारतीय पुरुष और महिलायें भी आजकल विदेशों में जाकर विदेशियों की तरह अपने नाम उच्चारण करवाने का शोक रखते हैं। उसी प्रकार से ‘हरिकुल-ईश’ से हरकुलिस, ‘शम्भुसिहं’ से शिन बू सेन और ‘अलक्षेन्द्र’ से ऐलेगज़ेण्डर आदि नाम बनने लगे। भारत में ही अंग्रेज़ों ने कानपुर को ‘काउनपोर’ और लखनऊ को ‘लकनाओ’ बना रखा था।

पारवारिक परम्परायें – नव वधु जब पति के घर में पहली बार प्रवेश करती है तो दहलीज पर रखे हुये अक्ष्य पात्र को पाँव से ठोकर मार कर गिरा कर शुभ संकेत देती है कि उस के पदार्पण के पश्चात पति के घर में धन-धान्य की कभी कमी ना आये। क्योंकि योरुपीय देशों में चावल खाने का रिवाज नहीं है, परन्तु इसी रिवाज के समक्ष कई योरुपीय देशों के इसाई परिवारों में नव वधु प्रथम बार पति के घर में प्रवेश करते समय (अक्ष्य पात्र के बदले) शैम्पियन शराब की ऐक बोतल को ठोकर मार कर घर में प्रवेश करती है।

कैलेण्डर – पुर्तगाली भाषा में, अंग्रेज़ी कैलेंडर के लिए ‘कलांदर’ शब्द प्रयुक्त होता है, जो शुद्ध संस्कृत ‘कालांतर’ (काल+अन्तर) का अपभ्रंश  है। भारतीय काल गणना के लिये युगांतर, मन्वंतर, कल्पांतर इत्यादि संस्कृत शब्दों का ही प्रयोग किया गया है। कई अंग्रेज़ी महीनों के नाम जैसे कि सप्टेम्बर, ऑक्टोबर, नोह्वेम्बर, डिसेम्बर शुद्ध संस्कृत में  सप्ताम्बर (सप्त+अम्बर), अष्टाम्बर, नवाम्बर, दशाम्बर के रूपान्तर मात्र हैं।  एन्सायक्लोपिडीयाब्रिटानिका  के विश्व कोष के अनुसार ग्रेगॅरियनकैलैण्डर (रोमन कैलैण्डर) का प्रयोग 1750 ईसवी में इंगलैण्ड में स्वीकारा गया था। उस से योरुप में पहले ज्युलियनकैलैण्डर का प्रचलन था और मार्च महीने से ही नव वर्ष प्रारंभ होता था। तब सितम्बर सातवां, अक्तुबर आठवां, नवम्बर नव्मा, और डिसम्बर दसवां महीना होता था। फरवरी को वर्ष का अन्तिम महीना माना जाता था तथा फरवरी के अन्दर वर्ष में बचे खुचे दिनों को जोड दिया जाता था। कभी फरवरी में 28 दिन और कभी 29 दिन होते थे जब कि वर्ष के अन्य महीनों में 30-31 दिन होते थे। इंग्लैंड में सन 1752 तक 25 मार्च को नवीन वर्ष दिन मनाया जाता था। सन 1752 में पार्लियामेंट के प्रस्ताव द्वारा कानून पारित कर, नवीन वर्ष का प्रारंभ  पहली जनवरी को बदला गया था।

कट्टरपंथियों का ज्ञान विरोध

सोहलवीं शताब्दी में सर्व प्रथम गेलिलो ने ब्रह्मगुप्त के ‘सिद्धान्त-शिरोमणी’ के लेटिन अनुवाद को समझने का प्रयत्न किया। 1585 तक गेलिलो ने भारत व्याखित कई प्राकृतिक नियमों को समझ लिया था। 1609 में उस ने अपने लिये ऐक नया टेलीस्कोप बनाया तथा चन्द्र के गड्ढों को देखा। 1610 में उस ने बृहस्पति के उपग्रहों को देखा। वास्तव में गेलिलो पाश्चात्य खगोल ज्ञान का जनक था जिस ने ग्रहों की गति के बारे में स्पष्ट व्याख्या की, किन्तु उसे पुरस्करित करने के बजाय उसे चर्च के कट्टरपंथियों का कडा विरोध इनक्यूजीशन के रूप में झेलना पडा था। जब उस नें ब्रह्मगुप्त के सिद्धान्त के आधार पर धरती की प्ररिकर्मा करने के बारे में व्याख्या की तो उसे चर्च की भ्रत्सना झेलनी पडी क्यो कि गेलिलो की ब्रह्मगुप्त सिद्धान्त पर आधारित व्याख्या गोस्पलसे मेल नहीं खाती थी। गेलिलो को उस के घर साईना, इटली में बन्दी बनाया गया। जो भी वैज्ञायानिक तथ्य चर्च के कथन से मेल नहीं खाते थे उन का विरोघ होता था। वहाँ हिन्दू धर्म जैसी वैचारिक स्वतन्त्रता नहीं थी।

हिन्दू धर्म में ज्ञान अर्जित करना मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है परन्तु रोज मर्रा के जीवन में तथा ज्ञान और विद्या के क्षेत्र से चर्च का हस्तक्षेप सीमित करने में योरुपवासियों को कई शताब्दियों तक परिश्रम करना पडा था। धीरे धीरे तथा कथित धर्म को सरकारी तथा ज्ञान और विद्या के क्षेत्र से स्वतन्त्र कर के ‘धर्म-निर्पेक्ष’ बनाने की परिक्रिया शुरु हुई। इन्ही कारणों से धर्म-निर्पेक्षता नाम की शब्दावली का प्रयोग और महत्व आरम्भ हुआ। इस के पश्चात ही योरुपवासी विज्ञान के क्षेत्र में स्वतन्त्र रूप से काम करने में सक्षम हुये और उन्हों ने हिन्दू ग्रन्थों के आधार पर अपने शोध कार्य को आगे बढाया जो अरबी से लेटिन में अनुवाद किये गये थे। चर्च के हस्तक्षेप में पाबन्दी तथा ज्ञान विज्ञान के आयात ने समस्त योरुप में प्रकाश फैलाया जिस कारण योरुपीय देशों का प्रभुत्व पूरे विश्व में फैलने लगा।

पेटेन्ट चोरी के प्रयत्न

ना केवल क्रिश्चियन विदूानो का अपितु उस काल के योरूपियन वैज्ञानिकों का भी तब तक यही तर्क था कि सृष्टि का रचना केवल 5000 वर्ष पुरानी है। उन का ज्ञान डारविन के सिद्धान्त पर आधारित था जिस पर आज प्रश्न चिन्ह लग चुके हैं। विकास के नाम-मात्र छलावे में वह स्दैव पुरानी असत्य आस्थाओं को छोडते रहे हैं परन्तु पाश्चात्य बुद्धिजीवी नयी भ्रमाँतमिक आस्थायें भी अपने साथ बटोरते रहे है। यही चक्र उन के ज्ञान विकास के साथ चलता रहा है। इस की तुलना में भारतीय वैदिक ज्ञान अपने अर्जित सत्यों पर दृढ रहा है। वह स्थिर और शाश्वक है तथा समय के बदलाव भी उस की सत्यता को नहीं झुटला सके।

भारत के ऋषियों ने आत्म ज्ञान के साथ साथ ज्ञान की खोज में यत्न भी किये। उन के समक्ष कोई ‘पेटेन्ट’ कराये गये निजि सम्पदा स्वरूप तथ्य नहीं थे जैसे कि पाश्चात्य बुद्धजीवियों ने अर्जित कर रखे हैं। पाश्चात्य देशों में आज भी ज्ञान चोरी और उसे अपना कहने का क्रम निरन्तर चल रहा है जिस के घृणित आधार पर पाश्चात्य जगत के लोग भारत को सपेरों का देश कहने का दुस्साहस करते हैं। पाश्चात्य देश आज भी योग, बासमती चावल, नीम आदि भारतीय उत्पादकों को अपने नाम से पेटेन्ट करवाने की फिराक में लगे हैं ताकि उन का व्यापार किया जा सके।

कम्पूटर के लिये सर्वोत्तम भाषा संस्कृत है

नासा के एक वैज्ञानिक रिक ब्रिग्ज़ का एक लेख ‘ए आई’ ( आर्टिफ़िशल इंटैलिजैन्स्, कृत्रिम् बुद्धि) पत्रिका में १९८५ में‌ प्रकाशित हुआ है जिसमें उऩ्होंने घोषणा की है : “कम्पूटर के लिये सर्वोत्तम भाषा संस्कृत है”।
कम्पूटर की क्रियाओं के लिये कम्प्यूटर के अन्दर एक भाषा की आवश्यकता होती है जो गणितीय तथा अत्यंत परिशुद्ध होती है। इस भाषा से ‘बात’ करने के लिये कम्प्यूटर क्रमादेशकों (प्रोग्रामर्स) को एक प्रचलित (स्वाभाविक )भाषा की आवश्यकता होती है जो उसके दैनंदिन कार्य की भाषा तो होती है किन्तु उसका भी परिव्हुद्ध होना अनिवार्य होता है अन्यथा कम्प्यूटर उसकी बात को गलत समझ सकता है।
पिछले बीसेक वर्षों से एक ऐसी परिशुद्ध स्वाभाविक भाषा का विकास करने का विपुल व्यय के साथ भरसक प्रयत्न किया जा रहा है जिससे क्रमादेशक अपनी बात कम्प्यूटर को सुस्पष्ट अभिव्यक्त कर सके । एतदर्थ स्वाभाविक भाषाओं के शब्दार्थ – विज्ञान तथा वाक्य रचना को संवर्धित किया जा रहा था। किन्तु तार्किक डेटा के सम्प्रेषण हेतु यह प्रयास न केवल दुरूह साबित हो रहे थे वरन अस्पष्ट भी थे । अतएव यह विश्वास संपुष्ट हो रहा था कि स्वाभाविक भाषाएं कृत्रिम भाषाओं के समान गणितीय यथार्थता तथा आवश्यक परिशुद्धता के साथ बहुत से विचारों को सम्प्रेषित नहीं कर सकतीं।
वास्तव में भाषा विज्ञान तथा कृत्रिम बुद्धि के बीच यह विभाजन वाली सोच ही गलत है। क्योंकि बिना ऐसे विभाजन के कम से कम एक स्वाभाविक भाषा ऐसी है जो लगभग १००० वर्ष की अवधि तक जीवन्त सम्प्रेषण की भाषा रही है और जिसके पास अपना विपुल साहित्य भी है; वह है संस्कृत भाषा। साहित्यिक समृद्धि के साथ इस भाषा में दार्शनिक तथा व्याकरणीय साहित्य की परम्परा भी इस शताब्दी तक सशक्त रूप से सतत कार्यशील रही है। संस्कृत भाषा में‌ पदान्वय करने की एक विधि है जो कृत्रिम बुद्धि में आज की ऐसी क्षमता के न केवल कार्य में वरन उसके रूप में भी बराबर है; यह अनोखी उपलब्धि संस्कृत भाषा के वैयाकरणों की अनेक उपलब्धियों में से एक है। यह लेख दर्शाता है कि स्वाभाविक भाषा कृत्रिम भाषा की तरह भी कार्य कर सकती है, तथा कृत्रिम बुद्धि में बहुत सा अन्वेषण कार्य एक सहस्राब्दि पुराने आविष्कार को एक चक्र के पुनराविष्कार की तरह कर रहा है।
रिक ब्रिग्ज़ आगे लिखते हैं कि संस्कृत अद्भुत समृद्ध, उत्फ़ुल्ल तथा सभी प्रकार के विपुल विकास से युक्त भाषा है, और तब भी यह परिशुद्ध है, और २००० वर्ष पुरानी पाणिनि रचित व्याकरण के अनुशासन में रहने वाली भाषा है। इसका विस्तार हुआ, इसने अपनी समृद्धि को बढ़ाया, परिपूर्णता की ओर अग्रसर हुई और अलंकृत हुई, किन्तु हमेशा ही अपने मूल से संबद्ध रही। प्राचीन भारतीयों ने ध्वनि को बहुत महत्व दिया, और इसीलिये उनके लेखन, काव्य या गद्य, में लयात्मकता तथा सांगीतिक गुण थे । आधुनिक भारतीय भाषाएं संस्कृत की संतान हैं, और उनकी शब्दावली तथा अभिव्यक्ति के रूप इससे समानता रखते हैं। संस्कृत के वैयाकरणों का ध्येय एक ऐसी निर्दोष सम्पूर्ण भाषा का निर्माण था, जिसे ‘विकास’ की आवश्यकता नहीं होगी, जो किसी एक की‌ भाषा नहीं होगी, और इसीलिये वह सभी की होगी, और वह सभी मनुष्यों के लिये, तीनों कालों में सम्प्रेषण तथा संस्कृति का माध्यम या उपकरण होगी ।”
जवाहरलाल नेहरू ने भी लिखा है :- ”यदि मुझसे कोई पूछे कि भारत का सर्वाधिक मूल्यवान रत्नकोश क्या है, मैं बिना किसी झिझक के उत्तर दूंगा कि वह संस्कृत भाषा है, और उसका साहित्य है तथा वह सब कुछ जो उसमें समाहित है। वह गौरवपूर्ण भव्य विरासत है,और जब तक इसका अस्तित्व है, जब तक यह हमारी जनता के जीवन को प्रभावित करती रहेगी, तब तक यह भारत की मूल सृजनशीलता जीवंत रहेगी। . . . . भारत ने एक गौरवपूर्ण भव्य भाषा – संस्कृत – का निर्माण किया, और इस भाषा, और इसकी‌ कलाएं और स्थापत्य के द्वारा इसने सुदूर विदेशों को अपने जीवंत संदेश भेजे ।”
प्रसिद्ध भाषाविद तथा संस्कृत पंडित विलियम जोन्स ने भी लिखा है :- “संस्कृत भाषा की संरचना अद्भुत है; ग्रीक भाषा से अधिक निर्दोष तथा संपूर्ण; लातिनी‌ भाषा से अधिक प्रचुर तथा इन दोनों से अधिक उत्कृष्टरूप से परिष्कृत।
एक और भाषाविद तथा विद्वान विलियम कुक टेलर ने लिखा है :- “ यह तो एक अचंभा करने वाली खोज हुई कि विभिन्न राज्यों के परिवर्तनों तथा उनकी विविधताओं के होते हुए भी, भारत में एक ऐसी‌ भाषा थी जो यूरोप की‌ सभी बोलियों की जननी है। इन बोलियों की जिऩ्हें हम उत्कृष्ट कहते हैं – ग्रीक भाषा की नमनीयता तथा रोमन भाषा की शक्ति – इन दोनों की वह स्रोत है। उसका दर्शन यदि आयु की दृष्टि से देखें तब पाइथोगोरस की शिक्षा तो कल की बच्ची है, और निर्भय चिन्तन की दृष्टि से प्लेटो के अत्यंत साहसिक प्रयास तो शक्तिहीन और अत्यंत साधारण हैं। उसका काव्य शुद्ध बौद्धिकता की दृष्टि से हमारे काव्य से न केवल श्रेष्ठतर है वरन उसकी कल्पना भी हमसे परे थी। उनके विज्ञान की पुरातनता हमारी ब्रह्माण्डीय गणनाओं को भी चकरा दे । अपने भीमकाय विस्तार में उसके इस साहित्य ने, जिसका वर्णन हम बिना आडंबर तथा अतिशयोक्ति के शायद ही कर सकें, अपना स्थान बनाया – वह मात्र अकेला खड़ा रहा, और अकेल्ले खड़े रहने में समर्थ था।”
जार्ज इफ़्राह :- “संस्कृत का अर्थ ही होता है संपन्न, सम्पूर्ण तथा निश्चयात्मक। वास्तव में यह भाषा अत्यंत विस्तृत, मानों कि कृत्रिम, तथा ध्यान के विभिन्न स्तरों, चेतना की स्थितियों तथा मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक प्रक्रियाओं के वर्णन करने में समर्थ है। और इसके शब्दकोश की समृद्धि बहुत महत्वपूर्ण और वैविध्यपूर्ण है। संस्कृत भाषा ने शताब्दियॊं छन्दशास्त्र तथा काव्यशास्त्र के विभिन्न नियमों को प्रशंसनीय रूप से आधार दिया है। इस तरह हम देख सकते हैं कि समस्त भारतीय संस्कृति तथा संस्कृत साहित्य में‌ काव्य ने प्रबल कार्य किया है।”
एम. मौनियेर वोलियम्स : – “यद्यपि भारत में ५०० बोलियां‌ हैं, किन्तु एक ही पावन भाषा है और केवल एक ही पावन साहित्य जो कि समस्त हिन्दुओं द्वारा स्वीकृत तथा पूजित है, चाहे वे कितनी ही जातियों में, बोलियों में, प्रतिष्ठा में तथा आस्थाओं में‌ कितने ही भिन्न क्यों न हों। वह भाषा संस्कृत है और संस्कृत साहित्य जो अकेला वेदों का तथा सबसे व्यापक अर्थ में ज्ञान का भंडार है, जिसमें हिंदू पुराण, दर्शन, विधि सम्मिलित हैं, साथ ही यह सम्पूर्ण धर्म का, विचारों और प्रथाओं और व्यवहारों का दर्पण है, और यह मात्र एक खदान है जिसमें से सभी भारतीय भाषाओं को समुन्नत करने के लिये या मह्त्वपूर्ण धार्मिक तथा वैज्ञानिक विचारों की अभिव्यक्ति के लिये उपयुक्त सामग्री खनन की जा सकती‌ है।”
सर विलियम विल्सन हंटर :- “कथनों की परिशुद्धता, और भाषाई धातुओं के सम्पूर्ण विश्लेषण तथा शब्दों के निर्माण के सिद्धान्तों के लिये विश्व की व्याकरणों में पाणिनि की‌ व्याकरण सर्वश्रेष्ठ है। बीज गणितीय शब्दावली के उपयोग के द्वारा इसने सूत्रों अर्थात संक्षिप्त एवं सारगर्भित कथनों में अभिव्यक्ति की जो कला निर्मित की है वह संक्षिप्तिकरण में अद्वितीय है, यद्यपि कभी‌ कभार दुर्बोध होती है। यह (पाणिनीय व्याकरण) सम्पूर्ण घटनाओं को, जो संस्कृत भाषा में‌ प्रस्तुत की जाती हैं, तार्किक समस्वरता में आयोजित करती है, और यह हमारे आविष्कारों तथा उद्यमों द्वारा प्राप्त भव्यतम उपब्धियों में से एक है।”
अल्ब्रेख्ट वैबर :- “हम एकदम से भव्य भवन में प्रवेश करते हैं जिसके वास्तुशिल्पी का नाम पाणिनि है तथा इस भवन में से जो भी जाता है वह इसके आद्भुत्य से प्रभावित हुए बिना तथा प्रशंसा किये बिना रह नहीं रहता। भाषा जितनी भी‌ घटनाओं की अभिव्यक्ति कर सकती है इस व्याकरण में उसके लिये पूर्ण क्षमता है, यह क्षमता उसके अविष्कारक की अद्भुत विदग्धता तथा उसकी भाषा के सम्पूर्ण क्षेत्र की गहरी पकड़ दर्शाती है।”
लैनर्ड ब्लूमफ़ील्ड :- भारत में ऐसा ज्ञान उपजा जिसकी नियति भाषा संबन्धी यूरोपीय अवधारणाओं में क्रान्ति पैदा करना थी। हिन्दू व्याकरण ने यूरोपियों को वाणी के रूपों का विश्लेषण करना सिखलाया।
वाल्टर यूजीन क्लार्क :- पणिनीय व्याकरण विश्व की सर्वप्रथम वैज्ञानिक व्याकरण है; प्रचलित व्याकरणों में सबसे पुरातन है, और महानतमों में से एक है। यह तो अठारहवीं शती‌ के अंत में पश्चिम द्वारा की गई संस्कृत की खोज है, तथा हमारे द्वारा भाषा के विश्लेषण करने की भारतीय विधियों के अध्ययन की‌ कि जिसने हमारे भाषा तथा व्याकरण के अध्ययन में क्रान्ति ला दी; तथा इससे हमारे तुलनात्मक भाषा विज्ञान का जन्म हुआ। . . . भारत में‌ भाषा का अध्ययन यूनान या रोम से कहीं अधिक वस्तुपरक तथा वैज्ञानिक था। वे दर्शन तथा वाक्यरचना संबन्धों के स्थान पर भाषा के अनुभवजन्य विश्लेषण में‌ अधिक रुचि रखते थे । भाषा का भारतीय अध्ययन उतना ही वस्तुपरक था जितनी किसी शरीर विज्ञानी द्वारा शरीर की चीरफ़ाड़।”
अत: हमारा परम कर्तव्य बनता है कि हम अपनी सर्वश्रेष्ठ धरोहर तथा विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा संस्कृत को बचाएं; साथ ही संस्कृति की रक्षा करने के लिये भारतीय भाषाओं को बचाएं। नौकरी के लिये अंग्रेज़ी सीखें, किन्तु जीवन की, मानवता की रक्षा करने के लिये भारतीय भाषाओं में जीवन जियें।

भूख से बिलखता विकासशील भारत..

एक तरफ वो लोग है जो , बर्गर खाने वाले युवा बेधड़क, बिंदास तरीके से होटल में जाकर खाने का ऑर्डर देते हैं और जब मन भर जाए तो बचा खुचा खाना छोड़कर आइसक्रीम खाने बाहर निकल जाते हैं. शादी या किसी अन्य अवसर पर मेहमानों के बीच अपनी शान बढ़ाने के चक्कर में इतना खाना बनवा लिया जाता है जो मुंह कम लगता है फेंका ज्यादा जाता है.

दूसरी तरफ इससे बिल्कुल अलग और बेहद दर्दनाक है जहं हम कूड़े के ढेर में से बच्चों को खाना चुनते हुए देखते हैं. रोटी के चंद टुकड़ों के लिए परिवार के छोटे-छोटे बच्चों को झगड़ते हुए देखते हैं. अपने बच्चों का पेट भरने के लिए मां-बाप को दिन रात मेहनत करते हुए देखते हैं, अपने बच्चे के पेट में अन्न के दो दाने डालने के लिए मां-बाप को पानी से ही अपना पेट भरते हुए देखते हैं.

हम शान से कहते हैं भारतीय अर्थव्यवस्था एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है लेकिन इस विकास की विडंबना यही है कि जिन दो तस्वीरों को हमने यहां पेश किया है वह भी इसी उभरते हुए भारत की ही हैं. भुखमरी के हाहाकार से त्रस्त भारत के  मुंह पर एक और तमाचा जड़ते हुए ग्लोबल हंगर इंडेक्स ने जो आंकड़े पेश किए हैं वह वाकई उन लोगों को हिलाकर रख सकते हैं जिन्हें भारत की वर्तमान स्थिति पर गर्व करने की आदत सी पड़ गई है.

ग्लोबर हंगर इंडेक्स भुखमरी को मांपने वाला अंतरराष्ट्रीय स्तर का सूचकांक है जिसके अनुसार भुखमरी के मामले में भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे पिछड़े देशों से भी आगे निकल गया है. यह सूचकांक 2011-2013 के सर्वेक्षण पर आधारित है जिससे संबंधित भुखमरी की रिपोर्ट में भारत को 63वें स्थान पर रखा गया है, जबकि श्रीलंका को 43वां, पाकिस्तान और बांग्लादेश को 57वें और 58वें स्थान पर रखा गया है. वहीं इस सूची में चीन को छठा स्थान मिला है.

हाल ही में जारी किए गए ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार 2011-13 में दुनियाभर में भूख की मार झेल रहे लोगों की संख्या 84 करोड़ 20 लाख है, जिनमें से 21 करोड़ लोग यानी एक चौथाई के लगभग लोग अकेले भारत में ही मौजूद हैं. रिपोर्ट के अनुसार एक कड़वा सच यह भी है कि भले ही आज हम तरक्की कर रहे हों लेकिन भारत के हालात अपने पड़ोसी मुल्कों से कहीं ज्यादा बदतर हैं.

 

सबसे बड़े शर्म की बात तो यह है कि ग्लोबल हंगर सूचकांक की रिपोर्ट के अनुसार भारत को भयानक गरीबी की मार से जूझ रहे इथोपिया, सूडान, कांगो, नाइजरिया जैसे अफ्रीकी देशों के साथ अलार्मिंग कैटेगरी का स्थान दिया गया है. आपको बता दें कि इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में 5 वर्ष से लेकर 40 वर्ष की उम्र तक के लोग सबसे अधिक कुपोषित हैं.

उपरोक्त वर्णित रिपोर्ट बहुत से लोगों के लिए विकास की राह पर अग्रसर भारत के लिए एक साजिश जैसी प्रतीत हो सकती है. बहुत से लोगों को यह भी लग सकता है कि भारत की सफलता बहुत से मुल्कों के लिए आंख की किरकिरी बन गई है इसीलिए ऐसी भ्रामक रिपोर्ट पेश की गई है लेकिन भारत की जो तस्वीर हमने ऊपर पेश की है उसे देखकर यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि वे लोग जो थाली में रखे खाने का महत्व भूल गए हैं, वे लोग जो अपनी शानो-शौकत को बढ़ाने के लिए अन्न की बर्बादी करने से भी परहेज नहीं करते उनकी इस आदत का खामियाजा आधा भारत भुगत रहा है, वह भूखा सो रहा है, रोजाना अपनी पेट की आग से लड़ रहा है. क्यों हम चंद पलों की खुशी और झूठी आन-बान-शान के लिए अपने जैसे अन्य लोगों की खुशियां, उनका जीवन छीन रहे हैं. यह वो प्रश्न है जिसका जवाब हम या कोई और आपको नहीं दे सकता. इसका जवाब तो आपको खुद ही ढ़ूंढना होगा.

हाँफते शहर

जिस प्रकार भारत के लोगों की उदारता और सम्पन्नता (सोने के अंडे देने वाली चिड़िया) के चर्चे सुनकर अंग्रेजों और मुगलों ने हिंदुस्तान को लूटने के लिए यहाँ आशियाना बनाया ठीक उसी तरह वर्तमान समय में भारत के हर अच्छे और खुबसूरत शहर के संसाधन और उसकी सुविधा-सम्पन्नता का लाभ उठाने के लिए बड़ी संख्या में खुदगर्ज लोग ऐसे स्थानों की ओर भागते चले जा रहे हैं. ग्रामीण क्षेत्रों से शहरो की ओर, के अतिरिक्त यह पलायन देश की सीमाओं के पार से भी हो रहा है.
सर्वेक्षण बताते हैं कि देश में वर्ष 2030 तक 35 करोड़ लोग शहरों में पलायन कर जायेंगे जबकि 2050 तक यह संख्या 70 करोड़ को पार कर जाएगी.
ग्रामीण विद्यालयों में शिक्षकों का टोटा है. गावों में चिकित्सक जाना नहीं चाहते. उनका तर्क है कि गावों में मूलभूत सुविधाओं का अभाव है. वह कैसे काम करें? इसी संकीर्ण विचारधारा के चलते दूरदराज के क्षेत्रों में विकास की बयार नहीं पहुँच पा रही है. हर कोई शहर में खासकर विकसित एवं बड़े शहर में ही बने रहना चाहता है. गरीब तबका रोज़गार की तलाश में विकसित शहरों की ओर तो भागता ही है साथ ही जल्दी से जल्दी शहर में स्थायी संपत्ति बना लेने के उद्देश्य से वह अपराध की ओर उन्मुख होता है. बढ़ते दु:साहसिक अपराध इस बात की तस्दीक करते हैं. इसके अतिरिक्त शिक्षित वर्ग के लोग भी एक अच्छी या सरकारी नौकरी प्राप्त करने के बाद बड़े शहरों में बस जाने की सोचने लगते हैं. अपनी माटी अपनी जन्मभूमि से मुंह मोड़ना कैसे उचित है?

अफ़सोस की बात ; ऐसे लोग जो रोज़गार, उच्च शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सेवाएँ और दूसरी सेवाओं का लाभ उठाने के लिए विकसित शहरों में अपना आवास बनाते हैं, वे ही उस शहर को बदहाल करने में पीछे नहीं रहते. उदाहरण के लिए; बाज़ारों का अतिक्रमण, बेतरतीब कालोनियां, मकानों के आगे कब्ज़ा, रेंगता यातायात, कराहती सड़के, बिजली की चोरी, भूगर्भ जल का अंधाधुंध दोहन, खतरनाक प्रदुषण, अपराध एवं लूटमार. क्या ये हालात ऐसे ही बन गए? यह ‘शहर चलो’ मानसिकता का परिणाम है.
जो शहर लोगों को तमाम सहूलियतें देता है वे ही लोग उस शहर की संस्कृति एवं तंत्र व्यवस्था को ध्वस्त करने में कोई कसर नहीं रखते. देश के सभी विकसित (तथाकथित) शहरों की स्थिति विकट है. दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता जैसे देश के तमाम बड़े शहरों और अब लखनऊ भी, के असल हालात आपके सामने अख़बारों की सुर्खियाँ बनकर उजागर होते ही हैं. इन बड़े शहरों की पहचान है – बेतहाशा जनसँख्या, बढ़ता प्रदुषण, अतिक्रमण, खस्ताहाल सड़कें, नाला बन चुकी नदी, बदजुबानी और अपराधों के काले साए से ग्रसित जिंदगी. सब बदल चुका है. लखनऊ, दिल्ली जैसे नवाबी शहरों में ‘पहले आप’ की शालीन परंपरा अब ‘पहले मैं’ की हवस में तब्दील हो चुकी है.
बढ़ते जन-सैलाब से शहर पर जो अतिरिक्त दबाव पड़ रहा है उससे कानून व्यवस्था की धज्जियाँ तो उडती ही हैं इसके अतिरिक्त इसका खामियाजा शहर के निरपराध तथा संस्कृति के मूल संरक्षक निवासियों को भुगतना पड़ता है. इस घातक विसंगति का इलाज मात्र पुलिस के वश का नहीं.
तंत्र की विफलता हमें अराजकता के घनघोर रेगिस्तान की ओर ले जा रही है. शीघ्र कुछ करना होगा. विचारशून्यता के संकट से बाहर निकलने के लिए जरूरी होगा कि शहरों की मूल संस्कृति एवं पहचान बनाये रखने तथा सुगम प्रशासन सञ्चालन के लिए एक ठोस नीति मापदंड बनाया जाये जो प्रशासनिक तंत्र एवं शहर के मूल बुद्धिजीवियों की सहभागिता से संचालित हो.
यदि सरकारें पिछड़े शहरों एवं गावों को समृद्ध करने पर सारा ध्यान केन्द्रित करते हुए वहां बिजली की निर्बाध व्यवस्था रखते हुए , बड़े अस्पताल और लघु उधोगों की स्थापना करे तो विकसित शहरों की ओर अवांछित पलायन रुक जायेगा. इस कदम से विकसित शहरों तथा पूरे प्रशासनिक तंत्र पर पड़ रहे तमाम दबावों से मुक्ति मिल जाएगी.

हमारी संस्कृति हमारी सोच – एक झलक

भारतीय संस्कृति विश्व की सर्वाधिक प्राचीन एवं समृद्ध संस्कृति है। अन्य देशों की संस्कृतियाँ तो समय की धारा के साथ-साथ नष्ट होती रही हैं, किन्तु भारत की संस्कृति आदि काल से ही अपने परम्परागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। इसकी उदारता तथा समन्यवादी गुणों ने अन्य संस्कृतियों को समाहित तो किया है, किन्तु अपने अस्तित्व के मूल को सुरक्षित रखा है। तभी तो पाश्चात्य विद्वान अपने देश की संस्कृति को समझने हेतु भारतीय संस्कृति को पहले समझने का परामर्श देते हैं। भारतीय संस्कृति की कुछ प्रमुख विशेषताएँ –
प्राचीनता –
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। मध्य प्रदेश के भीमबेटका में पाये गये शैलचित्र, नर्मदा घाटी में की गई खुदाई तथा कुछ अन्य नृवंशीय एवं पुरातत्त्वीय प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि भारत भूमि आदि मानव की प्राचीनतम कर्मभूमि रही है। सिन्धु घाटी की सभ्यता के विवरणों से भी प्रमाणित होता है कि आज से लगभग पाँच हज़ार वर्ष पहले उत्तरी भारत के बहुत बड़े भाग में एक उच्च कोटि की संस्कृति का विकास हो चुका था। इसी प्रकार वेदों में परिलक्षित भारतीय संस्कृति न केवल प्राचीनता का प्रमाण है, अपितु वह भारतीय अध्यात्म और चिन्तन की भी श्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर भारतीय संस्कृति से रोम और यूनानी संस्कृति को प्राचीन तथा मिस्र, असीरिया एवं बेबीलोनिया जैसी संस्कृतियों के समकालीन माना गया है।
निरन्तरता –
भारतीय संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि हज़ारों वर्षों के बाद भी यह संस्कृति आज भी अपने मूल स्वरूप में जीवित है, जबकि मिस्र, असीरिया, यूनान और रोम की संस्कृतियों अपने मूल स्वरूप को लगभग विस्मृत कर चुकी हैं। भारत में नदियों, वट, पीपल जैसे वृक्षों, सूर्य तथा अन्य प्राकृतिक देवी – देवताओं की पूजा अर्चना का क्रम शताब्दियों से चला आ रहा है। देवताओं की मान्यता, हवन और पूजा-पाठ की पद्धतियों की निरन्तरता भी आज तक अप्रभावित रही हैं। वेदों और वैदिक धर्म में करोड़ों भारतीयों की आस्था और विश्वास आज भी उतना ही है, जितना हज़ारों वर्ष पूर्व था। गीता और उपनिषदों के सन्देश हज़ारों साल से हमारी प्रेरणा और कर्म का आधार रहे हैं। किंचित परिवर्तनों के बावजूद भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्त्वों, जीवन मूल्यों और वचन पद्धति में एक ऐसी निरन्तरता रही है, कि आज भी करोड़ों भारतीय स्वयं को उन मूल्यों एवं चिन्तन प्रणाली से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं और इससे प्रेरणा प्राप्त करते हैं।
लचीलापन एवं सहिष्णुता –
भारतीय संस्कृति की सहिष्णु प्रकृति ने उसे दीर्घ आयु और स्थायित्व प्रदान किया है। संसार की किसी भी संस्कृति में शायद ही इतनी सहनशीलता हो, जितनी भारतीय संस्कृति में पाई जाती है। भारतीय हिन्दू किसी देवी – देवता की आराधना करें या न करें, पूजा-हवन करें या न करें, आदि स्वतंत्रताओं पर धर्म या संस्कृति के नाम पर कभी कोई बन्धन नहीं लगाये गए। इसीलिए प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रतीक हिन्दू धर्म को धर्म न कहकर कुछ मूल्यों पर आधारित एक जीवन-पद्धति की संज्ञा दी गई और हिन्दू का अभिप्राय किसी धर्म विशेष के अनुयायी से न लगाकर भारतीय से लगाया गया। भारतीय संस्कृति के इस लचीले स्वरूप में जब भी जड़ता की स्थिति निर्मित हुई तब किसी न किसी महापुरुष ने इसे गतिशीलता प्रदान कर इसकी सहिष्णुता को एक नई आभा से मंडित कर दिया। इस दृष्टि से प्राचीनकाल में बुद्ध और महावीर के द्वारा, मध्यकाल में शंकराचार्य,कबीर, गुरु नानक और चैतन्य महाप्रभु के माध्यम से तथा आधुनिक काल में स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द एवं महात्मा ज्योतिबा फुले के द्वारा किये गए प्रयास इस संस्कृति की महत्त्वपूर्ण धरोहर बन गए।
ग्रहणशीलता –
भारतीय संस्कृति की सहिष्णुता एवं उदारता के कारण उसमें एक ग्रहणशीलता प्रवृत्ति को विकसित होने का अवसर मिला। वस्तुत: जिस संस्कृति में लोकतन्त्र एवं स्थायित्व के आधार व्यापक हों, उस संस्कृति में ग्रहणशीलता की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से ही उत्पन्न हो जाती है। हमारी संस्कृति में यहाँ के मूल निवासियों ने समन्वय की प्रक्रिया के साथ ही बाहर से आने वाले शक, हूण, यूनानी एवं कुषाण जैसी प्रजातियों के लोग भी घुलमिल कर अपनी पहचान खो बैठे।
भारत में इस्लामी संस्कृति का आगमन भी अरबों, तुर्कों और मुग़लों के माध्यम से हुआ। इसके बावजूद भारतीय संस्कृति का पृथक अस्तित्व बना रहा और नवागत संस्कृतियों से कुछ अच्छी बातें ग्रहण करने में भारतीय संस्कृति ने संकोच नहीं किया। ठीक यही स्थिति यूरोपीय जातियों के आने तथा ब्रिटिश साम्राज्य के कारण भारत में विकसित हुई ईसाई संस्कृति पर भी लागू होती है। यद्यपि ये संस्कृतियाँ अब भारतीय संस्कृतियों का अभिन्न अंग है, तथापि ‘भारतीय इस्लाम’ एवं ‘भारतीय ईसाई’ संस्कृतियों का स्वरूप विश्व के अन्य इस्लामी और ईसाई धर्मावलम्बी देशों से कुछ भिन्न है। इस भिन्नता का मूलभूत कारण यह है कि भारत के अधिकांशमुसलमान और ईसाई मूलत: भारत भूमि के ही निवासी हैं। सम्भवत: इसीलिए उनके सामाजिक परिवेश और सांस्कृतिक आचरण में कोई परिवर्तन नहीं हो पाया और भारतीयता ही उनकी पहचान बन गई।
आध्यात्मिकता एवं भौतिकता का समन्वय –
भारतीय संस्कृति में आश्रम – व्यवस्था के साथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे चार पुरुषार्थों का विशिष्ट स्थान रहा है। वस्तुत: इन पुरुषार्थों ने ही भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिकता के साथ भौतिकता का एक अदभुत समन्वय कर दिया। हमारी संस्कृति में जीवन के ऐहिक और पारलौकिक दोनों पहलुओं से धर्म को सम्बद्ध किया गया था। धर्म उन सिद्धान्तों, तत्त्वों और जीवन प्रणाली को कहते हैं, जिससे मानव जाति परमात्मा प्रदत्त शक्तियों के विकास से अपना लौकिक जीवन सुखी बना सके तथा मृत्यु के पश्चात जीवात्मा शान्ति का अनुभव कर सके। शरीर नश्वर है, आत्मा अमर है, यह अमरता मोक्ष से जुड़ी हुई है और यह मोक्ष पाने के लिए अर्थ और काम के पुरुषार्थ करना भी जरूरी है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति में धर्म और मोक्ष आध्यात्मिक सन्देश एवं अर्थ और काम की भौतिक अनिवार्यता परस्पर सम्बद्ध है। आध्यात्मिकता और भौतिकता के इस समन्वय में भारतीय संस्कृति की वह विशिष्ट अवधारणा परिलक्षित होती है, जो मनुष्य के इस लोक और परलोक को सुखी बनाने के लिए भारतीय मनीषियों ने निर्मित की थी। सुखी मानव-जीवन के लिए ऐसी चिन्ता विश्व की अन्य संस्कृतियाँ नहीं करतीं। साहित्य, संगीत और कला की सम्पूर्ण विधाओं के माध्यम से भी भारतीय संस्कृति के इस आध्यात्मिक एवं भौतिक समन्वय को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है।
अनेकता में एकता –
भौगोलिक दृष्टि से भारत विविधताओं का देश है, फिर भी सांस्कृतिक रूप से एक इकाई के रूप में इसका अस्तित्व प्राचीनकाल से बना हुआ है। इस विशाल देश में उत्तर अनेक विभिन्नताओं के बावजूद भी भारत की पृथक सांस्कृतिक सत्ता रही है। हिमालय सम्पूर्ण देश के गौरव का प्रतीक रहा है, तो गंगा – यमुना और नर्मदा जैसी नदियों की स्तुति यहाँ के लोग प्राचीनकाल से करते आ रहे हैं। राम, कृष्ण और शिव की आराधना यहाँ सदियों से की जाती रही है। भारत की सभी भाषाओं में इन देवताओं पर आधारित साहित्य का सृजन हुआ है। उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक सम्पूर्ण भारत में जन्म, विवाह और मृत्यु के संस्कार एक समान प्रचलित हैं। विभिन्न रीति-रिवाज, आचार-व्यवहार और तीज – त्यौहारों में भी समानता है। भाषाओं की विविधता अवश्य है फिर भी संगीत, नृत्य और नाट्य के मौलिक स्वरूपों में आश्चर्यजनक समानता है। संगीत के सात स्वर और नृत्य के त्रिताल सम्पूर्ण भारत में समान रूप से प्रचलित हैं। भारत अनेक धर्मों, सम्प्रदायों, मतों और पृथक आस्थाओं एवं विश्वासों का महादेश है, तथापि इसका सांस्कृतिक समुच्चय और अनेकता में एकता का स्वरूप संसार के अन्य देशों के लिए विस्मय का विषय रहा है।का पर्वतीय भू-भाग, जिसकी सीमा पूर्व में ब्रह्मपुत्रऔर पश्चिम में सिन्धु नदियों तक विस्तृत है। इसके साथ ही गंगा, यमुना, सतलुज की उपजाऊ कृषि भूमि, विन्ध्य और दक्षिण का वनों से आच्छादित पठारी भू-भाग, पश्चिम में थार का रेगिस्तान, दक्षिण का तटीय प्रदेश तथा पूर्व में असम और मेघालय का अतिवृष्टि का सुरम्य क्षेत्र सम्मिलित है। इस भौगोलिक विभिन्नता के अतिरिक्त इस देश में आर्थिक और सामाजिक भिन्नता भी पर्याप्त रूप से विद्यमान है। वस्तुत: इन भिन्नताओं के कारण ही भारत में अनेक सांस्कृतिक उपधाराएँ विकसित होकर पल्लवित और पुष्पित हुई हैं।

शर्म करो आप भारतीय हो , अपने को जानते भी हो ?

4 जनवरी को मुंबई में होने वाली इंडियन साइंस कांग्रेस में शिरकत करने वाले वक्ता कैप्टन आनंद जे बोडास का कहना है कि हवाई जहाज की खोज वैदिक युग में हुई और इससे न सिर्फ एक देश से दूसरे देश बल्कि एक ग्रह से दूसरे ग्रह में भी ट्रैवल करना आसान था।

बोडास ने प्राचीन भारतीय ग्रंथ ‘वैमानिका प्रकारानाम’ का हवाला देते हुए मीडिया से चर्चा के दौरान बताया कि उन दिनों के विमान आज के विमानों की तुलना में (जो केवल आगे की तरफ ही उड़ते हैं) काफी बड़े होते थे। साथ ही वे दाएं-बाएं घूमने के अलावा पीछे की ओर भी आसानी से आ सकते थे।
वैदिक गणित की खोज भारत में ही हुई थी। स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ द्वारा रचित वैदिक गणित न्यूमेरिकल कैल्कुलेशन की वैकल्पिक व शॉर्ट मेथड का समूह है। इसमें 16 मूल सूत्र दिए गए हैं। वैदिक गणित कैल्कुलेशन की ऐसी मेथड है, जिससे कठिन न्यूमेरिकल कैल्कुलेशन बेहद आसान तरीके से संभव हैं, फिर भी हम कठिन अंग्रेजी तरीको से सवाल हल करते हैं।
शून्य व दशमलव की खोज

माना जाता है कि शून्य का प्रयोग वैदिक काल से शुरू हुआ। सन् 498 में भारतीय गणितज्ञ आर्यभट्ट ने शून्य को खोजा। उन्होंने कहा था- ‘स्थानं स्थानं दसा गुणम्’ अर्थात् दस गुना करने के लिए उसके आगे शून्य रखो। यही संख्या के दशमलव सिद्धांत की शुरूआत माना जाता है। भारत का ‘शून्य’ अरब में ‘सिफर’ (खाली) नाम से जाना गया। लैटिन, इटैलियन, फ्रेंच से होते हुए यह अंग्रेजी में ‘जीरो’ (zero) कहलाया।
भाषा व्याकरण

दुनिया का पहला व्याकरण पाणिनी ने लिखा। 500 ईसा पूर्व पाणिनी ने संस्कृत भाषा को व्याकरण में ढाला। इनके व्याकरण का नाम अष्टाध्यायी है, जिसमें 8 अध्याय और 4 सहस्र सूत्र हैं। अष्टाध्यायी में उस समय के भारतीय समाज के भूगोल, सामाजिक, आर्थिक, शिक्षा, राजनीतिक जीवन, दार्शनिक चिंतन के रिफरेंस भी हैं।
पहिए (व्हील) की खोज

ऐसा माना जाता है कि रामायण और महाभारतकाल से पहले ही पहिए की खोज भारत में हो चुकी थी और रथों में पहियों का प्रयोग किया जाता था। विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता सिन्धु घाटी के अवशेषों से मिले (ईसा से 3000-1500 वर्ष पूर्व की बनी) खिलौना हाथीगाड़ी भारत के म्यूजियम में अब भी रखे हैं।
शल्य चिकित्सा (सर्जरी) की खोज

भारत में सुश्रुत को पहला शल्य चिकित्सक माना जाता है। आज से 3,000 साल पहले सुश्रुत युद्ध या नेचुरल डिजास्टर में जो लोग घायल हो जाते थे उन्हें ठीक करने का काम करते थे। सुश्रुत ने 1,000 ईसा पूर्व प्रेग्नेंसी, कैटरेक्ट, बॉडी पार्ट ट्रांसप्लांट, पथरी का इलाज और प्लास्टिक सर्जरी जैसी कई तरह की सर्जरी के सिद्धांत बताए थे।
ज्यामिति (ज्यॉमेट्री) की खोज

बौधायन भारत के प्राचीन गणितज्ञ हैं। दरअसल (800 ईसा पूर्व) बौधायन ने रेखागणित, ज्यामिति के महत्वपूर्ण नियमों की खोज की थी। उस समय भारत में रेखागणित, ज्यामिति या त्रिकोणमिति को शुल्व शास्त्र कहा जाता था।

पूरे विश्व को सभ्यता हमने सिखाई और आज हम उनसे सभ्यता सिख रहे हैं
ध्यान-साधना, योग, आयुर्वेद, ये सारी अनमोल चीजें हमारी विरासत थी लेकिन अंग्रेजों ने हम लोगों के मन में बैठा दिया कि ये सब फालतू कि चीज़े हैं और हम लोगों ने मान भी लिया पर आज जब उनको जरुरत पड़ रही हैं इन सब चीजों कि तो फिर से हम लोगों कि शरण में दौड़े-भागे आ रहे हैं और अब हमारा योग ‘योगा’ बनकर हमारे पास आया तब जाकर हमें एहसास हो रहा हैं कि जिसे हम कंचे समझकर खेल रहे थे, वो हीरा था। उस आयुर्वेद के ज्ञान को विदेशी वाले अपने नाम से पेटेंट करा रहे हैं जिसके बाद उसका व्यापारिक उपयोग हम नहीं कर पायेंगे। इस आयुर्वेद का ज्ञान इस तरह रच बस गया हैं हम लोगों के खून में कि चाहकर भी हम इसे भुला नहीं सकते …आज भले ही बहुत कम ज्ञान हैं हमें आयुर्वेद का पर पहले घर कि हरेक औरतों को इसका पर्याप्त ज्ञान था तभी तो आज दादी माँ के नुस्खे या नानी माँ के नुख्से पुस्तक बनकर छप रहे हैं। उस आयुर्वेद की छाया प्रति तैयार करके अरबी वाले ‘यूनानी चिकित्सा’ का नाम देकर प्रचलित कर रहे हैं।
जिस समय पश्चिम में आदिमानवों ने कपडे पहनना सीखा था…उस समय हमारे यहाँ लोग पुष्पक विमान में उड़ा करते थे। आज अगर विदेशी वाले हमारे ज्ञान को अपने नाम से पेटेंट करा रहे हैं तो हमारी नपुंसकता के कारण ही ना ??
वो तो योग के ज्ञाता नहीं रहे होंगे विदेश में और जब तक होते तब तक स्वामी रामदेव जी आते नहीं तो ये किसी विदेशी के नाम से पेटेंट हो चुका होता….हमारी एक और महान विरासत हैं संगीत की जो माँ सरस्वती की देन हैं किसी साधारण मानवों की नहीं। फिर इसे हम तुच्छ समझकर इसका अपमान कर रहे हैं। याद हैं आज से साल भर पहले हमारे संगीत-निर्देशक ए.आर. रहमान (पहले नाम दिलीप कुमार) को संगीत के लिए आस्कर पुरूस्कार दिया गया था. और गर्व से सीना चौड़ा हम भारतियों का जबकि मुझे ऐसा लग रहा था कि मेरे अपनों ने मुझे जख्म दिया और अंग्रेज उसमे नमक छिड़क रहे हैं और मेरे अपने उसे देखकर खुश हो रहे हैं।
किस तरह भीगा कर जूता मारा था अंग्रेजों ने हम भारतियों के सर पर और हम गुलाम भारतीय उसमे भी खुश हो रहे थे कि मालिक ने हमें पुरस्कार तो दिया….. भले ही वो जूतों का हार ही क्यों ना हों ?? अरे शर्म से डूब जाना चाहिए हम भारतियों को अगर रत्ती भर भी शर्म बची है तो ??
बेशक रहमान की जगह कोई सच्चा देशभक्त होता तो ऐसे आस्कर को लात मार कर चला आता ……..क्योंकि वो पुरस्कार अच्छे संगीत के लिए नहीं दिए गए थे बल्कि उसने पश्चिमी संगीत को मिलाया था भारतीय संगीत में इसलिए मिला वो पुरस्कार….यानी कि भारतीय संगीत कितना भी मधुर क्यों न हों आस्कर लेना हैं तो पश्चिमी संगीत को अपनाना होगा……..सीधा सा मतलब यह हैं कि हमें कौन सा संगीत पसंद करना हैं और कौन सा नहीं ये हमें अब वो बताएँगे ………इससे बड़ा और गुलामी का सबूत और क्या हो सकता हैं कि हम अपनी इच्छा से कुछ पसंद भी नहीं कर सकते……कुछ पसंद करने के लिए भी विदेशियों कि मुहर लगवानी पड़ेगी उस पर हमें…. जिसे क,ख,ग भी नहीं पता अब वो हमें संगीत सिखायेंगे जहाँ संगीत का मतलब सिर्फ गला फाड़कर चिल्ला देना भर होता हैं वो सिखायेंगे ??
ज्यादा पुरानी बात भी नहीं हैं ये ……हरिदास जी और उसके शिष्य तानसेन (जो अकबर के दरबारी संगीतज्ञ थे) के समय कि बात हैं जब राज्य के किसी भाग में सुखा और आकाल कि स्थिति पैदा हो जाती थी तो तानसेन को वहां भेजा जाता था वर्षा करने के लिए……तानसेन में इतनी क्षमता थी कि मल्हार गाके वर्षा करा दे, दीपक राग गाके दीपक जला दे और शीतराग से शीतलता पैदा कर दे तो प्राचीन काल में अगर संगीत से पत्थर मोम बन जाता था, जंगल के जानवर खींचे चले आते थे कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए क्योंकि ये बात कोई भी अनुभव कर सकता हैं की किस तरह दिनों-दिन संगीत-कला विलुप्त होती जा रही हैं …..और संगीत कला का गुण तो हम भारतियों के खून में हैं …….किशोर कुमार, उषा मंगेशकर, कुमार सानू जैसे अनगिनत उदाहरण हैं जो बिना किसी से संगीत की शिक्षा लिए बॉलीवुड में आये थे।
एक और उदहारण हैं जब तानसेन की बेटी ने रात भर में ही “शीत राग” सीख लिया था…….चूँकि दीपक राग गाते समय शरीर में इतनी ऊष्मा पैदा हो जाती हैं कि अगर अन्य कोई “शीत राग” ना गाये तो दीपक राग गाने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जायेगी और तानसेन के प्राण लेने के उद्द्येश्य से ही एक चाल चलकर उसे दीपक राग गाने के लिए बाध्य किया था उससे इर्ष्या करने वाले दरबारियों ने और तानसेन भी अपनी मृत्यु निश्चित मान बैठे थे क्योंकि उनके अलावा कोई और इसका ज्ञाता (जानकार) भी नहीं था और रातभर में सीखना संभव भी ना था किसी के लिए पर वो भूल गए थे कि उनकी बेटी में भी उन्ही का खून था और जब पिता के प्राण पर बन आये तो बेटी असंभव को भी संभव करने कि क्षमता रखती हैं …… तानसेन के ऐसे सैकड़ों कहानियां हैं पर ये छोटी सी कहानी मैंने आप लोगों को अपने भारत के महान संगीत विरासत कि झलक दिखने के लिए लिखी…….अब सोचिये कि ऐसे में अगर विदेशी हमें संगीत कि समझ कराये तो ऐसा ही हैं जैसे पोता, दादा जी को धोती पहनना सिखाये, राक्षस साधू-महात्माओं को धर्म का मर्म समझाए और शेर किसी हिरन को अपने पंजे में दबाये अहिंसा कि शिक्षा दे ……नहीं..??
हम लोगों के यहाँ सात सुर से संगीत बनता हैं इसलिए ‘सात तारों से बना सितार’ बजाते हैं हमलोग, लेकिन अंग्रेजों को क्या समझ में आ गया जो छह तार वाला वाध्य-यंत्र बना लिया और सितार कि तर्ज पर उन्सका नामकरण गिटार कर दिया ??
इतना कहने के बाद भी हमारे भारतीय नहीं मानेगे मेरी बात पर जब कोई अंग्रेज कहेगा कि उसने गायों को भारतीय संगीत सुनाया तो ज्यादा दूध लिया या जब शोध सामने आएगा कि भारतीय संगीत का असर फसलों पर पड़ता हैं और वे जल्दी-जल्दी बढ़ने लगते हैं तब हम विश्वास करेंगे…. क्यों ?? ये सब शोध अंग्रेज को भले आश्चर्यचकित कर दे पर अगर ये शोध किसी भारतीय को आश्चर्यचकित करते हैं तो ये दुःख: कि बात हैं।
हमारे देश वासियों को लगता हैं हम लोग पिछड़े हुए हैं जो हमारे यहाँ छोटे-छोटे घर हैं और दूसरी और अंग्रेज तकनीकी विद्या के कितने ज्ञानी हैं, वो खुशनसीब हैं जो उनके यहाँ इतनी ऊँची-ऊँची अट्टालिकाए (Buildings) हैं और इतने बड़े-बड़े पुल हैं…….. इस पर मैं अपने देशवासियों से यहीं कहूँगा कि ऊँचे घर बनाना मज़बूरी और जरुरत हैं उनकी, विशेषता नहीं….. हमलोग बहुत भाग्यशाली हैं जो अपनी धरती माँ कि गोद में रहते हैं विदेशियों कि तरह माँ के सर पर चढ़ कर नहीं बैठते।
हम लोगों को घर के छत, आँगन और द्वार का सुख प्राप्त होता हैं …..जिसमें गर्मी में सुबह-शाम ठंडी-ठंडी हवा जो हमें प्रकृति ने उपहार-स्वरूप प्रदान किये हैं उसका आनंद लेते हैं और ठण्ड में तो दिन-दिन भर छत या आँगन में बैठकर सूर्य देव कि आशीर्वाद रूपी किरणों को अपने शारीर में समाते हैं, विदेशियों कि तरह धुप सेंकने के लिए नंगे होकर समुन्द्र के किनारे रेत पर लेटते नहीं हैं………….रही बात क्षमता कि तो जरुरत पड़ने पर हमने समुन्द्र पर भी पत्थरों का पुल बनाया था और रावण तो पृथ्वी से लेकर स्वर्ग तक सीढ़ी बनाने कि तैयारी कर रहा था तो अगर वो चाहता तो गगनचुम्बी इमारते भी बना सकता था लेकिन अगर नहीं बनाया तो इसलिए कि वो विद्वान था।
तथ्यपूर्ण बात तो ये हैं कि हम अपनी धरती माँ के जितने ही करीब रहेंगे रोगों से उतना ही दूर रहंगे और जितना दूर रहेंगे रोगों के उतना करीब जायेंगे। हमारे मित्रों को इस बात कि भी शर्म महसूस होती हैं कि हम लोग कितने स्वार्थी, बेईमान, झूठे, मक्कार, भ्रष्टाचारी और चोर होते हैं जबकि अंग्रेज लोग कितने ईमानदार होते हैं ….हम लोगों के यहाँ कितनी धुल और गंदगी हैं जबकि उनके यहाँ तो लोग महीने में एक-दो बार ही झाड़ू मारा करते हैं…….तो जान लीजिये कि वैज्ञानिक शोध ये कहती हैं कि साफ़ सुथरे पर्यावरण में पलकर बड़े होने वाले शिशु कमजोर होते हैं, उनके अन्दर रोगों से लड़ने कि शक्ति नहीं होती दूसरी तरफ दूषित वातावरण में पलकर बढ़ने वाले शिशु रोगों से लड़ने के लिए शक्ति संपन्न होते हैं। इसका अर्थ ये मत लगा लीजियेगा कि मैं गंदगी पसंद आदमी हूँ, मैं भारत में गंदगी को बढ़ावा दे रहा हूँ ……..मेरा अर्थ ये हैं कि सीमा से बाहर शुद्धता भी अच्छी नहीं होती और जहाँ तक भारत कि बात हैं तो यहाँ हद से ज्यादा गंदगी हैं जिसे साफ़ करने कि अत्यंत आवश्यकता हैं…….रही बात झाड़ू मारने कि तो घर गन्दा हो या ना हों झाड़ू तो रोज मारना ही चाहिए क्योंकि झाड़ू मारकर हम सिर्फ धुल-गंदगी को ही बाहर नहीं करते बल्कि अपशकुन को भी झाड -फुहाड़ कर बाहर कर देते हैं तभी तो हम गरीब होते हुए भी खुश रहते हैं।
भारतीय को समृद्धि कि सूची में पांचवे स्थान पर रखा गया था क्योंकि ये पैसे के मामले में भले कम हैं लेकिन और लोगो से ज्यादा सुखी हैं और जहाँ तक हमारे ऐसे बनने की बात है तो वो सब अंग्रेजों ने ही सिखाया है हमें, नहीं तो उसके आने के पहले हम छल-कपट जानते तक नहीं थे……..उन्होंने हमें धर्म-विहीन और चरित्र-विहीन शिक्षा देना शुरू किया ताकि हम हिन्दू धर्म से घृणा करने लगे और ईसाई बन जाए।
उन्होंने नौकरी आधारित शिक्षा व्यवस्था लागू की ताकि बच्चे नौकरी करने कि पढाई के अलावा और कुछ सोच ही न पाए. इसका परिणाम तो देख ही रहे हैं कि अभी के बच्चे को अगर चरित्र, धर्म या देशहित के बारे में कुछ कहेंगे तो वो सुनना ही नहीं चाहता……….वो कहता है उसे अभी सिर्फ अपने कोर्स कि किताबों से मतलब रखना हैं और किसी चीज़ से कोई मतलब नहीं उसे……अभी कि शिक्षा का एकमात्र उद्द्येश्य नौकरी पाना रह गया हैं लोगो को किताबी ज्ञान तो बहुत मिल जाता हैं कि वो डॉक्टर, इंजिनियर, वकील, आई.ए.एस. या नेता बन जाता हैं पर उसकी नैतिक शिक्षा न्यूनतम स्तर कि भी नहीं होती जिसका कारण रोज एक-से-बढ़कर एक अपराध और घोटाले करते रहते हैं ये लोग। अभी कि शिक्षा पाकर बच्चे नौकरी पा लेते हैं लेकिन उनका मानसिक और बौद्धिक विकास नहीं हो पाता हैं, इस मामले में वो पिछड़े ही रह जाते हैं जबकि हमारी सभ्यता में ऐसी शिक्षा दी जाती थी जिससे उस व्यक्ति के पूर्ण व्यक्तिगत का विकास होता था…..उसकी बुद्धि का विकास होता था, उसकी सोचने-समझने कि शक्ति बढती थी।
आज ये अंग्रेज जो पूरी दुनिया में ढोल पिट रहे हैं कि ईसाईयत के कारण ही वो सभ्य और विकसित हुए और उनके यहाँ इतनी वैज्ञानिक प्रगति हुई तो क्या इस बात का उत्तर हैं उनके पास कि कट्टर और रुढ़िवादी ईसाई धर्म जो तलवार के बल पर 25-50 कि संख्या से शुरू होकर पूरा विश्व में फैलाया गया, जो ये कहता हो कि सिर्फ बाईबल पर आँख बंदकर भरोसा करने वाले लोग ही स्वर्ग जायेंगे बाकी सब नर्क जाएंगे,,,जिस धर्म में बाईबल के विरुद्ध बोलने कि हिम्मत बड़ा से बड़ा व्यक्ति भी नहीं कर सकता वो इतना विकासशील कैसे बन गया ???
400 साल पहले जब गैलीलियों ने यूरोप की जनता को इस सच्चाई से अवगत कराना चाहा कि पृथ्वी सूर्य कि परिक्रमा करती हैं तो ईसाई धर्म-गुरुओं ने उसे खम्बे से बांधकर जीवित जलाये जाने का दंड दे दिया वो तो बेचारा क्षमा मांगकर बाल-बाल बचा। एक और प्रसिद्ध पोप, उनका नाम मुझे अभी याद नहीं, वे भी मानते थे कि पृथ्वी सूर्य के चारो और घुमती हैं लेकिन जीवन भर बेचारे कभी कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाए…उनके मरने के बाद उनकी डायरी से ये बात पता चली। क्या ऐसा धर्म वैज्ञानिक उन्नति में कभी सहायक हो सकता हैं ??? ये तो सहायक की बजाय बाधक ही बन सकता हैं।
हिन्दू जैसे खुले धर्म को जिसे गरियाने की पूरी स्वतंत्रता मिली हुई हैं सबको, जिसमें कोई मूर्ति-पूजा करता हैं, कोई ध्यान-साधना, कोई तन्त्र-साधना, कोई मन्त्र-साधना ……. ऐसे अनगिनत तरीके हैं इस धर्म में, जिस धर्म में कोई बंधन नहीं ..जिसमें नित नए खोज शामिल किये जा सकते हैं और समय तथा परिस्थिति के अनुसार बदलाव करने की पूरी स्वतंत्रता हैं, जिसने सिर्फ पूजा-पाठ ही नहीं बल्कि जीवन जीने की कला सिखाई, ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का नारा दिया, पूरे विश्व को अपना भाई माना, जिसने अंक शास्त्र, ज्योतिष-शास्त्र, आयुर्वेद-शास्त्र, संगीत-कला, भवन निर्माण कला, काम-कला आदि जैसे अनगिनत कलाएं तुम लोगों (ईसाईयों) को दी और तुम लोग कृतघ्न, जो नित्यकर्म के बाद अपने गुदा को पानी से धोना भी नहीं जानते, हमें ही गरियाकर चले गए।
अगर ईसाई धर्म के कारण ही तुमने तरक्की की तो वो तो 1800 साल पहले कर लेनी चाहिए थी, पर तुमने तो 200-300 साल पहले जब सबको लूटना शुरू किया और यहाँ (भारत) के ज्ञान को सीख-सीखकर यहाँ के धन-दौलत को हड़पना शुरू किया तबसे तुमने तरक्की की ऐसा क्यों ???
ये दुनिया करोडों वर्ष पुरानी हैं लेकिन तुम लोगों को ‘ईसा और मुहम्मद’ के पहले का इतिहास पता ही नहीं कहते हो बड़े-बड़े विशाल भवन बना दिए तुमने. अरे जाओ, जब आज तक पिछवाडा धोना सीख ही नहीं पाए, खाना बनाना सीख ही नहीं पाए, जो की अभी तक उबालकर नमक डालकर खाते तो बड़े-बड़े भवन बनाओगे तुम। एक भी ग्रन्थ तुम्हारे पास-भवन निर्माण के ?? जो भी छोटे-मोटे होंगे वो हमारे ही नक़ल किये हुए होंगे।
प्रोफ़ेसर ओक ने तो सिद्ध कर दिया की भारत में जितने प्राचीन भवन हैं वो हिन्दू भवन या मंदिर हैं जिसे मुस्लिम शासकों ने हड़प कर अपना नाम दे दिया और विश्व में भी जो बड़े-बड़े भवन हैं उसमें हिन्दू शैली की ही प्रधानता हैं। ये भी हंसी की ही बात हैं की मुग़ल शासक महल नहीं सिर्फ मकबरे और मस्जिद ही बनवाया करते थे भारत में। जो हमेशा गद्दी के लिए अपने बाप-भाईयों से लड़ता-झगड़ता रहता था, अपना जीवन युद्ध लड़ने में बिता दिया करते थे उसके मन में अपने बाप या पत्नी के लिए विशाल भवन बनाने का विचार आ जाया करता था !! इतना प्यार करता था अपनी पत्नी से जिसको बच्चा पैदा करवाते करवाते मार डाला उसने !! मुमताज़ की मौत बच्चा पैदा करने के दौरान ही हुई थी और उसके पहले वो 14 बच्चे को जन्म दे चुकी थी. जो भारत को बर्बाद करने के लिए आया था, यहाँ के नागरिकों को लूटकर, लाखों-लाख हिन्दुओं को काटकर और यहाँ के मंदिर और संस्कृतिक विरासत को तहस-नहस करके अपार खुशी का अनुभव करता था वो यहाँ कोई सृजनात्मक विरासत कार्य करे ये तो मेरे गले से नहीं उतर सकता। जिसके पास अपना कोई स्थापत्य कला का ग्रन्थ नहीं हैं वो भारत की स्थापत्य कला को देखकर ये कहने को मजबूर हो गया था की भारत इस दुनिया का आश्चर्य हैं इसके जैसा दूसरा देश पूरी दुनिया में कहीं नहीं हो सकता हैं, वो लोग अगर ताजमहल बनाने का दावा करते हैं तो ये ऐसा ही हैं जैसा 3 साल के बच्चे द्वारा दसवीं का प्रश्न हल करना।
दुःख तो ये हैं की आज़ाद देश आज़ाद होने के बाद भी मुसलमानों को खुश रखने के लिए इतिहास में कोई सुधर नहीं किये, हमारे मुसलमान और ईसाई भाइयों के मूत्र-पान करने वाले हमारे राजनितिक नेताओं ने। आज जब ये सिद्ध हो चूका हैं की ताजमहल शाहजहाँ ने नहीं बनवाया बल्कि उससे सौ-दो-सौ साल पहले का बना हुआ हैं तो ऐसे में अगर सरकार सच्चाई लाने की हिम्मत करती तो क्या हम भारतीय गर्व का अनुभव नहीं करते ? क्या हमारी हीन भावना दूर होने में मदद नहीं मिलती? ताजमहल साथ आश्चर्यों में से एक हैं ये सब जानते हैं पर सात आश्चर्यों में ये क्यों शामिल हैं ये कितने लोग जानते हैं ? इसके शामिल होने का कारण इसकी उत्कृष्ट स्थापत्य कला, इसकी अदभुत कारीगरी को अब तक आधुनिक इंजीनियर समझने की कोशिश कर रहे हैं। जिस प्रकार कुतुबमीनार के लौह-स्तम्भ की तकनीक को समझने की कोशिश कर रहे हैं……जो की अब तक समझ नहीं पाए हैं। (इस भुलावे में मत रहिएगा की कुतुबमीनार को कुतुबद्दीन एबक ने बनवाया था)
मोटी-मोटी तो मैं इतना ही जानता हूँ की यमुना नहीं के किनारे के गीली मुलायम मिटटी को इतने विशाल भवन के भार को सेहन करने लायक बनाना, पूरे में सिर्फ पत्थरों का काम करना समान्य सी बात नहीं हैं. इसको बनाने वाले इंजिनियर के इंजीनियरिंग प्रतिभा को देखकर अभी के इंजीनियर दांतों तले ऊँगली दबा रहे हैं। अगर ये सब बातें जनता के सामने आएगी तभी तो हम अपना खोया आत्मविश्वास प्राप्त कर पायेंगे. 1200 सालों तक हमें लूटते रहे, लूटते रहे, लूटते रहे और जब लुट-खसौट कर कंगाल कर दिया तब अब हमें एहसास करा रहे हों की हम कितने दीन-हीन हैं और ऊपर से हमें इतिहास भी गलत पढ़ा रहे हैं इस डर से की कहीं फिर से अपने पूर्वजों का गौरव इतिहास पढ़कर हम अपना आत्मविश्वास ना पा लें। अरे, अगर हिम्मत हैं तो एक बार सही इतिहास पढ़कर देखों हमें हम स्वाभिमानी भारतीय जो सिर्फ अपने वचन को टूटने से बचाने के लिए जान तक गवां देते थे इतने दिनों तक दुश्मनों के अत्याचार सहते रहे तो ऐसे में हमारा आत्म-विश्वास टूटना स्वभाविक ही हैं. हम भारतीय जो एक-एक पैसे के लिए, अन्न के एक-एक दाने के लिए इतने दिनों तक तरसते रहे तो आज हीन भावना में डूब गए, लालची बन गए, स्वार्थी बन गए तो ये कोई शर्म की बात नहीं. ऐसी परिस्थिति में तो धर्मराज युधिष्ठिर के भी पग डगमगा जाएँ. आखिर युधिष्ठिर जी भी तो बुरे समय में धर्म से विचलित हो गए थे जो अपनी पत्नी तक को जुए में दावं पर लगा दिए थे।
चलिए इतिहास तो बहुत हो गया अब वर्तमान पर आते हैं
वर्तमान में आप लोग देख ही रहे हैं कि विदेशी हमारे यहाँ से डाक्टर-इंजिनियर और मैनेजर को ले जा रहे हैं इसलिए कि उनके पास हम भारतियों कि तुलना में दिमाग बहुत ही कम हैं। आप लोग भी पेपरों में पढ़ते रहते होंगे कि अमेरिका में गणित पढ़ाने वाले शिक्षकों की कमी हो जाती हैं जिसके लिए वो भारत में शिक्षक की मांग करते हैं तो कभी ओबामा भारतीय बच्चो की प्रतिभा से डर कर अमेरिकी बच्चो को सावधान होने की नसीहत देते हैं । पूर्वजों द्वारा लुटा हुआ माल हैं तो अपनी कंपनी खड़ी कर लेते हैं लेकिन दिमाग कहाँ से लायेंगे….उसके लिए उन्हें यहीं आना पड़ता हैं ….हम बेचारे भारतीय गरीब पैसे के लालच में बड़े गर्व से उनकी मजदूरी करने चले जाते थे, पर अब परिस्थिति बदलनी शुरू हो गयी हैं। अब हमारे युवा भी विदेश जाने की बजाय अपने देश की सेवा करना शुरू कर दिए हैं ….वो दिन दूर नहीं जब हमारे युवाओं पर टिके विदेशी फिर से हमारे गुलाम बनेंगे। फिर से इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि पूरे विश्व पर पहले हमारा शासन चलता था जिसका इतिहास मिटा दिया गया हैं.
लेकिन जिस तरह सालों पहले हुई हत्या जिसकी खूनी ने अपनी तरफ से सारे सबूत मिटा देने की भरसक कोशिश की हो, उसकी जांच अगर की जाती हैं तो कई सुराग मिल जाते हैं जिससे गुत्थी सुलझ ही जाती हैं, बिलकुल यहीं कहानी हमारे इतिहास के साथ भी हैं जिस तरह अब हमारे युवा विदेशों के करोड़ों रुपये की नौकरी को ठुकराकर अपने देश में ही इडली, बड़ा पाव सब्जी बेचकर या चालित शौचालय, रिक्शा आदि का कारोबार कर करोड़ों रुपये सालाना कम रहे हैं, ये संकेत हैं की अब हमारे युवा अपना खोया आत्म-विशवास प्राप्त कर रहे हैं और उनमे नेतृत्व क्षमता भी लौट चुकी हैं तो वो दीन भी दूर नहीं जब पूरे विश्व का नेतृत्व फिर से हम भारतियों के हाथों में होगा और हम पुन: विश्वगुरु के सिंहासन पर आसीन होंगे। जिस तरह हरेक के लिए दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आता है वैसे हम लोगों के 1200 सालों से ज्यादा रात का समय कट चुका हैं अब दिन निकल आया हैं …इसका उदाहरण देख लो भारत का झारखंड राज्य जहां जनसँख्या 3 करोड़ की नहीं हैं और यहाँ 14,000 करोड़ का घोटाला हो जाता हैं फिर भी ये राज्य प्रगति कर रहा है।
इसलिए अपने पराधीन मानसिकता से बाहर आओ, डर को निकालों अपने अन्दर से हमें किसी दूसरे का सहारा लेकर नहीं चलना हैं। खुद हमारे पैर ही इतने मजबूत हैं की पूरी दुनिया को अपने पैरों तले रौंद सकते हैं हम …हम वही हैं जिसने विश्वविजेता का सपना देखने वाले सिकन्दर का दंभ चूर-चूर कर दिया था। गौरी को 13 बार अपने पैरों पर गिराकर गिडगिडाने को मजबूर किया और जीवनदान दिया। जिस प्रकार बिल्ली चूहे के साथ खेलती रहती हैं वैसे ही ये दुर्भाग्य था हमारा जो शत्रू के चंगुल में फंस गए क्योंकि उस चूहे ने अपनों की ही सहायता ले ली पर हमने उसे छोड़ा नहीं,

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जब पूरा विश्व दीवाना था भारतीय कपड़ों का…..

क्या आपको पता है कि अठारहवीं शताब्दी तक जब तक कि यूरोप में औद्योगिक क्रांति नहीं आई थी तब तक यूरोप, अरब, चीन सहित पूरे विश्व को कपडे हम भारतीय ही पहनाया करते थे.यूरोप में तो बाद में सभ्यता आई पर मिश्र जो भारत की समकालीन है उसे भी हमने ही कपडे पहनाये हैं.वहाँ पाए जाने वाले ममी में भारतीय मलमल के टुकड़े प्राप्त हुए हैं.ऐसा इसलिए कि सबसे पहले कपास की खेती हमने ही शुरू की थी और वस्त्र उद्योग में महारत हासिल कर ली थी हमने.पूरा विश्व भारतीय कपड़ों का दीवाना था.विदेशी भारतीय कपड़ों को पहनकर गर्व महसूस करते थे.और चूंकि वहाँ के राजे-महाराजे भारतीय कपडे पहना करते थे इसलिए आम लोगों की नजर में भारतीय पोशाकों की एक अलग इज्जत थी.इन सबके बावजूद एक बार ब्रिटेन के राजघराने में भारतीय कपड़ों पर रोक लगा दी गई थी.जानते हैं क्यों? क्योंकि उस समय भारत ने औरतों के लिए कमर के नीचे पहनने वाला एक ऐसा पोशाक तैयार किया था जो पारदर्शी था.जाहिर सी बात है कि इस तरह का पोशाक भारतीयों ने सिर्फ अंग्रेजों के लिए तो नहीं ही बनाया होगा बल्कि वो पोशाक खुद भारतीय भी पहनते होंगे.
ये सब बहुत पुरानी बाते क्यों बता रहा हूँ मैं??इसलिए कि आज जब मैं अपने भारत में लोगों की पश्चिमी कपड़ों के प्रति दीवानगी देखता हूँ तो दुःख होता है .आज तन दिखने वाले कपडे पहनना आधुनिकता का पर्याय माना जाता है जबकि पूरे कपडे पहनना पिछड़ेपन का.अगर तन दिखने वाला कपड़ा पहनना ही आधुनिकता है तो वो तो हम अठारहवीं शताब्दी में ही कर चुके हैं,तो इस हिसाब से भी भारतीय पिछड़े हुए कहाँ हैं.
आज आधुनिकता को नंगापनी और सेक्स से मापा जाता है.अगर सेक्स पर खुलेआम चर्चा करने को ही आधुनिकता का आधार बनाया जाय फिर भी हम विश्व से बहुत आगे हैं.विश्व की पहली सेक्स पर लिखी गई पुस्तक कामसूत्र है जो महर्षि वात्सयायन ने लिखी थी और ये उन्नीसवीं सदी में यूरोप पहुँची.और आपको आश्चर्य होगा कि आप जिस ब्रिटेन को इतना खुला मानसिकता वाला समझते हैं वहाँ इस पुस्तक ने कोहराम मचा दिया.काफी विवाद हुआ था इस पर तब जाके इस पुस्तक को स्थान दिया गया उस देश में.
इसके अलावे अगर नग्न होना या खुले में सेक्स करना ही आधुनिकता है तो जाकर खजुराहो में देख लीजिये.हमने तो आज से हजारों साल पहले सातवीं सदी में ही सेक्स करते हुए लोगों की नग्न मूर्तियाँ बना दी है.और ऐसी हिम्मत तो शायद अभी भी कोई पश्चिमी देश न कर पायें.
जिस समय हम अंतरिक्ष के गोलों के साथ खेल रहे थे उस समय पूरा विश्व गुल्ली-डंडे खेल रहा था.जिस समय हम यज्य में अन्न की आहुति दे रहे थे उस समय पश्चिमी देश अन्न के एक-एक दाने के लिए तरस रहा था.इतनी विकसित सभ्यता रही है हमारी .फिर क्यों आज हम खुद पर भरोसा करने के बजाय पश्चिमी देशों के पीछे भाग रहे हैं???
ये लेख मैंने उनलोगों के लिए लिखा है जो यह समझते हैं कि भारत हमेशा से पिछड़ा हुआ देश रहा है और विदेशी हमेशा से विकसित रहे हैं.और मुझे दुःख भी है कि भारत को प्राचीन काल में विकसित देश साबित करने के लिए मुझे कपडे और सेक्स का सहारा लेना पड़ा.पर ये मेरी मजबूरी है क्योंकि अभी के युवा बस इसी की भाषा समझ रहे है.अगर मैं ये कहूंगा कि आज से हजारों साल पहले भारत में प्लास्टिक-सर्जरी हुआ करती थी तो लोग विश्वास नहीं करेंगे और हँसेंगे मुझपर.कुछ दिन पहले जब विज्ञान कांग्रेस में यह भाषण दिया जाने वाला था कि प्राचीन भारतीयों को विमान बनाने की तकनीक पता थी तो लोग हंस रहे थे और मजाक बना रहे थे..
प्राचीन काल में भारत अगर खरगोश था तो पूरा विश्व कछुआ था लेकिन घमंड में चूर भारत सो गया और कछुआ खरगोश से बहुत आगे निकल गया.आवश्यकता इस बात की है कि हम खुद को पहचाने.अपने आप पर भरोसा करें और पश्चिमी देशों के पदचिह्नों पर चलने की बजाय हम अपना रास्ता खुद बनायें.

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