धर्म-परायण महावीर गोकुला जाट की शौर्यगाथा

धर्म का मर्म समझने और संरक्षण करने वाले क्षत्रियों का तो अब घोर अकाल प्रतीत होता है, आर्यभूमि की इस महान क्षत्रिय परम्परा को, जिसके शौर्य के आगे आर्य भूमि के अंदर कोई घुसने का साहस न करता था आज उसके घर के अंदर घुस कर विधर्मी न जाने क्या क्या कर डालते हैं ?
क्यूंकि जिस क्षत्रिय परम्परा के शौर्य और वीरता से पूरा विश्व थर थर काँपता था,जिसकी कीर्ति दोपहर के सूर्य के सामान तीव्रतम तेज थी, उसी क्षत्रिय वंश को दंतहीन करने का कार्य कभी अशोक जैसे धर्म-बदलू वर्ण-संकर ने किया तो कभी मुसलमानों ने और फिर अंग्रेजों ने, वर्तमान में उसे नेहरूवादी हिंदुत्व के ठेकेदार आगे बढ़ा रहे हैं l

पृथ्वीराज चौहान, महाराज शिवाजी, महाराणा प्रताप की शूरवीरता से तो आप सब परिचित ही हैं परन्तु इनके अलावा और ऐसे असंख्य महावीर शूरवीर हैं, जिन्होंने सनातन धर्म की रक्षार्थ अपने शौर्य और पराक्रम से जन जन को प्रेरित किये रखा,जिनके बारे में हमे पढ़ाया नही गया l

ऐसे ही एक महान शूरवीर गोकुल सिंह जिसे इतिहासकार ‘गोकुला’ महान के नाम से परिचित करवाते हैं, आज उनकी शूरवीरता से आपको परिचित करवा रहा हूँ l

आगे आपको निम्नलिखित शूरवीरों के जीवन से भी परिचित करवाऊंगा:
मगध का पुष्यमित्र शुंग जिसने पुन: वैदिक धर्म की स्थापना की,
स्कन्दगुप्त और समुद्रगुप्त जिन्होंने वैदिक धर्म की स्थापना के साथ साथ इस ऋषि भूमि आर्यावर्त को स्वर्ण-देश बनाया,
गौड़ प्रदेश का शशांक शेखर जिसने एक ही रात में भारत भूमि से वेद-विरोधी सम्प्रदायों को भगाया तथा लाखों हिन्दुओं की पुन: शुद्धि की,
दक्षिण के राष्ट्रकूट हों जिन्होंने वैदिक धर्म की कीर्ति चीन तक पहुंचाई,
गुर्जरात (गुजरात) के गुर्जर प्रतिहार राजा जिन्होंने गजनवी को कई बार भगाया l
राजा भोज जिन्होंने महमूद गजनवी को कई बार भागने पर मजबूर किया l
विजयनगर के हुक्का बुक्का और उसके वंशज महाराजा कृष्ण देव राय जिन्हें त्रिस्मुद्राधिपति की उपाधि दी गई और उनके राज्य में कोई मुस्लमान कभी घुस न पायाl
उड़ीसा का कपिलेन्द्र जिसने उडीसा से मुसलमान काटने आरम्भ किये तो हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा तक दौड़ा दौड़ा कर काटे l
राजपूतों की आन बाप्पा रावल जिन्होंने बग़दाद तक जाकर मुसलमानों में कोहराम मचाया l
अफगानिस्तान के जाबुल राज्य के भीमपाल, अनंगपाल, त्रिलोचनपाल का शौर्य जिन्होंने लगभग 300 वर्षों तक अरबों को भारत से रोके रखा l
राणा सांगा, राणा कुम्भा का शौर्य l
दिल्ली का आखिरी हिन्दू सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य जिसने 52 युद्ध लगतार जीते l
वीर छत्रसाल जिसने आततायी औरंगजेब का वध किया l
असम (असोम) का लचित बड़फुकन जिसके नाम से आज भी असम का बच्चा बच्चा प्रेरणा लेता है, जिसने ज्वर से पीड़ित गर्म शरीर में भी औरंगजेब की सेनाओं को नाकों चने चबवाए l
वीर दुर्गादास राठोड जिन्होंने औरंगजेब के आगे हार न मानी l
छत्रपति संभाजी जिनके 108 टुकड़े औरंगजेब ने करवाए और नदी के दोनों किनारों पर फेंकवा दिए, परन्तु उस धर्म-परायण संभाजी ने इस्लाम स्वीकार न किया l
मराठा पेशवा बाजीराव जिसके अंग्रेज और मुस्लमान दोनों जी नतमस्तक हुए l

भारत का नेपोलियन कहे जाने वाले महान मराठा राजराजेश्वर श्री यशवंतराव होल्कर जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध अभियान छेड़ा, परन्तु उस समय के सिख राजाओं ने अंग्रेजों के साथ सन्धि की और अंग्रेजों के धन तथा सेना की सहायता दी, जिसमे लाहोर के सिख राजा रंजीत सिंघ, कपूरथला के सिख राजा फतेह सिंघ, पटियाला का सिख राजा रणधीर सिंघ और जस्सा सिंह भी शामिल थे, इतिहासकार मानते हैं कि यदि यह विश्वासघात और देशद्रोह सिख राजाओं द्वारा यशवंतराव होल्कर के साथ न किया गया होता तो संभवत: अंग्रेजों को 1857 के विद्रोह से पूर्व ही भारत की पवित्र भूमि से खदेड़ दिया गया होता l

तो आज प्रस्तुत है सबसे पहले मथुरा बृज प्रदेश के धर्मपरायण महावीर गोकुला की शौर्यगाथा l

गोकुल सिंह अथवा गोकुला सिनसिनी गाँव का सरदार था ।

10 मई 1666 को जाटों व औरंगजेब की सेना में तिलपत में लड़ाई हुई। लड़ाई में जाटों की विजय हुई। मुगल शासन ने इस्लाम धर्म को बढावा दिया और किसानों पर कर बढ़ा दिया। गोकुला ने किसानों को संगठित किया और कर जमा करने से मना कर दिया। औरंगजेब ने बहुत शक्तिशाली सेना भेजी। गोकुला को बंदी बना लिया गया और 1जनवरी 1670 को आगरा के किले पर जनता को आतंकित करने के लिये टुकडे़-टुकड़े कर मारा गया। गोकुला के बलिदान ने मुगल शासन के खातमें की शुरुआत की।

मुगल साम्राज्य के विरोध में विद्रोह

मुगल साम्राज्य के राजपूत सेवक भी अन्दर ही अन्दर असंतुष्ट होने लगे परन्तु जैसा कि “दलपत विलास” के लेखक दलपत सिंह  और सम्पादक: डा. दशरथ शर्मा ने स्पष्ट कहा है, राजपूत नेतागण मुगल शासन के विरुद्ध विद्रोह करने की हिम्मत न कर सके । असहिष्णु, धार्मिक, नीति के विरुद्ध विद्रोह का बीड़ा उठाने का श्रेय उत्तर प्रदेश के कुछ जाट नेताओं और जमींदारों को प्राप्त हुआ । आगरा, मथुरा, अलीगढ़, इसमें अग्रणी रहे । शाहजहाँ के अन्तिम वर्षों में उत्तराधिकार युद्ध के समय जाट नेता वीर नंदराम ने शोषण करने वाली धार्मिक नीति के विरोध में लगान देने से इंकार कर दिया और विद्रोह का झंडा फहराया  तत्पश्चात वीर नंदराम का स्थान उदयसिंह तथा गोकुलसिंह ने ग्रहण किया l

इतिहास के इस तथ्य को स्वीकार करना पड़ेगा की राठौर वीर दुर्गादास के पहले ही उत्तर प्रदेश के जाट वीरों को कट्टरपंथी मुग़ल सम्राटों की असहिष्णु नीतियों का पूर्वाभास हो चुका था । गोकुल सिंह मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन तथा हिंडौन और महावन की समस्त हिंदू जनता के नेता थे तिलपत की गढ़ी उसका केन्द्र थी । जब कोई भी मुग़ल सेनापति उसे परास्त नहीं कर सका तो अंत में सम्राट औरंगजेब को स्वयं एक विशाल सेना लेकर जन-आक्रोश का दमन करना पड़ा ।

आज मथुरा, वृन्दावन के मन्दिर और भारतीय संस्कृति की रक्षा का तथा तात्कालिक शोषण, अत्याचार और राजकीय मनमानी की दिशा मोड़ने का यदि किसी को श्रेय है तो वह केवल ‘गोकुलसिंह’ को है ।

इस बात की चेतना कम ही लोगों को होगी कि वीरवर गोकुलसिंह का बलिदान तेगबहादुर से ६ वर्ष पूर्व हुआ था । दिसम्बर १६७५ में तेगबहादुर का वध कराया गया था – दिल्ली की मुग़ल कोतवाली के चबूतरे पर जहाँ आज गुरुद्वारा शीशगंज गुरुद्वारा स्थित है ।

दूसरी ओर, जब हम उस महापुरुष की ओर दृष्टि डालते हैं जो तेगबहादुर से ६ वर्ष पूर्व शहीद हुआ था और उन्ही मूल्यों की रक्षार्थ शहीद हुआ था, और जिसको दिल्ली की कोतवाली पर नहीं, आगरे की कोतवाली के लंबे-चौड़े चबूतरे पर, हजारों लोगों की हाहाकार करती भीड़ के सामने, लोहे की जंजीरों में जकड़कर लाया गया था और जिसको-जनता का मनोबल तोड़ने के इरादे से बड़ी पैशाचिकता के साथ, एक-एक जोड़ कुल्हाड़ियों से काटकर मार डाला गया था, तो हमें कुछ नजर नहीं आता ।

गोकुलसिंह सिर्फ़ जाटों के लिए शहीद नहीं हुए थे न उनका राज्य ही किसी ने छीना लिया थान कोई पेंशन बंद करदी थी, बल्कि उनके सामने तो अपूर्व शक्तिशाली मुग़ल-सत्ता, दीनतापुर्वकसन्धि करने की तमन्ना लेकर गिड़-गिड़ाई थी । शर्म आती है कि हम ऐसे अप्रतिम वीर को कागज के ऊपर भी सम्मान नहीं दे सके । कितना अहसान फ़रामोश कितना कृतघ्न्न है हमारा हिंदू समाज !

नेहरूवादी शाही इतिहासकारों ने उनका उल्लेख तक नही किया । तेगबहादुर की गिरफ्तारी और वध का उल्लेख किसी भी समकालीन फारसी इतिहासग्रंथ में नहीं है । औरंगजेब को ब्रज के उन जाट योद्धाओं से लड़ने उसे स्वयं जाना पड़ा था । फ़िर भी उनको पूर्णतया दबाया नहीं जा सका और चुने हुए सेनापतियों की कमान में बारम्बार मुग़ल  सेनायें जाटों के दमन और उत्पीड़न के लिए भेजी जाती रहीं और न केवल जाट पुरूष बल्कि उनकी वीरांगनायें भी अपनी ऐतिहासिक दृढ़ता और पारंपरिक शौर्य के साथ उन सेनाओं का सामना करती रहीं ।

दुर्भाग्य की बात है कि भारत की इन वीरांगनाओं और सच्चे सपूतों का कोई उल्लेख शाही टुकडों पर पलने वाले तथाकथित इतिहासकारों ने नहीं किया । हमें उनकी जानकारी मनूची नामक यूरोपीय यात्री के वृतान्तों से होती है । उसी के शब्दों में एक अनोखा चित्र देखिये, जो अन्य किसी देश या जाति के इतिहास में दुर्लभ है:

“उसे इन विद्रोहियों के कारण असंख्य मुसीबतें उठानी पड़ीं और इन पर विजयी होकर लौटने के बाद भी, उसे अनेक बार अपने सेनापतियों को इनके विरुद्ध भेजने के लिए मजबूर होना पड़ा । विद्रोही गांवों में पहुँचने के बाद, ये सेनानायक शाही आज्ञाओं का पालन क़त्ल और सिर काटकर किया करते थे । अपनी सुरक्षा के लिए ग्रामीण कंटीले झाडियों में छिप जाते या अपनी कमजोर गढ़ियों में सरण लेते । स्त्रियां भाले और तीर लेकर अपने पतियों के पीछे खड़ी हो जातीं । जब पति अपने बंदूक को दाग चुका होता,पत्नी उसके हाथ में भाला थमा देती और स्वयं बंदूक को भरने लगती थी । इस प्रकार वे उस समय तक रक्षा करते थे, जब तक कि वे युद्ध जारी रखने में बिल्कुल असमर्थ नहीं हो जाते थे । जब वे बिल्कुल ही लाचार हो जाते, तो अपनी पत्नियों और पुत्रियों को गरदनें काटने के बाद भूखे शेरों की तरह शत्रु की पंक्तियों पर टूट पड़ते थे और अपनी निश्शंक वीरता के बल पर अनेक बार युद्ध जीतने में सफल होते थे” ।

औरंगजेब की धर्मान्धता पूर्ण नीति

यदुनाथ सरकार लिखते हैं – “मुसलमानों की धर्मान्धता पूर्ण नीति के फलस्वरूप मथुरा की पवित्र भूमि पर सदैव ही विशेष आघात होते रहे हैं. दिल्ली से आगरा जाने वाले राजमार्ग पर स्थित होने के कारण, मथुरा की ओर सदैव विशेष ध्यान आकर्षित होता रहा है. वहां के हिन्दुओं को दबाने के लिए औरंगजेब ने अब्दुन्नवी नामक एक कट्टर मुसलमान को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया.

सन १६७८ के प्रारम्भ में अब्दुन्नवी के सैनिकों का एक दस्ता मथुरा जनपद में चारों ओर लगान वसूली करने निकला, अब्दुन्नवी ने पिछले ही वर्ष, गोकुलसिंह के पास एक नई छावनी स्थापित की थी. सभी कार्यवाही का सदर मुकाम यही था. गोकुलसिंह के आह्वान पर किसानों ने लगान देने से इनकार कर दिया, मुग़ल सैनिकों ने लूटमार से लेकर किसानों के ढोर-डंगर तक खोलने शुरू कर दिए, बस संघर्ष शुरू हो गया l

तभी औरंगजेब का नया फरमान ९ अप्रेल १६६९ आया –
“काफ़िरों के मदरसे और मन्दिर गिरा दिए जाएं”. फलत: ब्रज क्षेत्र के कई अति प्राचीन मंदिरों और मठों का विनाश कर दिया गया l कुषाण और गुप्त कालीन निधि, इतिहास की अमूल्य धरोहर, तोड़-फोड़, मुंड विहीन, अंग विहीन कर हजारों की संख्या में सर्वत्र छितरा दी गयी. सम्पूर्ण ब्रजमंडल में मुगलिया घुड़सवार और गिद्ध चील उड़ते दिखाई देते थे, और दिखाई देते थे धुंए के बादल और लपलपाती ज्वालायें- उनमें से निकलते हुए साही घुडसवार l


अत्याचारी फौजदार अब्दुन्नवी का अन्त

मई का महिना आ गया और आ गया अत्याचारी फौजदार का अंत भी l
अब्दुन्नवी ने सिहोरा नामक गाँव को जा घेरा. गोकुलसिंह भी पास में ही थे, अब्दुन्नवी के सामने जा पहुंचे, मुग़लों पर दुतरफा मार पड़ी, फौजदार गोली प्रहार से मारा गया, बचे खुचे मुग़ल भाग गए l

गोकुलसिंह आगे बढ़े और सादाबाद की छावनी को लूटकर आग लगा दी, इसका धुआँ और लपटें इतनी ऊँची उठ गयी कि आगरा और दिल्ली के महलों में झट से दिखाई दे गईं, दिखाई भी क्यों नही देतीं, साम्राज्य के वजीर सादुल्ला खान (शाहजहाँ कालीन) की छावनी का नामोनिशान मिट गया था, मथुरा ही नही, आगरा जिले में से भी शाही झंडे के निशाँ उड़कर आगरा शहर और किले में ढेर हो गए थे l

निराश और मृतप्राय हिन्दुओं में जीवन का संचार हुआ, उन्हें दिखाई दिया कि अपराजय मुग़ल-शक्ति के विष-दंत तोड़े जा सकते हैं, उन्हें दिखाई दिया अपनी भावी आशाओं का रखवाला-एक पुनर्स्थापक गोकुलसिंह l

शफ शिकन खाँ ने गोकुलसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा

इसके बाद पाँच माह तक भयंकर युद्ध होते रहे, मुग़लों की सभी तैयारियां और चुने हुए सेनापति प्रभावहीन और असफल सिद्ध हुए, क्या सैनिक और क्या सेनापति सभी के ऊपर गोकुलसिंह का वीरता और युद्ध संचालन का आतंक बैठ चुका था l

अंत में सितंबर मास में, बिल्कुल निराश होकर, शफ शिकन खाँ ने गोकुलसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा कि

१. बादशाह उनको क्षमादान देने के लिए तैयार हैं…

२. वे लूटा हुआ सभी सामन लौटा दें…

३. वचन दें कि भविष्य में विद्रोह नहीं करेंगे…

गोकुलसिंह ने पूछा मेरा अपराध क्या है, जो मैं बादशाह से क्षमा मांगूगा ?
तुम्हारे बादशाह को मुझसे क्षमा मांगनी चाहिए, क्योंकि उसने अकारण ही मेरे धर्म का बहुत अपमान किया है, बहुत हानि की है, दूसरे उसके क्षमा दान और मिन्नत का भरोसा इस संसार में कौन करता है?

इसके आगे संधि की चर्चा चलाना व्यर्थ था, गोकुलसिंह ने कोई कसर ही नहीं छोड़ी थी,छोड़े भी क्यों भला, गोकुल सिंह धर्म की रक्षार्थ ही तो लड़ रहे थे तो कैसी क्षमा याचनाl

औरंगजेब का विचार था कि गोकुलसिंह को भी ‘राजा’ या ‘ठाकुर’ का खिताब देकर रिझा लिया जायेगा और मुग़लों का एक और पालतू बढ़ जायेगा, आर्यावर्त को ‘दारुल इस्लाम’ बनाने की उसकी सुविचारित योजना निर्विघ्न आगे बढती रहेगी l मगर गोकुलसिंह के आगे उसकी कूट नीति बुरी तरह मात खा गयी, अत: औरंगजेब स्वयं एक बड़ी सेना,तोपों और तोपचियों के साथ, अपने इस अभूतपूर्व प्रतिद्वंदी से निपटने चल पड़ा l
परम्पराएं और मर्यादा टूटने का यह एक ऐसा ज्वलंत और प्रेरक उदाहरण है,  जिधर इतिहासकारों का ध्यान नहीं गया है l

औरंगजेब २८ नवंबर १६६९ को मथुरा पहुँचा

यूरोपीय यात्री मनूची के वृत्तांत के अनुसार अब औरंगजेब को स्वयं गोकुल का सामना करने हेतु जाना पड़ा, जिसका साम्राज्य न सिर्फ़ मुग़लों में ही बल्कि उस समय तक सभी हिंदू-मुस्लिम शासकों में सबसे बड़ा था, यह थी धर्म-परायण वीरवर गोकुलसिंह की महानता l दिल्ली से चलकर औरंगजेब २८ नवंबर १६६९ को मथुरा जा पहुँचा lगोकुलसिंह के अनेक सैनिक और सेनापति जो वेतनभोगी नहीं थे, क्रान्ति भावना से अनुप्राणित लोग थे, रबी की बुवाई के सिलसिले में, पड़ौस के आगरा जनपद में चले गए थे l

औरंगजेब ने अपनी छावनी मथुरा में बनाई और वहां से सम्पूर्ण युद्ध संचालन करने लगा, गोकुलसिंह को चारों ओर से घेरा जा रहा था l औरंगजेब ने एक और सेनापति हसन अली खाँ को एक मजबूत और सुसज्जित सेना के साथ मुरसान की ओर से भेजाl

हसन अली खाँ ने ४ दिसंबर १६६९ की प्रात: काल के समय अचानक छापा मारकर,जाट सेनाओं की तीन गढ़ियाँ – रेवाड़ा, चंद्ररख और सरखरू को घेरलिया. शाही तोपों और बंदूकों की मार के आगे ये छोटी गढ़ियाँ ज्यादा उपयोगी सिद्ध न हो सकीं और बड़ी जल्दी टूट गयी l

हसन अली खाँ की सफलताओं से खुश होकर औरंगजेब ने शफ शिकन खान के स्थान पर उसे मथुरा का फौजदार बना दिया, उसकी सहायता के लिए आगरा परगने से अमानुल्ला खान, मुरादाबाद का फौजदार नामदार खान, आगरा शहर का फौजदार होशयार खाँ अपनी-अपनी सेनाओं के साथ आ पहुंचे, यह विशाल सेना चारों ओर से गोकुलसिंह को घेरा लगाते हूए आगे बढ़ने लगी l

गोकुलसिंह के विरुद्ध किया गया यह अभियान, उन आक्रमणों से विशाल स्तर का था, जो बड़े-बड़े राज्यों और वहां के राजाओं के विरुद्ध होते आए थे, इस वीर के पास न तो बड़े-बड़े दुर्ग थे, न अरावली की पहाड़ियाँ और न ही महाराष्ट्र जैसा विविधतापूर्ण भौगोलिक प्रदेश, इन अलाभकारी स्थितियों के बावजूद, उन्होंने जिस धैर्य और रण-चातुर्य के साथ,एक शक्तिशाली साम्राज्य की केंद्रीय शक्ति का सामना करके, बराबरी के परिणाम प्राप्त किए, वह सब अभूतपूर्व है l

तिलपत युद्ध दिसंबर १६६९

दिसंबर १६६९ के अन्तिम सप्ताह में तिलपत से २० मील दूर, गोकुलसिंह ने शाही सेनाओं का सामना किया, जाटों ने मुग़ल सेना पर एक दृढ़ निश्चय और भयंकर क्रोध से आक्रमण किया, सुबह से शाम तक युद्ध होता रहा, कोई निर्णय नहीं हो सका l दूसरे दिन फ़िर घमासान छिड़ गया, जाट अलौकिक वीरता के साथ युद्ध कर रहे थे, मुग़ल सेना,तोपखाने और जिरहबख्तर से सुसज्जित घुड़सवार सेनाओं के होते हूए भी गोकुलसिंह पर विजय प्राप्त न कर सके l

भारत के इतिहास में ऐसे युद्ध कम हुए हैं जहाँ कई प्रकार से बाधित और कमजोर पक्ष,इतने शांत निश्चय और अडिग धैर्य के साथ लड़ा हो, हल्दी घाटी के युद्ध का निर्णय कुछ ही घंटों में हो गया था, पानीपत के तीनों युद्ध एक-एक दिन में ही समाप्त हो गए थे, परन्तु वीरवर गोकुलसिंह का युद्ध तीसरे दिन भी चला l

तीसरे दिन, फ़िर भयंकर संग्राम हुआ. इसके बारे में एक इतिहासकार का कहना है कि जाटों का आक्रमण इतना प्रबल था कि शाही सेना के पैर उखड़ ही गए थे, परन्तु तभी हसन अली खाँ के नेतृत्व में एक नई ताजादम मुग़ल सेना आ गयी. इस सेना ने गोकुलसिंह की विजय को पराजय में बदल दिया l

जाटों के पैर तो उखड़ गए फ़िर भी अपने घरों को नहीं भागे, उनका गंतव्य बनी तिलपत की गढ़ी जो युद्ध क्षेत्र से बीस मील दूर थी l तीसरे दिन से यहाँ भी भीषण युद्ध छिड़ गया और तीन दिन तक चलता रहा, भारी तोपों के बीच तिलपत की गढ़ी भी इसके आगे टिक नहीं सकी और उसका पतन हो गया l

धर्म-परायण शूरवीर गोकुलसिंह का वध

तिलपत के पतन के बाद गोकुलसिंह और उनके ताऊ उदयसिंह को सपरिवार बंदी बना लिया गया, उनके सात हजार साथी भी बंदी हुए, इन सबको आगरा लाया गया lऔरंगजेब पहले ही आ चुका था और लाल किले के दीवाने आम में आश्वस्त होकर,विराजमान था, सभी बंदियों को उसके सामने पेश किया गया… औरंगजेब ने कहा –

“जान की खैर चाहते हो तो इस्लाम कबूल कर लो. रसूल के बताये रास्ते पर चलो, बोलो क्या कहते हो इस्लाम या मौत?

अधिसंख्य धर्म-परायण जाटों ने एक सुर में कहा – “बादशाह, अगर तेरे खुदा और रसूल का का रास्ता वही है जिस पर तू चल रहा है तो हमें तेरे रास्ते पर नहीं चलना l”

अगले दिन गोकुलसिंह और उदयसिंह को आगरा कोतवाली पर लाया गया, उसी तरह बंधे हाथ, गले से पैर तक लोहे में जकड़ा शरीर, गोकुलसिंह की सुडौल भुजा पर जल्लाद का पहला कुल्हाड़ा चला, तो हजारों का जनसमूह हाहाकार कर उठा,  कुल्हाड़ी से छिटकी हुई उनकी दायीं भुजा चबूतरे पर गिरकर फड़कने लगी, परन्तु उस धर्म-परायण महावीर का मुख ही नहीं शरीर भी निष्कंप था l उसने एक निगाह फुव्वारा बन गए कंधे पर डाली और फ़िर जल्लादों की और देखने लगा कि दूसरा वार करो, परन्तु जल्लाद जल्दी में नहीं थे l उन्हें ऐसे ही निर्देश थे, दूसरे कुल्हाड़े पर हजारों लोग आर्तनाद कर उठे,उनमें हिंदू और मुसलमान सभी थे, अनेकों ने आँखें बंद करली, अनेक रोते हुए भाग निकले l कोतवाली के चारों ओर मानो प्रलय हो रही थी, एक को दूसरे का होश नहीं था. वातावरण में एक ही ध्वनि थी- “हे राम!…हे रहीम !! इधर आगरा में गोकुलसिंह का सिर गिरा, उधर मथुरा में केशवरायजी का मन्दिर !

ऐसे असंख्य वीर भारत की इस भूमि पर जन्मे और अपने शौर्य तथा पराक्रम से नए नए कीर्तिमान स्थापित किये हैं, संभव हुआ तो सनातन धर्म की रक्षार्थ ऐसे अनेक शूरवीरों और महावीरों की विजयगाथा से परिचित करवाने का प्रयास करूँगा जिनकी धर्म-परायणता ने कभी अधर्म को स्वीकार नही किया, जिनके रण-कौशल से आज भी समस्त संसार प्रेरित होकर अपनी तलवारों की धार तीव्र करके अधर्म, असत्य तथा अनीति को समूल सवंश विनाश हेतु प्रेरित हो सकता है l

हिन्दी साहित्य में गोकुल सिंह

समरवीर गोकुलाः किसान क्रान्ति का काव्य

राजस्थान के सम्मानित एवं पुरष्कृत कविवर श्री बलवीर सिंह ‘करुण’ अपने गीतिकाव्य और प्रबन्धकाव्य की प्रगतिशील भारतीय जीवन दृष्टि और प्रभावपूर्ण शब्दशिल्प के कारण अब अखिल भारतीय स्तर पर चर्चित हैं। राष्ट्रकवि दिनकर की काव्यचेतना से अनुप्राणित करुण जी नालन्दा की विचार सभा में दिनकर जी के अक्षरपुत्र की उपाधि से अलंकृत हो चुके हैं। इस ओजस्वी और मनस्वी कवि ने ‘समरवीर गोकुला’ नामक प्रबन्ध काव्य की रचना कर सत्रहवीं सदी के एक उपेक्षित अध्याय को जीवंत कर दिया है। वर्ण-जाति और स्वर्ग-अपवर्ग की चिंता करने वाला यह देश जब तब अपने को भूल जाता है। कोढ में खाज की तरह वामपंथी इतिहासकार और साहित्यकार स्वातन्त्रय संघर्ष के इतिहास के पृष्ठों को हटा देता है। परन्तु प्रगतिशील राष्ट्रीय काव्य धारा ने नयी ऊष्मा एवं नयी ऊर्जा से स्फूर्त होकर अपनी लेखनी थाम ली है। परिणाम है-‘समरवीर गोकुला’। स्मरण रहे कि रीतिकाल के श्रंगारिक वातावरण में भी सर्व श्री गुरु गोविन्द सिंह, लालकवि, भूषण, सूदन और चन्द्रशेखर ने वीर काव्य की रचना की थी। उनकी प्रेरणा भूमि राष्ट्रीय भावना ही थी। आधुनिक युग में बलवीर सिंह ‘करुण’ ने ‘विजय केतु’ और ‘मैं द्रोणाचार्य बोलता हूँ’ के बाद इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में ‘समर वीर गोकुला’ की भव्य प्रस्तुति की है। यह ‘विजय केतु’ की काव्यकला तथा प्रगतिशील इतिहास दृष्टि के उत्कर्ष का प्रमाण है। ‘समरवीर गोकुला सत्रहवीं सदी की किसान क्रान्ति का राष्ट्रीय प्रबन्ध काव्य है।

कवि ने भूमिका में लिखा है- ‘महाराणा प्रताप, महाराणा राज सिंह, छत्रपति शिवाजी,संभाजी महाराज, महावीर गोकुला तथा भरतपुर के जाट शासकों के अलावा ऐसे और अधिक नाम नहीं गिनाये जा सकते जिन्होंने मुगल सत्ता को खुलकर ललकारा हो। वीर गोकुला का नाम इसलिए प्रमुखता से लिया जाए कि दिल्ली की नाक के नीचे उन्होंने हुँकार भरी थी और 20 हजार कृषक सैनिकों की फौज खडी कर दी थी जो अवैतनिक,अप्रशिक्षित और घरेलू अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थी। यह बात विस्तार के लिए न भूलकर राष्ट्र की रक्षा हेतु प्राणार्पण करने आये थे। ’

श्यामनारायण पाण्डेय रचित ‘हल्दीघाटी’, पं. मोहनलाल महतो ‘वियोगी’ प्रणीत‘आर्यावर्त्त’, प्रभातकृत ‘राष्ट्रपुरुष’ और श्रीकृष्ण ‘सरल’ के प्रबन्ध काव्य की चर्चा बन्द है। निराला रचित ‘तुलसीदास’ और ‘शिवाजी का पत्र’-दोनों रचनाएँ उपेक्षित हैं। दिनकर और नेपाली के काव्य विस्मृत किये जा रहे हैं। तथापि काव्य में प्रगतिशील भारतीय जीवन दृष्टि की रचनाएँ नयी चेतना के साथ आने लगती हैं। प्रमाण है-‘समरवीर गोकुला’ की प्रशंसित प्रस्तुति। इस काव्य की महत्प्रेरणा ऐसी रही कि यह मात्र चालीस दिनों में लिखा गया। इसका महदुद्देश्य ऐसा कि भारतीय इतिहास का एक संघर्षशील अध्याय काव्यरूप धारण कर काव्यजगत् में ध्यान आकृष्ट करने लगा। मध्यकालीन शौर्य एवं वीरगति को प्राप्त होने की भावना राष्ट्रीय संचेतना से संजीवित होकर प्रबन्धकाव्य में गूँजने लगी। उपेक्षित जाट किसान का तेजोमय समर्पित व्यक्तित्व अपने तेज से दमक उठा। इतिहास में दमित नरनाहर गोकुल का चरित्र छन्दों में सबके समक्ष आ गया।

आठ सर्गों का यह प्रबन्धकाव्य इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक का महत्त्वपूर्ण अवदान है। कवि ने मथुरा के किसान कुल में जनमे गोकुल के संघर्ष की उपेक्षा की पीडा को सहा है। उस पीडा ने राष्ट्रीय सन्दर्भ में उपेक्षित को काव्यांजलि देने का प्रयास किया है। आदि कवि की करुणा का स्मरण करें फिर कवि ‘करुण’ की पीडा की प्रेरणा का महत्त्व स्पष्ट हो जायेगा। इसीलिए कवि ने प्रथम सत्र में गोकुल के किसान व्यक्तित्व को मुगल बादशाह के समक्ष प्रस्तुत किया है। उच्चकुल के नायकत्व के निकष को गोकुल ने बदल दिया था। अतः किसान-मजदूर-दलित के उत्थान के युग में गोकुल की उपेक्षा कब तक होती! उसने तो किसान जीवन के अस्तित्व एवं अस्मिता के लिए आमरण संघर्ष किया। विदेशी मुगल शासन द्वारा किसान दमन के विरोध का संकल्प किया। विदेशी मुगल शासन द्वारा किसान दमन के विरोध का संकल्प किया। इसलिए कवि ने प्रथम सर्ग में लिखा है-

पर गोकुल तो था भूमिपुत्र
धरती को माँ कहने वाला
अधनंगा तन, अधभरा पेट
हर शीत, घाम सहने वाला!

कवि ने महसूस किया है कि तिलपत का गोकुल शहंशाह औरंगजेब के लिए चिंता का कारण बन गया था। परन्तु अपनों ने क्या किया? –

इतिहास रचे हैं जाटों ने
लेकिन कलमों ने मौन गहे

कवि ने दूसरे सर्ग में युग की विषम स्थितियों और भारतीय आशावाद को ऐतिहासिक और प्राकृतिक सन्दर्भ में अपनी काव्यकला द्वारा चित्रित कर दिया है। प्रकृति का समय चक्र आशा जगाता है –

मावस की छाती पर चढकर
पूनम को आना पडता है
उषा को नभ में गैरिक ध्वज
नित ही फहराना पडता है।

भारतीय दृष्टि की मानवीय जिजीविषा तथा आशा के मनोहर रूप देखें –

पलता रहता है एक बीज घनघोर प्रलय के बीच कहीं,
कोई मनु उसे सहेज सदा रचता आया है सृष्टि नई।

ब्रजमंडल में ही नायक गोकुल का जन्म हुआ। यही आशावाद का आधार बना। तीसरा सर्ग गोकुल के किसान जीवन की चित्रावली है-बिंबों एवं चित्रों में। किसान जीवन का ऐसा वर्णन-चित्रण अन्यत्र विरल है। कवि की अनुभूत किसानी अपनी संवेदना एवं श्रमोत्फुल्ल मस्ती के साथ प्रस्तुत हुई है। फलतः यह किसान जीवन का प्रबन्ध काव्य बन गया है। पर मुगल शासन में किसान अपना पेट भर नहीं पाता था। कराधान भयावह था। जजिया तो काफिर किसान के लिये भयानक दंडस्वरूप आरोपित था। अतः पीडा गहराती जाती थी। परन्तु कवि मुगल शासन के कठोरक्रूर शासन का मर्मान्तक वर्णन नहीं कर सका है। प्रत्यक्ष अत्याचार से रोष-आक्रोश और विद्रोह का वर्णन स्वाभाविक रूप में चौथे सर्ग में किया है। यह सर्ग क्रांतिचेतना और संघर्ष के संकल्प का बन गया है।

धीरे-धीरे लगा जगाने स्वाभिमान की पानी,
कर से कर इन्कार बगावत कर देने की ठानी।

वे अपने गौरव की याद कर सिंह के समान गरजने लगे। कवि की राष्ट्रीय चेतना केवल मथुरा और जाट किसान की बात नहीं करती। वह तो हिन्दुस्तान के लोहू का स्मरण रखता है। तभी तो दिल्ली का तख्त सहम उठा। उधर बीस हजार किसान संगठित होकर तख्त के खिलाफ खडे हो गये। कवि की लेखनी की प्रगतिशील दृष्टि देखें-

वे सचमुच में थे जनसैनिक वे सचमुच में थे सर्वहार,
वे वानर सेना के प्रतीक गोकुला वीर रामावतार।

संस्कृति से जुडकर जनचेतना जागृत होती है। मुगल अत्याचार के विरुद्ध गोकुल का जयकार होने लगा। संघर्ष आरम्भ हो गया। कवि ने आगे की तीन सर्गों में गोकुल और उसकी किसान क्रांति सेना के स्वातंत्रय संग्राम का प्रामाणिक वर्णन किया है। राष्ट्रीय दृष्टि से मुगल हुकूमत के दमनकारी रूप, किसानों का आक्रोश और संकलित संघर्ष के शौर्य का वर्णन इस युद्ध की विशेषताएँ हैं। कवि ने सत्रहवीं सदी की किसान सेना के संग्राम को इक्कीसवीं सदी में दिखाकर एक नयी राष्ट्रीय चेतना स्फूर्त कर दी है। यह उपेक्षित अध्याय धूल झाडकर अपने तेजस्वी रूप को दिखाकर अनुप्राणित कर रहा है।

कवि करुण ने पाँचवें तथा छठे सर्ग में सादाबाद और तिलपत के भीषण संघर्ष को अपनी चिरपरिचित वर्णन शैली में तथा बिम्बपूर्ण शिल्प से प्रत्यक्ष कर दिया है। नायक गोकुल काव्य का व्यक्तित्व ही ऐसा है-

भूडोल बवंडर ने मिलजुल जिसका व्यक्तित्व बनाया हो,
बिजलियों-आँधियों ने मिलकर जिसको दिन-रात सजाया हो।

ऐसे शौर्यशीर्ष गोकुल ने मुगल छावनी सादाबाद पर अधिकार करके मुगलों को हतप्रभ कर दिया था। पर इतिहासकारों ने उपेक्षा कर दी। अतः कवि ने लिख दिया है-

वे टुकडखोर इतिहासकार वे सत्ता के बदनुमा दाग
भारत की संस्कृति के द्रोही निशिदिन गाते विषभरे राग,

ये इतिहासकार मुगलों के विदेशी अत्याचारी रूप पर मौन ही रहते हैं। पर कवि बलवीर सिंह ने गोकुल के शौर्य से घबराये औरंगजेब का सजीव चित्रण कर दिया है –

पढ कर उत्तर भीतर-भीतर औरंगजेब दहका धधका,
हर गिरा-गिरा में टीस उठी धमनी धमीन में दर्द बढा।

उसका सिंहासन डोल उठा। साम्राज्य का भूगोल सिमटता गया। इसलिए खुद औरंगजेब सन् 1669 में बडी फौज लेकर आ धमका। गोकुल के केन्द्र तिलपत में भीषण संग्राम होने लगा। उस युद्ध का एक चित्र देखें –

घनघोर तुमुल संग्राम छिडा गोलियाँ झमक झन्ना निकली,
तलवार चमक चम-चम लहरा लप-लप लेती फटका निकली।

यृद्ध चलता रहा। मुगल फौज की ताकत बढती गयी। तिलपत पर दबाव बढता रहा। अन्तिम क्षण तक गोकुल अपने चाचा उदय सिंह के साथ युद्ध करता रहा। पराजय नियति बन गयी। कैद होकर औरंगजेब के सामने लाया गया। उसने निर्भीक भाव से अत्याचारी शहंशाह के प्रति अपनी घोर घृणा व्यक्त कर दी। सप्तम सर्ग प्रमाण है। औरंगजेब इस तेजस्वी किसान नायक को देख दंग रह गया। उसने मौत की सजा सुना दी। विकल्प धर्मान्तरण रहा।

अष्टम सर्ग- अन्तिम सर्ग प्रबन्धकाव्य का उत्कर्ष है। कवि ने स्वातंत्रय-संग्राम के कारण घोषित प्राणदंड की भूमिका के रूप में प्रकृति, प्रकृति की रहस्यचेतना तथा भारतीय चिंतन के अनुसार आत्मा की अमरता का आख्यान सुनाया है।

कवि कहता है-

तुम तो एक जन्म लेकर बस
एक बार मरते हो
और कयामत तक कर्ब्रों में
इन्तजार करते हो
लेकिन हम तो सदा अमर हैं
आत्मा नहीं मरेगी
केवल अपने देह-वसन ये
बार-बार बदलेगी।

अतः धर्म-परायण गोकुल अपने धर्म का परित्याग नहीं करेगा। वे दोनों दंडित होकर अमर हो जाना चाहते हैं। इस विषम परिस्थिति-स्वातंत्रयसंग्राम, पराजय और प्राणदंड या धर्मपरिवर्तन में कवि का प्रश्न है, राष्ट्रीय चेतना का प्रश्न है-

निर्णय बडा कठिन था या दुर्भाग्य देश का, या फिर सौभाग्यों का दिन था….
पर उदयसिंह और गोकुल की शहादत पर कवि की उदात्त भावना मुखरित हो गयी है-

ये सब उज्ज्वल तारे बन कर
जा बैठे अम्बर पर….
सदियों से दृष्टियाँ गडाये
इस भू के कण-कण पर

स्मरण है कि सन् 1670 के संघर्ष एवं शहादत के बाद सतनामियों ने शहादत दी है। शिवाजी का संघर्ष 1674 में सफल हुआ था। पर भरतपुर के सूरजमल ने स्वातंत्रय ध्वज को फहरा दिया। शायद इसी संघर्ष-श्रंखला का परिणाम रहा सन् 1947 का पन्द्रह अगस्त। इतिहास को इस संघर्ष-श्रंखला को भूलना नहीं है। साहित्यकार तो भूलने नहीं देगा।

बलवीर सिंह ‘करुण’ का यह प्रबंधकाव्य अपना औचित्य सिद्ध कर रहा है। कवि सत्रहवीं सदी के साथ इक्कीसवीं सदी की राष्ट्रीयचेतना से अनुप्राणित है। अतः इसका मूल्य बढ जाता है। यह प्रबन्धकाव्य हिन्दी काव्य की उपलब्धि है। कवि की लेखनी का अभिनन्दन है।

जय श्री राम कृष्ण परशुराम ॐ

साभार-लवी भरद्वाज सावरकर

एक महान योद्धा : पुष्यमित्र शुंग

सनातन धर्म का रक्षक महान सम्राट पुष्यमित्र शुंग।

मोर्य वंश के महान सम्राट चन्द्रगुप्त के पौत्र महान अशोक  ने कलिंग युद्ध के पश्चात् बौद्ध धर्म अपना लिया। अशोक अगर राजपाठ छोड़कर बौद्ध भिक्षु बनकर धर्म प्रचार में लगता तब वह वास्तव में महान होता । परन्तु अशोक ने एक बौध सम्राट के रूप में लग भाग २० वर्ष तक शासन किया।

आचार्य चाणक्य ने भी जिस अखंड भारत के निर्माण हेतु आजीवन संघर्ष किया उसका लाभ भी सनातन धर्म को न मिल पाया, आचार्य चाणक्य जीवन भर चन्द्र्गुप्य मौर्य को संचालित करते रहे, परन्तु आचार्य चाणक्य के स्वर्गवास के बाद चन्द्रगुप्त मौर्य जैन बन गया, और जैन सम्प्रदाय के प्रचार प्रसार में ही जीवन व्यतीत किया, अंत में संथारा करके मृत्यु को प्राप्त हुआ ।

चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र बिन्दुसार हुआ जो आगे जाकर मखली गौशाल नामक व्यक्ति द्वारा स्थापित आजीविक सम्प्रदाय में दीक्षित हुआ, आजीविक सम्प्रदाय भी पूर्णतया वेद-विरोधी था, अर्थात बिन्दुसार ने भी आजीवन आजीविक सम्प्रदाय के प्रचार प्रसार हेतु ही सारा जीवन लगाया ।
बिन्दुसार के बाद उसका पुत्र चंड-अशोक गद्दी पर बैठा, जिसने वैदिक धर्म पर अधिक से अधिक प्रतिबंध लगाए, यज्ञों पर प्रतिबन्ध लगाये, गुरुकुलों को बोद्ध-विहार में परिवर्तित किया, मन्दिरों को नष्ट किया, शास्त्रों में हेर-फेर भी करवाए, अधिक से अधिक सनातन धर्मियों को बोद्ध सम्प्रदाय में तलवार के जोर पर और धन आदि का लालच देकर भी बोद्ध सम्प्रदाय की जनसंख्या बढाई ।
अहिंसा के पथ पर भी अशोक को वास्तविकता और आवश्यकता से कहीं अधिक बढ़ा चढ़ा कर महिमामंडित किया गया, जबकि अशोक की हिंसा और अहिंसा के सत्य का एक पहलु तो यह भी है कि अशोक के जन्मदिवस पर एक बार एक जैन आचार्य ने अशोक को एक चित्र भेंट किया जिसमे महात्मा बुद्ध को जैन महावीर के चरण स्पर्श करते हुए दिखाया गया, क्रोधवश छद्म अहिंसावादी चंड अशोक ने 3 दिन के भीतर ही 14000 जैन आचार्यों की हत्या करवाई ।
अहिंसा का पथ यह भी कैसा कि कलिंग विजय के बाद शस्त्र त्याग दिया, यह तो कुछ ऐसी बात हुई कि आपने कोई परीक्षा देते हुए सभी प्रश्नों के उत्तर लिख दिए अब आप कह रहे हैं कि मैं आगे किसी भी प्रश्न का उत्तर नही लिखूंगा… जीवनभर हिंसा करके अंतिम अविजित स्थान पर विजय पाकर आपने शस्त्र त्यागे और उसे त्याग की परिभाषा दी जाती है ।
अहिंसा का पथ अपनाते हुए उसने पूरे शासन तंत्र को बौद्ध धर्म के प्रचार व प्रसार में लगा दिया। अत्यधिक अहिंसा के प्रसार से भारत की वीर भूमि बौद्ध भिक्षुओ व बौद्ध मठों का गढ़ बन गई थी।
उससे भी आगे जब मोर्य वंश का नौवा अन्तिम सम्राट बृहदरथ मगध की गद्दी पर बैठा ,तब उस समय तक आज का अफगानिस्तान, पंजाब व लगभग पूरा उत्तरी भारत बौद्ध बन चुका था ।

जब सिकंदर व सैल्युकस जैसे वीर भारत के वीरों से अपना मान मर्दन करा चुके थे, तब उसके लगभग ९० वर्ष पश्चात् जब भारत से बौद्ध धर्म की अहिंसात्मक निति के कारण वीर वृत्ति का लगभग ह्रास हो चुका था, ग्रीकों ने सिन्धु नदी को पार करने का साहस दिखा दिया।

सम्राट बृहदरथ के शासनकाल में ग्रीक शासक MENINDER जिसको बौद्ध साहित्य में मिलिंद और मनिन्द्र कहा गया है ,ने भारत वर्ष पर आक्रमण की योजना बनाई। मिनिंदर ने सबसे पहले बौद्ध धर्म के धर्म गुरुओं से संपर्क साधा,और उनसे कहा कि अगर आप भारत विजय में मेरा साथ दें तो में भारत विजय के पश्चात् में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लूँगा।

बौद्ध गुरुओं ने राष्ट्र द्रोह किया तथा भारत पर आक्रमण के लिए एक विदेशी शासक का साथ दिया।
सीमा पर स्थित बौद्ध मठ राष्ट्रद्रोह के अड्डे बन गए। बोद्ध भिक्षुओ का वेश धरकर मिनिंदर के सैनिक मठों में आकर रहने लगे। हजारों मठों में सैनिकों के साथ साथ हथियार भी छुपा दिए गए।
(जैसे कि आजकल के मस्जिद-मदरसों में हो रहा है)

दूसरी तरफ़ सम्राट बृहदरथ की सेना का एक वीर सैनिक पुष्यमित्र शुंग अपनी वीरता व साहस के कारण मगध कि सेना का सेनापति बन चुका था ।

बौद्ध मठों में विदेशी सैनिको का आगमन उसकी नजरों से नही छुपा । पुष्यमित्र ने सम्राट से मठों कि तलाशी की आज्ञा मांगी। परंतु बौद्ध सम्राट बृहदरथ ने मना कर दिया।
(आजकल की सरकारें भी ऐसा नही होने देतीं)

किंतु राष्ट्रभक्ति की भावना से ओत प्रोत सेनापति पुष्यमित्र शुंग, सम्राट की आज्ञा का उल्लंघन करके बौद्ध मठों की तलाशी लेने पहुँच गया।

मठों में स्थित सभी विदेशी सैनिको को पकड़ लिया गया,तथा उनको यमलोक पहुँचा दिया गया,और उनके हथियार कब्जे में कर लिए गए। राष्ट्रद्रोही बौद्धों को भी गिरफ्तार कर लिया गया। परन्तु वृहद्रथ को यह बात अच्छी नही लगी।

पुष्यमित्र जब मगध वापस आया तब उस समय सम्राट सैनिक परेड की जाँच कर रहा था। सैनिक परेड के स्थान पर ही सम्राट व पुष्यमित्र शुंग के बीच बौद्ध मठों को लेकर कहासुनी हो गई।

सम्राट बृहदरथ ने पुष्यमित्र पर हमला करना चाहा परंतु पुष्यमित्र ने पलटवार करते हुए सम्राट का वद्ध कर दिया।

वैदिक सैनिको ने पुष्यमित्र का साथ दिया तथा पुष्यमित्र को मगध का सम्राट घोषित कर दिया।

सबसे पहले मगध के नए सम्राट पुष्यमित्र ने राज्य प्रबंध को प्रभावी बनाया, तथा एक सुगठित सेना का संगठन किया। पुष्यमित्र ने अपनी सेना के साथ भारत के मध्य तक चढ़ आए मिनिंदर पर आक्रमण कर दिया। भारतीय वीर सेना के सामने ग्रीक सैनिको की एक न चली।

मिनिंदर की सेना पीछे हटती चली गई । पुष्यमित्र शुंग ने पिछले सम्राटों की तरह कोई गलती नही की तथा ग्रीक सेना का पीछा करते हुए उसे सिन्धु पार धकेल दिया। इसके पश्चात् ग्रीक कभी भी भारत पर आक्रमण नही कर पाये।

सम्राट पुष्य मित्र ने सिकंदर के समय से ही भारत वर्ष को परेशानी में डालने वाले ग्रीको का समूल नाश ही कर दिया।

बौद्ध धर्म के प्रसार के कारण वैदिक सभ्यता का जो ह्रास हुआ, पुन: ऋषिओं के आशीर्वाद से जाग्रत हुआ।

भय से बौद्ध धर्म स्वीकार करने वाले पुन: वैदिक धर्म में लौट आए। कुछ बौद्ध ग्रंथों में लिखा है की पुष्यमित्र ने बौद्दों को सताया, किंतु यह पूरा सत्य नही है। सम्राट ने उन राष्ट्रद्रोही बौद्धों को सजा दी, जो उस समय ग्रीक शासकों का साथ दे रहे थे।

उपरोक्त चित्र भारत में कई स्थानों पर पाए जाते हैं जो कि तत्कालीन वैदिक धर्मावलम्बियों द्वारा बोद्ध धर्म पर विजय के रूप में स्थापित किये गये, जिसमे बोद्ध सम्प्रदाय का प्रतीक हाथी है जिस पर सनातन धर्म का प्रतीक सिंह विजय प्राप्त करके उसे नियंत्रित करता हुआ दिखाई दे रहा है ।

पुष्यमित्र ने जो वैदिक धर्म की पताका फहराई उसी के आधार को सम्राट विक्रमादित्य व आगे चलकर गुप्त साम्राज्य ने इस धर्म के ज्ञान को पूरे विश्व में फैलाया।

सम्राट विक्रम ने रोम के शासक जुलियस सीजर (Julius Ceajar) को भी हराकर उसे बंदी बनाकर उज्जेन की सड़कों पर घुमाया था ।

सम्राट विक्रम ने रोम के शासक जुलियस सीजर को भी हराकर उसे बंदी बनाकर उज्जेन की सड़कों पर घुमाया था ।

टिपण्णी यह है कि —

कालिदास-ज्योतिर्विदाभरण-अध्याय२२-ग्रन्थाध्यायनिरूपणम्-
श्लोकैश्चतुर्दशशतै सजिनैर्मयैव ज्योतिर्विदाभरणकाव्यविधा नमेतत् ॥ᅠ२२.६ᅠ॥

विक्रमार्कवर्णनम्-वर्षे श्रुतिस्मृतिविचारविवेकरम्ये श्रीभारते खधृतिसम्मितदेशपीठे।
मत्तोऽधुना कृतिरियं सति मालवेन्द्रे श्रीविक्रमार्कनृपराजवरे समासीत् ॥ᅠ२२.७ᅠ॥
नृपसभायां पण्डितवर्गा-शङ्कु सुवाग्वररुचिर्मणिरङ्गुदत्तो जिष्णुस्त्रिलोचनहरो घटखर्पराख्य।
अन्येऽपि सन्ति कवयोऽमरसिंहपूर्वा यस्यैव विक्रमनृपस्य सभासदोऽमो ॥ᅠ२२.८ᅠ॥
सत्यो वराहमिहिर श्रुतसेननामा श्रीबादरायणमणित्थकुमारसिंहा।
श्रविक्रमार्कंनृपसंसदि सन्ति चैते श्रीकालतन्त्रकवयस्त्वपरे मदाद्या ॥ᅠ२२.९ᅠ॥
नवरत्नानि-धन्वन्तरि क्षपणकामरसिंहशङ्कुर्वेतालभट्टघटखर्परकालिदासा।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपते सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ॥ᅠ२२.१०ᅠ॥
यो रुक्मदेशाधिपतिं शकेश्वरं जित्वा गृहीत्वोज्जयिनीं महाहवे।
आनीय सम्भ्राम्य मुमोच यत्त्वहो स विक्रमार्कः समसह्यविक्रमः ॥ २२.१७ ॥
तस्मिन् सदाविक्रममेदिनीशे विराजमाने समवन्तिकायाम्।
सर्वप्रजामङ्गलसौख्यसम्पद् बभूव सर्वत्र च वेदकर्म ॥ २२.१८ ॥
शङ्क्वादिपण्डितवराः कवयस्त्वनेके ज्योतिर्विदः सभमवंश्च वराहपूर्वाः।
श्रीविक्रमार्कनृपसंसदि मान्यबुद्घिस्तत्राप्यहं नृपसखा किल कालिदासः ॥ २२.१९ ॥
काव्यत्रयं सुमतिकृद्रघुवंशपूर्वं पूर्वं ततो ननु कियच्छ्रुतिकर्मवादः।
ज्योतिर्विदाभरणकालविधानशास्त्रं श्रीकालिदासकवितो हि ततो बभूव ॥ २२.२० ॥
वर्षैः सिन्धुरदर्शनाम्बरगुणैर्याते कलौ सम्मिते, मासे माधवसंज्ञिके च विहितो ग्रन्थक्रियोपक्रमः।
नानाकालविधानशास्त्रगदितज्ञानं विलोक्यादरा-दूर्जे ग्रन्थसमाप्तिरत्र विहिता ज्योतिर्विदां प्रीतये ॥ २२.२१ ॥

ज्योतिर्विदाभरण की रचना ३०६८ कलि वर्ष (विक्रम संवत् २४) या ईसा पूर्व ३३ में हुयी। विक्रम सम्वत् के प्रभाव से उसके १० पूर्ण वर्ष के पौष मास से जुलिअस सीजर द्वारा कैलेण्डर आरम्भ हुआ, यद्यपि उसे ७ दिन पूर्व आरम्भ करने का आदेश था।

विक्रमादित्य ने रोम के इस शककर्त्ता को बन्दी बनाकर उज्जैन में भी घुमाया था (७८ इसा पूर्व में) तथा बाद में छोड़ दिया।।

इसे रोमन लेखकों ने बहुत घुमा फिराकर जलदस्युओं द्वारा अपहरण बताया है तथा उसमें भी सीजर का गौरव दिखाया है कि वह अपना अपहरण मूल्य बढ़ाना चाहता था।

इसी प्रकार सिकन्दर की पोरस (पुरु वंशी राजा) द्वारा पराजय को भी ग्रीक लेखकों ने उसकी जीत बताकर उसे क्षमादान के रूप में दिखाया है।

विकिपीडिया साईट पर इसका एक सन्दर्भ है जो आपके सामने प्रस्तुत किया जा रहा है…

Gaius Julius Caesar (13 July 100 BC – 15 March 44 BC) — In 78 BC,
— On the way across the Aegean Sea, Caesar was kidnapped by pirates
and held prisoner. He maintained an attitude of superiority throughout
his captivity. When the pirates thought to demand a ransom of twenty
talents of silver, he insisted they ask for fifty. After the ransom
was paid, Caesar raised a fleet, pursued and captured the pirates, and
imprisoned them. He had them crucified on his own authority.

Quoted from History of the Calendar, by M.N. Saha and N. C. Lahiri
(part C of the Report of The Calendar Reforms Committee under Prof. M.
N. Saha with Sri N.C. Lahiri as secretary in November 1952-Published
by Council of Scientific & Industrial Research, Rafi Marg, New
Delhi-110001, 1955, Second Edition 1992.
Page, 168-last para-“Caesar wanted to start the new year on the 25th
December, the winter solstice day. But people resisted that choice
because a new moon was due on January 1, 45 BC. And some people
considered that the new moon was lucky. Caesar had to go along with
them in their desire to start the new reckoning on a traditional lunar
landmark.”

ज्योतिर्विदाभरण की कहानी ठीक होने के कई अन्य प्रमाण हैं-सिकन्दर के बाद सेल्युकस्, एण्टिओकस् आदि ने मध्य एसिआ में अपना प्रभाव बढ़ाने की बहुत कोशिश की, पर सीजर के बन्दी होने के बाद रोमन लोग भारत ही नहीं, इरान, इराक तथा अरब देशों का भी नाम लेने का साहस नहीं किये। केवल सीरिया तथा
मिस्र का ही उल्लेख कर संतुष्ट हो गये। यहां तक कि सीरिया से पूर्व के किसी राजा के नाम का उल्लेख भी नहीं है।

बाइबिल में लिखा है कि उनके जन्म के समय मगध के २ ज्योतिषी गये थे जिन्होंने ईसा के महापुरुष होने की भविष्यवाणी की थी। सीजर के राज्य में भी विक्रमादित्य के ज्योतिषियों की बात प्रामाणिक मानी गयी।

और इन बातों को Ignore करने वाले सनातनधर्मियों हेतु डा. एनी बेसेंट के विचार 

हिन्दू धर्म के बिना भारत का कोई भविष्य नहीं है . -डॉ० एनी बेसेंट का
हिन्दू धर्म को कोसने वालों के मूह पर तमाचा

भूलिये नहीं !
सनातन धर्म के बिना भारत का कोई भविष्य नहीं है। सनातन धर्म वह भूमि है जिसमे भारत की जड़े गहरी जमी हुई हैं और यदि इस भूमि से इसे उखाड़ा गया तो भारत वैसे ही सूख जायेगा जैसे कोई वृक्ष भूमि से उखाड़ने पर सूख जाता है।

भारत में अनेक मत,संप्रदाय और वंशों के लोग पनप रहे हैं, किन्तु उनमे से कोई भी न तो भारत के अतीत के उषा काल में था, न उनमे कोई राष्ट्र के रूप में उसके स्थायित्व के लिए अनिवार्यत: आवयशक है।

यदि आप सनातन धर्म छोड़ते है तो आप अपनी भारत माता के ह्रदय में छुरा घोंपते हैं।यदि भारत माता के जीवन-रक्त स्वरुप सनातन धर्म निकल जाता है तो माता गत-प्राण हो जाएगी। आर्य जाती की यह माता ,यह पद्भ्रष्ट जगत-सम्राज्ञी पहले ही आहत क्षत-विक्षत, विजित और अवनत हुई है। किन्तु सनातन धर्म उसे जीवित रखे हुए है, अन्यथा उसकी गणना मतों में हुई होती।

यदि आप अपने भविष्य को मूल्यवान समझते हैं, अपनी मात्रभूमि से प्रेम करते हैं,तो अपने प्राचीन धर्म की अपनी पकड़ को छोडिये नहीं,उस निष्ठां से अलग मत होइए जिस पर भारत के प्राण निर्भर हैं।

सनातन धर्म के अतिरिक्त अन्य किसी मत की रक्त -वाहिनिया ऐसी स्वर्ण सी,ऐसी अमूल्य नहीं हैं,जिनमे आध्यात्मिक जीवन का रक्त प्रवाहित किया जा सके। परन्तु एक धोखा है…

एक वास्तविक और भारी धोखा  कि भारत से कभी सनातन धर्म का लोप न हो जाए,
नए-पुराने के झगडे में कहीं सनातन धर्म ही नष्ट न हो जाए। यदि सनातन धर्मी ही सनातन धर्म को न बचा सके तो और कोन बचाएगा ?

यदि भारत की संतान अपने धर्म पर अडिग नहीं रही तो कोन उस धर्म की रक्षा करेगा ?

भारत और सनातन धर्म एक रूप हैं। मै यह कार्य भार आपको दे  रही हूँ, कि सनातन धर्म के प्रति निष्ठावान रहो, वही आपका सच्चा जीवन है। कोई भ्रष्ट मत या विकृत धर्म अपने कलंकित हाथों से आपको सोंपी गयी इस पवित्र धरोहर को स्पर्श न कर सके।

( Hindu Jeevanaadarsh Prashth ..135-136 )

भारतीय इतिहासकारों ने पुष्यमित्र शुंग के साथ बहुत अन्याय किया है, महान इतिहासकार KOENRAAD ELST का कहना है कि अशोक से अधिक धर्म-निरपेक्ष पुष्यमित्र शुंग था, जिसने वैदिक धर्म का प्रचार प्रसार तो किया परन्तु शांतिप्रिय बोद्धों को भी जीवन यापन की समस्त स्वत्रंता प्रदान की और उन्हें परेशान नही किया ।
आज भारत के इतिहास में आदि गुरु शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट, पुष्यमित्र शुंग तथा राजा शशांक शेखर जैसे शास्त्र और शस्त्र से वैदिक धर्म की संरक्षण तथा प्रचार-प्रसार करने वाले महान युगपुरुषों को स्थान नही दिया जाता… यदि भारत की शिक्षा पद्धति में इतिहास के विषय में उपरोक्त महान युगपुरुषों को उचित स्थान मिले तो किसी को यह बताने की आवश्यकता नही कि … विश्व गुरु किस प्रकार बना जाये ?

कभी भारत की भूमि को कोई विजित नही कर पाया, और वेद-विरोधी सम्प्रदाय के कुचक्रों में फंसकर भारत का इतिहास वर्षों से गुलामी के रक्तरंजित इतिहास में जकड़ चुका है ।

मस्त सांडों से कभी खेती नही करवा सकता कोई… परन्तु वर्तमान में विधर्मी और विदेशियों ने इस सत्य को असत्य करके भारत के मस्त सांडों से खेती करवा दी है ।
यह कहना सत्य ही होगा कि McCauley अपने लक्ष्य में सफल हो चुका है ।
क्या आप पुष्यमित्र शुंग की भाँति सनातन धर्म की रक्षार्थ कार्य सकते हैं ?
सीमाएं उसी राष्ट्र की विकसित और सुरक्षित रहेंगी …
…जो सदैव संघर्षरत रहेंगे ।
जो लड़ना ही भूल जाएँ वो न स्वयं सुरक्षित रहेंगे न ही अपने राष्ट्र को सुरक्षित बना पाएंगे ।
जय श्री राम कृष्ण परशुराम

 

साभार-लवी भरद्वाज सावरकर

कुशल राजनीतिज्ञ, चतुर कूटनीतिज्ञ, प्रकांड अर्थशास्त्री चाणक्य

आचार्य चाणक्य एक ऐसी महान विभूति थे, जिन्होंने अपनी विद्वत्ता और क्षमताओं के बल पर भारतीय इतिहास की धारा को बदल दिया। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चाणक्य कुशल राजनीतिज्ञ, चतुर कूटनीतिज्ञ, प्रकांड अर्थशास्त्री के रूप में भी विश्वविख्‍यात हुए।

इतनी सदियाँ गुजरने के बाद आज भी यदि चाणक्य के द्वारा बताए गए सिद्धांत ‍और नीतियाँ प्रासंगिक हैं तो मात्र इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने गहन अध्‍ययन, चिंतन और जीवानानुभवों से अर्जित अमूल्य ज्ञान को, पूरी तरह नि:स्वार्थ होकर मानवीय कल्याण के उद्‍देश्य से अभिव्यक्त किया।

वर्तमान दौर की सामाजिक संरचना, भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था और शासन-प्रशासन को सुचारू ढंग से बताई गई ‍नीतियाँ और सूत्र अत्यधिक कारगर सिद्ध हो सकते हैं। चाणक्य नीति के द्वितीय अध्याय से यहाँ प्रस्तुत हैं कुछ अंश –

1. जिस प्रकार सभी पर्वतों पर मणि नहीं मिलती, सभी हाथियों के मस्तक में मोती उत्पन्न नहीं होता, सभी वनों में चंदन का वृक्ष नहीं होता, उसी प्रकार सज्जन पुरुष सभी जगहों पर नहीं मिलते हैं।

2. झूठ बोलना, उतावलापन दिखाना, दुस्साहस करना, छल-कपट करना, मूर्खतापूर्ण कार्य करना, लोभ करना, अपवित्रता और निर्दयता – ये सभी स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं। चाणक्य उपर्युक्त दोषों को स्त्रियों का स्वाभाविक गुण मानते हैं। हालाँकि वर्तमान दौर की शिक्षित स्त्रियों में इन दोषों का होना सही नहीं कहा जा सकता है।

3. भोजन के लिए अच्छे पदार्थों का उपलब्ध होना, उन्हें पचाने की शक्ति का होना, सुंदर स्त्री के साथ संसर्ग के लिए कामशक्ति का होना, प्रचुर धन के साथ-साथ धन देने की इच्छा होना। ये सभी सुख मनुष्य को बहुत कठिनता से प्राप्त होते हैं।

4. चाणक्य कहते हैं कि जिस व्यक्ति का पुत्र उसके नियंत्रण में रहता है, जिसकी पत्नी आज्ञा के अनुसार आचरण करती है और जो व्यक्ति अपने कमाए धन से पूरी तरह संतुष्ट रहता है। ऐसे मनुष्य के लिए यह संसार ही स्वर्ग के समान है।

5. चाणक्य का मानना है कि वही गृहस्थी सुखी है, जिसकी संतान उनकी आज्ञा का पालन करती है। पिता का भी कर्तव्य है कि वह पुत्रों का पालन-पोषण अच्छी तरह से करे। इसी प्रकार ऐसे व्यक्ति को मित्र नहीं कहा जा सकता है, जिस पर विश्वास नहीं किया जा सके और ऐसी पत्नी व्यर्थ है जिससे किसी प्रकार का सुख प्राप्त न हो।

6. जो मित्र आपके सामने चिकनी-चुपड़ी बातें करता हो और पीठ पीछे आपके कार्य को बिगाड़ देता हो, उसे त्याग देने में ही भलाई है। चाणक्य कहते हैं कि वह उस बर्तन के समान है, जिसके ऊपर के हिस्से में दूध लगा है परंतु अंदर विष भरा हुआ होता है।

7. जिस प्रकार पत्नी के वियोग का दुख, अपने भाई-बंधुओं से प्राप्त अपमान का दुख असहनीय होता है, उसी प्रकार कर्ज से दबा व्यक्ति भी हर समय दुखी रहता है। दुष्ट राजा की सेवा में रहने वाला नौकर भी दुखी रहता है। निर्धनता का अभिशाप भी मनुष्य कभी नहीं भुला पाता। इनसे व्यक्ति की आत्मा अंदर ही अंदर जलती रहती है।

8. ब्राह्मणों का बल विद्या है, राजाओं का बल उनकी सेना है, वैश्यों का बल उनका धन है और शूद्रों का बल दूसरों की सेवा करना है। ब्राह्मणों का कर्तव्य है कि वे विद्या ग्रहण करें। राजा का कर्तव्य है कि वे सैनिकों द्वारा अपने बल को बढ़ाते रहें। वैश्यों का कर्तव्य है कि वे व्यापार द्वारा धन बढ़ाएँ, शूद्रों का कर्तव्य श्रेष्ठ लोगों की सेवा करना है।

9. चाणक्य का कहना है कि मूर्खता के समान यौवन भी दुखदायी होता है क्योंकि जवानी में व्यक्ति कामवासना के आवेग में कोई भी मूर्खतापूर्ण कार्य कर सकता है। परंतु इनसे भी अधिक कष्टदायक है दूसरों पर आश्रित रहना।

10. चाणक्य कहते हैं कि बचपन में संतान को जैसी शिक्षा दी जाती है, उनका विकास उसी प्रकार होता है। इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे उन्हें ऐसे मार्ग पर चलाएँ, जिससे उनमें उत्तम चरित्र का विकास हो क्योंकि गुणी व्यक्तियों से ही कुल की शोभा बढ़ती है।

11. वे माता-पिता अपने बच्चों के लिए शत्रु के समान हैं, जिन्होंने बच्चों को ‍अच्छी शिक्षा नहीं दी। क्योंकि अनपढ़ बालक का विद्वानों के समूह में उसी प्रकार अपमान होता है जैसे हंसों के झुंड में बगुले की स्थिति होती है। शिक्षा विहीन मनुष्य बिना पूँछ के जानवर जैसा होता है, इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे बच्चों को ऐसी शिक्षा दें जिससे वे समाज को सुशोभित करें।

12. चाणक्य कहते हैं कि अधिक लाड़ प्यार करने से बच्चों में अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए यदि वे कोई गलत काम करते हैं तो उसे नजरअंदाज करके लाड़-प्यार करना उचित नहीं है। बच्चे को डाँटना भी आवश्यक है।

13. शिक्षा और अध्ययन की महत्ता बताते हुए चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य का जन्म बहुत सौभाग्य से मिलता है, इसलिए हमें अपने अधिकाधिक समय का वे‍दादि शास्त्रों के अध्ययन में तथा दान जैसे अच्छे कार्यों में ही सदुपयोग करना चाहिए।

14. चाणक्य कहते हैकि जो व्यक्ति अच्छा मित्र नहीं है उस पर तो विश्वास नहीं करना चाहिए, परंतु इसके साथ ही अच्छे मित्र के संबंद में भी पूरा विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि यदि वह नाराज हो गया तो आपके सारे भेद खोल सकता है। अत: सावधानी अत्यंत आवश्यक है।

चाणक्य का मानना है कि व्यक्ति को कभी अपने मन का भेद नहीं खोलना चाहिए। उसे जो भी कार्य करना है, उसे अपने मन में रखे और पूरी तन्मयता के साथ समय आने पर उसे पूरा करना चाहिए।

15. चाणक्य के अनुसानदी के किनारे स्थित वृक्षों का जीवन अनिश्चित होता है, क्योंकि नदियाँ बाढ़ के समय अपने किनारे के पेड़ों को उजाड़ देती हैं। इसी प्रकार दूसरे के घरों में रहने वाली स्त्री भी किसी समय पतन के मार्ग पर जा सकती है। इसी तरह जिस राजा के पास अच्छी सलाह देने वाले मंत्री नहीं होते, वह भी बहुत समय तक सुरक्षित नहीं रह सकता। इसमें जरा भी संदेह नहीं करना चाहिए।

17. चाणक्य कहते हैं कि जिस तरह वेश्या धन के समाप्त होने पर पुरुष से मुँह मोड़ लेती है। उसी तरह जब राजा शक्तिहीन हो जाता है तो प्रजा उसका साथ छोड़ देती है। इसी प्रकार वृक्षों पर रहने वाले पक्षी भी तभी तक किसी वृक्ष पर बसेरा रखते हैं, जब तक वहाँ से उन्हें फल प्राप्त होते रहते हैं। अतिथि का जब पूरा स्वागत-सत्कार कर दिया जाता है तो वह भी उस घर को छोड़ देता है।

18. बुरे चरित्र वाले, अकारण दूसरों को हानि पहुँचाने वाले तथा अशुद्ध स्थान पर रहने वाले व्यक्ति के साथ जो पुरुष मित्रता करता है, वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। आचार्य चाणक्य का कहना है मनुष्य को कुसंगति से बचना चाहिए। वे कहते हैं कि मनुष्य की भलाई इसी में है कि वह जितनी जल्दी हो सके, दुष्ट व्यक्ति का साथ छोड़ दे।

19. चाणक्य कहते हैं कि मित्रता, बराबरी वाले व्यक्तियों में ही करना ठीक रहता है। सरकारी नौकरी सर्वोत्तम होती है और अच्छे व्यापार के लिए व्यवहारकुशल होना आवश्यक है। इसी तरह सुंदर व सुशील स्त्री घर में ही शोभा देती है।Webdunia

एक समय की बात है। चाणक्य अपमान भुला नहीं पा रहे थे। शिखा की खुली गांठ हर पल एहसास कराती कि धनानंद के राज्य को शीघ्राति शीघ्र नष्ट करना है। चंद्रगुप्त के रूप में एक ऐसा होनहार शिष्य उन्हें मिला था जिसको उन्होंने बचपन से ही मनोयोग पूर्वक तैयार किया था।
अगर चाणक्य प्रकांड विद्वान थे तो चंद्रगुप्त भी असाधारण और अद्भुत शिष्य था। चाणक्य बदले की आग से इतना भर चुके थे कि उनका विवेक भी कई बार ठीक से काम नहीं करता था।
चंद्रगुप्त ने लगभग पांच हजार घोड़ों की छोटी-सी सेना बना ली थी। सेना लेकर उन्होंने एक दिन भोर के समय ही मगध की राजधानी पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया। चाणक्य, धनानंद की सेना और किलेबंदी का ठीक आकलन नहीं कर पाए और दोपहर से पहले ही धनानंद की सेना ने चंद्रगुप्त और उसके सहयोगियों को बुरी तरह मारा और खदेड़ दिया।
चंद्रगुप्त बड़ी मुश्किल से जान बचाने में सफल हुए। चाणक्य भी एक घर में आकर छुप गए। वह रसोई के साथ ही कुछ मन अनाज रखने के लिए बने मिट्टी के निर्माण के पीछे छुपकर खड़े थे। पास ही चौके में एक दादी अपने पोते को खाना खिला रही थी।

दादी ने उस रोज खिचड़ी बनाई थी। खिचड़ी गरमा-गरम थी। दादी ने खिचड़ी के बीच में छेद करके गरमा-गरम घी भी डाल दिया था और घड़े से पानी भरने गई थी। थोड़ी ही देर के बाद बच्चा जोर से चिल्ला रहा था और कह रहा था- जल गया, जल गया।

दादी ने आकर देखा तो पाया कि बच्चे ने गरमा-गरम खिचड़ी के बीच में अंगुलियां डाल दी थीं।

दादी बोली- ‘तू चाणक्य की तरह मूर्ख है, अरे गरम खिचड़ी का स्वाद लेना हो तो उसे पहले कोनों से खाया जाता है और तूने मूर्खों की तरह बीच में ही हाथ डाल दिया और अब रो रहा है…।’

चाणक्य बाहर निकल आए और बुढ़िया के पांव छूए और बोले- आप सही कहती हैं कि मैं मूर्ख ही था तभी राज्य की राजधानी पर आक्रमण कर दिया और आज हम सबको जान के लाले पड़े हुए हैं।

चाणक्य ने उसके बाद मगध को चारों तरफ से धीरे-धीरे कमजोर करना शुरू किया और एक दिन चंद्रगुप्त मौर्य को मगध का शासक बनाने में सफल हुए।

बात पुरानी है। गुप्त काल में मगध में जन्मे चाणक्य बड़े मातृभक्त और विद्यापरायण थे। एक दिन उनकी माता रो रही थी।

माता से कारण पूछा तो उन्होंने कहा, ‘तेरे अगले दांत राजा होने के लक्षण हैं। तू बड़ा होने पर राजा बनेगा और मुझे भूल जाएगा।’

चाणक्य हंसते हुए बाहर गए और दोनों दांत तोड़कर ले आए और बोले, ‘अब ये लक्षण मिट गए, अब मैं मेरी सेवा में ही रहूंगा। तू आज्ञा देगी तो आगे चलकर राष्ट्र देवता की साधना करूंगा।’

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बड़े होने पर चाणक्य पैदल चलकर तक्षशिला गए और वहां चौबीस वर्ष पढ़े। अध्यापकों की सेवा करने में वे इतना रस लेते थे कि सब उनके प्राणप्रिय बन गए। सभी ने उन्हें मन से पढ़ाया और अनेक विषयों में पारंगत बना दिया।

लौटकर मगध आए तो उन्होंने एक पाठशाला चलाई और अनेक विद्यार्थी अपने सहयोगी बनाए। उन दिनों मगध का राजा नंद दमन और अत्याचारों पर तुला था और यूनानी भी देश पर बार-बार आक्रमण करता था। इन हालात के चलते समाज में भय और आतंक का माहौल व्याप्त हो रहा था। जनता इस आतंक और अत्याचार से मुक्ति चाहती थी।

ऐसे में चाणक्य ने एक प्रतिभावान युवक चंद्रगुप्त को आगे किया और उनका साथ लेकर दक्षिण तथा पंजाब का दौरा किया। सहायता के लिए सेना इकट्ठी की और सभी आक्रमणकारियों को सदा के लिए विमुख कर दिया। लौटे तो नंद से भी गद्दी छीन ली।

चाणक्य ने चंद्रगुप्त को चक्रवर्ती राजा की तरह अभिषेक किया और स्वयं धर्म प्रचार तथा विद्या विस्तार में लग गए। आजीवन वे अधर्म अनीति से मोर्चा लेते रहे। निस्संदेह उन्होंने यह कार्य अपनी महाबुद्धि के दम पर ही किया।

एक दिन चाणक्य का एक परिचित उनके पास आया और उत्साह से कहने लगा, ‘आप जानते हैं, अभी-अभी मैंने आपके मित्र के बारे में क्या सुना?’

चाणक्य अपनी तर्क-शक्ति, ज्ञान और व्यवहार-कुशलता के लिए विख्यात थे। उन्होंने अपने परिचित से कहा, ‘आपकी बात मैं सुनूं, इसके पहले मैं चाहूंगा कि आप त्रिगुण परीक्षण से गुजरें।’

उस परिचित ने पूछा, ‘ यह त्रिगुण परीक्षण क्या है?’

चाणक्य ने समझाया , ‘ आप मुझे मेरे मित्र के बारे में बताएं, इससे पहले अच्छा यह होगा कि जो कहें, उसे थोड़ा परख लें, थोड़ा छान लें। इसीलिए मैं इस प्रक्रिया को त्रिगुण परीक्षण कहता हूं। इसकी पहली कसौटी है सत्य। इस कसौटी के अनुसार जानना जरूरी है कि जो आप कहने वाले हैं, वह सत्य है। आप खुद उसके बारे में अच्छी तरह जानते हैं?’

‘नहीं,’ वह आदमी बोला, ‘वास्तव में मैंने इसे कहीं सुना था। खुद देखा या अनुभव नहीं किया था।’

‘ठीक है,’ – चाणक्य ने कहा, ‘आपको पता नहीं है कि यह बात सत्य है या असत्य। दूसरी कसौटी है -‘ अच्छाई। क्या आप मुझे मेरे मित्र की कोई अच्छाई बताने वाले हैं?’

‘नहीं,’ उस व्यक्ति ने कहा। इस पर चाणक्य बोले,’ जो आप कहने वाले हैं, वह न तो सत्य है, न ही अच्छा। चलिए, तीसरा परीक्षण कर ही डालते हैं ।’

‘तीसरी कसौटी है – उपयोगिता। जो आप कहने वाले हैं, वह क्या मेरे लिए उपयोगी है?’

‘नहीं, ऐसा तो नहीं है।’ सुनकर चाणक्य ने आखिरी बात कह दी।’ आप मुझे जो बताने वाले हैं, वह न सत्य है, न अच्छा और न ही उपयोगी, फिर आप मुझे बताना क्यों चाहते हैं?’ FILE चाणक्य नीति-दर्पण कहता है कि आचार्य चाणक्य भारत का महान गौरव है। चाणक्य कर्तव्य की वेदी पर मन की भावनाओं की होली जलाने वाले एक धैर्यमूर्ति भी थे। और उनके इसी आचरण पर भारत को गर्व है।

महान शिक्षक, प्रखर राजनीतिज्ञ एवं अर्थशास्त्रकार चाणक्य का भारत में स्थान विशेष है। वे स्वभाव से स्वाभिमानी, संयमी तथा बहुप्रतिभा के धनी थे। चाणक्य ने अपने निवास स्थान पाटलीपुत्र से तक्षशीला प्रस्थान कर शिक्षा प्राप्त की और राजनीति के प्रखर प्राध्यापक बने। उन्होंने हमेशा ही देश को एकसूत्र में बांधने का प्रयास किया। भारत भर के जनपदों में वे घूमें। एक सामान्य आदमी से लेकर बड़े-बड़े विद्वानों को उन्होंने राष्ट्र के प्रति जागृत किया।

अपने पराक्रमी शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य को मगध के सिंहासन पर बिठाने के बाद वे महामंत्री बने पर फिर भी एक सामान्य कुटिया में रहे। और अपने त्याग, साहस एवं विद्वत्ता को आमजन के समक्ष पेश किया।

एक बार चीन के प्रसिद्ध यात्री फाह्यान ने जब यह देखा तो बहुत आश्चर्य व्यक्त किया तो उन्होंने उत्तर दिया – जिस देश का महामंत्री सामान्य कुटिया में रहता है, और वहां के नागरिक भव्य भवनों में निवास करते हैं। वहां के नागरिकों को कभी कष्टों का सामना नहीं करना पड़ता। राजा और प्रजा दोनों सुखी रहती है।

ऐसे महान विचारक और आदर्श से जीने वाले आचार्य चाणक्य आखिर इतने बड़े साम्राज्य के महामंत्री का जीवन इतना सादगीपूर्ण हो सकता है, उसने सोचा तक न था। चाणक्य ने उसे भारतीय जीवन पद्धति में सरलता के महत्व के बारे में समझाया। चाणक्य के इस आचरण से उस चीनी यात्री का मन उनके प्रति श्रद्धा से भर उठा।

मुख्य चाणक्य सूत्र
जो बीत गया, सो बीत गया। अपने हाथ से कोई गलत काम हो गया हो तो उसकी फिक्र छोड़ते हुए वर्तमान को सलीके से जीकर भविष्य को संवारना चाहिए।

बहादुर और बुद्धिमान व्यक्ति अपना रास्ता खुद बनाते हैं। असंभव शब्द का इस्तेमाल बुजदिल करते हैं।

अपनी कमाई में से धन का कुछ प्रतिशत हिस्सा संकट काल के लिए हमेशा बचाकर रखें।

अपने परिवार पर संकट आए तो जमा धन कुर्बान कर दें। लेकिन अपनी आत्मा की हिफाजत हमें अपने परिवार और धन को भी दांव पर लगाकर करनी चाहिए।

भाई-बंधुओं की परख संकट के समय होती है।

स्त्री की असली परख धन के नष्ट हो जाने पर ही होती है।

बिना कारण दूसरों के घर पर पड़े रहना कष्टों से भी बड़ा कष्ट है।

मूर्खता बहुत से कष्टों का कारण बनती है।

मनुष्य का विकास और विनाश उसके अपने व्यवहार पर निर्भर करता है।

मूर्ख अपने घर में पूजा जाता, मुखिया अपने गांव में, परंतु विद्वान सर्वत्र पूजा जाता है। 

भारत के महान शूरवीर योद्धा :

  1. जयमाल मेड़तिया ने एक ही झटके में हाथी का सिर काट डाला था.

  2. करौली के जादोन राजा अपने सिंहासन पर बैठते वक़्त अपने दोनो हाथ जिन्दा शेरो पर रखते थे.

  3. जोधपुर के यशवंत सिंह के 12 साल के पुत्र पृथ्वी सिंह ने हाथो से औरंगजेब के खूंखार भूखे जंगली शेर का जबड़ा फाड़ डाला था.

  4. राणा सांगा के शरीर पर छोटे-बड़े 80 घाव थे, युद्धों में घायल होने के कारण उनके एक हाथ नही था एक पैर नही था, एक आँख नहीं थी उन्होंने अपने जीवन-काल में 100 से भी अधिक युद्ध लड़े थे.

  5. एक राजपूत वीर जुंझार जो मुगलो से लड़ते वक्त शीश कटने के बाद भी घंटो लड़ते रहे आज उनका सिर बाड़मेर में है, जहा छोटा मंदिर हैं और धड़ पाकिस्तान में है.

  6. रायमलोत कल्ला का धड़ शीश कटने के बाद लड़ता-लड़ता घोड़े पर पत्नी रानी के पास पहुंच गया था तब रानी ने गंगाजल के छींटे डाले तब धड़ शांत हुआ उसके बाद रानी पति कि चिता पर बैठकर सती हो गयी थी.

  7. चित्तोड़ में अकबर से हुए युद्ध में जयमाल राठौड़ पैर जख्मी होने कि वजह से कल्ला जी के कंधे पर बैठ कर युद्ध लड़े थे, ये देखकर सभी युद्ध-रत साथियों को चतुर्भुज भगवान की याद आयी थी, जंग में दोनों के सर काटने के बाद भी धड़ लड़ते रहे और राजपूतो की फौज ने दुश्मन को मार गिराया अंत में अकबर ने उनकी वीरता से प्रभावित हो कर जैमल और पत्ता जी की मुर्तिया आगरा के किलें में लगवायी थी.

  8. राजस्थान पाली में आउवा के ठाकुर खुशाल सिंह 1877 में अजमेर जा कर अंग्रेज अफसर का सर
    काट कर ले आये थे और उसका सर अपने किले के बाहर लटकाया था तब से आज दिन तक उनकी याद में मेला लगता है.

  9. महाराणा प्रताप के भाले का वजन 80 किलो था और कवच का वजन 80 किलो था और कवच, भाला, ढाल, और हाथ मे तलवार का वजन मिलाये तो 207 किलो था.

  10. सलूम्बर के नवविवाहित रावत रतन सिंह चुण्डावत जी ने युद्ध जाते समय मोह-वश अपनी पत्नी हाड़ा रानी की कोई निशानी मांगी तो रानी ने सोचा ठाकुर युद्ध में मेरे मोह के कारण नही लड़ेंगे तब रानी ने निशानी के तौर पर अपना सर काट के दे दिया था, अपनी पत्नी का कटा शीश गले में लटका औरंगजेब की सेना के साथ भयंकर युद्ध किया और वीरता पूर्वक लड़ते हुए अपनी मातृ भूमि के लिए शहीद हो गये थे.

  11. हल्दी घाटी की लड़ाई में मेवाड़ से 20000 सैनिक थे और अकबर की ओर से 85000 सैनिक थे
    फिर भी अकबर की मुगल सेना पर राजपूत भारी पड़े…

भीमराव अंम्बेडकर : राष्ट्रवादी चरित्र

तुम चाहते हो कि भारत कश्मीर की सीमाओं की रक्षा करे, सड़कें बनाए, अन्न की आपूर्ति करे और कश्मीर का दर्जा भारत के ही बराबर हो। और भारत सरकार के पास सीमित ताकत हो। भारतीयों के कश्मीर में कोई अधिकार न हों। मैं भारत का विधिमंत्री हूं। मुझे भारत के हितों की रक्षा करनी है। मैं तुम्हारे प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सकता।’ डॉ़ आंबेडकर के ये ठोस शब्द सुनकर शेख अब्दुल्ला का दिल बैठ गया। पंडित नेहरू ने अब्दुल्ला को तत्कालीन विधिमंत्री डॉ़ आंबेडकर के पास भेजा था ताकि धारा 370 के प्रस्ताव को हकीकत में बदला जा सके। शेख अब्दुल्ला ने बातचीत की विफलता की सूचना पं. नेहरू को दी तो नेहरू ने शेख को गोपाल स्वामी आयंगर के पास भेजा। आयंगर ने सरदार पटेल से सहायता की याचना की क्योंकि धारा 370 को नेहरू ने अपनी नाक का सवाल बना लिया था। आखिरकार नेहरू की जिद को रखते हुए धारा 370 के प्रस्ताव को पारित करा लिया गया। अपनी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद को आधार बना कर देश के महत्वपूर्ण फैसले करने वाले और नीतियों से ज्यादा व्यक्तित्वों को मान्यता देने वाले नेहरू लार्ड माउंटबेटन और शेख अब्दुल्ला के हाथों में खेल रहे थे। नेहरू की ये मित्रता कश्मीर पर बहुत भारी पड़ी। माउंटबेटन एक असफल कमांडर के रूप में ब्रिटेन लौटे जबकि अगस्त 1953 में शेख अब्दुल्ला की देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तारी हुई। राष्ट्रहित से जुड़े मामलांे पर नेहरू और डॉ़ आंबेडकर अक्सर विरोधी खेमों में दिखते रहे। हालांकि आने वाले समय ने बार-बार आंबेडकर को सही ठहराया। ऐसा क्यों हुआ? दरअसल वे नेहरू की तरह रूमानी नहीं थे। आंबेडकर व्यावहारिकता के कठोर धरातल पर तर्कशील मस्तिष्क के साथ सतर्क कदम बढ़ाने वाले व्यक्ति थे। साथ ही धुर राष्ट्रवादी थे। वे छवि के बंदी नहीं थे। वे तो ध्येय का परछांई की तरह पीछा करने वाले व्यक्ति थे।
स्वतंत्र भारत के साथ दुनिया के बहुत से देशों की सहानुभूति और शुभकामनाएं थीं। परंतु नेहरू जी के नेतृृत्व में भारत की विदेश नीति पर समाजवाद का ठप्पा और अव्यावहारिकता का ग्रहण लग गया। गुट निरपेक्षता के नाम पर हम हितनिरपेक्षता की राह पर बढ़ गए। नेहरू अपने समाजवादी और कम्युनिस्ट राष्ट्राध्यक्ष मित्रों की खुशामद के चक्कर में सदा पश्चिम विरोधी भंगिमा में दिखाई दे़ने लगे। जब भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता थाल में सजाकर भेंट की गई, तब घोर अव्यावहारिकता दिखाते हुए उन्होंने उसे चीन की ओर सरका दिया। डॉ़ आंबेडकर के लिए यह असहनीय था। उनके जीवनी लेखक खैरमोड़े ने उनकी वेदना को उन्हीं के शब्दों में बयान किया है ‘भारत को आजादी मिली उस दिन विश्व के देशों से दोस्ती के संबंध थे और वे देश भारत का शुभ चाहते थे। लेकिन आज की स्थिति बिल्कुल विपरीत है। आज भारत का कोई सच्चा दोस्त नहीं है। सभी देश भारत के दुश्मन नहीं हैं, फिर भी भारत से बहुत नाराज हैं। भारत के हितों को वे नहीं देखते। इसका कारण है भारत की लचर विदेश नीति। भारत की कश्मीर के बारे में नीति, राष्ट्रसंघ में चीन के प्रवेश के बारे में जल्दबाजी और कोरियाई युद्घ के बारे में अनास्था के प्रति पिछले तीन वषोंर् में बचकानी नीति के कारण अन्य राष्ट्रों ने भारत की ओर ध्यान देना बंद कर दिया है।’ नेहरू चीन के प्रेम में अंधे हो रहे थे। सरदार पटेल की लिखित चेतावनी (1950) पर उन्होंने कान देना भी जरूरी नहीं समझा। पहले उन्होंने तिब्बत पर चीन के स्वामित्व को स्वीकार कर तिब्बत राष्ट्र और भारत के सुरक्षा हितों दोनों की हत्या कर डाली। उसके बाद वे दुनिया में चीन के पोस्टर ब्वॉय बनकर घूमते रहे। इस पर बाबासाहेब ने सवाल उठाया-”चीन का प्रश्न लेकर हमारे संघर्ष करने का क्या कारण है? चीन अपनी लड़ाई लड़ने के लिए समर्थ है। कम्युनिस्ट चीन का समर्थन कर हम अमरीका को क्यों अपना दुश्मन बना रहे हैं?” उन्होंने नेहरू से प्रश्न किया कि पंूजीवाद का विरोध करते हुए तानाशाही के समर्थन तक जाने की क्या आवश्यकता है? प्रश्न अत्यंत मार्मिक है। क्योंकि जिन नेहरू के सिर पर नेहरूवादी विचारक और वामपंथी लोकतंत्र को मजबूती देने का ताज सजाते आए है, उन्हीं नेहरू को न कभी चीन की बर्बर तानाशाही दिखाई पड़ी, न ही तिब्बतवासियों के मानवाधिकारों की चिंता हुई। वे माओ और चाउ एन लाइ के साथ कबूतर उड़ाते रहे, और माओ करोड़ों चीनियों और तिब्बतियों के खून से होली खेलता रहा। उन्हें चीन पर रत्ती भर विश्वास नहीं था जबकि नेहरू चीन के प्यार में दीवाने हुए जा रहे थे। पंचशील समझौते को लेकर उन्होंने नेहरू पर कटाक्ष किया- ”माओ का पंचशील नेहरू ने गंभीरता से लिया यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। पंचशील बौद्घ धर्म का अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा है। माओ का पंचशील पर विश्वास होता तो उसके अपने देश के बौद्घ बंधुओं से उसका अलग बर्ताव होता। राजनीति में पंचशील का कोई काम नहीं है और कम्युनिस्ट राजनीति में तो बिल्कुल नहीं। सभी कम्युनिस्ट देश दो तत्वों को प्रमाण मानते हैं। पहला तत्व यह कि नैतिकता अस्थिर होती है, और दुनिया में नैतिकता कुछ नहीं होती। आज की नैतिकता कल की नैतिकता नहीं होती।” नेहरू के दिवास्वप्नों का जवाब चीन ने भारत की पीठ में खंजर उतारकर दिया।
भारतीय विदेशनीति के कदम बहकते रहे, और आंबेडकर सावधान करते रहे। स्वेज नहर के निर्माण से भारत और यूरोप के बीच हजारों मील की दूरी घट गई। नेहरू के परम मित्र और मिस्र के राष्ट्रपति नासिर ने अंतर्राष्ट्रीय समुद्री परिवहन के इस मार्ग का राष्ट्रीयकरण कर दिया। विवाद बढ़ने पर अमरीका, इंग्लैण्ड और फ्रांस ने मिस्र पर हमला बोल दिया। नेहरू नासिर के साथ जा खड़े हुए। बाबासाहेब ने इसका विरोध किया। उनका कहना था कि भारत के विदेश व्यापार में इतना महत्व रखने वाली स्वेज नहर, किसी एक देश की नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण में होनी चाहिए। उनका कहना था कि कल यदि मिस्र और भारत में शत्रुता हो जाती है तब भारत के व्यापार हितों पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। कम्युनिज्म के अर्थशास्त्र को उन्होंने कभी गंभीरता से नहीं लिया परन्तु वामपंथियों की समाज विभाजनकारी और राष्ट्रघाती नीतियों के कारण बाबासाहेब उस ओर विशेष सतर्कता के हिमायती थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि वंचित वर्ग की समस्याओं को सुलझाने के नाम पर वामपंथी उन्हें अपनी हिंसक क्रांति का चारा बना सकते हैं। इस बारे में उनकी सावधानी का पता उनके इस वाक्य से चलता है कि ‘वंचित हिन्दू समाज और कम्युनिज्म के बीच में आंबेडकर बाधा हैं।’ संभवत: यह भी एक कारण था कि बौद्घ धम्म की शरण गहकर उन्होंने सामाजिक न्याय की लड़ाई को आध्यात्मिकता की शक्ति प्रदान की और उसके पदार्थवादी कम्युनिस्ट सोच की ओर जाने की संभावना ही समाप्त कर दी।
1948 से 1951 और 1951 से 1954 तक चले सत्रों में भारतीय संसद में हिंदू लॉ कमेटी की रपट पर चर्चा हुई। हिन्दू कोड बिल लागू हुआ जिसमें पुराने समय से चले आ रहे तथा पूर्ववर्ती ब्रिटिश शासन द्वारा मान्यता प्राप्त हिंदू परिवार कानून में मूलभूत परिवर्तन किए गए। लेकिन जब शरीयत आधारित और ब्रिटिश शासन द्वारा गढ़े गए मुस्लिम पर्सनल लॉ में भी ऐसे ही बदलावों का विषय उठा तो मुस्लिम प्रतिनिधियों ने आसमान सिर पर उठा लिया। एक देश में दो कानून, एक के लिए एक छड़ी और दूसरे के लिए दूसरी, इस व्यवस्था का डॉ़ श्यामाप्रसाद मुखर्जी, आचार्य कृपलानी और डॉ़ आंबेडकर जैसे राष्ट्रवादियों ने कड़ा विरोध किया। मुस्लिम तुष्टिकरण की इस नेहरूवादी नीति पर सवाल खड़ा करते हुए आंबेडकर ने कहा- ‘मैं व्यक्तिगत रूप से यह समझने में असमर्थ हूं कि मज़हब को इतनी विस्तृत अमलदारी क्यों दी जानी चाहिए कि वह सारे जीवन को ही ढक ले और विधायिका को धरातल पर क्रियान्वित होने से रोक दे। आखिरकार हमें (तत्कालीन संसद) यह (कानून बनाने की) छूट क्यों मिली है? हमें यह छूट मिली है अपने सामाजिक तंत्र की असमानताओं और भेद-भावों को दूर करने के लिए, जो हमारे मूलभूत अधिकारों की राह में रोड़ा बने हुए हैं।’ समानता का आह्वान करती ये आवाज अनसुनी रह गई। समानता और पंथ निरपेक्षता की संवैधानिक घोषणा के बाद सामाजिक असमानता और मूलभूत अधिकारों के हनन को कानूनी मान्यता देते हुए मुस्लिम पर्सनल लॉ को यथावत् रखा गया और समान नागरिक संहिता के संकल्प को खंडित कर दिया गया। आने वाले दशकों में लाखों शाहबानो और इमरानाओं ने इस पीड़ा को भुगता। आज भी भुगत रही हैं।
जीवनभर डॉ़ आंबेडकर विशुद्घ राष्ट्रवादी एवं अंत:करण से पूर्ण मानवतावादी रहे। देशहित के लिए उन्हें अप्रिय बात बोलने से भी कभी परहेज नहीं रहा। समान नागरिक संहिता की पैरवी के पीछे जहां एक ओर समाज के दोषों के निवारण की आकांक्षा थी, वहीं इस्लामी कट्टरपंथ की रोकथाम और अल्पसंख्यकवाद की विषबेल को प्रारंभ में ही खत्म कर देने की उनकी मंशा छिपी थी। उनकी इस सोच की झलक देती ‘बहिष्कृत भारत’ के लिए लिखी गई ये पंक्तियां हैं- ‘स्वतंत्र हिंदुस्थान पर यदि तुर्की, परशिया अथवा अफगानिस्तान इन तीन मुस्लिम राष्ट्रों में से कोई हमला करता है, तो उस स्थिति में सभी लोग एकजुट होकर इसका मुकाबला करेंगे, इसकी क्या कोई गारंटी दे सकता है? हम तो नहीं दे सकते। हिंदुस्थान के मुस्लिमों का इस्लामी राष्ट्रों के प्रति आकर्षण होना स्वाभाविक है। यह आकर्षण इतना बेशुमार बढ़ चुका है कि इस्लामी संस्कृति का प्रसार कर मुस्लिम राष्ट्रों का संघ बनाकर अधिकाधिक काफिर देशों को उसके शासन में लाने का उनका लक्ष्य बन चुका है। इन विचारों से प्रभावित होने के कारण उनके पैर हिंदुस्थान में और आंखें तुर्कस्थान या अफगानिस्तान की ओर होती हैं। हिंदुस्थान अपना देश है, इसका उन्हें गर्व नहीं हंै और उनके निकटवर्ती हिंदू बंधुओं के प्रति उनका बिल्कुल भी अपनापन नहीं है।’ इन पंक्तियों से पता चलता है कि उस समय देश में किस प्रकार का वातावरण बन रहा था।
विश्वभर में घट रही घटनाओं का डॉ़ आंबेडकर निकटता से अध्ययन कर रहे थे। यह वह काल था जब ब्रिटिश शासक अफगानिस्तान और तुर्की में मुस्लिम खलीफाओं और सुल्तानों के विरुद्ध लड़ रहे थे। प्रथम विश्वयुद्घ के पूर्वार्द्ध में तुर्की की इस्लामी खिलाफत ने 15 लाख आर्मेनियाई ईसाइयों को गैर-मुस्लिम होने के अपराध में मौत के घाट उतार दिया था। इस क्रूर और निरंकुश खिलाफत का जब तुर्की के ही प्रगतिशील युवकों ने तख्ता उलट दिया तो इस तख्तापलट के विरोध में भारत में खिलाफत आंदोलन शुरू हुआ। साम्राज्यवाद के विरोध के नाम पर अखिल इस्लामवाद और अल्पसंख्यकवाद बनाम बहुसंख्यकवाद की नींव डाली गई। और देश में सामाजिक सद्भाव की जमीन पर स्थायी दरारें पैदा कर दी गईं। उपनिवेशवाद से लड़ाई के नाम पर मजहबी कट्टरवाद की खेती के घातक परिणामों के बारे में डॉ़ आंबेडकर ने कहा- ‘सामाजिक क्रांति करने वाले तुर्कस्थान के कमाल पाशा के बारे में मुझे बहुत आदर व अपनापन लगता है, परंतु हिन्दी मुसलमानों मोहम्मद शौकत अली जैसे देशभक्त व राष्ट्रीय मुसलमानों को कमाल पाशा व अमानुल्ला पसंद नहीं हैं; क्योंकि वे समाज सुधारक हैं, और भारतीय मुसलमानों की मजहबी दृष्टि को समाज सुधार महापाप लगते हैं।’ मुस्लिम लीग व अंग्रेजों द्वारा भारतीय मुस्लिमों को ‘अजेय वैश्विक इस्लामिक खिलाफत कायम’ करने के लिए फुसलाया जा रहा था। कांग्रेस भी दिन पर दिन इस जाल में फंसती जा रही थी। डॉ़ आंबेडकर ने चेताते हुए कहा था- ‘इस्लामी भाईचारा विश्वव्यापी भाईचारा नहीं है। वह मुसलमानों का, मुसलमानों को लेकर ही है। उनमें एक बंधुत्व है, लेकिन उसका उपयोग उनकी एकता तक ही सीमित है। जो उसके बाहर हैं उनके लिए उनमें घृणा व शत्रुत्व के अलावा अन्य कुछ नहीं है। इस्लाम एक सच्चे मुसलमान को कभी भारत को अपनी मातृभूमि तथा हिंदू को अपने सगे के रूप में मान्यता नहीं दे सकता। मौलाना मोहम्मद अली एक महान भारतीय व सच्चे मुसलमान थे। इसीलिए संभवत: उन्होंने स्वयं को भारत की अपेक्षा यरुशलम की भूमि में गाड़ा जाना पसंद किया।’ चेतावनी अनसुनी रह गईं। वषोंर् पहले से विभाजन की जो खाई दिखाई दे रही थी, तत्कालीन नेतृत्व चाहे अनचाहे उसी ओर खिंचता चला गया। बंटवारा अपरिहार्य हो गया। तो बाबासाहेब ने हिंदू समाज को एक बार फिर चेताया- ‘मैं पाकिस्तान में फंसे वंचित समाज से कहना चाहता हूं कि उन्हें जो मिले उस मार्ग व साधन से हिन्दुस्थान आ जाना चाहिए। दूसरी एक बात और कहना है कि पाकिस्तान व हैदराबाद की निजामी रियासत के मुसलमानों अथवा मुस्लिम लीग पर विश्वास रखने से वंचित समाज का नाश होगा। वंचित समाज में एक बुरी बात घर कर गई है कि वह यह मानने लगा है कि हिन्दू समाज अपना तिरस्कार करता है, इस कारण मुसलमान अपना मित्र है। पर यह आदत अत्यंत घातक है। जिन्हें जोर जबरदस्ती से पाकिस्तान अथवा हैदराबाद में इस्लाम की दीक्षा दी गई है, उन्हें मैं यह आश्वासन देता हूं कि कन्वर्जन करने के पूर्व उन्हें जो व्यवहार मिलता था। उसी प्रकार की बंधुत्च की भावना का व्यवहार अपने धर्म में वापस लौटने पर मिलेगा। हिन्दुओं ने उन्हें कितना भी कष्ट दिया तब भी अपना मन कलुषित नहीं करना चाहिए। हैदराबाद के वंचित वर्ग ने निजाम, जो प्रत्यक्ष में हिन्दुस्थान का शत्रु है, का पक्ष लेकर अपने समाज के मुंह पर कालिख नहीं पोतनी चाहिए।’ विभाजन के पश्चात् लाखों वंचित हिंदू परिवार पाकिस्तान में ही रह गए। तब से लेकर आज तक उनका नस्लीय संहार जारी है। वे मुस्लिम जमीनदारों के यहां बंधुआ मजदूरी कर रहे हैं। पाकिस्तान में लगभग रोज किसी न किसी हिन्दू लड़की का अपहरण, बलात्कार और जबरन निकाह की घटनाएं घट रही हैं।
अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में डॉ़ आंबेडकर व्यग्र थे। देह छोड़ने के पहले वे वंचित हिंदू समाज को एक दिशा देना चाहते थे। आखिरकार उन्होंने नई उपासना पद्घति अपनाने का निश्चय किया। उनके पीछे आने वाले लाखों अनुयायियों का अनुमान कर ईसाई और मुस्लिम मिशनरियों की कन्वर्जन की भूख भड़क उठी। ईसाई मिशनरी सदियों से भारतीय समाज की देहरी पर सिर पटककर भी कुछ खास हासिल न कर सके थे। दूसरी तरफ इस्लाम के ठेकेदारों को भी इस संभावित पुरस्कार से बड़ी आशाएं लग गई थीं। बाबासाहेब के जीवनी लेखकों धनंजय कीर और खैरमोड़े ने विस्तार से बताया है कि कैसे उस समय हैदराबाद के निज़ाम, आगा खां से लेकर ईसाई मिशनरी तक सभी बाबासाहेब की राह में पलक पांवड़े बिछाने को तैयार थे लेकिन इस बारे में बाबासाहेब की सोच बिल्कुल साफ थी। उन्होंने कहा- ‘अस्पृश्यों के कन्वर्जन के कारण सर्वसाधारण से देश पर क्या परिणाम होगा, यह ध्यान में रखना चाहिए। यदि ये लोग मुसलमान अथवा ईसाई पंथ में जाते हैं तो अस्पृश्य लोग अराष्ट्रीय हो जाएंगे। यदि वे मुसलमान होते हैं तो मुसलमानों की संख्या दुगुनी हो जाएगी व तब मुसलमानों का वर्चस्व बढ़ जाएगा। यदि ये लोग ईसाई होते हैं तो ईसाइयों की संख्या 5-6 करोड़ हो जाएगी और उससे इस देश पर ब्रिटिश सत्ता की पकड़ मजबूत होने में सहायता होगी।’
ईसाई मिशनरियों द्वारा किए जा रहे सामाजिक न्याय के आसमानी दावों की कलई खोलते हुए उन्होंने कहा ईसाइयत ग्रहण करने से उनके आंदोलन का उद्देश्य साध्य नहीं होगा। अस्पृश्य समाज को भेद-भाव की मनोवृत्ति नष्ट करनी है। ईसाई हो जाने से यह पद्घति एवं मनोवृत्ति नष्ट नहीं होती। हिंदू समाज की तरह ईसाई समाज भी जाति ग्रस्त है।
बौद्घ धम्म को स्वीकार करने के पीछे का कारण बताते हुए वे कहते हैं-‘एक बार मैं अस्पृश्यों के बारे में गांधीजी से चर्चा कर रहा था। तब मैंने कहा था कि ‘अस्पृश्यता के सवाल पर मेरे आप से भेद हैं, फिर भी जब अवसर आएगा, तब मैं उस मार्ग को स्वीकार करूंगा जिससे इस देश को कम से कम धक्का लगे। इसलिए बौद्घ धर्म स्वीकार कर इस देश का अधिकतम हित साध रहा हूं, क्योंकि बौद्घ धर्म भारतीय संस्कृति का ही एक भाग है, मैंने इस बात की सावधानी रखी है कि इस देश की संस्कृति व इतिहास की परंपरा को धक्का न लगे।’
बुद्घ के चरणों में बैठने के पश्चात् उन्होंने जो भाषण दिया उसमें हिंदू संस्कृति के प्रति उनकी संकल्पना के दर्शन होते हैं। उन्होंने कहा- ‘अंतत: सारी जिम्मेदारी आपकी ही है। मैंने धर्मान्तरण करने का निश्चय किया है। मैं आपके धर्म से बाहर हो गया हूं। फिर भी आपकी सारी हलचलों का सक्रिय सहानुभूति से निरीक्षण करता रहूंगा व आवश्यकता पड़ने पर सहायता भी करता रहूंगा। हिन्दू संगठन राष्ट्रीय कार्य है, वह स्वराज्य से भी अधिक महत्व का है। स्वराज्य का संरक्षण नहीं किया तो क्या उपयोग? स्वराज्य के रक्षण से भी स्वराज्य के हिन्दुओं का संरक्षण करना अधिक महत्व का है। हिन्दुओं में सामर्थ्य नहीं होगा तो स्वराज्य का रूपांतर दासता में हो जाएगा। तब मेरी राम राम! आपको यश प्राप्त हो, इस निमित्त मेरी शुभेच्छा।’
डॉ. आंबेडकर की लेखनी सदा देश की समस्याओं के समाधान ढूंढती रही। जो अखबार उन्होंने निकाले वे सब समाज केंद्रित थे। जो पुस्तकें उन्होंने लिखीं वह प्राय: राष्ट्रीय प्रश्नों पर उनके मंथन का निचोड़ हैं। देश विभाजन पर लिखी उनकी किताब उस समय के राष्ट्रीय परिदृश्य का चित्रण करती है साथ ही अतीत में गोता लगाकर इतिहास की सीख को भी सामने रखती है। वहीं दूसरी ओर उनकी रचना ‘शूद्र कौन थे’ हिन्दू समाज को उसकी जड़ांें की गहराई तक ले जाकर वहां से बह रही समरसता की धारा से परिचित करवाती है। इस पुस्तक में बाबासाहेब ने ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा फैलाये गए इस झूठ कि ‘आर्य भारत में बाहर से आए हुए हमलावर थे’ का मुंहतोड़ उत्तर दिया है और शास्त्र प्रमाण से ये सिद्घ किया है कि आर्य भारत के ही मूल निवासी थे। आर्य गुणसूचक शब्द है जाति सूचक कदापि नहीं है। और वेदों में जिन्हें शूद्र कहा गया है वे तत्कालीन समाज का अत्यंत महत्वपूर्ण, सम्माननीय और समृद्घ घटक थे।
इन सारी बातों पर निगाह डालते हैं तो ध्यान में आता है कि बाबासाहेब आंबेडकर का सारा जीवन राष्ट्रवाद की अनथक गाथा है। सारा जीवन वे राष्ट्र के लिए लड़ते रहे। उन्होंने राष्ट्र की ये लड़ाई सामाजिक स्तर पर, राजनीतिक स्तर पर, वैचारिक स्तर पर और सांस्कृतिक स्तर पर लड़ी। इस मंथन में से जो विष निकला उसे वे चुपचाप पी गए, और जो अमृत निकला उसे समाज में बांट दिया। किसी अवसर पर उन्होंने कहा था कि ‘मेरी आलोचना में यह कहा जाता है कि मैं हिन्दू धर्म का शत्रु हूं, विध्वंसक हूं। लेकिन एक दिन ऐसा आयेगा, जब लोग यह अनुभव करेंगे कि मैं हिन्दू समाज का उपकारकर्ता हूं और तब वे मुझे धन्यवाद देंगे।’ वह दिन आ गया है।
‘सिफारिश नहीं करूंगा’
बाबासाहेब उन दिनों भारत के कानून मंत्री थे। उनका बेटा यशवंत, जिन्हें भैयासाहब के नाम से स्मरण किया जाता है, मुंबई से दो उद्योगपतियों को लेकर दिल्ली उनसे मिलने पहुंचा। उद्योगपतियों के निजी कार्य के लिए यशवंत अपने पिता की सिफारिश चाहता था। उसकी बात सुनकर बाबासाहेब फट पड़े। सबके सामने ही निर्ममता के साथ फटकारते हुए उन्होंने कहा -‘मूर्ख!तूने सोचा भी कैसे कि मैं तेरे कहने से किसी के लिए सिफारिश करूंगा? मैं यहां तेरा बाप नहीं, भारत का विधिमंत्री हूं। बाप हूं बम्बई के राजगृह (बाबासाहेब के निवास का नाम) में। बिना देर किये निकल जा मेरे कमरे से।’ यशवंत को काटो तो खून नहीं। वह अपना सा मुंह लेकर उद्योगपतियों के साथ वापस लौट गया। इस घटना के बाद बाप-बेटे के रिश्ते सदा के लिए ठंडे पड़ गए। यहां यह स्मरण रहे कि यशवंत बाबासाहेब की पांच संतानों में से एकमात्र जीवित बचा पुत्र था। डॉ. आंबेडकर के तीन पुत्र और एक पुत्री छुटपन में ही काल-कवलित हो गए थे। स्वाभाविक ही बाबासाहेब में उसके प्रति पर्याप्त मोह रहा होगा। पर उनकी कर्तव्य-परायणता अधिक कठोर थी।
‘गुरुता का वंदन’
यह सब लोग जानते हैं कि भीमराव को बाल्यकाल में आंबेडकर उपनाम उनके एक ब्राह्मण अध्यापक ने दिया था ताकि बालक को सामाजिक भेदभाव अधिक न झेलना पड़े। इसीलिए काफी लोग उन्हें बहुत समय तक ब्राह्मण ही समझते रहे। बाबासाहेब ने जब बड़े होकर अत्यधिक सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल कर ली, उसके बाद की घटना है। बाबासाहेब मुंबई में दामोदर हॉल के निकट स्थित अपने कार्यालय में काफी अनुयाइयों के साथ बैठे थे। तभी उन आंबेडकर गुरूजी का वहां आगमन हो गया। वे वयोवृद्घ हो चुके थे। पर बाबासाहेब उनको देखते ही पहचान गए। भाव-विह्वल होकर उन्होंने भूमि पर लेटकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। यही नहीं, वस्त्र आदि देकर उनका सम्मान भी किया। आंबेडकर गुरूजी अपने इस दिग्विजयी शिष्य की शिष्टता देखकर भाव-विभोर हो गए।

मतिदास की धर्मनिष्ठा

औरंगजेब ने पूछाः “मतिदास कौन है?”….तो भाई मतिदास ने आगे बढ़कर कहाः “मैं हूँ मतिदास। यदि गुरुजी आज्ञा दें तो मैं यहाँ बैठे-बैठे दिल्ली और लाहौर का सभी हाल बता सकता हूँ। तेरे किले की ईंट-से-ईंट बजा सकता हूँ।”

औरंगजेब गुर्राया और उसने भाई मतिदास को धर्म-परिवर्तन करने के लिए विवश करने के उद्देश्य से अनेक प्रकार की यातनाएँ देने की धमकी दी। खौलते हुए गरम तेल के कड़ाहे दिखाकर उनके मन में भय उत्पन्न करने का प्रयत्न किया, परंतु धर्मवीर पुरुष अपने प्राणों की चिन्ता नहीं किया करते। धर्म के लिए वे अपना जीवन उत्सर्ग कर देना श्रेष्ठ समझते हैं।

जब औरंगजेब की सभी धमकियाँ बेकार गयीं, सभी प्रयत्न असफल रहे, तो वह चिढ़ गया। उसने काजी को बुलाकर पूछाः

“बताओ इसे क्या सजा दी जाये?”

काजी ने हवाला देकर हुक्म सुनाया कि ‘इस काफिर को इस्लाम ग्रहण न करने के आरोप में आरे से लकड़ी की तरह चीर दिया जाये।’

औरंगजेब ने सिपाहियों को काजी के आदेश का पालन करने का हुक्म जा-री कर दिया।

दिल्ली के चाँदनी चौक में भाई मतिदास को दो खंभों के बीच रस्सों से कसकर बाँध दिया गया और सिपाहियों ने ऊपर से आरे के द्वारा उन्हें चीरना प्रारंभ किया। किंतु उन्होंने ‘सी’ तक नहीं की। औरंगजेब ने पाँच मिनट बाद फिर कहाः “अभी भी समय है। यदि तुम इस्लाम कबूल कर लो, तो तुम्हें छोड़ दिया जायेगा और धन-दौलत से मालामाल कर दिया जायेगा।” वीर मतिदास ने निर्भय होकर कहाः

“मैं जीते जी अपना धर्म नहीं छोड़ूँगा।”

ऐसे थे धर्मवीर मतिदास ! जिन्हे अपना बलिदान देकर धर्म की रक्षा की !!
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और इसे ज्यादा शर्म की बात क्या होगी ! मुगलो के शासन खत्म होने के बाद आज ही दिल्ली मे गुरुओ के हत्यारे औरंगजेब की नाम की सड़क है !!aurngjeb road google पर सर्च करे !

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श्री रामानंदाचार्य

 

हमारे जितनी भी आचार्य हुए हैं वे सब दक्षिण भारत के थे ,केवल श्री रामानंदाचार्य जी को छोड़कर | आपका जन्म विक्रम सम्वत् १३५६ में माघ मॉस की कृष्ण पक्ष की सप्तमी को प्रयाग में कान्यकुब्ज वंश में हुआ था | माता का नाम सुशीला और पिता का नाम पुण्यसदन था | ३ वर्ष तक इनके बाल्यावस्था के साथी थे -१-कर्णिका ,२-कपि ,३-कीर ,४-काक ,

अन्नप्रासन संस्कार किसी कारणवश टाल दिया गया था जो चौथे वर्ष संपन्न हुआ | उस समय इन्होने विविध व्यंजनों में केवल खीर को ही चुना ,और यही इनका जीवन भर एकमात्र आहार थी |–प्रसंगपारिजात-५/३६, अपने पिता की पूजा में रखे दक्षिणावर्ती शंख को इन्होने बजा दिया तो स्वप्न में वेणीमाधाव भगवान् की आज्ञा से उन्होंने इन्हें वह शंख दे दिया ,जो जीवन भर इनके साथ रहा |–प्र.पा..—५/३९, इनकी श्रवण एवं धारणाशक्ति इतनी प्रबल थी कि छठें वर्ष की अवस्था से अपने पिता द्वारा ग्रंथों का पारायण सुनकर मात्र २ ही वर्ष में वाल्मीकि रामायण , भागवत और मनुस्मृति इन्हें कंठस्थ हो गयी |उस समय ये ८ वर्ष के हो गए थे |–प्र.पारि.६/४४, आठवें वर्ष माघ शुक्ल पक्ष द्वादशी को इनका उपनयन संस्कार हुआ | पलाश दण्ड लेकर ये काशी पढने चल दिए और वहां निवास करने वाले अपने मामा उद्भट नैयायिक ओंकारेश्वर त्रिवेदी से न्याय तथा पिता से व्याकरण की शिक्षा ग्रहण करने लगे | प्र.पारि.-६/४६,

विद्या से प्रसिद्धि—

ये कुमारावस्था में ही सकल शास्त्रों के सम्यक ज्ञाता हो गए |इनकी ख्याति सुनकर इनके बुद्धिवैभव की परीक्षा के लिए काली खोह की एक विदुषी वृद्धा ने आकर इनसे ३ प्रश्न संस्कृत में किया | १- वह कौन नारी है जो पुरुष को छिप छिप कर भोग प्रस्तुत करती रहती है ,पर जब पुरुष उसे एक बार भी देख लेता है तो वह सदा के लिए लुप्त हो जाती है |कुमार ने उत्तर दिया –अजा (माया)| वृद्ध –कुमार उससे विवाह करोगे ?|कुमार –नही मातः ! क्योंकि उसमे आनंद का आभाव है | वह रमणी स्वयं अंधी है और जो उससे विवाह की इच्छा रखता है वह लंगड़ा हो जाता है | वृद्धा –क्या तुम आजन्म ब्रह्मचारी रहना चाहते हो ? कुमार –मातः यही आशीष दीजिये | इसका आशय कुछ ही लोग समझ पाए |

इन्होने पञ्चगंगा श्रीमठ के आचार्य स्वामी राघवानंदाचार्य जी से विरक्त दीक्षा ली और षडक्षर राममन्त्र की कठिन साधना आरम्भ की | वैश्वानर संहिता के अनुसार ये भगवान् राम के अवतार माने जाते हैं –“ रामानन्दः स्वयं रामः प्रादुभूतो महीतले ”|

इनके शिष्यों की संख्या बहुत अधिक थी पर उनमे १२ प्रधान थे | सर्वप्रथम इनकी शिष्यता प्राप्त करने वाले अनंतान्न्दाचार्य जी थे |जो राजस्थान के पुष्कर तीर्थ के पुष्करणा विप्र वंश में जन्म लिए थे | इन्हें ब्रह्माजी का अवतार माना जाता हैं |–प्रसंग पारिजात –२३/१७७,

जहाँ स्वामी जी गागरौन गढ़ के महाराज पीपा जी को शिष्य बनाते हैं वहीँ सेन भगत(नाई) ,धन्ना जाट और रैदास जैसे उपेक्षित लोगों को भी स्वामी जी ने भगवान् की शरणागति करायी | इतना ही नही ,इनकी शिष्यमण्डली में पद्मावती देवी और सुरसुरी देवी को भी अन्य लोगों की भाँति दीक्षित करके यह दिखा दिया कि भगवत्शरणागति में सबका अधिकार है |

इनका उद्घोष था –

“ सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः शक्ता अशक्ता पदयोर्जगत्प्रभोः |

नापेक्ष्यते तत्र कुलं बलं च न न चापि कालो नहि शुद्धतापि वै ” ||–वैष्णवमताब्ज्भास्कर -४/५०, अर्थात् शरणागति में सामर्थ्य, कुल, बल, काल और शुद्धि की आवश्यकता नही है |

आप एक समाजसुधारक ,समतावादी आचार्य थे | सर राधाकृष्णन ने लिखा है कि १४वीं शताब्दी में एक ऐसे आचार्य आये जिन्होंने भगवद्भक्ति के दरवाजे मानवमात्र के लिए खोल दिए | इन्ही की परंपरा में कबीर जी एवं गोस्वामी तुलसीदास जी हुए है | जिन्होंने अपने उपदेशॉ से विश्व को शांति का उपदेश दिया है |

कृतियां-—

स्वामी जी ने ब्रह्मसूत्र ,भगवद्गीता और दशों उपनिषदों पर आनंद भाष्य की रचना की | वैष्णवमताब्जभास्कर इनकी एक ऐसी कृति है जिसके अध्ययन से श्री रामानंद सम्प्रदाय ( श्री सम्प्रदाय ) के तथ्यों का सरल रीति से ज्ञान प्राप्त हो सकता है | हिन्दी कृतियों में “ अध्यात्मराम रक्षा ” अत्यधिक प्रसिद्ध है | यदि ग्रहण के समय सामने नारियल रखकर इसका मनोयोग से १०८ पाठ किया जाय तो वह नारियल फट जाता है –यही इसकी सिद्धि का लक्षण है | एक साधक के कथनानुसार तिब्बत के लामा इसका प्रयोग अधिक करते हैं | इसमें योग सम्बन्धी रहस्य भरे पड़े है |

चमत्कार और साधना सम्बन्धी ज्ञान –

इसके लिए साधकों को प्रसंगपारिजात का अध्ययन अत्यावश्यक है |पिशाची भाषा में यह ग्रन्थ स्वामी जी के परधाम गमन के १ वर्ष बाद चेतनदास जी द्वारा लिखा गया था | सारनाथ लाईब्रेरी एवं अन्य जगहों की पांडुलिपियों की सहायता से इसका शुद्ध प्रकाशन “ श्रीस्वामी रामानन्दसंत आश्रम ,मायाकुण्ड ऋषिकेश से हो चुका है | मुझे स्वामी जी के विषय में सबसे अधिक प्रामाणिक जानकारी कराने वाला यही ग्रन्थ लगा |

स्वामी जी का अंतिम उपदेश—

जब स्वामी जी ने इस धराधाम को त्यागने का निश्चय किया तो उस एक वृहद् अनुष्ठान का आयोजन किया गया | चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा शनिवार से श्रीमठ में तारक महामंत्र की कुण्डों में आहुतियाँ पड़ने लगीं | अष्टमी रविवार के दिन अनुष्ठान की समाप्ति पर शिष्यों, संतों और विप्रों को संबोधित करते हुए स्वामी जी ने कहा –

“ सब शास्त्रों का सार भगवत्स्मरण है जो संतों का जीवन आधार है | ब्राह्मण , क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये समाजरुपी देह के क्रमशः मस्तक, भुजा, पेट और पैर रुपी अंग हैं | भाई पैरों को काटकर समाज को पंगु मत बनाना ” |–यह उपदेश कितना उपयोगी है — इसे आज का विचारक अवश्य समझ सकता है | स्वामी जी के परधाम गमन का काल संवत १५५५ है |

प्रसंग पारिजात—

यह स्वामी जी के साधनामय जीवन पर प्रकाश डालने वाला अत्यद्भुत ग्रन्थ है |इसकी रचना पिशाची भाषा ,अदना छंदों में इसलिए की गयी कि इसमें जो घटनाएं भविष्य में घटने वाली हैं,उनका प्रकाशन उनके घटने के पूर्व न किया जाय | यदि कोई करने का प्रयास करेगा तो वह पागल हो जाएगा या मर जाएगा |इसमें गीताचार्य का चैतन्य महाप्रभु और भक्त कबीर की ज्योति मोहनदास के रूप में उतरने की भविष्य वाणी की गयी है |

गांधी जी के जीवित रहते हुए अयोध्या के एक महान पंडित श्रीरूपनारायण मिश्र इस ग्रन्थ पर लिखना आरम्भ किये तो एक्सीडेंट में उनका शिर फूट गया और कई दिन अस्पताल का सेवन किये | ठीक होने पर पुत्र की वाही स्थिति हुई,तब उन्होंने जिन संत से पुस्तक मिली थी,उनसे सब बातें बतलायीं |संत ने कहा अभी इस ग्रन्थ पर लिखना बंद कर दो ,–श्रीरूपनारायण मिश्र जी अत्यंत वृद्ध थे ,मैं उनके पास पढने गया था तब उन्होंने ये चर्चाएँ मुझसे की थीं | उन्ही की प्रेरणा से मई अध्ययन हेतु काशी पुनः गया |

अनुभव—–

प्रसंगपारिजात में १०८ अष्ट पदियाँ है \जिनमे आदि और अंत की अष्टपदी को छोड़कर शेष १०६ अष्टपदियों के भिन्न भिन्न विषय के अनुष्ठान हैं | इसमें १३वीं अष्टपदी ध्यान ,धारणा या समाधि लगाने के पहले और अंत में पाठ करने से अनहद नाद का श्रवण होता है |२०वीं अष्टपदी का मन ही मन पाठ करते हुए प्राणायाम करे तो ब्रह्मलोक का दर्शन हो तथा जीव और शिव का भेद मालूम हो जाय | ७वीं के ३ बार पाठ से तत्त्व ज्ञान का अधिकरी हो | ६२वीं का ११ पाठ रोज करने से दिव्य दर्शन होता है | ९३ वाली अस्त्पादी का पाठ करके सोये तो द्वादश महा भागवतों में किसी का दर्शन अवश्य होता | इसको विना सिद्ध किये ही मैं पाठ करके सोया था तो सोकर उठते ही वीणापाणि नारद जी दिखे और शीघ्र ही अन्तर्हित हो गए

सनातन धर्म के पुनर्स्थापक आदि शंकराचार्य

 

आदि शंकराचार्य (अंग्रेज़ी: Adi Shakaracharya, जन्म नाम: शंकर, जन्म: 788 ई. – मृत्यु: 820 ई.) अद्वैत वेदान्त के प्रणेता, संस्कृत के विद्वान, उपनिषद व्याख्याता और हिन्दू धर्म प्रचारक थे। हिन्दू धार्मिक मान्यता के अनुसार इनको भगवान शंकर का अवतार माना जाता है। इन्होंने लगभग पूरे भारत की यात्रा की और इनके जीवन का अधिकांश भाग उत्तर भारत में बीता। चार पीठों (मठ) की स्थापना करना इनका मुख्य रूप से उल्लेखनीय कार्य रहा, जो आज भी मौजूद है। शंकराचार्य को भारत के ही नहीं अपितु सारे संसार के उच्चतम दार्शनिकों में महत्व का स्थान प्राप्त है। उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं, किन्तु उनका दर्शन विशेष रूप से उनके तीन भाष्यों में, जो उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता पर हैं, मिलता है। गीता और ब्रह्मसूत्र पर अन्य आचार्यों के भी भाष्य हैं, परन्तु उपनिषदों पर समन्वयात्मक भाष्य जैसा शंकराचार्य का है, वैसा अन्य किसी का नहीं है।

शंकराचार्य का जन्म दक्षिण भारत के केरल में अवस्थित निम्बूदरीपाद ब्राह्मणों के ‘कालडी ग्राम’ में 788 ई. में हुआ था। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय उत्तर भारत में व्यतीत किया। उनके द्वारा स्थापित ‘अद्वैत वेदांत सम्प्रदाय’ 9वीं शताब्दी में काफ़ी लोकप्रिय हुआ। उन्होंने प्राचीन भारतीय उपनिषदों के सिद्धान्तों को पुनर्जीवन प्रदान करने का प्रयत्न किया। उन्होंने ईश्वर को पूर्ण वास्तविकता के रूप में स्वीकार किया और साथ ही इस संसार को भ्रम या माया बताया। उनके अनुसार अज्ञानी लोग ही ईश्वर को वास्तविक न मानकर संसार को वास्तविक मानते हैं। ज्ञानी लोगों का मुख्य उद्देश्य अपने आप को भम्र व माया से मुक्त करना एवं ईश्वर व ब्रह्म से तादाम्य स्थापित करना होना चाहिए। शंकराचार्य ने वर्ण पर आधारित ब्राह्मण प्रधान सामाजिक व्यवस्था का समर्थन किया। शंकराचार्य ने संन्यासी समुदाय में सुधार के लिए उपमहाद्वीप में चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की। ‘अवतारवाद’ के अनुसार, ईश्वर तब अवतार लेता है, जब धर्म की हानि होती है। धर्म और समाज को व्यवस्थित करने के लिए ही आशुतोष शिव का आगमन आदि शकराचार्य के रूप में हुआ।

हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार आदि शंकराचार्य ने अपनी अनन्य निष्ठा के फलस्वरूप अपने सदगुरु से शास्त्रों का ज्ञान ही नहीं प्राप्त किया, बल्कि ब्रह्मत्व का भी अनुभव किया। जीवन के व्यावहारिक और आध्यात्मिक पक्ष की सत्यता को इन्होंने जहाँ काशी में घटी दो विभिन्न घटनाओं के द्वारा जाना, वहीं मंडनमिश्र से हुए शास्त्रार्थ के बाद परकाया प्रवेश द्वारा उस यथार्थ का भी अनुभव किया, जिसे सन्यास की मर्यादा में भोगा नहीं जा सकता। यही कारण है कि कुछ बातों के बारे में पूर्वाग्रह दिखाते हुए भी लोक संग्रह के लिए, आचार्य शंकर आध्यात्म की चरम स्थिति में किसी तरह के बंधन को स्वीकार नहीं करते। अपनी माता के जीवन के अंतिम क्षणों में पहुँचकर पुत्र होने के कर्तव्य का पालन करना इस संदर्भ में अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना है।

शंकराचार्य ने उपनिषदों, श्रीमद्भगवद गीता एवं ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे हैं। उपनिषद, ब्रह्मसूत्र एवं गीता पर लिखे गये शंकराचार्य के भाष्य को ‘प्रस्थानत्रयी’ के अन्तर्गत रखते हैं। शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म के स्थायित्व, प्रचार-प्रसार एवं प्रगति में अपूर्व योगदान दिया। उनके व्यक्तितत्व में गुरु, दार्शनिक, समाज एवं धर्म सुधारक, विभिन्न मतों तथा सम्प्रदायों के समन्वयकर्ता का रूप दिखाई पड़ता है। शंकराचार्य अपने समय के उत्कृष्ट विद्वान एवं दार्शनिक थे। इतिहास में उनका स्थान इनके ‘अद्वैत सिद्धान्त’ के कारण अमर है। गौड़पाद के शिष्य ‘गोविन्द योगी’ को शंकराचार्य ने अपना प्रथम गुरु बनाया। गोविन्द योगी से उन्हें ‘परमहंस’ की उपाधि प्राप्त हुई। कुछ विद्वान शंकराचार्य पर बौद्ध शून्यवाद का प्रभाव देखते हैं तथा उन्हें ‘प्रच्छन्न बौद्ध’ की संज्ञा देते हैं।

आदि शंकराचार्य को हिन्दू धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है। एक तरफ़ उन्होंने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करके सनातन हिन्दू धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया, तो दूसरी तरफ़ उन्होंने जनसामान्य में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य सिद्ध करने का भी प्रयास किया। सनातन हिन्दू धर्म को दृढ़ आधार प्रदान करने के लिये उन्होंने विरोधी पन्थ के मत को भी आंशिक तौर पर अंगीकार किया। शंकर के मायावाद पर महायान बौद्ध चिन्तन का प्रभाव माना जाता है। इसी आधार पर उन्हें ‘प्रछन्न बुद्ध’ कहा गया है।

विद्याशंकर मंदिर, श्रृंगेरी पीठ, कर्नाटक
आचार्य शंकर जीवन में धर्म, अर्थ और काम को निरर्थक मानते हैं। वे ज्ञान को अद्वैत ज्ञान की परम साधना मानते हैं, क्योंकि ज्ञान समस्त कर्मों को जलाकर भस्म कर देता है। सृष्टि का विवेचन करते समय कि इसकी उत्पत्ति कैसे होती है?, वे इसका मूल कारण ब्रह्म को मानते हैं। वह ब्रह्म अपनी ‘माया’ शक्ति के सहयोग से इस सृष्टि का निर्माण करता है, ऐसी उनकी धारणा है। लेकिन यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि शक्ति और शक्तिमान एक ही हैं। दोनों में कोई अंतर नहीं है। इस प्रकार सृष्टि के विवेचन से एक बात और भी स्पष्ट होती है कि परमात्मा को सर्वव्यापक कहना भी भूल है, क्योंकि वह सर्वरूप है। वह अनेकरूप हो गया, ‘यह अनेकता है ही नहीं’, ‘मैं एक हूँ बहुत हो जाऊँ’ अद्धैत मत का यह कथन संकेत करता है कि शैतान या बुरी आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। ऐसा कहीं दिखाई भी देता है, तो वह वस्तुतः नहीं है भ्रम है बस। जीवों और ब्रह्मैव नापरः- जीव ही ब्रह्म है अन्य नहीं।

ऐसे में बंधन और मुक्ति जैसे शब्द भी खेलमात्र हैं। विचारों से ही व्यक्ति बंधता है। उसी के द्वारा मुक्त होता है। भवरोग से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है विचार। उसी के लिए निष्काम कर्म और निष्काम उपासना को आचार्य शंकर ने साधना बताया। निष्काम होने का अर्थ है संसार की वस्तुओं की कामना न करना, क्योंकि शारीरिक माँग तो प्रारब्धता से पूरी होगी और मनोवैज्ञानिक चाह की कोई सीमा नहीं है। इस सत्य को जानकर अपने कर्तव्यों का पालन करना तथा ईश्वरीय सत्ता के प्रति समर्पण का भाव, आलस्य प्रसाद से उठाकर चित्त को निश्चल बना देगें, जिसमें ज्ञान टिकेगा।

आचार्य ने बुद्धि, भाव और कर्म इन तीनों के संतुलन पर ज़ोर दिया है। इस तरह वैदान्तिक साधना ही समग्र साधना है। कभी-कभी लगता है कि आचार्य शंकर परम्परावादी हैं। लेकिन वास्तविकता ऐसी नहीं है। उनकी छोटी-छोटी, लेकिन महत्त्वपूर्ण रचनाओं से इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है। परम्परा का निर्वाह करते हुए भी उनका लक्ष्य ‘सत्य’ प्रतिपादन करना है। प्रश्नोत्तरी में कहे इस श्लोकांश से संकेत मिलता है, पशुओं में भी पशु वह है जो धर्म को जानने के बाद भी उसका आचरण नहीं करता और जिसने शास्त्रों का अध्ययन किया है, फिर भी उसे आत्मबोध नहीं हुआ है। इसी प्रकार ‘भज गोविन्दम’ में बाहरी रूप-स्वरूप को नकारते हुए वे कहते हैं कि “जो संसार को देखते हुए भी नहीं देखता है, उसने अपना पेट भरने के लिए तरह-तरह के वस्त्र धारण किए हुए हैं।”

जीवन के परम सत्य को व्यावहारिक सत्य के साथ जोड़ने के कारण ही अपरोक्षानुभूति के बाद आचार्य शंकर मौन बैठकर उसका आनन्द नहीं लेते, बल्कि समूचे भारतवर्ष में घूम-घूम कर उसके रूप-स्वरूप को निखारने में तत्पर होते हैं। मानो त्याग-वैराग्य और निवृत्ति के मूर्तरूप हों, लेकिन प्रवृत्ति की पराकाष्ठा है, उनमें श्रीराम, श्री कृष्ण की तरह।

चार मठों की स्थापना, दशनाम सन्यास को सुव्यवस्थित रूप देना, सगुण-निर्गण का भेद मिटाने का प्रयास, हरिहर निष्ठा की स्थापना ये कार्य ही उन्हें ‘जगदगुरु’ पद पर प्रतिष्ठित करते हैं। स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ जैसे युवा सन्यासियों ने विदेशों में जाकर जिस वेदांत का घोष किया, वह शंकर वेदांत ही तो था। जगदगुरु कहलाना, केवल उस परम्परा का निर्वाह करना और स्वयं को उस रूप में प्रतिष्ठित करना बिल्कुल अलग-अलग बातें हैं। आज भारत को एक ऐसे ही महान व्यक्तित्व की आवश्यकता है, जिसमें योगी, कवि, भक्त, कर्मनिष्ठ और शास्त्रीय ज्ञान के साथ ही जनकल्याण की भावना हो, जो सत्य के लिए सर्वस्व का त्याग करने को उद्यत हो।

शंकराचार्य का कथन है कि अद्वैत दर्शन की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है और उपनिषदों की शिक्षा पर अवलम्बित है। अद्वैत दर्शन के तीन पहलू हैं-
तत्व मीमांसा
ज्ञान मीमांसा
आचार दर्शन
इनका अलग-अलग विकास शंकराचार्य के बाद के वैदान्तियों ने किया। तत्व मीमांसा की दृष्टि से अद्वैतवाद का अर्थ है कि सभी प्रकार के द्वैत या भेद का निषेध। अन्तिम तत्व ब्रह्म एक और अद्वय है। उसमें स्वगत, स्वजातीय तथा विजातीय किसी भी प्रकार का द्वैत नहीं है। ब्रह्म निरवयव, अविभाज्य और अनन्त है। उसे सच्चिदानंद या ‘सत्यं, ज्ञानं, अनन्तम् ब्रह्मा’ भी कहा गया है। असत् का निषेध करने से जो प्राप्त हो, वह सत्, अचित् का निषेध करने से जो प्राप्त हो, वह चित् और दु:ख का निषेध करने से जो प्राप्त हो, वह आनंद है। यह ब्रह्मा का स्वरूप लक्षण है, परन्तु यहाँ ध्यान रखने की बात यह है कि सत्, चित् और आनंद न तो ब्रह्म के तीन पहलू हैं, न ही ब्रह्म के तीन अंश और न ब्रह्म के तीन विशेषण हैं। जो सत् है वही चित है और वही आनंद भी है। दृष्टि भेद के कारण उसे सच्चिदानंद कहा गया है- असत् की दृष्टि से वह सत् अचित् की दृष्टि से चित् और दु:ख की दृष्टि से आनंद है।

शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठ

ज्योतिषपीठ, बद्रीनाथ उत्तराखण्ड (हिमालय में स्थित)
गोवर्धनपीठ, पुरी उड़ीसा
शारदापीठ, द्वारिका गुजरात
श्रृंगेरीपीठ, मैसूर कर्नाटक

यह निर्गुण, निराकार, अविकारी, चित् ब्रह्म ही जगत का कारण है। जगत के कारण के रूप में उसे ईश्वर कहा जाता है। मायोपहित ब्रह्म ही ईश्वर है। अत: ब्रह्म और ईश्वर दो तत्व नहीं हैं- दोनों एक ही हैं। जगत का कारण होना- यह ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है। तटस्थ लक्षण का अर्थ है, वह लक्षण जो ब्रह्म का अंग न होते हुए भी ब्रह्म की ओर संकेत करे। जगत ब्रह्म पर आश्रित है, परन्तु ब्रह्म जगत पर किसी भी प्रकार आश्रित नहीं है, वह स्वतंत्र है। जगत का कारण प्रकृति, अणु या स्वभाव में से कोई नहीं हो सकता। इसी से उपनिषदों ने स्पष्ट कहा है कि ब्रह्म वह है जो जगत की सृष्टि, स्थिति और लय का कारण है। जगत की सृष्टि आदि के लिए ब्रह्म को किसी अन्य तत्व की आवश्यकता नहीं होती। इसी से ब्रह्म को अभिन्न निमित्तोपादान कारण कहा है। जगत की रचना ब्रह्मश्रित माया से होती है, परन्तु माया कोई स्वतंत्र तत्व नहीं है। यह मिथ्या है, इसलिए ब्रह्म को ही कारण कहा गया है। सृष्टि वास्तविक नहीं है, अत: उसे मायाजनित कहा गया है। माया या अविद्या के कारण ही जहाँ कोई नाम-रूप नहीं है, जहाँ भेद नहीं है, वहाँ नाम-रूप और भेद का आभास होता है। इसी से सृष्टि को ब्रह्म का विवर्त भी कहा गया है। विवर्त का अर्थ है कारण या किसी वस्तु का अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए अन्य रूपों में अवभासित होना, अर्थात् परिवर्तन वास्तविक नहीं बल्कि आभास मात्र है।

ब्रह्म की सृष्टि का कारण कहने से यह मालूम पड़ सकता है कि ब्रह्म की सत्ता कार्य-करण अनुमान के आधार पर सिद्ध की गई है। परन्तु यह बात नहीं है। ब्रह्म जगत का कारण है, यह ज्ञान हमको श्रुति से होता है। अत: ब्रह्म के विषय में श्रुति ही प्रमाण है।[1] किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि तर्क के लिए कोई स्थान नहीं है। श्रुत्यनुकूल तर्क वेदांत को मान्य है। स्वतंत्र रूप से ब्रह्मज्ञान कराने का सामर्थ्य तर्क में नहीं है, क्योंकि ब्रह्म निर्गुण है। इसी से तर्क और श्रुति में विरोध भी नहीं हो सकता है। दोनों के क्षेत्र पृथक-पृथक हैं। श्रुति और प्रत्यक्ष का भी क्षेत्र अलग-अलग होने के कारण उनमें विरोध नहीं हो सकता। श्रुति पर-तत्व विषयक है और प्रत्यक्ष अपरतत्व-विषयक। इसी से विद्या भी परा और अपरा दो प्रकार की मानी गई है।

ऐसा कहा गया है कि जगत ब्रह्म का विवर्त है, अर्थात् अविद्या के कारण आभास मात्र है। अविद्या को ज्ञान का अभाव मात्र नहीं समझना चाहिए। वह भाव तो नहीं है, परन्तु भाव रूप है-भाव और अभाव दोनों से भिन्न अनिर्वचनीय है। भाव से भिन्न इसलिए है कि उसका बोध होता है, तथा अभाव से भिन्न इसलिए कि इसके कारण मिथ्या वस्तु दिखाई पड़ती है, जैसे रज्जु के स्थान पर सर्पाभास। इसलिए कहा गया है कि अविद्या की दो शक्तियां हैं- आवरण और विक्षेप। विक्षेप शक्ति मिथ्या सर्प का सृजन करती है और आवरण शक्ति सर्प के द्वारा रज्जु का आवरण करती है। इसी से रज्जु अज्ञान की अवस्था में सर्वपत् दिखाई पड़ती है। इसी प्रकार ब्रह्म भी अज्ञान के कारण जगतवत् दिखाई पड़ता है। अत: वेदान्त में तीन सत्ताएं स्वीकृत की गई हैं-

प्रातिभासिक (सर्प) – जो हमारे साधारण भ्रम की स्थिति में आभासित होता है और रस्सी के ज्ञान के बाधित होता है।

व्यावहारिक (जगत) – जो मिथ्या तो है परन्तु, जब तक ब्रह्म का ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक सत्य प्रतीत होता है, और ज्ञान हो जाने पर बाधित हो जाता है।

ब्रह्म – जिसे पारमार्थिक कहा जाता है। इसका कभी भी ज्ञान नहीं होता है। यह नित्य है। ब्रह्मज्ञान होने से जगत का बोध हो जाता है और मुक्ति प्राप्त हो जाती है।

जीव वास्तव में ब्रह्म ही है, दूसरा कुछ नहीं, शरीर धारण के कारण वह भिन्न प्रतीत होता है। शरीर तीन प्रकार का होता है- स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। अनादि प्रवाह के अधीन होकर कर्मफल को भोगने के लिए शरीर धारण करना पड़ता है। कर्म अविद्या के कारण होते हैं। अत: शरीर धारण अविद्या के ही कारण है। इसे ही बंधन कहते हैं। अविद्या के कारण कर्तृत्वाभिमान और भोक्तृत्वाभिमान पैदा होता है, जो आत्मा में स्वभावत: नहीं होता। जब कर्तृत्वाभिमान और भोक्तृत्वाभिमान से युक्त होता है, तब आत्मा जीव कहलाता है। मुक्त होने पर जीव ब्रह्म से एककारता प्राप्त करता है या उसका अनुभव करता है।

आत्मा और ब्रह्म की एकता अथवा अभिन्नत्व दिखाने के लिए उपनिषदों ने कहा है- ‘तत्वमसी’ (तुम वही हो)। इसी कारण से ज्ञान होने पर ‘सोऽहमस्मि’ (मैं वही हूँ) का अनुभव होता है। जाग्रत अवस्था में स्थूल शरीर, स्वप्न में सूक्ष्म शरीर और सुषुप्ति में कारण शरीर रहता है। सुषुप्ति में चेतना भी रहती है, परन्तु विषयों का ज्ञान न होने के कारण जान पड़ता है कि सुषुप्ति में चेतना नहीं रहती। यदि सुषुप्ति में चेतना न होती तो जागने पर कैसे हम कहते कि सुखपूर्वक सोया? वहाँ चेतना साक्षीरूप या शुद्ध चैतन्य रूप है। परन्तु सुषुप्ति में अज्ञान रहता है। इसी से शुद्ध चेतना के रहते हुए भी सुषुप्ति मुक्ति से भिन्न है- मुक्ति की अवस्था में अज्ञान का नाश हो जाता है। शुद्ध चैतन्य रूप होने के कारण ही कहा गया है कि आत्मा एक है और ब्रह्मस्वरूप है। चेतना का विभाजन नहीं हो सकता है। जीवात्मा अनेक हैं, परन्तु आत्मा एक है, यह दिखाने के लिए उपमाओं का प्रयोग होता है। जैसे आकाश एक है परन्तु सीमित होने के कारण घट या घटाकाश अनेक दिखाई पड़ता है, अथवा सूर्य एक है, किन्तु उसकी परछाई अनेक स्थलों में दिखाई पड़ने से वह अनेक दिखाई पड़ता है, इसी प्रकार यद्यपि आत्मा एक है फिर भी माया या अविद्या के कारण अनेक दिखाई पड़ता है।

जीव और ईश्वर में व्यावहारिक दृष्टि से भेद है। जीवन बद्ध है, ईश्वर नित्यमुक्त है। मुक्त होने पर भी जीव को नित्यमुक्त नहीं कहा जा सकता। नित्यमुक्त होने के कारण ही ईश्वर श्रुति का जनक या आदिगुरु कहा जाता है। ईश्वर को मायोपहित कहा गया है, क्योंकि माया विक्षेप प्रधान होने के कारण और ईश्वर के अधीन होने के कारण ईश्वर के ज्ञान का आवरण नहीं करती। परन्तु जीव को अज्ञानोपहित कहा गया है, क्योंकि अज्ञान द्वारा जीव का स्वरूप ढक जाता है। इसी से कभी-कभी माया और अविद्या में भेद किया जाता है। माया ईश्वर की उपाधि है- सत्व प्रधान है, विक्षेप प्रधान है और अविद्या जीव की उपाधि है, तमस्-प्रधान है और उसमें आवरण विक्षेप होता है।

अज्ञान के कारण जीव अपने स्वरूप को भूल कर अपने को कर्ता-भोक्ता समझता है। इसी से उसको शरीर धारण करना पड़ता है और बार-बार संसार में आना पड़ता है। यही बंधन है। इस बंधन से छुटकारा तभी मिलता है, जब अज्ञान का नाश होता है और जीव अपने को शुद्ध चैतन्य ब्रह्म के रूप में जान जाता है। शरीर रहते हुए भी ज्ञान के हो जाने पर जीव मुक्त हो सकता है, क्योंकि शरीर तभी तक बंधन है, जब तक जीव अपने को आत्मा रूप में न जानकर अपने को शरीर, इन्द्रिय, मन आदि के रूप में समझता है। इसी से वेदान्त में जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति नाम की दो प्रकार की मुक्ति मानी गयी हैं। ज्ञान हो जाने के बाद भी प्रारब्ध भोग के लिए शरीर कुम्हार के चक्र के समान पूर्वप्रेरित गति के कारण चलता रहता है। शरीर छूटने पर ज्ञानी विदेह मुक्ति प्राप्त करता है।

ज्ञान प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम ज्ञान का अधिकारी होना आवश्यक है। अधिकारी वही होता है, जिसमें निम्नलिखित चार गुण हों-
नित्यानित्य-वस्तु-विवेक
इहामुत्र-फलभोग-विराग
शमदमादि
मुमुक्षत्व
इन गुणों से युक्त होकर जब जिज्ञासु गुरु का उपदेश सुनता है, तब उसे ज्ञान हो जाता है। कभी-कभी श्रवण मात्र से भी ज्ञान हो जाता है, परन्तु वह असाधारण जीवों को ही होता है। साधारण जीव श्रवण के उपरान्त मनन करते हैं। मनन से ब्रह्म के विषय में या आत्मा के विषय में या ब्रह्मात्मैक्य के विषय में जो बौद्धिक शंकाएं होती हैं, उनको दूर किया जाता है और जब बुद्धि शंकामुक्त होकर स्थिर हो जाती है तभी ध्यान या निदिव्यसन सम्भव होता है। कर्म से अविद्या का नाश नहीं होता, क्योंकि कर्म स्वयं अविद्याजन्य है। कर्म और उपासना से बुद्धि शुद्ध होकर ज्ञान के योग्य होती है। इसी से इन दोनों की उपयोगिता तो मानी गई है, परन्तु मुक्ति ज्ञान या अविद्या नाश से ही होती है। मुक्ति के उपरान्त कर्म और उपासना की आवश्यकता नहीं रहती। फिर भी मुक्त पुरुष जन-कल्याण के लिए या ईश्वरादेश की पूर्ति के लिए कर्म कर सकता है। जैसे आचार्य शंकर ने किया।

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धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज

 

धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज एक प्रख्यात भारतीय संत एवं सन्यासी राजनेता थे। धर्मसंघ व अखिल भारतीय राम राज्य परिषद नामक राजनीतिक पार्टी के संस्थापक महामहिम स्वामी करपात्री को “हिन्दू धर्म सम्राट” की उपाधि मिली। स्वामी करपात्री एक सच्चे स्वदेशप्रेमी व हिन्दू धर्म प्रवर्तक थे। इनका वास्तविक नाम ‘हर नारायण ओझा’ था।

स्वामी श्री का जन्म संवत् 1964 विक्रमी (सन् 1907 ईस्वी) में श्रावण मास, शुक्ल पक्ष, द्वितीया को ग्राम भटनी, ज़िला प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश में सनातन धर्मी सरयूपारीण ब्राह्मण स्व. श्री रामनिधि ओझा एवं परमधार्मिक सुसंस्क्रिता स्व. श्रीमती शिवरानी जी के आँगन में हुआ। बचपन में उनका नाम ‘हरि नारायण’ रखा गया।

स्वामी श्री 8-9 वर्ष की आयु से ही सत्य की खोज हेतु घर से पलायन करते रहे। वस्तुतः 9 वर्ष की आयु में सौभाग्यवती कुमारी महादेवी जी के साथ विवाह संपन्न होने के पशचात 16 वर्ष की अल्पायु में गृहत्याग कर दिया। उसी वर्ष स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाराज से नैष्ठिक ब्रह्मचारी की दीक्षा ली। हरि नारायण से ‘ हरिहर चैतन्य ‘ बने।

नैष्ठिक ब्रह्म्चारिय पंडित श्री जीवन दत्त महाराज जी से संस्क्रिताध्याय्न षड्दर्शनाचार्य पंडित स्वामी श्री विश्वेश्वराश्रम जी महाराज से व्याकरण शास्त्र, दर्शन शास्त्र, भागवत, न्यायशास्त्र, वेदांत अध्ययन, श्री अचुत्मुनी जी महाराज से अध्ययन ग्रहण किया।

17 वर्ष की आयु से हिमालय गमन प्रारंभ कर अखंड साधना, आत्मदर्शन, धर्म सेवा का संकल्प लिया। काशी धाम में शिखासूत्र परित्याग के बाद विद्वत, संन्यास प्राप्त किया। एक ढाई गज़ कपड़ा एवं दो लंगोटी मात्र रखकर भयंकर शीतोष्ण वर्षा का सहन करना इनका 18 वर्ष की आयु में ही स्वभाव बन गया था। त्रिकाल स्नान, ध्यान, भजन, पूजन, तो चलता ही था। विद्याध्ययन की गति इतनी तीव्र थी कि संपूर्ण वर्ष का पाठ्यक्रम घंटों और दिनों में हृदयंगम कर लेते। गंगातट पर फूंस की झोंपड़ी में एकाकी निवास, घरों में भिक्षाग्रहण करनी, चौबीस घंटों में एक बार। भूमिशयन, निरावण चरण (पद) यात्रा। गंगातट नखर में प्रत्येक प्रतिपदा को धूप में एक लकड़ी की किल गाड कर एक टांग से खड़े होकर तपस्या रत रहते। चौबीस घंटे व्यतीत होने पर जब सूर्य की धूप से कील की छाया उसी स्थान पर पड़ती, जहाँ 24 घंटे पूर्व थी, तब दूसरे पैर का आसन बदलते। ऐसी कठोर साधना और घरों में भिक्षा के कारण “करपात्री” कहलाए।

24 वर्ष की आयु में परम तपस्वी 1008 श्री स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाराज से विधिवत दण्ड ग्रहण कर “अभिनवशंकर” के रूप में प्राकट्य हुआ। एक सुन्दर आश्रम की संरचना कर पूर्ण रूप से संन्यासी बन कर “परमहंस परिब्राजकाचार्य 1008 श्री स्वामी हरिहरानंद सरस्वती श्री करपात्री जी महाराज” कहलाए।

वे केवल आध्यात्मिक ही नहीं वे स्वतन्त्रता सेनानी भी थे देश आज़ाद करने की दृष्टि से सन्यासियों का निर्माण किया, भारतीय संस्कृति के प्रति सचेत रहते हुए उन्होने ”रामराज्य परिषद” नाम की राजनैतिक पार्टी का भी गठन किया जिसे 1952 के चुनाव मे 3 लोकसभा मे सफलता मिली, वे कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के बिरोधी थे इस कारण हिन्दू समाज के जागरण मे लगे रहते थे, 1967 मे जब गोरक्षा का आंदोलन शुरू हुआ तो उन्होने उसकी अगुवाई की उसमे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक प॰पू॰ श्री गुरु जी के योजकत्व मे भारत के साधू-संत इकट्ठा हुए जिसका नेतृत्व करपात्री जी, प्रभुदत्त ब्रंहचारी, सभी शांकराचार्य आदि ने किया, बड़ी संख्या मे संत गिरफ्तार किया गए करपात्री जी को जेल मे काफी दिन रहना पड़ा जेल का उन्होने उपयोग कर ‘कालमार्क्स और रामराज्य’ नामक ग्रंथ लिखा जो विश्व प्रसिद्ध हुआ यह पुस्तक विश्व की सभी राजनैतिक विचारों का विश्लेषण है, वे इतने बड़े थे की उन्हे ‘हिन्दू धर्मसम्राट’ की उपाधि से नवाजा गया, स्वामी करपात्री जी पूरे देश मे पैदल भ्रमण करते रहते थे उन्होने 1940 मे काशी वास के दौरान ‘अखिल भारतीय धर्मसंघ’ की स्थापना की वे स्व के प्रेमी थे स्वदेशी, स्वधर्म, स्वराष्ट्र उनका प्राण था प्रवास के दौरान वे मध्यप्रदेश के किसी गाव मे थे अधिकांश संस्कृति ही बोलते थे भजन व पूजा के पश्चात वे नारा गुंजायमान कराते वह भी संस्कृति मे होता एक दिन एक लड़की ने उनसे कहा स्वामी जी अगर यह उद्घोष हिन्दी मे होता तो हम सभी समझ पाते! स्वामी जी को ध्यान मे आया और वहीं तुरंत उन्होने इसका हिन्दी अनुवाद ‘धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों मे सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो’ का उद्घोष किया और इसी दिन से यह पवित्र उद्घोष पूरे विश्व का हिन्दू धर्म का उद्घोष बन गया, वे अपने ऊपर कितना कम खर्च हो समय का अभाव केवल ढा यी गज कपड़े मे ही काम चलाते साथ एक लगोटी, अपनी अंजुली भर भिक्षा वह भी दिन मे मात्र एक बार ।

वे बिभाजन से दुखी अपने शिष्यों द्वारा हिन्दुओ को बचाने का काम करते रहे उन्होने हिन्दू समाज को जगाने हेतु सन्यासियों की मानों फौज ही खड़ी कर दी यदि कहा जाय तो आदि जगद्गुरु शंकराचार्य और स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसी ही सन्यास परंपरा का देश हित मे उपयोग किया, 1947 देश बिभाजन की घटना, लाखों हिन्दू अपने ही देश को छोड़ने को बाध्य हो रहा था, जो भाग पाकिस्तान मे पड़ गया वहाँ के हिन्दुओ को धन संपत्ति ही नहीं तो अपने बहन -बेटियों को सुरक्षित रख पाना मुसकिल हो गया था उस समय स्वामी जी दिल्ली के अपने आश्रम बैठे थे, तब-तक एक ब्यक्ति हाथ मे खून से लथ-पथ तलवार लेकर स्वामी जी के सामने प्रकट हुआ उसने पूछा, स्वामी जी ! मैंने 15 लोगो की हत्या की है मुझे मोक्ष मिलेगा अथवा पाप लगेगा ! स्वामी जी ने पूछा की यह कैसे हुआ उसने बताया की सैकड़ों मुसलमानों ने मेरा घर घेर रखा था घर मे मेरी माँ दो बहनें थी वे बर्बर हमारी माँ बहनों को जिंदा ही खा जाना चाहते थे, तब-तक मेरी एक बहन ने साहस पूर्वक यह तलवार मेरे हाथ मे देकर कहा –! भैया हम बहनों और माँ की हत्या कर दो नहीं तो इन राक्षसों से हमारी इज्जत नहीं बचेगी मै क्या करता ? मैंने अपने ही हाथ से अपनी बहन और माँ की हत्या कर घेरे हुए मुसलमानो की हत्या की है स्वामी जी ने कहा तुम पाप नहीं तुम तो मोक्ष के अधिकारी हो, आओ हाथ मुह धोकर विश्राम करो ऐसे थे हमारे करपात्री जी महराज ।

उन्हे धर्म संस्थापक भी कहा गया वास्तविकता यह है की 1200 वर्ष गुलामी के कारण हमारी पद्धतियों मे कुछ लुप्तता भी आयी कई शंकराचार्य के पीठों की परंपरा बंद सी हो गयी थी करपात्री जी महराज ने सभी परम्पराओं को पुनः शुरू कराया इसी कारण कभी-कभी लोग कहते हैं की वे शंकराचार्य के योजना के एक हिस्सा हुआ करते थे लेकिन वे छुवा-छूत और भेद-भाव को मानते थे इसी विषय को लेकर प्रयाग होने वाले प्रथम विश्व हिन्दू सम्मेलन का बिरोध किया वे इस विषय मे आरएसएस से भी मतभेद रखते थे लेकिन वे महान थे अंतिम समय उन्होने संघ के विचारों से सहमति जताई और हिन्दू समाज मे छुवा-छूत और भेद-भाव समाप्त होना चाहिए स्वीकार किया और अपने शिष्यों को इसका अनुपालन का आदेश दिया,

अखिल भारतीय राम राज्य परिषद भारत की एक परम्परावादी हिन्दू पार्टी थी। इसकी स्थापना स्वामी करपात्री ने सन् 1948 में की थी। इस दल ने सन् 1952 के प्रथम लोकसभा चुनाव में 3 सीटें प्राप्त की थी। सन् 1952, 1957 एवम् 1962 के विधानसभा चुनावों में हिन्दी क्षेत्रों (मुख्यत: राजस्थान) में इस दल ने दर्जनों सीटें हासिल की थी।

सम्पूर्ण देश में पैदल यात्राएँ करते धर्म प्रचार के लिए सन 1940 ई० में “अखिल भारतीए धर्म संघ” की स्थापना की जिसका दायरा संकुचित नहीं किन्तु वह आज भी प्राणी मात्र में सुख शांति के लिए प्रयत्नशील हैं। उसकी दृष्टि में समस्त जगत और उसके प्राणी सर्वेश्वर, भगवान के अंश हैं या रूप हैं। उसके सिद्धांत में अधार्मिकों का नहीं अधर्म के नाश को ही प्राथमिकता दी गई है। यदि मनुष्य स्वयं शांत और सुखी रहना चाहता है तो औरों को भी शांत और सुखी बनाने का प्रयत्न आवश्यक है। इसलिए धर्म संघ के हर कार्य को आदि अंत में धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो, ऐसे पवित्र जयकारों का प्रयोग होना चाहिए।

माघ शुक्ल चतुर्दशी संवत 2038 (7 फरवरी 1962) को केदारघाट वाराणसी में स्वेच्छा से उनके पंच प्राण महाप्राण में विलीन हो गए। उनके निर्देशानुसार उनके नश्वर पार्थिव शरीर का केदारघाट स्थित श्री गंगा महारानी को पावन गोद में जल समाधी दी गई|

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हिंदू संत का इस्लामीकरण ( Islamization of Hindu Saint )

“हो लाल मेरी पट रखियो बल झूले लालन
लाल मेरी पट रखियो बल झूले लालन
सिन्ध्ड़ी दा सेहवन दा सखी शाबाज़ कलंदर
दमा दम मस्त कलंदर, अली दा पहला नंबर
दमा दम मस्त कलंदर, सखी शाबाज़ कलंदर

हो लाल मेरी पट रखियो बल झूले लालन
लाल मेरी पट रखियो बल झूले लालन
सिन्ध्ड़ी दा सेहवन दा सखी शाबाज़ कलंदर
दमा दम मस्त कलंदर, अली दा पहला नंबर
दमा दम मस्त कलंदर, सखी शाबाज़ कलंदर
हो लाल मेरी..हो लाल मेरी..

हो चार चराग तेरे बलां हमेशा
हो चार चराग तेरे बलां हमेशा
चार चराग तेरे बलां हमेशा
पंजवा में बलां आई आन बला झूले लालन
हो पंजवान में बालन

हो पंजवान में बालन आई आन बलां झूले लालन
सिन्ध्ड़ी दा सेहवन दा सखी शाबाज़ कलंदर

दमा दम मस्त कलंदर, अली दा पहला नंबर
दमा दम मस्त कलंदर, सखी शाबाज़ कलंदर
हो लाल मेरी..हाय लाल मेरी..

हो झनन झनन तेरी नोबत बाजे
हो झनन झनन तेरी नोबत बाजे
झनन झनन तेरी नोबत बाजे
नाल बाजे घड्याल बलां झूले लालन
हो नाल बाजे..

नाल बजे घड़ियाल बला झूले लालन
सिन्ध्ड़ी दा सेहवन दा सखी शाबाज़ कलंदर
दमा दम मस्त कलंदर, अली दा पहला नंबर
दमा दम मस्त कलंदर, सखी शाबाज़ कलंदर
कलंदर..(हो लाल मेरी, हाय लाल मेरी..)”

हिंदी में अर्थ :
” ओ सिंध के राजा ,झुलेलाल , शेवन के पिता
लाल पगड़ी वाले ,तुम्हारी महिमा सदा कायम रहे
कृपया मुझपर सदा कृपा बनाये रखना

तुम्हारा मंदिर सदा प्रकाशमय रहता है उन चार चिरागों के कारण
इसीलिए मैं पंचा चिराग जलाने आया हु आपकी पूजा के लिए

आपका नाम हिंद और सिंध में गूंजे
आपके संमान में घंटिया जोर जोर से बजे

ओ मेरे इश्वर , आपकी महिमा यु ही बदती रहे हर बार ,हर जगह
मैं आपसे प्राथना करता हु की आप मेरी नाव नदी के पार लगा दे ”

आज कल या कवाली हिंदी फिल्मो में काफी प्रसिद्ध हो रही है और कई फिल्मो में यह कवाली ली जा चुकी है | यह कवाली है पाकिस्तान के सिंध प्रांत के सूफी शाहबाज़ कलंदर की , कहते है की वे बड़े नेक दिल थे और हिन्दू मुस्लिम एकता की बात करते थे |पर सच कुछ और है , यह कवाली असल में सिंध के हिंदू संत श्री झुलेलाल का भजन था जिसे कवाली का रूप दे दिया गया है |

संत झुलेलाल

 

संत झुलेलालसंत झुलेलाल का जन्म सिंध में 1007 इसवी में हुआ था |वे नसरपुर के रतनचंद लोहालो और माता देवकी के घर जन्मे थे , मान्यता यह है की वे वरुण के अवतार थे | उस समय सिंध पर मिर्कशाह नाम का मुस्लिम राजा राज कर रहा था जिसने यह हुक्म दिया था हिन्दुओ को की मरो या इस्लाम काबुल कर लो | तब सिंध के हिंदुओ ने 40 दिनों तक उपवास रखा और इश्वर से प्राथना की ,इसीलिए वरुण देव झुलेलाल के रूप में अवतरित हुए | संत झुलेलाल ने गुरु गोरखनाथ से ‘अलख निरंजन ‘ गुरु मन्त्र प्राप्त किया | जब मिर्कशाह ने संत झुलेलाल के बारे में सुना तो उसने उन्हें अपने पास बुलवाया , उस समय संत झुलेलाल 13 वर्ष के ही थे |मिर्कशाह के सामने आने पर मिर्कशाह ने उन्हें बंदी बनाने का आदेश दिया पर तभी मिर्कशाह का महल आग की लपटों से घिर गया , तब मिर्कशाह को अपनी गलती कहा एहसास हुआ और उसने संत झुलेलाल से क्षमा मांगी ,इसके बाद पास ही के गाँव थिजाहर में 13 वर्ष की आयु में संत झुलेलाल ने समाधी ले ली |

काफ़िर किला ,प्राचीन शिव मंदिर

 

सिंध प्राचीन काल से ही हिन्दुओ की भूमि थी ,इसका एक उधारण है काफ़िर किला जो पहले एक शिव मंदिर था ,700 इसवी के बाद अरबी मुसलमानों भारत पर हमला किया और अफगान और सिंध में इस्लाम का प्रचार शुरू कर दिया |
यह काम तलवार की नोक पर होता और इस काम के लिए सूफियो का सहारा भी लिया जाता था |
संत झुलेलाल सिंध में काफी प्रसिद्ध थे और वहा इस्लाम फ़ैलाने के लिए मुसलमानों ने शहबाज़ कलंदर को झुलेलाल जैसा बनाने की कोशिस की |
अब यदि आप उस कवाली का अर्थ पड़े तो आपको घंटियों का उल्लेख मिलेगा और दरगाह ,मस्जिद या मजार में तो घंटिया होती ही नहीं ,यह तो मंदिरों में होती है ,साथ ही चिराग या दियो से किसी सूफी की पूजा नही की जाती |
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की इस कवाली में झुलेलाल शब्द भी है सो प्रमाण है की यह कवाली असल में झुलेलाल का भजन था और मुसलमानों ने संत झुलेलाल के इस्लामीकरण की कोशिस की |
आज कई हिंदू इस कवाली को गा रहे है जबकि कई इस कवाली का अर्थ तक नहीं पता (क्युकी कवाली हिंदी में नहीं है ) ,वे नहीं जानते की एक तरह से वे इस्लामीकरण को बढावा दे रहे है |

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