प्राणायाम का वैज्ञानिक रहस्य

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हमारा श्वसन तंत्र नासिका से शुरू होकर वायुकोषों तक फैला हुआ है। नाक से ली गई साँस स्वर यंत्र और ग्रसनी (फैरिंक्स) से होते हुए श्वास नली (ट्रैकिया) में पहुँचती है। गर्दन के नीचे छाती में यह पहले दाएँ-बाएँ दो भागों में विभाजित होती है और पेड़ की शाखाओं-प्रशाखाओं की तरह सत्रह-अठारह बार विभाजित होकर श्वसन वृक्ष बनाती है। यहाँ तक का श्वसन वृक्ष वायु संवाहक क्षेत्र (एयर कंडक्टिंग झोन) कहलाता है। इसकी अंतिम शाखा जो कि टर्मिनल ब्रांकिओल कहलाता है, वह भी 5-6 बार विभाजित होकर उसकी अंतिम शाखा पंद्रह से बीस वायुकोषों में खुलती है। वायुकोष अँगूर के गुच्छों की तरह दिखाई देते हैं। टर्मिनल ब्रांकिओल से वायुकोषों तक का हिस्सा श्वसन क्रिया को संपन्न करने में अपनी मुख्‍य भूमिका निभाता है। इसे श्वसन क्षेत्र (रेस्पिरेटरी झोन) कहते हैं।

श्वास नली के इस वृक्ष की सभी शाखाओं-प्रशाखाओं के साथ रक्त लाने और ले जाने वाली रक्त वाहिनियाँ भी होती हैं। साँस लेने पर फूलने और छोड़ने पर पिचकने वाले इन वायुकोषों और घेरे रखनेवाली सूक्ष्म रक्त नलिकाओं (कैपिलरीज) के बीच इतने पतले आवरण होते हैं कि ऑक्सीजन और कार्बन डाई ऑक्साइड का लेन-देन आसानी से और पलक झपकते हो जाता है। पल्मोनरी धमनी हृदय से अशुद्ध रक्त फेफड़े तक लाती है और वायुकोषों में शुद्ध हुआ रक्त छोटी शिराओं से पल्मेरनरी शिरा के माध्यम से पुन हृदय तक पहुँच जाता है।

फेफड़ें आकार में शंकु की तरह ऊपर से सँकरे और नीचे से चौड़े होते हैं। छाती के दो तिहाई हिस्से में समाए फेफड़े स्पंज की तरह लचीले होते हैं। जब हम साँस लेते हैं, तो छाती की पसलियाँ, माँसपेशियों के संकुचन से उपर उठ जाती है और बाहर की ओर बढ़ जाती है। इससे छाती का आयतन आगे-पीछे और दाएँ-बाएँ बढ़ जाता है। इसी क्रम में पेट और छाती के बीच की माँसपेशी, महाप्राचीरा (डायफ्राम) भी संकुचित होकर कुछ नीचे हो जाती है। इस तरह छाती का आयतन उपर-नीचे (वर्टिकली) भी बढ़ जाता है, जिसके कारण हवा फेफड़ों में प्रवेश करती है। सामान्य अवस्था में फेंफड़ों में प्रवेश करने वाली हवा (400 से 500 मिलीलीटर) का 75 प्रतिशत हिस्सा डायफ्राम के नीचे खिसकने के कारण होता है। सामान्य साँस के समय डायफ्राम सिर्फ डेढ़ सेंटीमीटर नीचे जाता है। अंत:श्वसन (इंस्पीरेशन) के बाद डायफ्राम सहित सभी माँसपेशियाँ पुन: अपनी स्थिति में आ जाती है और फेफड़े पर दबाव पड़ने से हवा बाहर ठेल दी जाती है। माँसपेशियों, पसलियों और फेफड़े की इस प्रक्रिया को लचकदर पुनर्स्थित (इलास्टिक रिवाइकल) कहते हैं। इसीलिए जब हम साँस लेते हैं, तो छाती और पेट फूलते हैं। तथा छोड़ने पर अपनी सामान्य अवस्था में आ जाते हैं।img1081203058_1_2

सामान्य श्वसन क्रिया (टाइटल रेस्पिरेशन) में फेफड़े के सिर्फ 20 प्रतिशत भाग को ही कम करना पड़ता है। शेष ‍हिस्से निष्‍क्रिय से रहते हैं और नैसर्गिक रूप से इस निष्क्रिय से हिस्सों में रक्त का प्रवाह भी अत्यंत मंद रहता है। सामान्य श्वसन क्रिया में फेफड़े के मध्य भाग को ही कार्य मिलता है। यदि हम प्रतिदिन व्यायाम न करें, तो वायुकोषों को पर्याप्त ताजी हवा और बेहतर रक्त प्रवाह से वंचित रह जाना पड़ता है। यही वजह है कि जब हम सीढ़ियाँ या छोटा सा पहाड़ चढ़ते हैं या दौड़ लगा लेते हैं, तो बुरी तररह हाँफने लगते हैं, क्योंकि आलसी हो चुके करोड़ों वायुकोष बेचारे कितना दम मारेंगे? गुरुत्वाकर्षण के कारण और गहरी साँस न लेने के कारण फेफड़े के शीर्षस्थ भाग में रक्त प्रवाह काफी कम होने से ट्यूबरकुलोसिस जैसी गंभीर बीमारी सबसे पहले फेफड़ें के शीर्षस्थ भाग को अपनी गिरफ्त में लेती है।

जब करते हैं, तो डायफ्राम सात सेंटीमिटर नीचे जाता है, पसलियों की माँसपेशियाँ भी ज्यादा काम करती हैं। इस तरह फेफड़े में ज्यादा हवा प्रवेश करती है यह सामान्य की तुलना में लगभग चार-पाँच गुना होती है यानी सभी 100 प्रतिशत वायुकोषों को भरपूर ताजी हवा का झोंका लगातार आनंदित करता है, साथ ही रक्त का प्रवाह भी बढ़ जाता है। इसी तरह दोनों फेफड़ों के बीच बैठा हृदय सब तरफ से दबाया जाता है, परिणाम स्वरूप इसको भी ज्यादा काम करना ही पड़ता है। इस तेज प्रवाह के कारण वे कोशिकाएँ भी पर्याप्त रक्तसंचार, प्राणवायु और पौष्टिक तत्व से सराबोर हो जाती हैं, जिन्हें सामान्य स्थिति में व्रत-सा करना पड़ रहा था। नैसर्गिक रूप से वहाँ मौजूद विजातीय पदार्थ भी हटा दिए जाते हैं।

यह तो सीने में हो रहे परिवर्तन की बात हुई। अब जो उदर में हो रहा है, उसकी दास्तान जान लेते हैं। डायफ्राम जैसी मजबूत और मोटी माँसपेशी तथा नीचे कूल्हे की हड्डियों के बीच की जगह में लीवर, अग्नाशय और 30 फुट लम्बा पाचन तंत्र, पैंक्रियाज, स्प्लीन, गुर्दे, एड्रिनल ग्लैंड्‍स, मूत्राशय, मलाशय और स्त्रियों के मामले में गर्भाशय और अण्डाशय आदि होते हैं। जब डायफ्रॉम सात सेंटीमीटर नीचे आता है, तो इन सबकी स्थिति बेचारों जैसी होती है, आखिर जाएँ तो जाएँ कहाँ? पैरों में जा नहीं सकते। एक ही रास्ता बचता है, वह यह कि हर बार सभी अंग कुछ-कुछ सिकुड़े ताकि डॉयफ्राम को 5-6 सेंटीमीटर ज्यादा जगह मिल सके। ऐसी स्थिति में यदि भस्त्रिका या ‍अग्निसार किया जाए, तो मामला और भी मुश्किल हो जाता है। उदर की दीवार (एंटीरियर एब्डामिनल वॉल) भी आगे जगह देने की बजाय दबाव डालने लगती है। इस आंतरिक मालिश के परिणाम स्वरूप उदर के ये तमाम अंग तेज रक्त संचार, ताजी प्राणवायु और पौष्टिक तत्वों से अनायास या बिना प्रयास लाभा‍न्वित हो जाते हैं।

सभी अंगों के क्रियाकलाप सम्यक रूप से होने लगते हैं। ग्रंथियों से रसायन समुचित मात्रा में निकलते हैं, विजातीय पदार्थ हटा दिए जाते हैं, तेज प्रवाह बैक्टीरिया को रास नहीं आता, पर्याप्त भोजन प्राणवायु मिलने से कोशिकाओं की रोगों से लड़ने की शक्ति बढ़ जाती है, बोन मेरो में नए रक्त का निर्माण बढ़ जाता है। आँतों में जमा मल विसर्जित होने लगता है। खाया-पीया अंग लगने लगता है, अंत: स्मरण शक्ति, सोचने-समझने और विश्लेषण की शक्ति बढ़ने लगती है। धैर्य और विवेकशीलता में वृद्धि होने लगती है, अत: स्मरण शक्ति, सोचने-समझने और विश्लेषण की शक्ति बढ़ने लगती है। धैर्य और विवेकशीलता में वृद्धि होने लगती है। क्रोध, अहंकार, लोभ, मोह, मद धीरे-धीरे अपने अस्तित्व के लिए तरसने लगते हैं। निष्कर्ष यह कि आयुर्वेद में स्वस्थ व्यक्ति की जो परिभाषा दी है, वह जीवन में घटित हो जाती है, ‘प्रसन्नत्मेन्द्रियमना स्वस्थ्य इत्यभिधयते’ अर्थात शरीर, इन्द्रियाँ, मन तथा आत्मा की प्रसन्नतापूर्ण स्थिति ही स्वास्थ्य है।

शरीर में ठंडक पैदा करे सीत्कारी प्राणायाम योग

सीत्कारी या सित्कार एक प्राणायाम का नाम है। इस प्राणायाम को करते समय ‘सीत्‌ सीत्‌’ की आवाज निकलती है, इसी कारण इसका नाम सीत्कारी कुम्भक या प्राणायाम पड़ा है
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कैसे करें- सिद्धासन में बैठकर दांत पर दांत बैठाकर (मुंह खुले हुए) उसके पीछे जीभ को लगाकर, धीरे-धीरे मुंह से श्वास को अंदर खिंचें। बाद में त्रिबन्धों के साथ कुम्भक करें। कुछ देर बाद श्वास को नाक से निकाल दें और पुन: श्वास को अंदर खिंचें। यह ‍प्रक्रिया 10 से 12 बार करें। इसके करने से मुंह के अंदर का भाग सूखने लगता है।

इसके लाभ : इस प्राणायाम के अभ्यास से शरीर में ऑक्सिजन की कम दूर होती है और शारीरिक तेज में वृद्धि होती है। मूलत: यह चेहरे की चमक बढ़ाकर सौंदर्य वृद्धि करता है। इसके अभ्यास से भूख-प्यास, नींद आदि नहीं सताते तथा शरीर सतत स्फूर्तिवान बना रहता है।

इससे शरीर में स्थित अतिरिक्त गर्मी समाप्त होती है जिससे पेट की गर्मी और जलन कम हो जाती है। इसके नियमित अभ्यास से ज्यादा पसीना आने की शीकायत दूर होती है।

ऐसे जानें पूर्वजन्म को

हमारा संपूर्ण जीवन स्मृति-विस्मृति के चक्र में फंसा रहता है। उम्र के साथ स्मृति का घटना शुरू होता है, जोकि एक प्राकृति प्रक्रिया है, अगले जन्म की तैयारी के लिए। यदि मोह-माया या राग-द्वेष ज्यादा है तो समझों स्मृतियां भी मजबूत हो सकती है। व्यक्ति स्मृति मुक्त होता है तभी प्रकृति उसे दूसरा गर्भ उपलब्ध कराती है। लेकिन पिछले जन्म की सभी स्मृतियां बीज रूप में कारण शरीर के चित्त में संग्रहित रहती है। विस्मृति या भूलना इसलिए जरूरी होता है कि यह जीवन के अनेक क्लेशों से मुक्त का उपाय है।
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योग में अ‍ष्टसिद्धि के अलावा अन्य 40 प्रकार की सिद्धियों का वर्णन मिलता है। उनमें से ही एक है पूर्वजन्म ज्ञान सिद्धि योग। इस योग की साधना करने से व्यक्ति को अपने अगले पिछले सारे जन्मों का ज्ञान होने लगता है। यह साधना कठिन जरूर है, लेकिन योगाभ्यासी के लिए सरल है।

कैसे जाने पूर्व जन्म को : योग कहता है कि ‍सर्व प्रथम चित्त को स्थिर करना आवश्यक है तभी इस चित्त में बीज रूप में संग्रहित पिछले जन्मों का ज्ञान हो सकेगा। चित्त में स्थित संस्कारों पर संयम करने से ही पूर्वन्म का ज्ञान होता है। चित्त को स्थिर करने के लिए सतत ध्यान क्रिया करना जरूरी है।

जाति स्मरण का प्रयोग : जब चित्त स्थिर हो जाए अर्थात मन भटकना छोड़कर एकाग्र होकर श्वासों में ही स्थिर रहने लगे, तब जाति स्मरण का प्रयोग करना चाहिए। जाति स्मरण के प्रयोग के लिए ध्यान को जारी रखते हुए आप जब भी बिस्तर पर सोने जाएं तब आंखे बंद करके उल्टे क्रम में अपनी दिनचर्या के घटनाक्रम को याद करें। जैसे सोने से पूर्व आप क्या कर रहे थे, फिर उससे पूर्व क्या कर रहे थे तब इस तरह की स्मृतियों को सुबह उठने तक ले जाएं।

दिनचर्या का क्रम सतत जारी रखते हुए ‘मेमोरी रिवर्स’ को बढ़ाते जाए। ध्यान के साथ इस जाति स्मरण का अभ्यास जारी रखने से कुछ माह बाद जहां मोमोरी पॉवर बढ़ेगा, वहीं नए-नए अनुभवों के साथ पिछले जन्म को जानने का द्वार भी खुलने लगेगा। जैन धर्म में जाति स्मरण के ज्ञान पर विस्तार से उल्लेख मिलता है।

क्यों जरूरी ध्यान : ध्यान के अभ्यास में जो पहली क्रिया सम्पन्न होती है वह भूलने की, कचरा स्मृतियों को खाली करने की होती है। जब तक मस्तिष्क कचरा ज्ञान, तर्क और स्मृतियों से खाली नहीं होगा, नीचे दबी हुई मूल प्रज्ञा जाग्रत नहीं होगी। इस प्रज्ञा के जाग्रत होने पर ही जाति स्मरण ज्ञान (पूर्व जन्मों का) होता है। तभी पूर्व जन्मों की स्मृतियां उभरती हैं।

सावधानी : सुबह और शाम का 15 से 40 मिनट का विपश्यना ध्यान करना जरूरी है। मन और मस्तिष्क में किसी भी प्रकार का विकार हो तो जाति स्मरण का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यह प्रयोग किसी योग शिक्षक या गुरु से अच्‍छे से सिखकर ही करना चाहिए। सिद्धियों के अनुभव किसी आम जन के समक्ष बखान नहीं करना चाहिए। योग की किसी भी प्रकार की साधना के दौरान आहार संयम जरूरी रहता है।

जानिए सिक्सथ सेंस को

के कई किस्से-कहानियां किताबों में भरे पड़े हैं। इस ज्ञान पर कई तरह की फिल्में भी बन चुकी हैं और उपन्यासकारों ने इस पर उपन्यास भी लिखे हैं। प्राचीनकाल या मध्यकाल में सिक्स्थ सेंस ज्ञान प्राप्त कई लोग हुआ करते थे, लेकिन आज कहीं भी दिखाई नहीं देते हैं।img1120905040_1_1

सिक्स्थ सेंस को हिन्दी में छठी इंद्री कहते हैं। इसे परामनोविज्ञान का विषय भी माना जाता है। असल में यह संवेदी बोध का मामला है। या जैसी अनेक विद्याएं इस सिक्स्थ सेंस के जाग्रत होने का ही कमाल है। हम आपको बताना चाहते हैं कि सिक्स्थ सेंस क्या होता है और इसे कैसे जाग्रत कर सकते हैं।

कहते हैं कि पांच इंद्रियां होती हैं- नेत्र, नाक, जीभ, कान और यौन। इसी को दृश्य, सुगंध, स्वाद, श्रवण और स्पर्श कहा जाता है। किंतु एक और छठी इंद्री भी होती है जो दिखाई नहीं देती, लेकिन उसका अस्तित्व महसूस होता है। वह मन का केंद्रबिंदु भी हो सकता है या भृकुटी के मध्य स्थित आज्ञा चक्र जहां सुषुन्मा नाड़ी स्थित है।

मस्तिष्क के भीतर कपाल के नीचे एक छिद्र है, उसे ब्रह्मरंध्र कहते हैं, वहीं से सुषुन्मा रीढ़ से होती हुई मूलाधार तक गई है। सुषुन्मा नाड़ी जुड़ी है सहस्रकार से।

इड़ा नाड़ी शरीर के बायीं तरफ स्थित है तथा पिंगला नाड़ी दायीं तरफ अर्थात इड़ा नाड़ी में चंद्र स्वर और पिंगला नाड़ी में सूर्य स्वर स्थित रहता है। सुषुम्ना मध्य में स्थित है, अतः जब हमारे दोनों स्वर चलते हैं तो माना जाता है कि सुषम्ना नाड़ी सक्रिय है। इस सक्रियता से ही जाग्रत होता है।

छठी इंद्री के जाग्रत होने से क्या होगा : व्यक्ति में भविष्य में झांकने की क्षमता का विकास होता है। अतीत में जाकर घटना की सच्चाई का पता लगाया जा सकता है। मीलों दूर बैठे व्यक्ति की बातें सुन सकते हैं। किसके मन में क्या विचार चल रहा है इसका शब्दश: पता लग जाता है। एक ही जगह बैठे हुए दुनिया की किसी भी जगह की जानकारी पल में ही हासिल की जा सकती है। छठी इंद्री प्राप्त व्यक्ति से कुछ भी छिपा नहीं रह सकता और इसकी क्षमताओं के विकास की संभावनाएं अनंत हैं।

यह छठी इंद्री या सभी में सुप्तावस्था में होती है। भृकुटी के मध्य निरंतर और नियमित ध्यान करते रहने से आज्ञाचक्र जाग्रत होने लगता है जो हमारे सिक्स्थ सेंस को बढ़ाता है। योग में त्राटक और ध्यान की कई विधियां बताई गई हैं। उनमें से किसी भी एक को चुनकर आप इसका अभ्यास कर सकते हैं।img1120905040_2_1

शांत-स्वच्छ वातावरण : अभ्यास के लिए सर्वप्रथम जरूरी है साफ और स्वच्छ वातावरण, जहां फेफड़ों में ताजी हवा भरी जा सके अन्यथा आगे नहीं बढ़ा जा सकता। शहर का वातावरण कुछ भी लाभदायक नहीं है, क्योंकि उसमें शोर, धूल, धुएं के अलावा जहरीले पदार्थ और कार्बन डॉक्साइट निरंतर आपके शरीर और मन का क्षरण करती रहती है।

प्राणायाम का अभ्यास : वैज्ञानिक कहते हैं कि दिमाग का सिर्फ 15 से 20 प्रतिशत हिस्सा ही काम करता है। हम ऐसे पोषक तत्व ग्रहण नहीं करते जो मस्तिष्क को लाभ पहुंचा सकें, तब प्राणायाम ही एकमात्र उपाय बच जाता है। इसके लिए सर्वप्रथम जाग्रत करना चाहिए समस्त वायुकोषों को। फेफड़ों और हृदय के करोड़ों वायुकोषों तक श्वास द्वारा हवा नहीं पहुंच पाने के कारण वे निढाल से ही पड़े रहते हैं। उनका कोई उपयोग नहीं हो पाता।

उक्त वायुकोषों तक प्राणायाम द्वारा प्राणवायु मिलने से कोशिकाओं की रोगों से लड़ने की शक्ति बढ़ जाती है, नए रक्त का निर्माण होता है और सभी नाड़ियां हरकत में आने लगती हैं। छोटे-छोटे नए टिश्यू बनने लगते हैं। उनकी वजह से चमड़ी और त्वचा में निखार और तरोताजापन आने लगता है।

मौन ध्यान : भृकुटी पर ध्यान लगाकर निरंतर मध्य स्थित अंधेरे को देखते रहें और यह भी जानते रहें कि श्वास अंदर और बाहर ‍हो रही है। मौन ध्यान और साधना मन और शरीर को मजबूत तो करती ही है, मध्य स्थित जो अंधेरा है वही काले से नीला और ‍नीले से सफेद में बदलता जाता है। सभी के साथ अलग-अलग परिस्थितियां निर्मित हो सकती हैं।

मौन से मन की क्षमता का विकास होता जाता है जिससे काल्पनिक शक्ति और आभास करने की क्षमता बढ़ती है। इसी के माध्यम से पूर्वाभास और साथ ही इससे भविष्य के गर्भ में झांकने की क्षमता भी बढ़ती है। यही सिक्स्थ सेंस के विकास की शुरुआत है।

यदि हमें इस बात का आभास होता है कि हमारे पीछे कोई चल रहा है या दरवाजे पर कोई खड़ा है, तो यह क्षमता हमारी छठी इंद्री के होने की सूचना है। जब यह आभास होने की क्षमता बढ़ती है तो पूर्वाभास में बदल जाती img1120905040_3_1है। मन की स्थिरता और उसकी शक्ति ही छठी इंद्री के विकास में सहायक सिद्ध होती है।

आंतरिक संकेत को सरल रूप में पूर्वाभास भी कहा जा सकता है। इस संकेत के माध्यम से कोई व्यक्ति किसी घटना के होने से पूर्व ही उसके बारे में जान लेता है अथवा किसी घटना के दौरान ही उसे इस बात का आभास हो जाता है कि इसका परिणाम क्या होने वाला है।

छठी इंद्रिय की शक्ति सभी में रहती है। त्वरित निर्णय लेने वाले कई लोग, आग बुझाने वाले दल के सदस्य, इमरजेंसी मेडिकल स्टाफ, खिलाड़ियों, सैनिकों और जीवन-मृत्यु की परिस्थितियों में तत्काल निर्णय लेने वाले कई व्यक्तियों में छटी इंद्री आम लोगों की अपेक्षा ज्यादा जाग्रत रहती है।

कोई उड़ता हुआ पक्षी अचानक यदि आपकी आंखों में घुसने लगे तो आप तुरंत ही बगैर सोचे ही अपनी आंखों को बचाने लग जाते हैं यह कार्य भी छटी इंद्री से ही होता है।

ऐसा कई बार देखा गया है कि कई लोगों ने अंतिम समय में अपनी बस, ट्रेन अथवा हवाई यात्रा को कैंसिल कर दिया और वे चमत्कारिक रूप से किसी दुर्घटना का शिकार होने से बच गए। जो लोग अपनी इस आत्मा की आवाज को नहीं सुना पाते वह पछताते हैं।

घटनाओं पर पछताने की जगह व्यक्ति को अपनी पूर्वाभास की क्षमता को विकसित करना चाहिए ताकि पछतावे की कोई स्थिति उत्पन्न ही न हो। इति।

ध्यान लगाने से सर्दी और बुखार रहते हैं दूर-अध्ययन

एक नए अध्ययन में पाया गया है कि सर्दी के मौसम में होने वाले सर्दी और बुखार को रोकने के लिए ध्यान लगाना बहुत प्रभावी सिद्ध हो सकता है।img1140305014_1_1

विस्कंसिन-मैडिसन विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार, जो वयस्क ध्यान लगाते थे या फिर चलने-फिरने जैसा हल्का व्यायाम करते थे, वे आठ सप्ताह तक उन लोगों के मुकाबले सर्दी से कम पीड़ित रहे, जो ऐसा कुछ भी नहीं करते थे।

पिछले अध्ययन में पाया गया था कि ध्यान लगाने से मूड में सुधार और तनाव में कमी होने के साथ ही प्रतिरोधक क्षमता भी बेहतर होती है।

ध्यान लगाने के बारे में जिक्र हिंदू वेदों में मिलता है। पांचवीं से छठी शताब्दियों के दौरान ध्यान लगाने के अन्य तरीके ताओ चीन और बौद्ध भारत में विकसित हुए।

डेली मेल की खबर के अनुसार, इस नए अध्ययन ने 149 लोगों को तीन समूहों में बांटा था। एक समूह ने सचेत ध्यान लगाया। यह ऐसा ध्यान है जिसमें दिमाग को वर्तमान पर केंद्रित किया जाता है।

दूसरे समूह ने आठ सप्ताह तक लगातार दौड़ लगाई जबकि तीसरे समूह ने कुछ भी नहीं किया।

शोधकर्ता सितंबर से मई तक इन लोगों के स्वास्थ्य की जांच करते रहे। हालांकि उन्होंने यह जांच नहीं की कि क्या ये लोग आठ सप्ताह के समय के बाद भी व्यायाम व ध्यान कर रहे हैं या नहीं।

इन लोगों में जुकाम, घुटन, गले में खराश, छींक जैसे सर्दी और बुखार के लक्षणों की जांच की गई।

इकट्ठे किए गए नमूनों का विश्लेषण लक्षण शुरू होने के तीन दिन बाद किया गया। अध्ययन में पाया गया कि ध्यान लगाने वालों ने कुछ न करने वालों की तुलना में 76 प्रतिशत कम छुट्टियां लीं। जबकि व्यायाम करने वालों ने इस दौरान 48 प्रतिशत कम छुट्टियां लीं।

अध्ययन में यह भी पाया गया कि सचेत ध्यान के जरिए सांस संबंधी संक्रमणों की अवधि को 50 प्रतिशत तक घटाया जा सकता है और व्यायाम से इसे 40 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है।

यह अध्ययन एन्नाल्स ऑफ फैमिली मेडिसिन में प्रकाशित किया गया था।

शरीर के भीतर ‘वायु’ के पांच प्रकार, जानिए

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प्राण’ का अर्थ अनुसार उस वायु से है जो हमारे शरीर को जीवित रखती है। शरीरांतर्गत इस वायु को ही कुछ लोग प्राण कहने से जीवात्मा मानते हैं। इस वायु का मुख्‍य स्थान हृदय में है।

इस वायु के आवागमन को अच्छे से समझकर जो इसे साध लेता है वह लंबे काल तक जीवित रहने का रहस्य जान लेता है। क्योंकि वायु ही शरीर के भीतर के पदार्थ को अमृत या जहर में बदलने की क्षमता रखती है।

उपर ‘प्राण’ का अर्थ जाना और अब जानिए आयाम का अर्थ। आयाम के दो अर्थ है- प्रथम नियंत्रण या रोकना, द्वितीय विस्तार और दिशा। व्यक्ति जब जन्म लेता है तो गहरी श्वास लेता है और जब मरता है तो पूर्णत: श्वास छोड़ देता है। प्राण जिस आयाम से आते हैं उसी आयाम में चले जाते हैं।

हम जब श्वास लेते हैं तो भीतर जा रही हवा या वायु पांच भागों में विभक्त हो जाती है या कहें कि वह शरीर के भीतर पांच जगह स्थिर और स्थित हो जाता हैं। लेकिन वह स्थिर और स्थितर रहकर भी गतिशिल रहती है।

ये पंचक निम्न हैं- (1) व्यान, (2) समान, (3) अपान, (4) उदान और (5) प्राण।

वायु के इस पांच तरह से रूप बदलने के कारण ही व्यक्ति की चेतना में जागरण रहता है, स्मृतियां सुरक्षित रहती है, पाचन क्रिया सही चलती रहती है और हृदय में रक्त प्रवाह होता रहता है। इनके कारण ही मन के विचार बदलते रहते या स्थिर रहते हैं।

उक्त में से एक भी जगह दिक्कत है तो सभी जगहें उससे प्रभावित होती है और इसी से शरीर, मन तथा चेतना भी रोग और शोक से ‍घिर जाते हैं। मन-मस्तिष्क, चरबी-मांस, आंत, गुर्दे, मस्तिष्क, श्वास नलिका, स्नायुतंत्र और खून आदि सभी से शुद्ध और पुष्ट रहते हैं। इसके काबू में रहने से मन और शरीर काबू में रहता है।

1.व्यान : व्यान का अर्थ जो चरबी तथा मांस का कार्य करती है।
2.समान : समान नामक संतुलन बनाए रखने वाली वायु का कार्य हड्डी में होता है। हड्डियों से ही संतुलन बनता भी है।
3.अपान : अपान का अर्थ नीचे जाने वाली वायु। यह शरीर के रस में होती है।
4.उदान : उदान का अर्थ उपर ले जाने वाली वायु। यह हमारे स्नायुतंत्र में होती है।
5.प्राण : प्राण वायु हमारे शरीर का हालचाल बताती है। यह वायु मूलत: खून में होती है।

प्राणायाम करते या श्वास लेते समय हम तीन क्रियाएं करते हैं- 1.पूरक 2.कुम्भक 3.रेचक।

उक्त तीन तरह की क्रियाओं को ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं। अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अंतर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्म कुम्बक कहते हैं।

सुषुम्ना को प्राणायाम से कैसे जगाएं, जानिए

कबहु इडा स्वर चलत है कभी पिंगला माही।
सुष्मण इनके बीच बहत है गुर बिन जाने नाही।।1413453798-5918

बहुत छोटी-सी बात है, लेकिन समझने में उम्र बीत जाती है। हमारे रोगी और निरोगी रहने का राज छिपा है हमारी श्वासों में। व्यक्ति उचित रीति से श्वास लेना भूल गया है। हम जिस तरीके और वातावरण में श्वास लेते हैं उसे हमारी इड़ा और पिंगला नाड़ी ही पूर्ण रूप से सक्रिय नहीं हो पाती तो सुषुम्ना कैसे होगी?

दोनों नाड़ियों के सक्रिय रहने से किसी भी प्रकार का रोग और शोक नहीं सताता और यदि हम के माध्यम से सुषुम्ना को सक्रिय कर लेते हैं, तो जहां हम श्वास-प्रश्वास की उचित विधि से न केवल स्वस्थ, सुंदर और दीर्घजीवी बनते हैं, वहीं हम सिद्ध पुरुष बनाकर ईश्वरानुभूति तक कर सकते हैं।

मनुष्य के दोनों नासिका छिद्रों से एकसाथ श्वास-प्रश्वास कभी नहीं चलती है। कभी वह बाएं तो कभी दाएं नासिका छिद्र से श्वास लेता और छोड़ता है। बाएं नासिका छिद्र में इडा यानी चंद्र नाड़ी और दाएं नासिका छिद्र में पिंगला यानी सूर्य नाड़ी स्थित है। इनके अलावा एक सुषुम्ना नाड़ी भी होती है जिससे श्वास प्राणायाम और ध्यान विधियों से ही प्रवाहित होती है।

प्रत्येक 1 घंटे के बाद यह ‘श्वास’ नासिका छिद्रों में परिवर्तित होते रहती है।

शिवस्वरोदय ज्ञान के जानकार योगियों का कहना है कि चंद्र नाड़ी से श्वास-प्रश्वास प्रवाहित होने पर वह मस्तिष्क को शीतलता प्रदान करती है। चंद्र नाड़ी से ऋणात्मक ऊर्जा प्रवाहित होती है। जब सूर्य नाड़ी से श्वास-प्रश्वास प्रवाहित होती है तो शरीर को ऊष्मा प्राप्त होती है यानी गर्मी पैदा होती है। सूर्य नाड़ी से धनात्मक ऊर्जा प्रवाहित होती है।

प्राय: मनुष्य उतनी गहरी श्वास नहीं लेता और छोड़ता है जितनी एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए जरूरी होती है। प्राणायाम मनुष्य को वह तरीका बताता है जिससे मनुष्य ज्यादा गहरी और लंबी श्वास ले और छोड़ सकता है।

अनुलोम-विलोम प्राणायाम की विधि से दोनों नासिका छिद्रों से बारी-बारी से वायु को भरा और छोड़ा जाता है। अभ्यास करते-करते एक समय ऐसा आ जाता है, जब चंद्र और सूर्य नाड़ी से समान रूप से श्वास-प्रश्वास प्रवाहित होने लगती है। उस अल्पकाल में सुषुम्ना नाड़ी से श्वास प्रवाहित होने की अवस्था को ही ‘योग’ कहा जाता है।

प्राणायाम का मतलब है- प्राणों का विस्तार। दीर्घ श्वास-प्रश्वास से प्राणों का विस्तार होता है। एक स्वस्थ मनुष्य को 1 मिनट में 15 बार सांस लेनी चाहिए। इस तरह 1 घंटे में उसके श्वासों की संख्या 900 और 24 घंटे में 21,600 होनी चाहिए।

स्वर विज्ञान के अनुसार चंद्र और सूर्य नाड़ी से श्वास-प्रश्वास के जरिए कई तरह के रोगों को ठीक किया जा सकता है। उदाहरण के लिए यदि चंद्र नाड़ी से श्वास-प्रश्वास को प्रवाहित किया जाए तो रक्तचाप, हाई ब्लड प्रेशर सामान्य हो जाता है।

सात चक्र और सात तरह के लोग…

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वैसे तो ‘चक्र’ का मतलब पहिया या गोलाकार होता है। चूंकि इसका संबंध शरीर में एक आयाम से दूसरे आयाम की ओर गति से है इसलिए इसे चक्र कहते हैं, पर वास्तव में ये एक गोलाकार भी होते हैं और त्रिकोण भी।

इसी तरह हमारे शरीर में हजारों ऊर्जा के चक्कर काट रहे हैं किसी गैलेक्सी की तरह लेकिन उनमें भी 114 चक्रों को मुख्‍य माना गया है। इन 114 में से भी मोटे तौर पर 7 चक्रों की सबसे ज्यादा चर्चा की गई है, जहां ऊर्जा वर्तुलाकार में चक्कर लगा रही है जिसके कारण हमारा जीवन चलता है। विज्ञान ने भी इन चक्रों की सूक्ष्म उपस्थिति को माना है। भारतीय पारंपरिक औषधि विज्ञान के अनुसार ये चक्र सुप्तावस्था में रहते हैं, हालांकि ये ऊर्जा के केंद्र हैं।

ये 7 चक्र हैं- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार।

कौन-सा चक्र कहां पर : पहला चक्र है मूलाधार, जो गुदा और जननेंद्रिय के बीच होता है। स्वाधिष्ठान चक्र जननेंद्रिय के ठीक ऊपर होता है। मणिपूरक चक्र नाभि के नीचे होता है। अनाहत चक्र हृदय के स्थान में पसलियों के मिलने वाली जगह के ठीक नीचे होता है। विशुद्धि चक्र कंठ के गड्ढे में होता है। आज्ञा चक्र दोनों भवों के बीच होता है जबकि चक्र, जिसे ब्रह्मरंध्र भी कहते हैं, सिर के सबसे ऊपरी जगह पर होता है, जहां नवजात बच्चे के सिर में ऊपर सबसे कोमल जगह होती है।

साधना करने पर यह ऊर्जा मूलाधार से सहस्राकार में पहुंच जाती है। लेकिन यदि कोई व्यक्ति साधना नहीं करता है तब क्या होता है? तब जिस व्यक्ति को बचपन से जैसे संस्कार और विचार दिए गए हैं उस अनुसार उसकी ऊर्जा का केंद्र कोई एक चक्र बन जाता है। इसका यह मतलब नहीं कि उस केंद्र पर ऊर्जा एकत्रित होने से वह चक्र सक्रिय हो गया हो और वह व्यक्ति उस चक्र की सिद्धि प्राप्त कर गया हो। यहां प्रस्तुत है चक्रों पर सक्रिय ऊर्जा के अनुसार व्यक्ति का स्वभाव और निर्मित होता भविष्य…

मूलाधार चक्र : जिनके जीवन में भोजन, निद्रा और सेक्स सबसे प्रबल है वे सभी इसी चक्र के अनुभवों को भोगते रहते हैं और अंतत: अपना जीवन किसी पशुवत विचार की तरह जीकर मर जाते हैं। ऐसे लोग बुद्धि से नहीं, भावना से काम लेते हैं। ऐसे लोगों का भविष्य पशुओं की भांति ही होता है।
हालांकि मूलाधार पर ऊर्जा के गड़बड़ होने के कारण व्यक्ति की प्राकृतिक भूख और नींद में भी गड़बड़ी हो जाती है। यह भी हो सकता है कि व्यक्ति ज्यादा हिंसक हो और उसमें तामसिक प्रवृत्ति का बोलबाला हो। दुनिया में बहुत ही सतही विचारधारा के लोगों की संख्या ज्यादा है चाहे वह राजनीति में हो, साहित्य में या फिल्मों में। गौर से देखने पर सभी भोजन, नींद और सेक्स की ही चर्चा कर रहे हैं।

स्वाधिष्ठान : कुछ लोगों की ऊर्जा स्वाधिष्ठान में ज्यादा सक्रिय रहती है इसीलिए उनके जीवन में आमोद-प्रमोद का ज्यादा महत्व रहता है। वे भौतिक सुख-सुविधाओं की और दौड़ते रहते हैं। हर चीज का लुत्फ उठाते रहते हैं। मनोरंजन ही जीवन बन जाता है। यात्रा, राग, नृत्य और संगीत ही जीवन बना रहता है।

हालांकि यहां पर ऊर्जा की गड़बड़ी से जीवन में आलस्य बढ़ता, कर्मठता कम हो जाती है। हो सकता है कि व्यक्ति शराब और मौज-मस्ती में ही जीवन बिता दे और अंतत: पछताए।

मणिपुर चक्र : अगर आपकी ऊर्जा मणिपुर चक्र पर ही ज्यादा सक्रिय है, तो आप में कर्म की प्रधानता रहेगी। ऐसे व्यक्ति को कर्मयोगी कहते हैं। ऐसा व्यक्ति ‍दुनिया का हर काम करने के लिए हमेशा तैयार रहता है।

अनाहत चक्र : ज्यादातर सृजनशील लोग अनाहत चक्र में जी रहे होते हैं। ऐसे लोग संवेदनशील किस्म के होते हैं। वे लोगों की भावनाओं की कद्र करते हैं। चित्रकार, लेखक, मूर्तिकार आदि लोग इसी श्रेणी में आते हैं।

विशुद्धि चक्र : विशु्द्धि चक्र में ऊर्जा का सक्रिय होना इस बात का सबूत है कि आप अति शक्तिशाली हैं शारीरिक और मानसिक दोनों ही रूप से। ऐसा व्यक्ति निर्भीक और ईमानदार होता है।

आज्ञा चक्र : बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपने जीवन को बहुत महत्व दिया है और जो हर कार्य और व्यवहार को बौद्धिक स्तर से करते हैं तो यह माना जाएगा कि उनकी ऊर्जा आज्ञा चक्र पर ज्यादा सक्रिय है। बौद्धिक अनुभव से शांति मिलती है। ऐसे व्यक्ति के आस-पास चाहे कुछ भी हो रहा हो या कैसी भी परिस्थितियां निर्मित हो रही हों, उससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। निर्भीकता उसका स्वाभाविक गुण है।

हालांकि ऊर्जा की गड़बड़ी से बौद्धिक अहंकार पैदा होता है, जो कु‍बुद्धि और कुतर्कों की ओर ले जाता है। ऐसा व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए समाज और राष्ट्र को दिशाहीन कर देता है।

: बहुत कम लोग हैं जिनकी ऊर्जा सहस्रार पर ज्यादा सक्रिय रहती है। ऐसा व्यक्ति सदा आनं‍दित रहता है। सुख-दुख का उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता। बिना कारण ही व्यक्ति खुश रहता है।

प्राणायाम से खत्म करें अवसाद को…

डिप्रेशन’ यानी नैराश्य, यानी मन और मानस का असहयोग, यानी प्रकृति से तादात्म्य न हो पाना या जीवन से आस्था उठ जाना। डिप्रेशन यानी जीने का नकारात्मक रवैया, स्वयं से अनुकूलन में असमर्थता आदि। जब ऐसा हो जाए तो उस व्यक्ति विशेष के लिए सुख, शांति, सफलता, खुशी यहां तक कि संबंध तक बेमानी हो जाते हैं। उसे सर्वत्र निराशा, तनाव, अशांति, अरुचि का ही आभास होता है।1413453798-5918

यदि ऐसा क्षणिक हो तो उसे स्वाभाविक या व्यावहारिक मानना होगा, किंतु यह मनःस्थिति और मानसिकता अगर सतत बनी रहे तो परिणाम निश्चित तौर पर घातक होंगे। यह प्रतिकूलता व्याधि और विकृति को जन्म देगी। जीवन तक को नकार सकता है ऐसा व्यक्ति। पहले समाज, फिर परिवार और अंत में स्वयं से कटने लगता है वह।

‘डिप्रेशन’ का कारण वातावरण परिस्थिति, स्वास्थ्य, सामर्थ्य, संबंध या किसी घटनाक्रम से जुड़ा हो सकता है। शुरुआत में व्यक्ति को खुद नहीं मालूम होता, किंतु उसके व्यवहार और स्वभाव में धीरे-धीरे परिवर्तन आने लगता है। कई बार अतिरिक्त चिड़चिड़ापन, अहंकार, कटुता या आक्रामकता अथवा नास्तिकता, अनास्था और अपराध अथवा एकांत की प्रवृत्ति पनपने लगती है या फिर व्यक्ति नशे की ओर उन्मुख होने लगता है।

ऐसे में जरूरी है कि हम किसी मनोचिकित्सक से संपर्क करें। व्यक्ति को खुशहाल वातावरण दें। उसे अकेला न छोड़ें तथा छिन्द्रान्वेषणकतई न करें। उसकी रुचियों को प्रोत्साहित कर, उसमें आत्मविश्वास जगाएं और कारण जानने का प्रयत्न करें।

मैत्रीपूर्ण वातावरण में प्रभावोत्पादक तरीके से जीवन की सच्चाई उसके सामने रखें और आत्मीयता से उसे ‘प्राणायाम’ के लिए राजी करें। सर्वप्रथम पद्मासन करवाएं। फिर  प्राणायाम के छोटे-छोटे आवर्तन करवाएं। बीच में गहरी श्वास लेने दें। आप देखेंगे ‘डिप्रेशन’ घटता जा रहा है। चित्त शांत हो रहा है। नाड़ीशोधन प्राणायाम के पश्चात ग्रीष्मकाल में ‘शीतली’ और शीतकाल में सावधानी से ‘मस्त्रिका’ प्राणायाम करवाएं।

प्राणायाम के दो आवर्तनों के पश्चात ‘ॐ’ नाद करवा दें। प्रथम स्तर पर ‘ओ’ दीर्घ करवाएं, जिससे ग्रीवा के अंदरूनी स्नायु कंपन, लय और बल पाकर सहज हों। तत्पश्चात ‘ओ’ लघु से दीर्घनाद करवाएँ। इसके कंपन मस्तिष्क, अधर-ओष्ठ और तालू को प्रभावित करेंगे। अनुभूत आनंद से चेहरे के खिंचाव और तनाव की स्थिति स्वतः जाती रहेगी। यदि ऐसा होने लगे तो समझिए आप कामयाब हो रहे हैं अपने ‘मिशन’ में। इसके बाद थोड़ा विश्राम। फिर श्वासन। अनिद्रा जनित ‘डिप्रेशन’ का रोगी ऐसे में सोना चाहता है। उसे भरपूर नींद ले लेने दें।

ये प्रक्रियागत परिणाम तुरंत प्राप्त होते हैं। इनके दीर्घकालीन स्थायित्व के लिए प्रयत्न में निरंतरता रखी जानी अनिवार्य है। सदैव अनुभवसिद्ध योग विशेषज्ञ ही से संपर्क किया जाना चाहिए।

स्वरोदय विज्ञान (भाग-2)

स्वरों के प्रवाह की लम्बाई के विषय में थोड़ी और बातें बता देना यहाँ आवश्यक है और वह यह कि हमारे कार्यों की विभिन्नता के अनुसार इनकी लम्बाई या गति प्रभावित होती है। जैसे गाते समय12 अंगुल, खाना खाते समय 16 अंगुल, भूख लगने पर 20 अंगुल,सामान्य गति से चलते समय 18 अंगुल, सोते समय 27 अंगुल से30 अंगुल तक, मैथुन करते समय 27 से 36 अंगुल और तेज चलते समय या शारीरिक व्यायाम करते समय इससे भी अधिक हो सकती है। यदि बाहर निकलने वाली साँस की लम्बाई नौ इंच से कम की जाए तो जीवन दीर्घ होता है और यदि इसकी लम्बाईबढ़ती है तो आन्तरिक प्राण दुर्बल होता है जिससे आयु घटती है। शास्त्र यहाँ तक कहते हैं कि बाह्य श्वास की लम्बाई यदि साधक पर्याप्त मात्रा में कम कर दे तो उसे भोजन की आवश्यकता नहीं पड़ती है और यदि कुछ और कम कर ले तो वह हवा में उड़ सकता है। j1624693_1328508288
अब थोड़ी सी चर्चा तत्वों और नक्षत्रों के सम्बन्ध पर आवश्यक है। यद्यपि इस सम्बन्ध में स्वामी राम मौन हैं। इसका कारण हो सकता है स्थान का अभाव क्योंकि अपनी पुस्तक में उन्होंने केवल एक अध्याय इसके लिए दिया है। फिर भी पाठकों की जानकारी के लिए शिव स्वरोदय के आधार पर यहाँ तत्वों औरनक्षत्रों के सम्बन्ध नीचे दिये जा रहे हैं। पृथ्वी तत्व का सम्बन्ध रोहिणी, अनुराधा, ज्येष्ठा, उत्तराषाढ़, श्रवण, धनिष्ठा और अभिजित से, जल तत्व का आर्द्रा, श्लेषा, मूल, पूर्वाषाढ़, शतभिषा, उत्तरा भाद्रपद और रेवती से, अग्नि तत्व का भरणी, कृत्तिका,पुष्य, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, स्वाती और पूर्वा भाद्रपद तथा वायु तत्व का अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा और विशाखा से है।
इस विज्ञान पर आगे चर्चा के पहले शरीर में प्राणिक ऊर्जा के प्रवाह की दिशा की जानकारी आवश्यक है। यौगिक विज्ञान के अनुसार मध्य रात्रि से मध्याह्न तक प्राण नसों में प्रवाहित होता है, अर्थात् इस अवधि में प्राणिक ऊर्जा, सर्वाधिक सक्रिय होती है और मध्याह्न से मध्य रात्रि तक प्राण का प्रवाह शिराओं में होता है। मध्याह्न और मध्य रात्रि में प्राण का प्रवाह दोनोंनाड़ी तंत्रों में समान होता है। इसी प्रकार सूर्यास्त के समय प्राण ऊर्जा का प्रवाह शिराओं में और सूर्योदय के समय मेरूदण्ड में सबसे अधिक होता है। इसीलिए शास्त्रों में ये चार संध्याएँ कहीं गयी हैं जो आध्यात्मिक उपासना के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी गयी हैं। यदि व्यक्ति पूर्णतया स्वस्थ है तो उक्त क्रम से नाड़ी तंत्रों में प्राण का प्रवाह संतुलित रहता है अन्यथा हमारा शरीर बीमारियों को आमंत्रित करने के लिये तैयार रहता है। यदि इडा नाड़ी अपने नियमानुसार प्रवाहित होती है तो चयापचय जनित विष शरीर से उत्सर्जित होता रहता है, जबकि पिंगला अपने क्रम से प्रवाहित होकर शरीर को शक्ति प्रदान करती है। योगियों ने देखा है और पाया है कि यदि साँस किसी एक नासिका से 24 घंटें तक चलती रहे तो यह शरीर में किसी बीमारी के होने का संकेत है। यदि साँस उससे भी लम्बे समय तक एक ही नासिका में प्रवाहित हो तो समझना चाहिए कि शरीर में किसी गम्भीर बीमारी ने आसन जमा लिया है और यदि यह क्रिया दो से तीन दिन तक चलती रहे तो निस्संदेह शीघ्र ही शरीर किसी गंभीरतम बीमारी से ग्रस्त होने वाला है। ऐसी अवस्था में उस नासिका से साँस बदल कर दूसरी नासिका से तब तक प्रवाहित किया जाना चाहिए जब तक प्रात:काल के समय स्वर अपने उचित क्रम में प्रवाहित न होने लगे। इससे होने वाली बीमारी की गंभीरता कम हो जाती है और व्यक्ति शीघ्र स्वास्थ्य लाभ करता है।

स्वरोदय विज्ञान के अनुसार स्वरों के प्रवाह की तिथियाँ, अवधि आदि का जो विवरण ऊपरदिया गया है वह केवल स्वस्थ शरीर होने पर ही सम्भव है। यदि इसमें विपर्यय हो अर्थात् शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, द्वितीया और तृतीया को सूर्योदय के समय बाएँ स्वर के स्थान पर दाहिना स्वर चले तो समझना चाहिए कि शरीर में ताप का संतुलन बिगड़ गया है और यदि कृष्ण पक्ष में उक्त तिथियों को इड़ा नाड़ी चले अर्थात् बायीं नासिका से स्वास प्रवाहित हो तो समझना चाहिए कि शरीर का शीतलीकरण तंत्र असंतुलित हो गया है। स्वासों में उत्पन्न यह विपर्यय बुखार या सर्दी-खाँसी से ग्रस्त होने का संकेत देता है। इसके अतिक्ति यह असंतुलनउसमें निराशा और चिड़चिड़ापन को जन्म देता है। यदि यह क्रम तीन पखवारे तक बना रहे तो व्यक्ति गंभीर बीमारी का शिकार बनेगा।

अगर किसी को बुखार आ जाये या ऐसा लगे कि बुखार आने वाला है, तो उसे अपने स्वर की जाँच करके मालूम करना चाहिए कि साँस किस नासिका से प्रवाहित हो रही हैं। जिस नासिका से साँस चल रही हो उसे तुरन्त बन्द कर दूसरी नासिका से साँस तब तक चलायी जाये जब तक बुखार उतर न जाये या व्यक्ति सामान्य अनुभव न करने लगे। इस प्रकार स्वरों के माध्यम से बीमारियों की चिकित्सा उनके उग्र होने के पहले ही की जा सकती हैं।

स्वरोदय विज्ञान की जानकारी से हम दैनिक जीवन में काफी लाभान्वित हो सकते हैं। इसके लिए स्वरोदय विज्ञान के अनुसार हमें विभिन्न कार्य किस स्वर के प्रवाह काल में करना चाहिए यह जानना बहुत आवश्यक है। स्वर विशेष के प्रवाह काल में निर्धारित कार्य करने से हमारा स्वास्थ्य ठीक रहेगा और साथ ही हमें कार्य विशेष में सफलता भी मिलेगी। इसके लिए सबसे पहले हम लेते हैं सूर्य नाड़ी अर्थात् पिंगला को।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि सूर्य नाड़ी अपने प्रवाह काल में हमें शक्ति प्रदान करती है इसलिए जब साँस दाहिनी नासिका से प्रवाहित हो उस समय कठिन कार्य करना चाहिए। इसमें गूढ़ और कठिन विद्याओं का अध्ययन, शिकार करना, वाहनों की सवारी, फसल काटना, कसरत करना, तैरना आदि सम्मिलित हैं। पिंगला के प्रवाह में जठराग्नि प्रबल होती है। इसलिए जब दाहिनी नासिका से स्वर चले तो भोजन करना चाहिए और भोजनोपरान्त कम से कम दस से पन्द्रह मिनट तक बाँई करवट लेटना चाहिए, ताकि सूर्य नाड़ी प्रवाहित हो। शौच और शयन पिंगला के प्रवाह काल में स्वास्थ्यप्रद होता है। वैसे स्वरोदय विज्ञान के अनुसार यात्रा के लिए कहा गया है कि जो स्वर चल रहा हो वही पैर घर से पहले निकालकर यात्रा की जाये तो वह निर्विघ्न पूरी होती है। किन्तु दाहिना स्वर चले तो दक्षिण और पश्चिम दिशा की यात्रा नहीं करनी चाहिए। वैसे लम्बी दूरी की यात्रा पिंगला नाड़ी के चलने पर शुरू नहीं करनी चाहिए। स्त्री समागम आदि के लिए पिंगला नाड़ी का चयन करना चाहिए। कुल मिलाकर संक्षेप में यह कहना है कि अधिक श्रमसाध्य अस्थायी कार्य पिंगला नाड़ी के प्रवाह काल में प्रारम्भ करना चाहिए।

जब इडा नाड़ी चले तो सभी शुभ एवं स्थायी कार्य प्रारम्भ करने चाहिए। जैसे लम्बी यात्रा, गृह निर्माण, नयी विद्याओं का अध्ययन, बीज वपन, सामान एकत्र करना, जनहित का कार्य,चिकित्सा कराना आदि। इडा नाड़ी के प्रवाहकाल में लम्बी यात्रा के प्रारम्भ करने का उल्लेख किया गया है। लेकिन उत्तर और पूर्व दिशा की यात्रा का प्रारम्भ करना वर्जित है। इसके अतिरिक्त जल पीना, लघुशंका करना, परोपकार, श्रेष्ठ एवं वरिष्ठ व्यक्तियों से सम्पर्क, गुरूदर्शन, मंत्र-साधना, पुरूष समागम आदि कार्य के लिए इडा नाड़ी का प्रवाह काल चुनना चाहिए। वैसे, स्वरोदय विज्ञान के अनुसार भोजन के लिए पिंगला नाड़ी सर्वोत्तम कहीं गयी है, लेकिन अधिक मसालेदार, वसायुक्त नमकीन या खट्टे भोजन के लिए इडा नाड़ी का प्रवाह काल उत्तम माना गया है, क्योंकि यह शरीर में चयापचय से उत्पन्न विष को उत्सर्जित करने में सक्षम है।

सुषुम्ना नाड़ी का प्रवाह काल आध्यात्मिक साधना अर्थात् ध्यान आदि के लिए सर्वोत्तम माना गया है। इसके अतिरिक्त यदि कोई अन्य कार्य इस काल में प्रारम्भ करते हैं तो उसमें सफलता नहीं मिलेगी। यदि अभ्यास द्वारा ऐसा कुछ किया जा सके जिससे सुषुम्ना नाड़ी का प्रवाह-काल बढ़ सके और उस समय आध्यात्मिक साधना की जाये, विशेषकर उस समय आकाश तत्व का उदय हो (यह एक विरल संयोग है), तो साधक को दुर्लभ और विस्मयकारी अनुभव होंगे।

दैनिक जीवन में जैसे कार्य का प्रारम्भ उपर्युक्त ढंग से करके स्वास्थ्य लाभ एवं सफलता प्राप्त करने की बात कही गई है,वैसे ही स्वरों के साथ उनमें प्रवाहित होने वाले पंच तत्वों का विचार करना भी अत्यन्त आवश्यक है। अन्यथा असफलता ही हाथ लगेगी। अतएव स्वरों के साथ उक्त विधान का प्रयोग करते समय उनमें प्रवाहित होने वाले तत्वों की पहिचान करना और तद्नुसार कार्य करना आवश्यक है।
भौतिक उन्नति या दीर्घकालिक सुख से सम्बन्धित कार्य या स्थायी शान्तिप्रद कार्यों में प्रवृत्त होते समय यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि उपयुक्त स्वर में पृथ्वी तत्व का उदय हो। अन्यथा अपेक्षित परिणाम नहीं मिलेगा। शास्त्रों का कथन है कि पृथ्वी तत्व की प्रधानता के साथ हमारा मन भौतिक सुख के कार्यों के प्रति अधिक आकर्षित होता है। किसी भी स्वर में जल तत्व के उदय के समय किया गया कार्य तत्काल फल देने वाला होता है, भले ही फल अपेक्षाकृत कम हो। जल तत्व की प्रधानता होने पर परिणाम जल की तरह चंचल और उतार-चढ़ाव से भरा होता है। इसलिए इस समय ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिसमें अधिक भाग-दौड़ करना पड़े। अग्नि तत्व का धर्म दाहकता है। इसलिए इसके उदयकाल में कोई भी कार्य प्रारम्भ करने से बचना चाहिए क्योंकि असफलता के अलावा कुछ भी हाथ नहीं आयेगा। यहाँ तक कि इस समय किसी बात पर अपनी राय भी नहीं देनी चाहिए, अन्यथा अप्रत्याशित कठिनाई में फॅंसने की नौबत भी आ सकती है। धन-सम्पत्ति से संबंधित दुश्चिन्ताएं, परेशानियाँ, वस्तुओं का खोना आदि घटनाएँ अग्नितत्व के उदयकाल में ही सबसे अधिक होती हैं। वायु तो सर्वाधिक चंचल है। अतएव इसके उदयकाल में किया गया कार्य कभी भी सफल नहीं हो सकता। स्वामी सत्यानन्द जी ने अपनी पुस्तक ‘स्वर-योग’ में एक अद्भुत उदाहरण दिया है और वह हमें वायु तत्व के समय कार्य का चुनाव करने में सहायक हो सकता है। उन्होंने लिखा है कि यदि भीड़-भाड़ वाले प्लेटफार्म पर छूटती गाड़ी पकड़ने के लिए झपटते समय और वायु तत्व का उदय हो तो आप ट्रेन पकड़ने में सफल हो सकते हैं। आकाश तत्व के उदय काल में ध्यान करने के अलावा कोई भी कार्य सफल नहीं होगा, यह ध्यान देने योग्य बात है।
संक्षेप में, यह ध्यान देने की बात है कि इडा और पिंगला स्वर में पृथ्वी तत्व और जल तत्व का उदयकाल कार्य के स्वभाव के अनुकूल स्वर का चुनाव सदा सुखद होगा। इडा स्वर में अग्नि तत्व और वायु तत्व का उदयकाल अत्यन्त सामान्य फल देनेवाला तथा पिंगला में विनाशकारी होता हैं। आकाश तत्व का उदय काल केवल ध्यान आदि कार्यों में सुखद फलदाता है।
‘शिव स्वरोदय’ का कथन है कि दिन में पृथ्वी तत्व और रात में जल तत्व का उदयकाल सर्वोत्तम होता है। इससे मनुष्य स्वस्थ रहता है और सफलता की संभावना सर्वाधिक होती है।

आवश्यकतानुसार स्वर को बदलने के कुछ सरल तरीके नीचे दिए जा रहे हैं।:-

(क) जिस स्वर को चलाना हो उसके उलटे करवट सिर के नीचे हाथ रखकर लेटने से स्वर बदल जाता है, अर्थात् यदि दाहिनी नासिका से स्वर प्रवाहित करना हो तो बायीं करवट थोड़ी देर तक लेटने से पिंगला नाड़ी चलने लगेगी। वैसे ही, दाहिनी करवट लेटने से इडा नाड़ी चलने लगती है।

(ख) जिस नासिका से साँस प्रवाहित करना चाहते हैं एक नाक बंद कर उस नाक से दस-पन्द्रह बार साँस दबाव के साथ धीरे-धीरे छोड़े और लें तो स्वर बदल जाता है।

(ग) फर्श पर बैठकर एक पैर मोड़कर घुटने को बगल में थोड़ी देर तक दबाए रहें और दूसरा फर्श पर सीधा रखें तो थोड़ी देर में जो पैर सीधा है उस नासिका से साँस चलने लगेगी।

(घ) फर्श पर बैठकर एक हाथ जमीन पर रखें और उसी ओर के कंधें को दीवार से लगाकर थोड़ी देर तक दबाए रखने से स्वर बदल जाता है।

(ड.) लम्बे समय तक यदि किसी एक स्वर को चलाने की आवश्यकता पड़े तो उक्त तरीकों से स्वर बदल कर शुध्द रूई की छोटी गोली बनाकर साफ कपड़े से लपेट कर सिली हुई गुलिका द्वारा एक नाक को बन्द कर देना चाहिए।

जिस प्रकार विभिन्न कार्यों का सम्पादन करने के लिए स्वर बदलने की आवश्यकता पड़ती है,वैसे ही तत्वों को बदलने की भी आवश्यकता भी पड़ती है। स्वरोदय विज्ञान के अनुसार स्वस्थ व्यक्ति में एक स्वर की एक घंटें की अवधि के दौरान सर्वप्रथम वायु तत्व आठ मिनट तक प्रवाहित होता है, जिसकी लम्बाई नासिका पुट से आठ अंगुल (6 इंच) मानी गयी है। इसके बाद अग्नि तत्व बारह मिनट तक प्रवाहित होता है जिसकी लम्बाई चार अंगुल या 3 इंच तक होती है। तीसरे क्रम में पृथ्वी तत्व 20 मिनट तक प्रवाहित होता है और इसकी लम्बाई बारह अंगुल या नौ इंच तक होती है। इसका विवरण इसके पहले दिया जा चुका है। यहाँ संदर्भ के लिए इसलिए लिया गया है ताकि यह समझा जा सके कि तत्वों के प्रवाह को बदलने के उनकी लम्बाई का ज्ञान और अभ्यास होना आवश्यक है और यदि हम स्वर की लम्बाई को तत्वों के अनुसार कर सकें तो स्वर में वह तत्व प्रवाहित होने लगता है।

स्वरोदय विज्ञान अत्यन्त सूक्ष्म एवं जटिल विज्ञान है। इसका अभ्यास इस विज्ञान के सुविज्ञ गुरु के मार्गदर्शन में ही करना चाहिए। क्योंकि इसके अभ्यास द्वारा अत्यन्त अप्रत्याशित और अलौकिक अनुभव होते हैं, जो हमारे मानसिक संतुलन को बिगाड़ सकते है। इस निबन्ध का उद्देश्य मात्र स्वरोदय विज्ञान से परिचय कराना है और साथ ही यह बताना कि अपने दैनिक जीवन में, जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है, इसकी सहायता निरापद ढंग से कैसे ली जा सकती है अर्थात् जिसके लिए इस विज्ञान के गहन साधना की आवश्यकता नहीं है।