जीवन उपयोगी कुंजियां

त्रिफला चूर्ण

लाभ – आँखों की सुजन, लालिमा, दृष्टिमांद्य, कब्ज, मधुमेह, मूत्ररोग, त्वचा-विकार, जीर्णज्वर व पीलिया में लाभदायक |

शंखपुष्पी सिरप

लाभ – चक्कर आना, थकावट अनुभव करना, मानसिक तनाव, सहनशक्ति का अभाव, चिडचिडापन, निद्रल्पता, मन की अशांति तथा उच्च रक्तचाप आदि रोगों में लाभप्रद स्मरणशक्ति बढाने हेतु एक दिव्य औषधि |

वसंत ऋतु में बीमारियों से सुरक्षा

वसंत ऋतू में सर्दी-खाँसी, गले की तकलीफ, दमा, बुखार, पाचन की गडबडी, मंदाग्नि, उलटी-दस्त आदि बीमारियाँ अधिकांशत: देखने को मिलती हैं | नीचे कुछ सरल घरेलू उपाय दिये जा रहे हैं, जिन्हें अपनाकर आसानी से इन रोगों से छुटकारा पाया जा सकता हैं |

मंदाग्नि :
10 – 10 ग्राम सौंठ, कालीमिर्च, पीपर व सेंधा नमक  सभी को कूटकर चूर्ण बना लें | इसमें 400 ग्राम काली द्राक्ष (बीज निकाली हुई) मिलायें और चटनी की तरह पीस के काँच के बर्तन में भरकर रख दें | लगभग 5 ग्राम सुवह-शाम खाने से भूख खुलकर लगती है |

कफ, खाँसी और दमा :
4 चम्मच अडूसे के पत्तों के ताजे रस में 1 चम्मच शहद मिलाकर दिन में 2 बार खाली पेट लें | (रस के स्थान पर अडूसा अर्क समभाग पानी मिलाकर उपयोग कर सकते हैं |) खाँसी, दमा, क्षयरोग आदि कफजन्य तकलीफों में यह उपयोगी है | इनमें गोझरण वटी भी अत्यंत उपयोगी हैं |  गोझरण वटी की 2 से ४ गोलियाँ दिन में 2 बार पानी के साथ लेने से कफ का शमन होता हैं तथा कफ व वायुजन्य तकलीफों में लाभ होता हैं |

दस्त :
इसबगोल में दही मिलाकर लेने से लाभ होता है | अथवा मूँग की दाल की खिचड़ी में देशी घी अच्छी मात्रा में डालकर खाने से पानी जैसे पतले दस्त में फायदा होता है |

दमे का दौरा :
अ] साँस फूलने पर २० मि.ली.तिल का तेल गुनगुना करके पीने से तुरंत राहत मिलती हैं |

आ] सरसों के तेल में थोडा-सा कपूर मिलाकर पीठ पर मालिश करें | इससे बलगम पिघलकर बाहर आ जायेगा और साँस लेने में आसानी होती है |

इ] उबलते हुए पानी में अजवायन डालकर भाप सुंघाने से श्वास-नलियाँ खुलती हैं और राहत मिलती है |

मंडूकासन
इस आसन में शरीर मंडूक (मेढ़क) जैसा दिखता है | अत: इसे मंडूकासन कहते हैं |

लाभ : १] प्राण और अपान की एकता होती है | वायु-विकारवालों के लिए यह आसन रामबाण के समान है | यह आसन ऊर्ध्व वायु और अधोवायु का निष्कासन करता है |

२] पेट के अधिकांश रोगों में लाभप्रद है व तोंद कम होती है | अतिरिक्त चरबी दूर होती है |

३] मधुमेह में विशेष लाभ होता है |

४] रीढ़ की हड्डी मजबूत होती है |

५] पंजों को बल मिलता हैं और उछलने की क्षमता बढती है |

६] शरीर में हलकापन व आराम महसूस होता है |

७] जोड़ों व घुटनों के दर्द में राहत होती है |

विशेष : जो सामान्य (13 से 15 प्रति मिनट) से ज्यादा श्वास लेते हों, उनको यह आसन अवश्य करना चाहिये |

विधि : दोनों पैरों को पीछे की तरफ मोडकर (वज्रासन में ) बोथे | घुटनों को आपस में मिलाएं | हथेलियों को एक के ऊपर एक रखकर नाभि पर इसप्रकार रखें कि दायें हाथ की हथेली ठीक नाभि पर आये | फिर श्वास छोड़ते हुए शरीर को आगे की और झुकाये और सीने को घुटनों से लगाये | सिर उठाकर दृष्टि सामने रखें | 4 – 5 सेंकड इसी स्थिति में रुकें, फिर श्वास भरते हुए वज्रासन की स्थिति में आए | 3 – 4 बार यह प्रक्रिया दोहराये |

पुष्टिवर्धक प्रयोग
छोटे बच्चे और गर्भवती माताएँ १५ से २५ ग्राम भुनी हुई मूँगफली पुराने गुड के साथ खायें तो उन्हें बहुत पुष्टि मिलती हैं | जिन माताओं का दूध पर्याप्त मात्रा में न उतरता हो, उनके लिए भी इनका सेवन लाभप्रद है |

अनेक रोगों की एक दवा –

कंद-सब्जियों में श्रेष्ठ -सूरन
सूरन (जमीकंद)पचने में हलका,कफ एवं वात शामक, रुचिवर्धक, शूलहर, मासिक धर्म बढानेवाला व बलवर्धक हैं | सफेद सूरन अरुचि, मंदाग्नि, कब्ज, पेटदर्द, वायुगोला, आमवात तथा यकृत व् प्लीहा के मरीजों के लिए एवं कृमि, खाँसी व् श्वास की तकलीफवालों के लिए उपयोगी हैं | सूरन पोषक रसों के अवशोषण में मदद करके शरीर में शक्ति उत्पन्न करता हैं | बेचैनी, अपच, गैस, खट्टी डकारे, हाथ-पैरों का दर्द आदि में तथा शरीरिक रुप से कमजोर व्यक्तियों के लिए सूरन लाभदायी हैं |

सूरन की लाल व सफेद इन दो प्रजातियों में से सफेद प्रजाति का उपयोग सब्जी के रूप में विशेष तौर पर किया जाता हैं |

बवासीर में रामबाण औषधि

  • सूरन के टुकड़ों को पहले उबाल लें और फिर सुखाकर उनका चूर्ण बना लें | यह चूर्ण ३२० ग्राम, चित्रक १६० ग्राम, सौंठ ४० ग्राम, काली मिर्च २० ग्राम एवं गुड १ किला – इन सबको मिलाकर देशी बेर जैसी छोटी-छोटी गोलियाँ बना लें | इसे ‘सूरन वटक’ कहते हैं | प्रतिदिन सुबह-शाम ३ – ३ गोलियाँ खाने से बवासीर में खूब लाभ होता हैं |
  • सूरन के टुकड़ों को भाप में पका लें और टिल के तेल में सब्जी बनाकर खायें एवं ऊपर से छाछ पियें | इससे सभीप्रकार की बवासीर में लाभ होता हैं | यह प्रयोग ३० दिन तक करें | खूनी बवासीर में सूरन की सब्जी के साथ इमली की पत्तियाँ एवं चावल खाने से लाभ होता हैं |

सावधानी – त्वचा-विकार, ह्रदयरोग, रक्तस्त्राव एवं कोढ़ के रोगियों को सूरन का सेवन नही करना चाहिए | अत्यंत कमजोर व्यक्ति के लिए उबाला हुआ सूरन पथ्य होने पर भी इसका ज्यादा मात्रा से निरंतर सेवन हानि करता हैं | सूरन के उपयोग से यदि मुँह आना, कंठदाह या खुजली जैसा हो तो नींबू अथवा इमली का सेवन करें |

स्वाइन फ्लू से सुरक्षा

स्वाइन फ्लू एक संक्रामक बीमारी हैं, जो श्वसन-तंत्र को प्रभावित करती है |

लक्षण – नाक ज्यादा बहना, ठंठ लगना, गला खराब होना, मांसपेशियों में दर्द, बहुत ज्यादा थकान, तेज सिरदर्द, लगातार खाँसी, दवा खाने के बाद भी बुखार का लगातार बढ़ना आदि |

सावधानियाँ –

  • लोगों से हाथ-मिलाने, गले लगाने आदि से बचें | अधिक भीडवाले थिएटर जैसे बंद स्थानों पर जाने से बचें |
  • बिना धुले हाथों से आँख, नाक या मुँह छूने से परहेज करें |

  • जिनकी रोगप्रतिकारक क्षमता कम हो उन्हें विशेष सावधान रहना चाहिए |

  • जब भी खाँसी या छींक आये तो रुमाल आदि का उपयोग करें |

स्वाइन फ्लू से कैसे बचें ?

यह बीमारी हो तो इलाज से कुछ ही दोनों में ठीक हो सकती है, दरें नहीं | प्रतिरक्षा व श्वसन तन्त्र को मजबूत बनायें व इलाज करें |

सुबह 3 से 5 बजे के बीच में किये गये प्राणायाम से श्वसन तन्त्र विशेष बलशाली बनता है | घर में गौ-सेवा फिनायल से पोछा लगाये व् गौ-चन्दन धूपबत्ती पर गाय का घी, डाल के धुप करें | कपूर भी जलाये | इससे घर का वातावरण शक्तिशाली बनेगा | बासी, फ्रिज में रखी चीजें व बाहर के खाने से बचें | खुलकर भूख लगने पर ही खायें | सूर्यस्नान, सूर्यनमस्कार, आसन प्रतिदिन करें | कपूर, इलायची व तुलसी के पत्तो को पतले कपड़े में बाँधकर बार-बार सूंघें | तुलसी के 5 – 7 पत्ते रोज खायें | आश्रमनिर्मित होमियों तुलसी गोलियाँ, तुलसी अर्क, संजीवनी गोली से रोगप्रतिकारक क्षमता बढती है |

कुछ वर्ष पहले जब स्वाइन फ्लू फैला था, तब पूज्य बापूजी ने इसके बचाव का उपाय बताया था : ‘ नीम की 21 डंठलियाँ (जिनमें पत्तियाँ लगती हैं, पत्तियाँ हटा दें ) व 4 काली मिर्च पानी डालकर पीस लें और छान के पिला दें | बच्चा हैं तो 7 डंठलियाँ व सवा काली मिर्च दें |’

स्वाइन फ्लू से बचाव के कुछ अन्य उपाय

  • 5 – 7 तुलसी पत्ते, 10 – 12 नीमपत्ते, 2 लौंग, 1 ग्राम दालचीनी चूर्ण, 2 ग्राम हल्दी, 200 मि.ली. पानी में डालकर उबलने हेतु रख दें | उसमें 4 – 5 गिलोय की डंडियाँ कुचलकर डाल दें अथवा 2 से 4 ग्राम गिलोय चूर्ण मिलाये | 50 मि.ली. पानी शेष रहने पर छानकर पिये | यह प्रयोग दिन में 2 बार करें | बच्चों को इसकी आधी मात्रा दें |

  • दो बूँद तेल नाक के दोनों नथुनों के भीतर ऊँगली से लगाये | इससे नाक की झिल्ली के ऊपर तेल की महीन परत बन जाती हैं, जो एक सुरक्षा-कवच की तरह कार्य करती हैं, जिससे कोई भी विषाणु, जीवाणु तथा धुल-मिटटी आदि के कण नाक की झिल्ली को संक्रमित नहीं कर पायेंगे |

गर्मी में पुदीना के इस्तेमाल से फायदे

पुदीना गर्मियों में विशेष उपयोगी एक सुगंधित औषध है | यह रुचिकर, पचने में हलका, तीक्ष्ण, ह्रदय-उत्तेजक, विकृत कफ हो बाहर लानेवाला, गर्भाशय-संकोचक बी चित्त को प्रसन्न करनेवाला हैं | पुदीने के सेवन से भूख खुलकर लगती है और वायु का शमन होता हैं | यह पेट के विकारों में विशेष लाभकारी है | श्वास, मुत्राल्पता तथा त्वचा के रोगों में भी यह उपयुक्त हैं |

औषधि प्रयोग

१] पेट के रोग : अपच, अजीर्ण, अरुचि, मंदाग्नि, अफरा, पेचिश, पेट में मरोड़, अतिसार, उलटियाँ, खट्टी डकारें आदि में पुदीने के रस में जीरे का चूर्ण व आधे नींबू का रस मिलाकर पीने से लाभ होता है |

२] मासिक धर्म : पुदीने को उबालकर पीने से मासिक धर्म की पीड़ा तथा अल्प मासिक स्राव में लाभ होता हैं | अधिक मासिक स्त्राव में यह प्रयोग न करें |

३] गर्मियों में : गर्मी के कारण व्याकुलता बढने पर एक गिलास ठंडे पानी में पुदीने का रस तथा मिश्री मिलाकर पीने से शीतलता आती है |

४] पाचक चटनी : ताजा पुदीना, काली मिर्च, अदरक, सेंधा नमक, काली द्राक्ष और जीरा – इन सबकी चटनी बनाकर उसमें नींबू का रस निचोड़कर खाने ने रूचि उत्पन्न होती है, वायु दूर होकर पाचनशक्ति तेज होती है | पेट के अन्य रोगों में भी लाभकारी है |

५] उलटी-दस्त, हैजा : पुदीने के रस में नींबू का रस, अदरक का रस एवं शहद मिलाकर पिलाने से लाभ होता है |

६] सिरदर्द : पुदीना पीसकर ललाट पर लेप करें तथा पुदीने का शरबत पियें |

७] ज्वर आदि : गर्मी में जुकाम, खाँसी व् ज्वर होने पर पुदीना उबाल के पीने से लाभ होता हैं |

८] नकसीर : नाक में पुदीने के रस की ३ बूँद डालने से रक्तस्त्राव बंद हो जाता हैं |

९] मूत्र-अवरोध : पुदीने के पत्ते और मिश्री पीसकर १ गिलास ठंडे पानी में मिलाकर पियें |

१०] गर्मी की फुंसियाँ : समान मात्रा में सूखा पुदीना एंव मिश्री पीसकर रख लें | रोज प्रात: आधा गिलास पानी में ४ चम्मच मिलाकर पियें |

११] हिचकी :पुदीने या नींबू के रस-सेवन से राहत मिलती हैं |

मात्रा : रस -५ से २०० मि.ली.| अर्क – १० से २० मि.ली. (उपरोक्त प्रयोगों में पुदीना रस की जगह अर्क का भी उपयोग किया जा सकता है ) | पत्तों का चूर्ण – २ से ४ ग्राम (चूर्ण बनाने के लिए पत्तों का छाया में सुखाना चाहिये ) |

एलोवेरा जेल

एलोवेरा जेल
लाभ : यह त्वचा को मुलायम व कोमल बनाकर उसमें निखार लाता हैं तथा अल्ट्रावाँयलेट किरणों के प्रदुषण व त्वचा-उत्तेजकोण आदि से होनेवाले हानिकारक प्रभाव से सुरक्षा प्रदान करता हैं | इसके उपयोग से किल-मुँहासे, काले दाग-धब्बे, निशान, दरारें व झुरियों से रक्षा होती हैं | यह रुखी और तैलीय त्वचा – दोनों के लिए उपयोगी हैं |

  त्वचा को पानी से धोने के बाद हलके हाथों से लगायें |

आरती में कपूर का उपयोग

आरती में कपूर का उपयोग

कपूर – दहन में बाह्य वातावरण को शुद्ध करने की अदभुत क्षमता है | इसमें जीवाणुओं, विषाणुओं तथा सूक्ष्मतर हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करने की शक्ति है | घर में नित्य कपूर जलाने से घर का वातावरण शुद्ध रहता है, शरीर पर बीमारियों का आक्रमण आसानी से नहीं होता, दु:स्वप्न नहीं आते और देवदोष तथा पितृदोषों का शमन होता है |

स्वास्थ्य से सूत्र

स्वास्थ्य के सूत्र जिन नियमों को अपनाकर व्यक्ति स्वस्थ जीवन जी पाए उनकी जानकारी व वैज्ञानिक विवेचन नीचे दिया जा रहा है। अच्छा तैराक वह होता है जिसे नदी के  सभी भंवरों की जानकारी होती है न कि वह जो भंवर में फंस जाए। यह संसार भी एक भवसागर है जिसमें अनेक भंवर होते हैं। यदि एक बार व्यक्ति भंवर में फंस जाए तो निकलने में काफी कठिनाई होती है, प्राण जाने का भय भी रहता है। इसी प्रकार यदि व्यक्ति किसी गम्भीर रोग के चंगुल में फंस जाए तो बहुत दर्द सहना पड़ता है व प्राण जाने का खतरा भी मंडराता रहता है। इसीलिए समझदारी इसी में है कि हम यथा सम्भव स्वास्थ्य के स्वर्णिम सूत्रों का विस्तृत अध्ययन व पालन करने का प्रयास अवश्य करें। स्वास्थ्य के सूत्रों को पाठकों को अपनी प्रकृति के अनुसार ग्रहण करना चाहिए। स्वस्थ व्यक्ति के लिए सूत्र अलग हैं व रोगी के लिए अलग। उदाहरण के लिए शीतल जल में स्नान से बहुत लाभ होता है परन्तु यदि ज्व पीड़ित व्यक्ति ठण्डे जल से नहा ले तो हानि भी हो सकती है। इसी प्रकार घी खाने से व्यक्ति हष्ट-पुष्ट बनता है परन्तु जिसका हाजमा कमजोर है वह यदि घी खा ले तो पेट दर्द अथवा दस्त से पीड़ित हो सकता है। अतः पाठकों से विनम्र निवेदन है कि विवेक का प्रयोग करते हुए अथवा किसी उत्तम वैद्य के परामर्श से साथ ही सूत्रों का लाभ उठायें। ये सूत्र निम्नलिखित हैं। 1. भूख व भोजन अच्छे स्वास्थ्य के लिए यह आवश्यक है कि उचित भूख लगने पर ही भोजन किया जाए। ऐसा क्यों करें? कारण यह है कि जो भोजन हम करते हैं उसका परिपाक आमाशय में होता है। यदि भूख ठीक न हो तो आमाशय के द्वारा भोजन ठीक से नहीं पकता अथवा पचता। इस कारण भोजन से जो रस उत्पन्न होते हैं वो दूषित रहते हैं। ये रस व्यक्ति में रोग उत्पन्न करते हैं व स्वास्थ्य खराब करते हैं। इस समस्या को आयुर्वेद में आमवात कहा जाता है। किसी ने सत्य ही कहा है- ”आम कर दे काम तमाम“ यह आमवात ही सन्धिवात का मूल कारण होता है। परन्तु आज विडम्बना यह है कि व्यक्ति को खुलकर भूख लगना ही भूख लगना ही बंद हो गया है प्राकृतिक भूख व्यक्ति को लग नहीं पा रही है। बस दो या तीन समय भोजन सामने देख व्यक्ति भोजन कर डालता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति भूख से कम खाए। भोजन पेट की भूख से तीन चौथाई करें। एक चौथाई पेट खाली रखें। जब पेट भरने लगे अथवा डकार आ जाए तो भोजन करना बन्द कर दें। ठूस-ठूस कर खाने से शरीर भारी हो जाता है। भूख से अधिक खाने पर पाचन तन्त्र पर एक दबाव बनता है। पेट, आमाशय, आँतें मिलकर पाचन तन्त्र बनता है, इसमें फूलने सिकुड़ने की क्रिया होती रहती है, और उलट पुलट के जिए जगह की गुंजाईश रखे जाने की आवश्यकता पड़ती है। इस सारे विभाग में ठूॅंस-ठूॅंस कर भरा जाए और कसी हुई स्थिति में रखा जाए, तो स्वभावतः पाचन में बाधा पड़ेगी, अवयवों पर अनावश्यक दबाव-खिंचाव रहने से उनकी कार्यक्षमता में घटोतरी होती जाएगी। उन अंगों से पाचन के निमित्त जो रासायनिक स्त्राव होते हैं, उनकी मात्रा न्यून रहेगी और सदा हल्की-भारी कब्ज बनी रहेगी। आहार के सम्बन्ध में यह विशेष उल्लेखनीय है कि सच्ची एवं परिपक्व भूख लगने पर ही खाना खाएं। रुस के स्वास्थ्य विशेषज्ञ ब्लाडीमार कोरेचोवस्को का मत है – भूख से जितना अधिक खाते हैं, समझना चाहिए कि उतना ही विष खाते हैं। बच्चों के लिए भोजन में कोई नियम नहीं रखने चाहिए। जब इच्छा हो खाएं। युवाओं को पौष्टिक भोजन नियमानुसार करना चाहिए व प्रौढ़ भोजन सन्तुलित करें। अपवाद – बहुत से व्यक्ति डायबिटिज व अन्य घातक रोगों के चंगुल में फंस कर बहुत कमजोर हो गए हैं। ऐसे लोगों को यह सुझाव दिया जाता है कि हर दो तीन घण्टें में कुछ न कुछ खाते रहें अन्यथा बहुत दुर्बलता अथवा अम्लता बनने लगेगी। 2. भोजन का समय दो समय भोजन काना अच्छा होता है। भोजन करने का सबसे अच्छा समय प्रातः 8 से 10 बजे व सांय 5 से 7 बजे के बीच है। यदि कोई भारी खाद्य पदार्थ लेना है तो प्रातः भोजन में ही लें, क्योंकि पाचन क्षमता सूर्य से प्रभावित होती है। 12 बजे के आस-पास पाचन क्षमता सर्वाधिक होती है, अतः 10 बजे तक किया गया भोजन बहुत अच्छे से पच जाता है। अन्न वाले खाद्य पदार्थ दो बार से अधिक न लें। परन्तु आवश्यकतानुसार तीन बार भी भोजन किया जा सकता है। सांयकाल भोजन हल्का करें। भोजन का पाचन सूर्य पर निर्भर करता है। सूर्य की ऊष्मा से नाभिचक्र अधिक सक्रिय होता है। भोजन पचाने में लगी अग्नि को जठराग्नि कहा जाता है जिसका नियंत्रण नाभि चक्र से होता है। जिनका नाभि चक्र सुस्त हो जाता है, कितना भी चूर्ण चटनी खा लें भोजन ठीक से नहीं पच पाता। गायत्री का देवता सविता ;सूर्यद्ध है अतः नाभि चक्र को मजबूती के लिए गायत्री मंत्र का आधा घण्टा जप अवश्य करें। दो ठोस आहारों के बीच 6 घण्टें का अन्तर रखें। 3 घण्टें से पहले ठोस आहार न लें। अन्यथा अपच होगा जैसे हाण्डी में यदि कोई दाल पकाने के लिए रखी जाए उसके थोड़ी देर बाद दूसरी दाल डाल दी जाए तो यह सब कच्चा पक्का हो जाएगा। बार-बार खाने से भी यह स्थिति उत्पन्न होती है। भोजन के पश्चात् 6 घण्टें से अधिक भूखे न रहें। इससे भी अम्लता इत्यादि बढ़ने का खतरा रहता है। 3. भोजन की प्रकृति रोटी के लिए मोटा प्रयोग करें यह आँतोंमें नहीं चिपकेगा । मैदा अथवा बारीक आटा आँतों में चिपक कर सड़ता है जिससे आँतों में संक्रमण ; इन्फेक्शन का खतरा बढ़ जाता है। साबूत दालें भिगोकर अंकुरित करके खाएं । भोजन को जरूरत से ज्यादा पकाएं नहीं। भोजन के विषय में कहा जाता है – हितभुक, ऋतभुक,मितभुक। हितभुक का अर्थ है वह भोजन करें तो हितकारी हो। जैसे दूध के साथ मूली व दही के साथ खीर लेना अहितकारी है परन्तु केले के साथ छोटी इलाइची एवं चावल के साथ नारियल की गिरी लाभप्रद है ऋतभुक का अर्थ है भोजन ऋतु के अनुकूल हो उदाहरण के लिए ग्रीष्म ऋतु में आटे में गेहूॅं के साथ जौ पिसवाना लाभप्रद रहता है क्योंकि जौ की प्रकृति शीतल होती है परन्तु वर्षा ऋतु में गेहूॅं के साथ चना पिसवाना आवश्यक है वर्षा ऋतु में वात कुपित होता है जिसको रोकने के लिए चना बहुत लाभप्रद रहता है। अन्यथा व्यक्ति कमर दर्द व अन्य पीड़ाओं से ग्रस्त हो सकता है। अन्तिम मितभुक का अर्थ है भूख से कम भोजन करें। पेट को ठूॅंस-ठूॅंस कर न भरें। 4. भोजन के समय की स्थिति भोजन से पूर्व अपनी मानसिक स्थिति शान्त कर लें। भोजन शान्त मन से चबा-चबा कर व स्वाद ले-लेकर करें। यदि भोजन में रस आए तो वह शरीर को लगता है अन्यथा खाया-पीया व बेकार निकल गया तथा पचने में मेहनत और खराब हो गई। भोजन करते हुए किसी भी प्रकार के तनाव, आवेश, भय, चिन्ता के विचारों से ग्रस्त न हों। भोजन ईश्वर का प्रसाद मानकर प्रसन्न मन से करें। भोजन को खूब चबा-चबा कर खाना चाहिए। विद्वभोन के समय ईर्ष्या, भय, क्रोध, लोभ, रोग, दीनता का भाव, विद्वेष रखने से खाया हुआ अन्न भली-भाँति नहीं पचता है, जिससे रस रक्तादि की उत्पत्ति भी ठीक प्रकार शुरू से नहीं होती है। अतः सुखपूर्वक बैठकर प्रसन्नता से धीरे-धीरे खूब चबा-चबा कर भोजन करना चाहिए। भोजन के समय कोई अन्य काम जैसे पुस्तक पढ़ना, टीवी देखना न करें। भोजन को सही से चबाने पर उसमें पाचक रसों का समावेश उपयुक्त मात्रा में होता है। यदि जल्दी जल्दी में भोजन को पेट की भट्टी में झोंक दिया जाए तो इसका परिणाम अपच, दस्त तथा गैस उत्पति के रूपमें अनुभव किया जा सकता है। जो लोग अप्रसन्न मन से भोजन करते हैं उनके शरीर में कीटोन्स ;विषाक्त तत्वद्ध बढ़ने लगते हैं। अतः जो भी भोजन ग्रहण करें प्रसन्न मन से भगवान् को धन्यवाद देना न भूलें। 5. दिन में भोजन के पश्चात् थोड़ी देर विश्राम एवं सांयकाल लगभग 100-200 कदम अवश्य चलें। 6. भोजन के पश्चात् एक घण्टे तक जल न पीएँ। यदि आवश्यकता लगे तो भोजन के बीच अल्पमात्रा में पानी पीएँ, क्योंकि अधिक जल पीने से पाचक रस मन्द हो जाते हैं। 7. सप्ताह में एक दिन इच्छानुसार स्वादिष्ट भोजन कर सकते हैं। पाँच दिन सामान्य भोजन करें व एक दिन व्रत अवश्य करें। सामान्य भोजन में मिर्च मसालों का प्रयोग कम से कम करें। 8. घी का सेवन वही करें जो शारीरिक कार्य अधिक करते हैं। मानसिक कार्य करने वाले घी का सेवन अल्प मात्रा में ही करें। पित्त प्रकृति वालों के लिए घी का प्रयोग लाभप्रद होता है। 9. दूध या पेय पदार्थों को जल्दी-जल्दी नहीं गटकना चाहिए। धीरे-धीरे चूस-चूस कर पीना चाहिए। पेय पदार्थों का तापक्रम न तो अधिक गर्म हो न ही अधिक शीतल। 10. घी में तले हुए आलू, चिप्स आदि का प्रयोग कम से कम करना चाहिए। तलने के स्थान पर भाप द्वारा पकाना कहीं अधिक गुणकारी व सुपाच्य होता है। 11. क्या खाया? कितना खाया? यह महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि कितना पचाया यह महत्वपूर्ण है। 12. भोजन जीवन का साधन मात्र है। शुर सात्विक व स्वच्छ भोजन से ही जीवन अच्छा हो सकता है। 13. इतना मत खाओ कि तुम्हारा शरीर आलसी हो जाए। 14. दिनान्ते च पिवेद् दुग्धं निशान्ते च जलं पिबेत्। भोजनान्ते पिवेत् तक्रं वैद्यस्य किं प्रयोजनम्। यदि रात्रि को शयन से पूर्व दुग्ध, प्रातःकाल उठकर जल ;उषापानद्ध और भोजन के बाद तक मट्ठादि पिएँ तो जीवन में वैद्य की आवश्यकता ही क्यों पड़े? 15. दीर्घ आयु के लिए भोजन का क्षारीय होना आवश्यक है। क्षार व अम्ल का अनुपात 3:1 होनी चाहिए। जो लोग अम्लीय भोजन करते हैं उसमें उनको रक्त-विकार अधिक तंग करते हैं। कुछ शोधों के निष्कर्ष यह भी बताते हैं कि भोजन में क्षार तत्व बढ़ाकर हृदय की धमनियों के इसवबांहम भी खोलें जा सकते हैं। भोजन में अम्लीय पदार्थों की मात्रा कम रखें। स्वस्थ रहने के लिए रक्त की क्षारीयता 80 प्रतिशत तथा अम्लता 20 प्रतिशत होनी चाहिए। यह सन्तुलन बना रहता है, तब तक रोगों का भय नहीं रहता है। आज की पश्चिम जीवनशैली को अपनाकर हमारे देश में अस्पताल और डाॅक्टर दोनों बढ़ने पर तथा नई-नई दवाओं का आविष्कार होने पर भी रोग और रोगी दोनों ही घटने का नाम नहीं ले रहे हैं। आवश्यकता है क्षारीयता प्रदान करने वाले खाद्यों का उत्पादन भी बढ़ाया जाए और जीवनशैली में भी लाया जाए। रक्त को क्षारीयता प्रदान करने वाले खाद्यों में चोकर युक्त आटे की रोटी, अंकुरित अनाज, मूली, गाजर, टमाटर, पत्तागोभी, हरा धनिया, मेथी, पालक, बथुआ, चने इत्यादि शाक-सब्जी, सलाद तथा सभी ताजे पके हुए मीठे फल लेने चाहिए। सभी फल एवं हरी सब्जियों का प्रयोग करें। अंकुरित मूॅंग, अंकुरित चना, अंकुरित सोयाबीन इत्यादि का भरपूर प्रयोग करें। मैदा, बेसन, बिना छिलके की दालें एवं सफेद चीनी, सफेद नमक, तेल, शराब, चाय, काॅफी, कोल्ड-ड्रिंक्स जैसे बोतलबंद पेय, बिस्कुट, ब्रैड , आचार, चाट, कचैड़ी, समौसा, नमकीन एवं पराठें, पूड़ी आदि खून में अम्लता बढ़ाकर रोग पैदा करते हैं अतः स्वास्थ्य रक्षा के लिए अपने दैनिक भोजन में अधिकाधिक फल तथा हरी सब्जियों को स्थान देना चाहिए। 16. तीन सफेद विषों का प्रयोग कम से कम करें – सफेद नमक, सफेद चीनी व सफेद मैदा। 17. फल सब्जियों में विटामिन  पर्याप्त मात्रा में होते हैं। इनका प्रयोग लाभप्रद रहता है। 18. कभी-कभी बादाम व अखरोट का भिगोकर सेवन करते रहें। इससे जोड़ों की ग्रीस अर्थात् ताकत बनी रहती है जो अखरोट में होता है जो सेहत के लिए जरुरी है। 19. जितना सम्भव हो जीवित आहार लें। अधिक तला भुना पदार्थ व जंक फूड मृत आहारों की श्रेणी में आते हैं। 20. गेहूॅं, चावल थोड़ा पुराना प्रयोग करें। 21. घर में फ्रिज में कम से कम सामान रखने का प्रयास करें। पुराना बारीक आटा व सब्जी का प्रयोग जोड़ों के दर्द को आमन्त्रित करता है। 22. भोजन के उपरान्त वज्रासन में बैठना बहुत लाभकारी होता है। भोजन करने के पश्चात् एक दम न सोए न दिन में, न रात में।दिन में भोजन के पश्चात् थोड़ी देर विश्राम व सांयकाल लगभग 100-200 कदम अवश्य चलें। 23. भोजन के पश्चात् दाई साॅंस चलाना अच्छा होता है। इससे जठाराग्नि तीव्र होती है व पाचन में मदद मिलती है। 24. पानी सदा बैठकर धीरे-धीरे पिऐं, एकदम न गटकें। जल पर्याप्त मात्रा में पियें । सामान्य परिस्थितियों में जल इतना पीयें कि 24 घण्टें में 6 बार मूत्र त्याग हो जाए। मूत्र त्याग करते समय अपने दांत बीच कर रखें। नियमित दिनचर्याः अधिकांश व्यक्ति अपनी जीवन-शैली को अस्त-व्यस्त रखते हैं इस कारण रोगों की चपेट में आने लगते हैं। रोगी होने पर एलोपैथी अथवा अन्य चिकित्सकों से इलाज कराते हैं, परन्तु जीवन-चर्या को ठीक करने की ओर ध्यान नहीं देते। इस कारण रोग जिद्दी ;बीतवदपबद्ध होने लग जाते हैं। जब रोग घातक स्थिति तक पहुॅंच जाता है तभी आँख खुलती है व रोग के निवारण के लिए बहुत परेशानी उठानी पड़ती है। यदि हम पहले से ही सचेत रहकर अपनी जीवनचर्या पर नियन्त्रण रखें तो हम ऋषियों के अनुसार ‘जीवेम शरदः शतम्’ अर्थात् 100 वर्ष तक स्वस्थ जीवन जी सकते हैं। इसके लिए हमें निम्न सूत्रों को जीवन में अपनाना होगा। 25. प्रातःकाल सूर्योदय से दो घण्टा पूर्व अवश्य उठें। ऋषियों ने इसे ब्रह्ममुहूर्त की संज्ञा दी है। इस समय की वायु में जीवनी शक्ति सर्वाधिक होती है। वैज्ञानिकों ने शोध किया है कि पेड़-पौधों की वृद्धि इस समय व संधिकाल ;दिन-रात के मिलने का समयद्ध में सबसे अधिक होती है। 26. प्रातः उठने के पश्चात् ऊषा पान , जलपानद्ध करें। यह जल ताजा पी सकते हैं। यदि रात को ताम्र पात्र में जल भरकर रख दें वह पीना अधिक लाभप्रद है। ताम्र पात्र को विद्युत रोधी लकड़ी, रबड़, प्लास्टिक के ऊपर रखें इससे पानी में ऊर्जा निहित हो जाती है। यदि सीधा जमीन या स्लैब आदि पर रख दें तो यह ऊर्जा जमीन में चली जाती है। शीत ऋतु में जल को हल्का गर्म करके पीयें व ग्रीष्म ऋतु में सादा ;अधिक ठण्डा न होद्ध लें। जल की मात्रा इच्छानुसार लें। जितना पीना आपको अच्छा लगे- आधा किलो, एक किलो, सवा किलो उतना पी लें। जोर-जबरदस्ती न करें। कई बार अधिक पानी-पीने के चक्कर में हृदय की धड़कन बढ़ती है या पेट में दर्द आदि महसूस देता है, अतः जितना बर्दाश्त हो उतना ही पानी पिया जाए। 27. जल पीकर थोड़ा टहलने के पश्चात् शौच के लिए जाएँ। मल-मूत्र त्यागते समय दाँत थोड़ा भींचकर रखे व मुँह बंद रखें। मल-मूत्र त्याग बैठकर ही करना उचित होता है। 28. मंजन जलपान करने से पहले भी कर सकते हैं व शौच जाने के बाद भी। ब्रश से ऊपर-नीचे करके मंजन करें। सीधा-सीधा न करें। यदि अंगुली का प्रयोग करना हो तो पहली अंगुली तर्जनी का प्रयोग न करें। अनामिका  अंगुली का प्रयोग करें, क्योंकि तर्जनी अंगुली से कभी-कभी ;मनः स्थिति के अनुसारद्ध हानिकारक तरंगें निकलती हैं जो दाँतों, मसूड़ों के लिए हानिकारक हो सकती है। कभी-कभी नीम की मुलायम दातुन का प्रयोग अवश्य करें। इससे दाँतों के कीटाणु मर जाते हैं यदि नीम की दातुन से थोड़ा-बहुत रक्त भी आए तो चिन्ता न करें। धीरे-धीरे करके ठीक हो जाएगा। कुछ देर नीम की दातुन करते हुए रस चूसते रहें उसके पश्चात् थोड़ा-सा रस पी लें। यह पेट के कीटाणु मार देता है। यदि पायरिया के कारण दाँतों से रक्त अधिक आए तो बबूल की दातुन का प्रयोग करें वह काफी नरम व दाँतों को मजबूती प्रदान करने वाली होती है। मंजन दोनों समय करना अच्छा रहता है- प्रातःकाल व रात्रि सोने से पूर्व। परन्तु दोनों समय ब्रश न करें। एक समय ब्रश व एक समय अंगुलि से मंजन करें। अधिक ब्रश करने से दाँत व मसूढ़े कमजोर होने का भय बना रहता है। मंजन करने के पश्चात् दो अंगुलि जीभ पर रगड़कर जीभ व हलक साफ करें। हल्की उल्टी का अनुभव होने से गन्दा पानी आँख, नाक, गले से निकल आता है। इससे टान्सिलस की शिकायत नहीं होती। 29. स्नान ताजे जल से करें, गर्म जल से नहीं। ताजे जल का अर्थ है जल का तापक्रम शरीर के तापक्रम से कम रहना चाहिए। छोटे बच्चों 5 वर्ष से कम उम्र के  लिए अधिक ठण्डा जल नहीं लेना चाहिए। शरद ऋतु में भी जल का तापक्रम शरीर के तापक्रम से कम ही होना चाहिए, परन्तु बच्चों, वृध्दों व रोगियों को गुनगुने जल से स्नान करना चाहिए। स्नान सूर्योदय से पूर्व अवश्य कर लेना चाहिए। रात्रि में पाचन तन्त्र को क्रियाशील रहने से शरीर में एक प्रकार की ऊष्मा  बनती है जो शीतल जल में स्नान करने से शांत हो जाती है, परन्तु यदि सूर्योदय से पूर्व स्नान नहीं किया गया तो सूर्य की किरणों के प्रभाव से यह ऊष्मा और बढ़ जाती है तथा सबसे अधिक हानि पाचन तन्त्र को ही पहुँचाती है। 30. स्नान के पश्चात् भ्रमण ;तेज चाल सेद्ध, योगासन, प्राणायाम, ध्यान, पूजा का क्रम बनाना चाहिए। इसके लिए प्रतिदिन आधा से एक घण्टा समय अवश्य निकालना चाहिए। बच्चों को भी मंदिर में हाथ जोड़ने, चालीसा आदि पढ़ने का अभ्यास अवश्य कराना चाहिए। शारीरिक श्रम व व्यायाम 31. स्वस्थ व्यक्ति प्रतिदिन इतना श्रम अवश्य करें कि उसके शरीर से पसीना निकलता रहे। इससे खून की सफाई हो जाती है। जो व्यक्ति पर्याप्त मेहनत नहीं करता उसको व्यायाम, योगासन अथवा प्रातः सांय तीन चार कि.मी. पैदल चलना चाहिए। 32. हमारा सम्पूर्ण शरीर माॅंसपेशियों का बना है। माॅंसपेशियों की ताकत बनाए रखने के लिए उचित शारीरिक श्रम अथवा व्यायाम अनिवार्य है। 33. चीन के लोग स्वस्थ व ताकतवर होते हैं क्योंकि वो साइकिलों का प्रयोग खूब करते हैं। पहले महिलायें घर का कार्य स्वयं करती थी इससे बहुत स्वस्थ रहती थी, परन्तु आज के मशीनी युग ने हमारी माता-बहनों का स्वास्थ्य चौपट कर दिया है। यह हमारे सामने प्रत्यक्ष है कि बगाडियो व पहाड़ी महिलाओं को प्रसव में बहुत कम कष्ट होता है। उनके यहाँ आराम से घर पर ही बच्चे पैदा हो जाते हैं क्योंकि वो मेहनत बहुत करती हैं। 34. शारीरिक श्रम व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के अनुसार करें। यदि रोगी व दुर्बल व्यक्ति अधिक मेहनत कर लेगा तो उसे लाभ के स्थान पर हानि भी हो सकती है। इस स्थिति में पैदल चलना बहुत लाभप्रद रहता है। 35. समाज में कुछ अच्छी परिपाटियाॅं अवश्य चलें। जैसे प्रातः अथवा सांय पूरा परिवार मिलकर स्वयं लघु वाटिका चलाए कुछ फल, फूल, सब्जियाॅं उगाए। इससे परिवार को अच्छी सब्जियाॅं मिलेंगी व शारीरिक श्रम भी होगा। 36. इन्द्रिय संयम – इस नियम के अन्तर्गत जीभ व जननेन्द्रिय का संयम आता है। जिह्वा संयम के लिए सप्ताह में एक दिन अस्वाद व्रत अर्थात् बिना नमक मिर्च मसालों का अस्वाद भोजन करें। जननेन्द्रिय संयम के लिए अश्लील वातावरण से बचने का प्रयास करें। गलत वातावरण बड़े-बड़े जितेन्द्रिय का भी पतन कर देता है। विवाहित व्यक्ति भी गृहस्थ जीवन में मर्यादानुसार ही सम्भोग करें। 25 से 35 वर्ष तक के गृहस्थ हफ्ते, दो हफ्ते में एक बार, 35 से 45 वर्ष की आयु तक के गृहस्थ तीन चार सप्ताह में एक बार व इससे ऊपर दो चार माह में एक बार ही मिलें। महिलाओं के ऋतुकाल में यह वर्जित है क्योंकि इस समय प्रकृति अनुकूल नहीं होती। 37. आहार, निद्रा व ब्रह्मचर्य इन तीनों बातों से स्वास्थ्य पर बहुत प्रभाव पड़ता है। आहार में मांस, अण्डा, शराब, मिर्च-मसाले व अधिक नमक से बचना चाहिए। निद्रा छः से आठ घण्टे के बीच लेनी चाहिए व अश्लील चिन्तन से बचना ही ब्रह्मचर्य है। 38. जीवन आवेश रहित होना चाहिए। ईष्र्या-द्वेष, बात-बात पर उत्तेजित होने का स्वभाव जीवनी शक्ति को भारी क्षति पहुँचाता है। 39. रात्रि को सोते समय मच्छरों से बचने के लिए मच्छरदानी का प्रयोग करना चाहिए। कीटनाशकों का कम से कम प्रयोग करना चाहिए। लम्बे समय तक मच्छरनाशक रसायनों के उपयोग से मनुष्य को सर्दी-जुकाम, पेट में ऐंठन और आँखों में परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। ये लक्षण और विड्डतियाँ पायरेथ्राइडस नामक ड्डत्रिम कीटनाशक के कारण होती हैं जो कीटों के तंत्रिका तन्त्र पर हमला करता है। सेफ्टी वाच समूह ‘सी.यू.टी.एस.’ ने अपने नए प्रकाशन ‘इज इट रियली सेफ’ में बताया है कि ये रसायन मानव शरीर के लिए बहुत-ही विषैले और हानिकारक होते हैं। 40. भोजन बनाते समय साबुत दालों का प्रयोग करना चाहिए। छिलका उतरी दालों का प्रयोग बहुत कम करना चाहिए। आटा चोकर सहित मोटा प्रयोग में लाना चाहिए। बारीक आटा व मैदा कम से कम अथवा कभी-कभी ही प्रयोग करना चाहिए। दाल, सब्जियों को बहुत अधिक नहीं पकाना चाहिए। आधा पका भोजन ही पाचन व पौष्टिकता की दृष्टि से सर्वोत्तम है। 41. व्यस्त रहें, मस्त रहें के सूत्र का पालन करना चाहिए। व्यस्त दिनचर्या प्रसन्नतापूर्ण ढंग से जीनी चाहिए। 42. प्रातः उठते ही दिनभर की गतिविधियों की रूपरेखा बना लेनी चाहिए व रात्रि को सोते समय दिन भर की गतिविधियों का विश्लेषण करना चाहिए। यदि कभी कोई गलती प्रतीत होती हो, तो भविष्य में उस त्रुटि को दूर करने का संकल्प लेना चाहिए। 43. शयन के लिए बिस्तर पर मोटे बाजारू गद्दों का प्रयोग न करें, हल्के रूई के गद्दों का प्रयोग करें। घर में अथवा आस-पास नीम चढ़ी गिलोय उगाकर रखें व हफ्ते पन्द्रह दिन एक-दो बार प्रातःकाल उबालकर पीते रहें। गिलोय से शरीर स्वस्थ व निरोग रहता है। लीवर सुचारू रूप् से काम करता है। 44. शीत ऋतु में दो तीन माह आंवले का उपयोग करें। यह बहुत ही उच्च कोटि का स्वास्थ्यवर्धक रसायन है। 45. प्रातःकाल सूर्योदय के समय सविता देवता को प्रणाम कर उत्तम स्वास्थ्य की कामना करें व गायत्री मन्त्र पढ़ें। इससे सूर्य स्नान होता है। नस नाडियों के रोग जैसे सर्वाइकल आदि नहीं होते। 46. वस्त्र सदा ढीलें पहने। नाड़े वाले कुर्ते-पजामे सर्वोतम वेश हैं। कसी जीन्स आदि बहुत घातक होती हैं। 47. जब भी मिठाई खाए, कुल्ला अवश्य करें। 48. घर में तुलसी उगाकर रखें इससे सात्विक ऊर्जा में वृद्धि होती है तथा वास्तु दोष दूर होते हैं। समय-समय पर तुलसी का सेवन करते रहें। 49. मोबाईल पर लम्बी बातें न करें। यह दिमाग में टयूमर व अन्य व्याधियाॅं उत्पन्न कर सकता है। 50. देसी गाय के दूध घी का सेवन करें। देसी गौ का सान्निधय भी बहुत लाभप्रद रहता है। 51. दस-पन्द्रह दिन में एक बार घर में यज्ञ अवश्य करें। अथवा प्रतिदिन घी का दीपक जलाये। 52. ध्यान रहे लम्बे समय तक वासना, ईर्ष्या , द्वेष, घृणा, भय, क्रोध के विचार मन में न रहें अन्यथा ये आपका स्नायु तन्त्र क्षमता उद्ध विकृत कर सकते हैं। यह बड़ा ही दर्दनाक होता है न व्यक्ति जीने लायक होता है न मरने लायक। 53. धन ईमानदारी से कमाने का प्रयास करें। सदा सन्मार्ग पर चलने का अभ्यास करें। इससे आत्मबल बढ़ता है। 54. सदा सकारात्मक सोच रखे। यदि आपने किसी का बुरा नहीं सोचते तो आपके साथ बुरा कैसे हो सकता है। यदि आपसे गलतियाॅं हुई हैं तो उनका प्रायश्चित करें। इससे उनका दण्ड बहुत कम हो जाता है। जैसे डाकू वाल्मिकी ने लोगों को लूटा तो सन्त हो जाने पर बेसहारों को सहारा देने वाला आश्रम बनाया। 55. रोग का उपचार नहीं कारण खोजिए। रोगों का इलाज औषधालय में नहीं भोजनालय में देखिए। 56. यदि किसी को बार-बार जुकाम होता है तो नाक में रात्रि में सोने से पहले दो बूॅंद शुद्ध सरसों का तेल अथवा गाय का घी डालें। इससे नेत्र ज्योति बढ़ती है। दिमाग तेज होता है व नजला जुकाम आदि विकारों से राहत मिलती है। 57. रात्रि में सोने से पहले पैरों के तलवों पर सरसों के तेल की हल्की मालिश करने से नस नाड़ियां मजबूत होती है व नींद अच्छी आती है। 58. यदि किसी के हृदय की धड़कन बढ़ती है तो यह हृदय की माॅंसपेशियों की कमजोरी दर्शाता है इसके लिए 10 पत्ते पीपल के लेकर दोनों तरफ से थोड़ा-थोड़ा कैंची से काटकर दो गिलास पानी में उबाल लें। जब पानी एक गिलास बचे तो उसको हल्के नाश्ते के बाद 10-10 मिनट के उपरान्त तीन बार पियें। इससे हृदय की माॅंसपेशियाॅं मजबूत होती हैं व धड़कन में राहत मिलती है। यह प्रयोग 10-15 दिन तक कर सकते हैं। 59. घर में प्रतिदिन घी का दीपक जलाने से नकारात्मक ऊर्जा नष्ट होती है व परिवार के सदस्यों का तेज बढ़ता है। जिन लोगों को भूत-प्रेत, टोने-टोटकों का भय हो वो कभी-कभी 24 घण्टें अखण्ड दीप जलाएं।

बीमारियों की वजह बन सकता है मोटापा

दुनियाभर में लगभग 2 अरब 10 करोड़ लोग मोटापे के शिकार हैं, जो चिंता का विषय है। मोटापे के प्रकोप और खतरे को देखते हुए 15 से 19 अक्तूबर तक विश्व मोटापा जागरूकता सप्ताह मनाया जाता है। ऐसे में इस समस्या के बारे में जानना बेहत जरूरी है। जानकारी दे रही हैं शमीम खान
मोटापा एक मेडिकल कंडीशन है, जिसमें शरीर पर वसा की परतें इतनी मात्रा में जम जाती हैं कि ये स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो जाती हैं। आज दुनिया की कम-से-कम 20 प्रतिशत आबादी मोटापे से ग्रस्त है। मोटापे को बीमारी नहीं माना जाता, लेकिन माना जाता है कि यह 53 बीमारियों की वजह बन सकता है। इसकी वजह से डायबिटीज, हाइपरटेंशन, हार्ट फेलियर, अस्थमा, कोलेस्ट्रॉल, अत्यधिक पसीना आना, जोड़ों में दर्द, बांझपन आदि का खतरा बढ़ जाता है। खान-पान की गलत आदतें, जीवनशैली में बदलाव और शारीरिक सक्रियता की कमी के कारण यह समस्या लगातार गंभीर हो रही है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार भारत में स्कूल जाने वाले 20 प्रतिशत बच्चे ओवरवेट हैं।
मोटापे के कारण
तनाव
तनाव के कारण शरीर में कई हार्मोन्स का स्तर बढ़ जाता है, जिनमें एड्रीनलीन और कार्टिसोल प्रमुख हैं। इससे शरीर की कार्यप्रणाली प्रभावित होती है और पाचन तंत्र गड़बड़ा जाता है, जिससे मोटापा बढ़ता है।
गर्भावस्था
गर्भावस्था के दौरान बच्चे के विकास के कारण महिलाओं का भार बढ़ जाता है। बच्चे के जन्म के बाद भी कई महिलाओं को भार कम करना मुश्किल लगता है और वे मोटापे की शिकार हो जाती हैं।
हार्मोन असंतुलन
हार्मोन असंतुलन पुरुषों और महिलाओं में मोटापे का एक और प्रमुख कारण है, लेकिन यह महिलाओं को अधिक प्रभावित करता है, क्योंकि उनमें हार्मोन असंतुलन अधिक होता है। तनाव, अनिद्रा, गर्भ निरोधक गोलियों का सेवन और मेनोपॉज के कारण महिलाओं में हार्मोन्स के स्तर में तेजी से बदलाव आता है, जिस कारण पेट के आसपास चर्बी बढ़ जाती है।
बीमारियां
कई बीमारियों जैसे उच्च रक्तचाप, डायबिटीज, कैंसर, हाइपर थारॉइडिज्म और शरीर में कोलेस्ट्रॉल का उच्च स्तर भी मोटापे का कारण होते हैं।
दवाओं के दुष्प्रभाव
कुछ दवाएं जैसे गर्भनिरोधक गोलियां, स्टेरॉयड हार्मोन, डायबिटीज, अवसाद और ब्लड प्रेशर नियंत्रित करने वाली दवाओं के कारण भी भार बढ़ जाता है।
अनिद्रा
अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि नींद की कमी मोटापे को बढ़ा देती है। जो लोग सामान्य से कम सोते हैं, वे अधिक कैलोरी और कार्बोहाइड्रेट युक्त भोजन खाने को प्राथमिकता देते हैं, जो मोटापा बढ़ने का एक कारण बन जाता है।
शारीरिक सक्रियता की कमी
गैजेट्स के बढ़ते चलन ने शारीरिक सक्रियता में अत्यधिक कमी ला दी है। लोग ऑफिस और घरों में पूरा दिन कम्प्यूटर या टीवी के सामने बिताते हैं, सीढियां चढ़ने के बजाय लिफ्ट का उपयोग करते हैं, पैदल चलने या साइकिल चलाने के बजाय गाडियों में सफर करते हैं, आउटडोर गेम खेलने के बजाय वीडियो गेम खेलना या टीवी देखना पसंद करते हैं। यह मोटापा बढ़ने का सबसे प्रमुख कारण है।
उम्र बढ़ना
उम्र बढ़ने का मोटापे से सीधा संबंध है। उम्र बढ़ने के साथ मांसपेशियां कमजोर होने लगती हैं, जिससे उनकी कैलोरी जलाने की क्षमता प्रभावित होती है। यह समस्या उन लोगों में और बढ़ जाती है, जो शारीरिक रूप से सक्रिय नहीं होते।
आनुवंशिक कारण
मोटापा बढ़ाने में आनुवंशिक कारक भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ऐसे बच्चे जिनके माता-पिता मोटे हैं, जिनकी मेटाबॉलिज्म की दर धीमी है या जिनको डायबिटीज है, उनके मोटापे की चपेट में आने की आशंका कई गुना बढ़ जाती है।
कैसे घटाएं बढ़ा हुआ वजन
खाली पेट कतई न रहें। हर तीन या साढ़े तीन घंटे में भोजन करें। अनाज अधिक मात्रा में खाएं। कोशिश करें कि ओट, बाजरा, गेहूं आपकी खुराक में शामिल हों।
हरी सब्जियां जैसे पालक, मेथी और सरसों खूब खाएं। जितनी बार भोजन करें, उतनी बार आपकी थाली में एक ऐसा पकवान जरूर हो, जिसमें प्रोटीन पाया जाता हो।
पेट और कमर की चर्बी को कम करने के लिए पवनमुक्तासन, जानुशिरासन, पश्चिमोतानासन, मण्डूकासन, उष्ट्रासन,धनुरासन, भुजंगासन, उतानपादासन, नौकासन तथा शशांकासन करें।
घरेलू नुस्खे
रोज सुबह एक गिलास गुनगुने पानी में एक चम्मच शहद मिला कर पिएं।
एक गिलास पानी में अदरक के कुछ टुकड़े डाल कर उबाल लें, इस पानी को निथार लें। इसमें दो चम्मच नीबू का रस डाल कर पी लें। यह भूख कम करता है।
एक कप गरम पानी में तीन चम्मच नीबू का रस, 0.25 चम्मच काली मिर्च और एक चम्मच शहद मिला कर दिन में एक बार तीन महीने तक पिएं।
ग्रीन टी भी वजन कम करने के लिए बहुत अच्छी है।
मोटापे के दुष्प्रभाव
ऐसे लोगों को चलने, सांस लेने और बैठने में परेशानी होती है।
शरीर में वसा की मात्रा अधिक होने पर सोडियम इकट्ठा हो जाता है। इससे रक्त का दबाव बढ़ जाता है। यह दिल के लिए काफी नुकसानदेह होता है।
मोटापा टाइप टू डायबिटीज की मुख्य वजह है। वसा की मात्रा अधिक होने पर शरीर इंसुलिन के प्रति रेजिस्टेंट हो जाता है।
ब्रेन स्ट्रोक और कार्डिएक अरेस्ट की आशंका बढ़ जाती है।
शरीर के मध्य भाग में अतिरिक्त भार होना पेल्विस को आगे की ओर खींचता है और कमर के निचले हिस्से पर दबाव डालता है। इस अतिरिक्ति भार को संभालने के लिए कमर आगे की ओर झुक जाती है।
वजन अधिक बढ़ने से रीढ़ की हड्डी के छोटे-छोटे जोड़ों में टूट-फूट जल्दी होती है और डिस्क भी जल्दी खराब हो जाती है।
क्या है उपचार
वजन घटाने का सबसे कारगर तरीका खान-पान को नियंत्रित रखना और नियमित रूप से व्यायाम करना है, लेकिन जिन लोगों के लिए यह उपाय कारगर नहीं होते या जो अत्यधिक मोटे हैं, उनके लिए मोटापा कम करने के लिए कई उपचार भी हैं।
वेरी लो कैलोरी डाइट (वीएलसीडी)
इसमें एक दिन में 1,000 से भी कम कैलोरी का सेवन किया जाता है। इससे भार तो तेजी से कम होता है, लेकिन यह हर किसी के लिए उपयुक्त और सुरक्षित नहीं है। इसलिए किसी डॉक्टर से सलाह जरूर लें।
टमीटक (एब्डोमिनोप्लास्टी)
इसकी सलाह उन्हीं लोगों को दी जाती है, जिनका स्वास्थ्य अच्छा होता है। यह उन लोगों के लिए कारगर है, जिनके पेट पर अत्यधिक मात्रा में वसा जमी है या वजन कम करने के कारण पेट की त्वचा ढीली पड़ गई है। सर्जरी के द्वारा अतिरिक्त वसा, त्वचा, मांसपेशियां, ऊतकों को निकाल दिया जाता है।
गैस्ट्रिक बाईपास सर्जरी
वेट-लॉस सर्जरियों को सामूहिक रूप से बैरियाटिक सर्जरी कहते हैं। इसमें से गैस्ट्रिक बाईपास सर्जरी सबसे अधिक प्रचलित है, क्योंकि इसमें दूसरी सर्जरियों की तुलना में जटिलताएं कम होती हैं। यह दो प्रकार से की जाती है। एक तो आपके भोजन की मात्रा को नियंत्रित करके, दूसरा जो भोजन आप खाते हैं, उसमें से पोषक तत्वों का अवशोषण कम करके या दोनों के द्वारा।
लिपोसक्शन
इसमें त्वचा में एक छोटा-सा कट लगा कर एक पतली और छोटी सी टय़ूब को डाला जाता है। डॉंक्टर इस टय़ूब को त्वचा के अंदर शरीर के उन भागों में घुमाते हैं, जहां वसा का जमाव अधिक है। आधुनिक तकनीकों ने लिपोसक्शन को पहले से अधिक सुरक्षित, आसान और कम पीड़ादायक बना दिया है।
वजन नियंत्रित कैसे रखें
नाश्ता नहीं करना मोटापे का एक प्रमुख कारण है। नाश्ता न करने से वजन को नियंत्रित करना बहुत मुश्किल होता है।
ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर का एक निश्चित समय बना लें। इससे शरीर इस रूटीन को फॉलो करने लगेगा।
सुबह उठने के बाद ज्यादा देर तक भूखे न रहें और रात को सोने से दो घंटा पहले खाना खा लें।
सब्जियां और फल खाएं। इससे आपका पेट भी भरा हुआ लगेगा और खाने में कैलोरी भी कम आएगी।
मेगा मील की बजाय मिनी मील खाएं। हर तीन-चार घंटे में कुछ खाते रहें। कई अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि उन लोगों में वसा का जमाव ज्यादा होता है, जो कम बार में अधिक भोजन खाते हैं।
फाइबर मेटाबॉलिज्म को दुरुस्त रखता है, भूख को कम करता है। भोजन में फाइबर की मात्रा बढ़ा दें।
व्यायाम-योग से मोटापे को काबू में रखा जा सकता है। इससे पाचन दुरुस्त रहता है, वसा कम होती है।
ऐसी चीजें जिनमें स्टार्च हो जैसे आलू, मटर या कॉर्न का सेवन कम करें। एक दिन में लगभग छह सौ ग्राम हरी सब्जियां खाने की कोशिश करें।
दिन के पहले हिस्से में ही फल खाएं। ज्यादा मिठास वाले फलों से परहेज करें।

रानी रुपवती

बत्तीसवीं पुतली रानी रुपवती ने राजा भोज को सिंहासन पर बैठने की कोई रुचि नहीं दिखाते देखा तो उसे अचरज हुआ। उसने जानना चाहा कि राजा भोज में आज पहले वाली व्यग्रता क्यों नहीं है। राजा भोज ने कहा कि राजा विक्रमादित्य के देवताओं वाले गुणों की कथाएँ सुनकर उन्हें ऐसा लगा कि इतनी विशेषताएँ एक मनुष्य में असम्भव हैं और मानते हैं कि उनमें बहुत सारी कमियाँ है। अत: उन्होंने सोचा है कि सिंहासन को फिर वैसे ही उस स्थान पर गड़वा देंगे जहाँ से इसे निकाला गया है।

राजा भोज का इतना बोलना था कि सारी पुतलियाँ अपनी रानी के पास आ गईं। उन्होंने हर्षित होकर राजा भोज को उनके निर्णय के लिए धन्यवाद दिया। पुतलियों ने उन्हें बताया कि आज से वे भी मुक्त हो गईं। आज से यह सिंहासन बिना पुतलियों का हो जाएगा। उन्होंने राजा भोज को विक्रमादित्य के गुणों का आंशिक स्वामी होना बतलाया तथा कहा कि इसी योग्यता के चलते उन्हें इस सिंहासन के दर्शन हो पाये। उन्होंने यह भी बताया कि आज से इस सिंहासन की आभा कम पड़ जाएगी और धरती की सारी चीजों की तरह इसे भी पुराना पड़कर नष्ट होने की प्रक्रिया से गुज़रना होगा।

इतना कहकर उन पुतलियों ने राजा से विदा ली और आकाश की ओर उड़ गईं। पलक झपकते ही सारी की सारी पुतलियाँ आकाश में विलीन हो गई।

पुतलियों के जाने के बाद राजा भोज ने कर्मचारियों को बुलवाया तथा गड्ढा खुदवाने का निर्देश दिया। जब मजदूर बुलवाकर गड़ढा खोद डाला गया तो वेद मन्त्रों का पाठ करवाकर पूरी प्रजा की उपस्थिति में सिंहासन को गड्ढे में दबवा दिया। मिट्टी डालकर फिर वैसा ही टीला निर्मित करवाया गया जिस पर बैठकर चरवाहा अपने फैसले देता था। लेकिन नया टीला वह चमत्कार नहीं दिखा सका जो पुराने वाले टीले में था।

उपसंहार- कुछ भिन्नताओं के साथ हर लोकप्रिय संस्करण में उपसंहार के रुप में एक कथा और मिलती है। उसमें सिंहासन के साथ पुन: दबवाने के बाद क्या गुज़रा- यह वर्णित है। आधिकारिक संस्कृत संस्करण में यह उपसंहार रुपी कथा नहीं भी मिल सकती है, मगर जन साधारण में काफी प्रचलित है।

कई साल बीत गए। वह टीला इतना प्रसिद्ध हो चुका था कि सुदूर जगहों से लोग उसे देखने आते थे। सभी को पता था कि इस टीले के नीचे अलौकिक गुणों वाला सिंहासन दबा पड़ा है। एक दिन चोरों के एक गिरोह ने फैसला किया कि उस सिंहासन को निकालकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर बेच देना चाहते थे। उन्होंने टीले से मीलों पहले एक गड्ढा खोदा और कई महीनों की मेहनत के बाद सुरंग खोदकर उस सिंहासन तक पहुँचे। सिंहासन को सुरंग से बाहर लाकर एक निर्जन स्थान पर उन्होंने हथौड़ों के प्रहार से उसे तोड़ना चाहा। चोट पड़ते ही ऐसी भयानक चिंगारी निकलती थी कि तोड़ने वाले को जलाने लगती थी। सिंहासन में इतने सारे बहुमूल्य रत्न-माणिक्य जड़े हुए थे कि चोर उन्हें सिंहासन से अलग करने का मोह नहीं त्याग रहे थे।

सिंहासन पूरी तरह सोने से निर्मित था, इसलिए चोरों को लगता था कि सारा सोना बेच देने पर भी कई हज़ार स्वर्ण मुद्राएँ मिल जाएगीं और उनके पास इतना अधिक धन जमा हो जाएगा कि उनके परिवार में कई पुरखों तक किसी को कुछ करने की ज़रुरत नहीं पड़ेगी। वे सारा दिन प्रयास करते रहे मगर उनके प्रहारों से सिंहासन को रत्ती भर भी क्षति नहीं पहुँची। उल्टे उनके हाथ चिंगारियों से झुलस गए और चिंगारियों को बार-बार देखने से उनकी आँखें दुखने लगीं। वे थककर बैठ गए और सोचते-सोचते इस नतीजे पर पहुँचे कि सिंहासन भुतहा है। भुतहा होने के कारण ही राजा भोज ने इसे अपने उपयोग के लिए नहीं रखा। महल में इसे रखकर ज़रुर ही उन्हें कुछ परेशानी हुई होगी, तभी उन्होंने ऐसे मूल्यवान सिंहासन को दुबारा ज़मीन में दबवा दिया। वे इसका मोह राजा भोज की तरह ही त्यागने की सोच रहे थे। तभी उनका मुखिया बोला कि सिंहासन को तोड़ा नहीं जा सकता, पर उसे इसी अवस्था में उठाकर दूसरी जगह ले जाया जा सकता है।

चोरों ने उस सिंहासन को अच्छी तरह कपड़े में लपेट दिया और उस स्थान से बहुत दूर किसी अन्य राज्य में उसे उसी रुप में ले जाने का फैसला कर लिया। वे सिंहासन को लेकर कुछ महीनों की यात्रा के बाद दक्षिण के एक राज्य में पहुँचे। वहाँ किसी को उस सिंहासन के बारे में कुछ पता नहीं था। उन्होंने जौहरियों का वेश धरकर उस राज्य के राजा से मिलने की तैयारी की। उन्होंने राजा को वह रत्न जड़ित स्वर्ण सिंहासन दिखाते हुए कहा कि वे बहुत दूर के रहने वाले हैं तथा उन्होंने अपना सारा धन लगाकर यह सिंहासन तैयार करवाया है।

राजा ने उस सिंहासन की शुद्धता की जाँच अपने राज्य के बड़े-बड़े सुनारों और जौहरियों से करवाई। सबने उस सिंहासन की सुन्दरता और शुद्धता की तारीफ करते हुए राजा को वह सिंहासन खरीद लेने की सलाह दी। राजा ने चोरों को उसका मुँहमाँगा मूल्य दिया और सिंहासन अपने बैठने के लिए ले लिया। जब वह सिंहासन दरबार में लगाया गया तो सारा दरबार अलौकिक रोशनी से जगमगाने लगा। उसमें जड़े हीरों और माणिक्यों से बड़ी मनमोहक आभा निकल रहीं थी। राजा का मन भी ऐसे सिंहासन को देखकर अत्यधिक प्रसन्न हुआ। शुभ मुहू देखकर राजा ने सिंहासन की पूजा विद्वान पंडितों से करवाई और उस सिंहासन पर नित्य बैठने लगा।

सिंहासन की चर्चा दूर-दूर तक फैलने लगी। बहुत दूर-दूर से राजा उस सिंहासन को देखने के लिए आने लगे। सभी आने वाले उस राजा के भाग्य को धन्य कहते, क्योंकि उसे ऐसा अद्भुत सिंहासन पर बैठने का अवसर मिला था। धीरे-धीरे यह प्रसिद्धि राजा भोज के राज्य तक भी पहुँची। सिंहासन का वर्णन सुनकर उनको लगा कि कहीं विक्रमादित्य का सिंहासन न हो। उन्होंने तत्काल अपने कर्मचारियों को बुलाकर विचार-विमर्श किया और मज़दूर बुलवाकर टीले को फिर से खुदवाया। खुदवाने पर उनकी शंका सत्य निकली और सुरंग देखकर उन्हें पता चल गया कि चोरों ने वह सिंहासन चुरा लिया। अब उन्हें यह आश्चर्य हुआ कि वह राजा विक्रमादित्य के सिंहासन पर आरुढ़ कैसे हो गया। क्या वह राजा सचमुच विक्रमादित्य के समकक्ष गुणों वाला है?

उन्होंने कुछ कर्मचारियों को लेकर उस राज्य जाकर सब कुछ देखने का फैसला किया। काफी दिनों की यात्रा के बाद वहाँ पहुँचे तो उस राजा से मिलने उसके दरबार पहुँचे। उस राजा ने उनका पूरा सत्कार किया तथा उनके आने का प्रयोजन पूछा। राजा भोज ने उस सिंहासन के बारे में राजा को सब कुछ बताया। उस राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने कहा कि उसे सिंहासन पर बैठने में कभी कोई परेशानी नहीं हुई।

राजा भोज ने ज्योतिषियों और पंडितों से विमर्श किया तो वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हो सकता है कि सिंहासन अब अपना सारा चमत्कार खो चुका हो। उन्होंने कहा कि हो सकता है कि सिंहासन अब सोने का न हो तथा रत्न और माणिक्य काँच के टुकड़े मात्र हों।

उस राजा ने जब ऐसा सुना तो कहा कि यह असम्भव है। चोरों से उसने उसे खरीदने से पहले पूरी जाँच करवाई थी। लेकिन जब जौहरियों ने फिर से उसकी जाँच की तो उन्हें घोर आश्चर्य हुआ। सिंहासन की चमक फीकी पड़ गई थी तथा वह एकदम पीतल का हो गया था। रत्न-माणिक्य की जगह काँच के रंगीन टुकड़े थे। सिंहासन पर बैठने वाले राजा को भी बहुत आश्चर्य हुआ। उसने अपने ज्योतिषियों और पण्डितों से सलाह की तथा उन्हें गणना करने को कहा। उन्होंने काफी अध्ययन करने के बाद कहा कि यह चमत्कारी सिंहासन अब मृत हो गया है। इसे अपवित्र कर दिया गया और इसका प्रभाव जाता रहा।

उन्होंने कहा- “अब इस मृत सिंहासन का शास्रोक्त विधि से अंतिम संस्कार कर दिया जाना चाहिए। इसे जल में प्रवाहित कर दिया जाना चाहिए।”

उस राजा ने तत्काल अपने कर्मचारियों को बुलाया तथा मज़दूर बुलवा कर मंत्रोच्चार के बीच उस सिंहासन को कावेरी नदी में प्रवाहित कर दिया।

समय बीतता रहा। वह सिंहासन इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह गया। लोक कथाओं और जन-श्रुतियों में उसकी चर्चा होती रही। अनेक राजाओं ने विक्रमादित्य का सिंहासन प्राप्त करने के लिए कालान्तर में एक से बढ़कर एक गोता खोरो को तैनात किया और कावेरी नदी को छान मारा गया। मगर आज तक उसकी झलक किसी को नहीं मिल पाई है। लोगों का विश्वास है कि आज भी विक्रमादित्य की सी खूबियों वाला अगर कोई शासक हो तो वह सिंहासन अपनी सारी विशेषताओं और चमक के साथ बाहर आ जाएगा।

कौशल्या – इकत्तीसवीं पुतली

इकत्तीसवीं पुतली जिसका नाम कौशल्या था, ने अपनी कथा इस प्रकार कही- राजा विक्रमादित्य वृद्ध हो गए थे तथा अपने योगबल से उन्होंने यह भी जान लिया कि उनका अन्त अब काफी निकट है। वे राज-काज और धर्म कार्य दोनों में अपने को लगाए रखते थे। उन्होंने वन में भी साधना के लिए एक आवास बना रखा था। एक दिन उसी आवास में एक रात उन्हें अलौकिक प्रकाश कहीं दूर से आता मालूम पड़ा। उन्होंने गौर से देखा तो पता चला कि सारा प्रकाश सामने वाली पहाड़ियों से आ रहा है। इस प्रकाश के बीच उन्हें एक दमकता हुआ सुन्दर भवन दिखाई पड़ा। उनके मन में भवन देखने की जिज्ञासा हुई और उन्होंने काली द्वारा प्रदत्त दोनों बेतालों का स्मरण किया। उनके आदेश पर बेताल उन्हें पहाड़ी पर ले आए और उनसे बोले कि वे इसके आगे नहीं जा सकते। कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि उस भवन के चारों ओर एक योगी ने तंत्र का घेरा डाल रखा है तथा उस भवन में उसका निवास है। उन घेरों के भीतर वही प्रवेश कर सकता है जिसका पुण्य उस योगी से अधिक हो।

विक्रम ने सच जानकर भवन की ओर कदम बढ़ा दिया। वे देखना चाहते थे कि उनका पुण्य उस योगी से अधिक है या नहीं। चलते-चलते वे भवन के प्रवेश द्वार तक आ गए। एकाएक कहीं से चलकर एक अग्नि पिण्ड आया और उनके पास स्थिर हो गया। उसी समय भीतर से किसी का आज्ञाभरा स्वर सुनाई पड़ा। वह अग्निपिण्ड सरककर पीछे चला गया और प्रवेश द्वार साफ़ हो गया। विक्रम अन्दर घुसे तो वही आवाज़ उनसे उनका परिचय पूछने लगी। उसने कहा कि सब कुछ साफ़-साफ़ बताया जाए नहीं तो वह आने वाले को श्राप से भ कर देगा।

विक्रम तब तक कक्ष में पहुँच चुके थे और उन्होंने देखा कि योगी उठ खड़ा हुआ। उन्होंने जब उसे बताया कि वे विक्रमादित्य हैं तो योगी ने अपने को भाग्यशाली बताया। उसने कहा कि विक्रमादित्य के दर्शन होंगे यह आशा उसे नहीं थी। योगी ने उनका खूब आदर-सत्कार किया तथा विक्रम से कुछ माँगने को बोला। राजा विक्रमादित्य ने उससे तमाम सुविधाओं सहित वह भवन माँग लिया।

विक्रम को वह भवन सौंपकर योगी उसी वन में कहीं चला गया। चलते-चलते वह काफी दूर पहुँचा तो उसकी भेंट अपने गुरु से हुई। उसके गुरु ने उससे इस तरह भटकने का कारण जानना चाहा तो वह बोला कि भवन उसने राजा विक्रमादित्य को दान कर दिया है। उसके गुरु को हँसी आ गई। उसने कहा कि इस पृथ्वी के सर्वश्रेष्ठ दानवीर को वह क्या दान करेगा और उसने उसे विक्रमादित्य के पास जाकर ब्राह्मण रुप में अपना भवन फिर से माँग लेने को कहा। वह वेश बदलकर उस कुटिया में विक्रम से मिला जिसमें वे साधना करते थे। उसने रहने की जगह की याचना की। विक्रम ने उससे अपनी इच्छित जगह माँगने को कहा तो उसने वह भवन माँगा। विक्रम ने मुस्कुराकर कहा कि वह भवन ज्यों का त्यों छोड़कर वे उसी समय आ गए थे। उन्होंने बस उसकी परीक्षा लेने के लिए उससे वह भवन लिया था।

इस कथा के बाद इकत्तीसवीं पुतली ने अपनी कथा खत्म नहीं की। वह बोली- राजा विक्रमादित्य भले ही देवताओं से बढ़कर गुण वाले थे और इन्द्रासन के अधिकारी माने जाते थे, वे थे तो मानव ही। मृत्युलोक में जन्म लिया था, इसलिए एक दिन उन्होंने इहलीला त्याग दी। उनके मरते ही सर्वत्र हाहाकार मच गया। उनकी प्रजा शोकाकुल होकर रोने लगी। जब उनकी चिता सजी तो उनकी सभी रानियाँ उस चिता पर सती होने को चढ़ गईं। उनकी चिता पर देवताओं ने फूलों की वर्षा की।

उनके बाद उनके सबसे बड़े पुत्र को राजा घोषित किया गया। उसका धूमधाम से तिलक हुआ। मगर वह उनके सिंहासन पर नहीं बैठ सका। उसको पता नहीं चला कि पिता के सिंहासन पर वह क्यों नहीं बैठ सकता है। वह उलझन में पड़ा था कि एक दिन स्वप्न में विक्रम खुद आए। उन्होंने पुत्र को उस सिंहासन पर बैठने के लिए पहले देवत्व प्राप्त करने को कहा। उन्होंने उसे कहा कि जिस दिन वह अपने पुण्य-प्रताप तथा यश से उस सिंहासन पर बैठने लायक होगा तो वे खुद उसे स्वप्न में आकर बता देंगे। मगर विक्रम उसके सपने में नहीं आए तो उसे नहीं सूझा कि सिंहासन का किया क्या जाए। पंडितों और विद्वानों के परामर्श पर वह एक दिन पिता का स्मरण करके सोया तो विक्रम सपने में आए। सपने में उन्होंने उससे उस सिंहासन को ज़मीन में गड़वा देने के लिए कहा तथा उसे उज्जैन छोड़कर अम्बावती में अपनी नई राजधानी बनाने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि जब भी पृथ्वी पर सर्वगुण सम्पन्न कोई राजा कालान्तर में पैदा होगा, यह सिंहासन खुद-ब-खुद उसके अधिकार में चला जाएगा।

पिता के स्वप्न वाले आदेश को मानकर उसने सुबह में मजदूरों को बुलवाकर एक खूब गहरा गड्ढा खुदवाया तथा उस सिंहासन को उसमें दबवा दिया। वह खुद अम्बावती को नई राजधानी बनवाकर शासन करने लगा।

जयलक्ष्मी – तीसवीं पुतली

तीसवीं पुतली जयलक्ष्मी ने जो कथा कही वह इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य जितने बड़े राजा थे उतने ही बड़े तपस्वी। उन्होंने अपने तप से जान लिया कि वे अब अधिक से अधिक छ: महीने जी सकते हैं। अपनी मृत्यु को आसन्न समझकर उन्होंने वन में एक कुटिया बनवा ली तथा राज-काज से बचा हुआ समय साधना में बिताने लगे। एक दिन राजमहल से कुटिया की तरफ आ रहे थे कि उनकी नज़र एक मृग पर पड़ी। मृग अद्भुत था और ऐसा मृग विक्रम ने कभी नहीं देखा था। उन्होंने धनुष हाथ में लेकर दूसरा हाथ तरकश में डाला ही था कि मृग उनके समीप आकर मनुष्य की बोली में उनसे अपने प्राणों की भीख माँगने लगा। विक्रम को उस मृग को मनुष्यों की तरह बोलते हुए देख बड़ा आश्चर्य हुआ और उनका हाथ स्वत: थम गया।

विक्रम ने उस मृग से पूछा कि वह मनुष्यों की तरह कैसे बोल लेता है तो वह बोला कि यह सब उनके दर्शन के प्रभाव से हुआ है। विक्रम की जिज्ञासा अब और बढ़ गई। उन्होंने उस मृग को पूछा कि ऐसा क्यों हुआ तो उसने बताना शुरु किया।

“मैं जन्मजात मृग नहीं हूँ। मेरा जन्म मानव कुल में एक राजा के यहाँ हुआ। अन्य राजकुमारों की भाँति मुझे भी शिकार खेलने का बहुत शौक था। शिकार के लिए मैं अपने घोड़े पर बहुत दूर तक घने जंगलों में घुस जाता था। एक दिन मुझे कुछ दूरी पर मृग होने का आभास हुआ और मैंने आवाज़ को लक्ष्य करके एक वाण चलाया। दरअसल वह आवाज़ एक साधनारत योगी की थी जो बहुत धीमें स्वर में मंत्रोच्चार कर रहा था। तीर उसे तो नहीं लगा, पर उसकी कनपटी को छूता हुआ पूरो वेग से एक वृक्ष के तने में घुस गया। मैं अपने शिकार को खोजते-खोजते वहाँ तक पहुँचा तो पता चला मुझसे कैसा अनिष्ट होने से बच गया। योगी की साधना में विघ्न पड़ा था। इसलिए वह काफी क्रुद्ध हो गया था। उसने जब मुझे अपने सामने खड़ा पाया तो समझ गया कि वह वाण मैंने चलाया था। उसने लाल आँखों से घूरते हुए मुझे श्राप दे दिया। उसने कहा- “ओ मृग का शिकार पसंद करने वाले मूर्ख युवक, आज से खुद मृग बन जा। आज के बाद से आखेटकों से अपने प्राणों की रक्षा करता रह।”

उसने श्राप इतनी जल्दी दे दिया कि मुझे अपनी सफ़ाई में कुछ कहने का मौका नहीं मिला। श्राप की कल्पना से ही मैं भय से सिहर उठा। मैं योगी के पैरों पर गिर पड़ा तथा उससे श्राप मुक्त करने की प्रार्थना करने लगा। मैंने रो-रो कर उससे कहा कि उसकी साधना में विघ्न उत्पन्न करने का मेरा कोई इरादा नहीं था और यह सब अनजाने में मुझसे हो गया। मेरी आँखों में पश्चाताप के आँसू देखकर उस योगी को दया आ गई। उसने मुझसे कहा कि श्राप वापस तो नहीं लिया जा सकता, लेकिन वह उस श्राप के प्रभाव को सीमित ज़रुर कर सकता है। मैंने कहा कि जितना अधिक संभव है उतना वह श्राप का प्रभाव कम कर दे तो उसने कहा- “तुम मृग बनकर तब तक भटकते रहोगे जब तक महान यशस्वी राजा विक्रमादित्य के दर्शन नहीं हो जाएँ। विक्रमादित्य के दर्शन से ही तुम मनुष्यों की भाँति बोलना शुरु कर दोगे।”

विक्रम को अब जिज्ञासा हुई कि वह मनुष्यों की भाँति बोल तो रहा है मगर मनुष्य में परिवर्तित नहीं हुआ है। उन्होंने उससे पूछा- “तुम्हें मृग रुप से कब मुक्ति मिलेगी? कब तुम अपने वास्तविक रुप को प्राप्त करोगे?

वह श्रापित राजकुमार बोला- “इससे भी मुझे मुक्ति बहुत शीघ्र मिल जाएगी। उस योगी के कथनानुसार मैं अगर आपको साथ लेकर उसके पास जाऊँ तो मेरा वास्तविक रुप मुझे तुरन्त ही वापस मिल जाएगा।”

विक्रम खुश थे कि उनके हाथ से शापग्रस्त राजकुमार की हत्या नहीं हुई अन्यथा उन्हें निरपराध मनुष्य की हत्या का पाप लग जाता और वे ग्लानि तथा पश्चाताप की आग में जल रहे होते। उन्होंने मृगरुपी राजकुमार से पूछा- “क्या तुम्हें उस योगी के निवास के बारे में कुछ पता है? क्या तुम मुझे उसके पास लेकर चल सकते हो?”

उस राजकुमार ने कहा- “हाँ, मैं आपको उसकी कुटिया तक अभी लिए चल सकता हूँ। संयोग से वह योगी अभी भी इसी जंगल में थोड़ी दूर पर साधना कर रहा है।”

वह मृग आगे-आगे चला और विक्रम उसका अनुसरण करते-करते चलते रहे। थोड़ी दूर चलने के पश्चात उन्हें एक वृक्ष पर उलटा होकर साधना करता एक योगी दिखा। उनकी समझ में आ गया कि राजकुमार इसी योगी की बात कर रहा था। वे जब समीप आए तो वह योगी उन्हें देखते ही वृक्ष से उतरकर सीधा खड़ा हो गया। उसने विक्रम का अभिवादन किया तथा दर्शन देने के लिए उन्हें नतमस्तक होकर धन्यवाद दिया।

विक्रम समझ गए कि वह योगी उनकी ही प्रतीक्षा कर रहा था। लेकिन उन्हें जिज्ञासा हुई कि वह उनकी प्रतीक्षा क्यों कर रहा था। पूछने पर उसने उन्हें बताया कि सपने में एक दिन इन्द्र देव ने उन्हें दर्शन देकर कहा था कि महाराजा विक्रमादित्य ने अपने कर्मों से देवताओं-सा स्थान प्राप्त कर लिया है तथा उनके दर्शन प्राप्त करने वाले को इन्द्र देव या अन्य देवताओं के दर्शन का फल प्राप्त होता है। “मैं इतनी कठिन साधना सिर्फ आपके दर्शन का लाभ पाने के लिए कर रहा था।”- उस योगी ने कहा।

विक्रम ने पूछा कि अब तो उसने उनके दर्शन प्राप्त कर लिए, क्या उनसे वह कुछ और चाहता है। इस पर योगी ने उनसे उनके गले में पड़ी इन्द्र देव के मूंगे वाली माला मांगी। राजा ने खुशी-खुशी वह माला उसे दे दी। योगी ने उनका आभार प्रकट किया ही था कि श्रापित राजकुमार फिर से मानव बन गया। उसने पहले विक्रम के फिर उस योगी के पाँव छूए।

राजकुमार को लेकर विक्रम अपने महल आए। दूसरे दिन अपने रथ पर उसे बिठा उसके राज्य चल दिए। मगर उसके राज्य में प्रवेश करते ही सैनिकों की टुकड़ी ने उनके रथ को चारों ओर से घेर लिया तथा राज्य में प्रवेश करने का उनका प्रयोजन पूछने लगे। राजकुमार ने अपना परिचय दिया और रास्ता छोड़ने को कहा। उसने जानना चाहा कि उसका रथ रोकने की सैनिकों ने हिम्मत कैसे की। सैनिकों ने उसे बताया कि उसके माता-पिता को बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया गया है और अब इस राज्य पर किसी और का अधिकार हो चुका है। चूँकि राज्य पर अधिकार करते वक्त राजकुमार का कुछ पता नहीं चला, इसलिए चारों तरफ गुप्तचर उसकी तलाश में फैला दिए गये थे। अब उसके खुद हाज़िर होने से नए शासक का मार्ग और प्रशस्त हो गया है।

राजा विक्रमादित्य ने उन्हें अपना परिचय नहीं दिया और खुद को राजकुमार के दूत के रुप में पेश करते हुए कहा कि उनका एक संदेश नये शासक तक भेजा जाए। उन्होंने उस टुकड़ी के नायक को कहा कि नये शासक के सामने दो विकल्प हैं- या तो वह असली राजा और रानी को उनका राज्य सौंपकर चला जाए या युद्ध की तैयारी करे।

उस सेनानायक को बड़ अजीब लगा। उसने विक्रम का उपहास करते हुए पूछा कि युद्ध कौन करेगा। क्या वही दोनों युद्ध करेंगे। उसको उपहास करते देख उनका क्रोध साँतवें आसमान पर पहुँच गया। उन्होंने तलवार निकाली और उसका सर धड़ से अलग कर दिया। सेना में भगदड़ मच गई। किसी ने दौड़कर नए शासक को खबर की। वह तुरन्त सेना लेकर उनकी ओर दौड़ा।

विक्रम इस हमले के लिए तैयार बैठे थे। उन्होंने दोनों बेतालों का स्मरण किया तथा बेतालों ने उनका आदेश पाकर रथ को हवा में उठ लिया। उन्होंने वह तिलक लगाया जिससे अदृश्य हो सकते थे और रथ से कूद गये। अदृश्य रहकर उन्होंने दुश्मनों को गाजर-मूली की तरह काटना शुरु कर दिया। जब सैकड़ो सैनिक मारे गए और दुश्मन नज़र नहीं आया तो सैनिकों में भगदड़ मच गई और राजा को वहीं छोड़ अधिकांश सैनिक रणक्षेत्र से भाग खड़े हुए। उन्हें लगा कि कोई पैशाचिक शक्ति उनका मुक़ाबला कर रही है। नए शासक का चेहरा देखने लायक था। वह आश्चर्यचकित और भयभीत था ही, हताश भी दिख रहा था।

उसे हतप्रभ देख विक्रम ने अपनी तलवार उसकी गर्दन पर रख दी तथा अपने वास्तविक रुप में आ गए। उन्होंने उस शासक से अपना परिचय देते हुए कहा कि या तो वह इसी क्षण यह राज्य छोड़कर भाग जाए या प्राण दण्ड के लिए तैयार रहे। वह शासक विक्रमादित्य की शक्ति से परिचित था तथा उनका शौर्य आँखों से देख चुका था, अत: वह उसी क्षण उस राज्य से भाग गया।

वास्तविक राजा-रानी को उनका राज्य वापस दिलाकर वे अपने राज्य की ओर चल पड़े। रास्ते में एक जंगल पड़ा। उस जंगल में एक मृग उनके पास आया तथा एक सिंह से अपने को बचाने को बोला। मगर महाराजा विक्रमादित्य ने उसकी मदद नहीं की। वे भगवान के बनाए नियम के विरुद्ध नहीं जा सकते थे। सिंह भूखा था और मृग आदि जानवर ही उसकी क्षुधा शान्त कर सकते थे। यह सोचते हुए उन्होंने सिहं को मृग का शिकार करने दिया।