खेखसा (कंकोड़ा)

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बड़ी बेर जैसे गोल एवं बेलनाकार एक से डेढ़ इंच के, बारीक कांटेदार, हरे रंग के खेखसे केवल वर्षा ऋतु में ही उपलब्ध होते हैं। ये प्रायः पथरीली जमीन पर उगते हैं एवं एक दो महीने के लिए ही आते हैं। अंदर से सफेद एवं नरम बीजवाले खेखसों का ही सब्जी के रूप में प्रयोग करना चाहिए।

खेखसे स्वाद में कड़वे कसैले, कफ एवं पित्तनाशक, रूचिकर्ता, शीतल, वायुदोषवर्धक, रूक्ष, मूत्रवर्धक, पचने में हलके जठराग्निवर्धक एवं शूल, खाँसी, श्वास, बुखार, कोढ़, प्रमेह, अरुचि पथरी तथा हृदयरोगनाशक है।

खेखसे की सब्जी बुखार, खाँसी, श्वास, उदररोग, कोढ़, त्वचा रोग, सूजन एवं मधुमेह के रोगियों के लिए ज्यादा हितकारी है। श्लीपद (हाथीपैर) रोग में भी खेखसा का सेवन एवं उसके पत्तों का लेप लाभप्रद है। जो बच्चे दूध पीकर तुरन्त उलटी कर देते हैं, उनकी माताओं के लिए भी खेखसे की सब्जी का सेवन लाभप्रद है।

सावधानीः खेखसे की सब्जी वायु प्रकृति की होती है। अतः वायु के रोगी इसका सेवन न करें। इस सब्जी को थोड़ी मात्रा में ही खाना हितावह है।

औषधि-प्रयोगः

बुखार एवं क्षयः खेखसे (कंकोड़े) के पत्तों के काढ़े में शहद डालकर पीने से लाभ होता  है।

बवासीरः खेखसे के कंद का 5 ग्राम चूर्ण एवं 5 ग्राम मिश्री के चूर्ण को मिलाकर सुबह-शाम लेने से खूनी बवासीर (मस्से) में लाभ होता है।

अत्यधिक पसीना आनाः खेखसे के कंद का पाउडर बनाकर, रोज स्नान के वक्त वह पाउडर शरीर पर मसलकर नहाने से शरीर से दुर्गन्धयुक्त पसीना आना बंद होता है एवं त्वचा मुलायम बनती है।

खाँसीः खेखसे के कंद का 3 ग्राम चूर्ण सुबह-शाम  पानी के साथ लेने से लाभ होता है।

खेखसे की जड़ की दो से तीन रत्ती (250 से 500 मि.ग्रा.) भस्म को शहद एवं अदरक के रस के साथ देने से भयंकर खाँसी एवं श्वास में राहत मिलती है।

पथरीः खेखसे की जड़ का 10 ग्राम चूर्ण दूध अथवा पानी के साथ रोज लेने से किडनी एवं मूत्राशय में स्थित पथरी में लाभ होता है।

शिरोवेदनाः खेखसे की जड़ को काली मिर्च, रक्तचंदन एवं नारियल के साथ पीसकर ललाट पर उसका लेप करने से पित्त के कारण उत्पन्न शिरोवेदना में लाभ होता है।

हल्दी – Turmeric – एवं आमी हल्दी

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प्राचीन काल से ही भोजन में एवं घरेलु उपचार के रूप में हल्दी का प्रयोग होता रहा है। ताजी हल्दी तथा आमी हल्दी का प्रयोग सलाद के रूप में भी किया जाता है। आमी हल्दी का रंग सफेद एवं सुगंध आम के समान होता है। अनेक मांगलिक कार्यों में भी हल्दी का प्रयोग किया जाता है।

आयुर्वेद के मतानुसार हल्दी कषाय (कसैली), कड़वी, गरम उष्णवीर्य, पचने में हल्की, शरीर के रंग को साफ करने वाली, वात-पित्त-कफशामक, त्वचारोग-नाशक, रक्तवर्धक, रक्तशोधक, सूजन नष्ट करने वाली, रुचिवर्धक, कृमिनाशक, पौष्टिक, गर्भाशय की शुद्धि करने वाली एवं विषनाशक है। यह कोढ़ व्रण (घाव), आमदोष, प्रमेह, शोष, कर्णरोग, पुरानी सर्दी आदि को मिटाने वाली है। यह यकृत को बलवान बनाती है एवं रस, रक्त आदि सब धातुओं पर प्रभावशाली काम करती है।

आयुर्वेद के मतानुसार आमी हल्दी कड़वी, तीखी, शीतवीर्य, पित्तनाशक, रूचिकारक, पाचन में हलकी, जठराग्निवर्धक कफदोषनाशक एवं सर्दी खाँसी, गर्मी की खाँसी, दमा, बुखार, सन्निपात ज्वर, मार-चोट के कारण होनेवाली पीड़ा तथा सूजन एवं मुखरोग में लाभदायक है। यूनानी मत के अनुसार आमी हल्दी मूत्र की रुकावट एवं पथरी का नाश करती है।

औषधि-प्रयोगः

सर्दी-खाँसीः हल्दी के टुकड़े को घी में सेंककर रात्रि को सोते समय मुँह में रखने से कफ, सर्दी और खाँसी में फायदा होता है। हल्दी के धुएँ का नस्य लेने से सर्दी और जुकाम में तुरन्त आराम मिलता है। अदरक एवं ताजी हल्दी के एक-एक चम्मच रस में शहद मिलाकर सुबह-शाम लेने से कफदोष से उत्पन्न सर्दी-खाँसी में लाभ होता है। भोजन में मीठे, भारी एवं तले हुए पदार्थ लेना बन्द कर दें।

टॉन्सिल्स (गलतुण्डिका शोथ)- हल्दी के चूर्ण को शहद में मिलाकर टॉन्सिल्स के ऊपर लगाने से लाभ होता है।

कोढ़ः 50 ग्राम गोमूत्र में 3 से 5 ग्राम हल्दी मिलाकर पीने से कोढ़ में लाभ होता है।

कृमिः 70 प्रतिशत बच्चों को कृमिरोग होता है परंतु माता-पिता को इस बात का पता नहीं होता। ताजी हल्दी का आधा से एक चम्मच रस प्रतिदिन बालकों को पिलाने से कृमिरोग दूर होता है।

आँवला – Amla

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आयुर्वेद के मतानुसार आँवले थोड़े खट्टे, कसैले, मीठे, ठंडे, हलके, त्रिदोष (वात-पित्त-कफ) का नाश करने वाले, रक्तशुद्धि करनेवाले, रुचिकर, मूत्रल, पौष्टिक, वीर्यवर्धक, केशवर्धक, टूटी अस्थि जोड़ने में सहायक, कांतिवर्धक, नेत्रज्योतिवर्धक, गर्मीनाशक एवं दाँतों को मजबूती प्रदान करने वाले होते हैं।

आँवले रक्तप्रदर, बवासीर, दाह, अजीर्ण, श्वास, खाँसी, दस्त, पीलिया एवं क्षय जैसे रोगों में लाभप्रद होते हैं। आँवला एक श्रेष्ठ रसायन है। यह रस-रक्तादि सप्तधातुओं को पुष्ट करता है। आँवले के सेवन से आयु, स्मृति, कांति एवं बल बढ़ता है, हृदय एवं मस्तिष्क को शक्ति मिलती है, आँखों का तेज बढ़ता है और बालों की जड़ें मजबूत होकर बाल काले होते हैं।

औषधि-प्रयोगः

श्वेत प्रदरः 3 से 5 ग्राम चूर्ण को मिश्री के साथ प्रतिदिन 2 बार लेने से अथवा इस चूर्ण को शहद के साथ चाटने से श्वेत प्रदर ठीक होता है।

रक्त प्रदरः आँवला तथा मिश्री का समभाग चूर्ण 4 भाग लेकर उसमें 2 भाग हल्दी का चूर्ण मिलाकर 3-3 ग्राम चूर्ण सुबह-शाम पानी के साथ लेने से रक्त प्रदर (योनिगत रक्तस्राव) में अतिशीघ्र आराम मिलता है।

सिरदर्दः आँवले के 3 से 5 ग्राम चूर्ण को घी एवं मिश्री के साथ लेने से पित्त तथा वायुदोष से उत्पन्न सिरदर्द में राहत मिलती है।

शुक्रमेह, धातुक्षयः आँवले के रस में ताजी हल्दी का रस अथवा हल्दी का पाउडर व शहद मिलाकर सुबह-शाम पियें अथवा आँवले एवं हल्दी का समभाग चूर्ण रोज सुबह-शाम शहद अथवा पानी के साथ लें। इससे प्रमेह मिटता है। पेशाब के साथ धातु जाना बंद होता है।

वीर्यवृद्धिः आँवले के रस में घी तथा मिश्री मिलाकर रोज पीने से वीर्यवृद्धि होती है।

कब्जियतः गर्मी के कारण हुई कब्जियत में आँवले का चूर्ण घी एवं मिश्री के साथ चाटें अथवा त्रिफला (हरड़, बहेड़ा, आँवला समभाग) चूर्ण आधा से एक चम्मच रोज रात्रि को पानी के साथ लें। इससे कब्जियत दूर होती है।

अत्यधिक पसीना आनाः हाथ-पैरों में अत्यधिक पसीना आता हो तो प्रतिदिन आँवले के 20 से 30 मि.ली. रस में मिश्री डालकर पियें अथवा त्रिफला चूर्ण लें। आहार में गरम वस्तुओं का सेवन न करें।

दाँतों की मजबूतीः आँवले के चूर्ण को पानी में उबालकर उस पानी से कुल्ले करने से दाँत मजबूत एवं स्वच्छ होते हैं।

आँवला एक उत्तम औषधि है। जब ताजे आँवले मिलते हों, तब इनका सेवन सबके लिए लाभप्रद है। ताजे आँवले का सेवन हमें कई रोगों से बचाता है। आँवले का चूर्ण, मुरब्बा तथा च्यवनप्राश वर्षभर उपयोग किया जा सकता है। जो मनुष्य प्रतिदिन आँवले से स्नान करता है उसके बाल जल्दी सफेद

नहीं होते।

अदरक – Ginger

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अदरक रूखा, तीखा, उष्ण-तीक्ष्ण होने के कारण कफ तथा वात का नाश करता है, पित्त को बढ़ाता है। इसका अधिक सेवन रक्त की पुष्टि करता है। यह उत्तम आमपाचक है। भारतवासियों को यह सात्म्य होने के कारण भोजन में रूचि बढ़ाने के लिए इसका सार्वजनिक उपयोग किया जाता है। आम से उत्पन्न होने वाले अजीर्ण, अफरा, शूल, उलटी आदि में तथा कफजन्य सर्दी-खाँसी में अदरक बहुत उपयोगी है।

सावधानीःरक्तपित्त, उच्च रक्तचाप, अल्सर, रक्तस्राव व कोढ़ में अदरक का सेवन नहीं करना चाहिए। अदरक साक्षात अग्निरूप है। इसलिए इसे कभी फ्रिज में नहीं रखना चाहिए ऐसा करने से इसका अग्नितत्त्व नष्ट हो जाता है।

औषधि-प्रयोगः

उदर रोग, श्वास के रोगः 100 ग्राम अदरक की चटनी बनायें व 100 ग्राम घी में इस चटनी को सेंके। जब वह लाल हो जाये तब उसमें 200 ग्राम गुड़ डालकर हलवे जैसा गाढ़ा अवलेह बनायें। इसमें केसर, इलायची, जायफल, जायपत्री, लौंग मिलायें। यह अवलेह रोज सुबह-शाम 10-10 ग्राम खाने से जठरा का मंद होना, आमवृद्धि, अरुचि व श्वास, खाँसी व जुकाम में राहत मिलती है।

उलटीः अदरक व प्याज का रस समान मात्रा में मिलाकर 3-3 घंटे के अंतर से 1-1 चम्मच लेने से अथवा अदरक के रस में मिश्री में मिलाकर पीने से उलटी होना व जौ मिचलाना बन्द होता है।

हृदयरोगः अदरक के रस व पानी समभाग मिलाकर पीने से हृदयरोग में लाभ होता है।

मंदाग्निः अदरक के रस में नींबू व सेंधा नमक मिलाकर सेवन करने से जठराग्नि तीव्र होती है।

उदरशूलः 5 ग्राम अदरक, 5 ग्राम पुदीने के रस में थोड़ा-सा सेंधा नमक डालक पीने से उदरशूल मिटता है।

शीतज्वरः अदरक व पुदीने का काढ़ा देने से पसीना आकर ज्वर उतर जाता है। शीतज्वर में लाभप्रद है।

पेट की गैसः आधा-चम्मच अदरक के रस में हींग और काला नमक मिलाकर खाने से गैस की तकलीफ दूर होती है।

सर्दी-खाँसीः 20 ग्राम अदरक का रस 2 चम्मच शहद के साथ सुबह शाम लें। वात-कफ प्रकृतिवाले के लिए अदरक व पुदीना विशेष लाभदायक है।

खाँसी एवं श्वास के रोगः अदरक और तुलसी के रस में शहद मिलाकर लें।

बहुमूत्रताः 20 ग्राम अदरक के रस में 5-10 ग्राम मिश्री लाकर भोजन से पहले लेने से बहुमूत्रता में लाभ होता है।

सर्वांगशोधः अदरक के रस के साथ पुराना गुड़ लेने से शरीरस्थ सूजन मिटती है।

शरीर ठंडा पड़ने परः दोष-प्रकोप से आये हुए बुखार या ठंड लगने से शरीर ठंडा पड़ गया हो तो अदरक के रस में उसका चौथाई लहसुन का रस मिलाकर पूरे शरीर पर घिसने से पूरे शरीर में गर्मी आ जाती है जिससे प्राण बच जाते हैं।

परवल – Parval

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वर्ष के कुछ ही महीनों में दिखने वाली सब्जी परवल को सभी सब्जियों में सबसे अच्छा माना गया है। आयुर्वेद में एकमात्र परवल को ही बारह महीने में सदा पथ्य के रूप में स्वीकार किया गया है क्योंकि परवल गुण में हलके, पाचक, गरम, स्वादिष्ट, हृदय के लिये हितकर, वीर्यवर्धक, जठराग्निवर्धक, स्निग्धतावर्धक, पौष्टिक, विकृत कफ को बाहर निकालने वाला और त्रिदोषनाशक है। यह सर्दी, खाँसी, बुखार, कृमि, रक्तदोष, जीर्ण ज्वर, पित्त के ज्वर और रक्ताल्पता को दूर करता है।

परवल दो प्रकार के होते हैं- मीठे और कड़वे। सब्जी के लिए सदैव मीठे, कोमल बीजवाले और सफेद गूदेवाले परवल का उपयोग किया जाता है। जो परवल ऊपर से पीले तथा कड़क हो जाते हैं उनकी अच्छी नहीं मानी जाती।

कड़वे परवल का प्रयोग केवल औषधि के रूप में होता है। कड़वे परवल हलके, रूक्ष, गरम वीर्य, रूचिकर्ता, भूखवर्धक, पाचनकर्ता, तृषाशामक, त्रिदोषनाशक, पित्तसारक, अनुलोमक, रक्तशोधक, पीड़ाशामक, घाव को मिटाने वाले, अरुचि, मंदाग्नि, यकृतविकार, उदररोग, बवासीर, कृमि, रक्तपित्त, सूजन, खाँसी, कोढ़, पित्तज्वर, जीर्णज्वर और कमजोरीनाशक है।

औषधि-प्रयोगः

कफवृद्धिः डंठल के साथ मीठे परवल के 6 ग्राम पत्ते व 3 ग्राम सोंठ के काढ़े में शहद डालकर सुबह-शाम पीने से कफ सरलता से निकल जाता है।

हृदयरोग, शरीर पुष्टिः घी अथवा तेल में बनायी गयी परवल की सब्जी का प्रतिदिन सेवन करने से हृदयरोग में लाभ होता है, वीर्यशुद्धि होती है तथा वजन बढ़ता है।

आमदोषः परवल के टुकड़ों को 16 गुने पानी में उबालें। उबालते समय उनमें सोंठ, पीपरामूल, लेंडीपीपर, काली मिर्च, जीरा व नमक डालें। चौथाई भाग शेष रह जाने पर सुबह शाम 2 बार पियें। इससे आमदोष में लाभ होता है। तथा शक्ति बढ़ती है।

रक्त विकारः इसके मरीज को प्रतिदिन धनिया, जीरा, काली मिर्च और हल्दी डालकर घी में बनायी गयी परवल की सब्जी का सेवन करना चाहिए।

विष-निष्कासनः कड़वे परवल के पत्तों अथवा परवल के टुकड़ों का काढ़ा बारंबार रोगी को पिलाने से उसके शरीर में व्याप्त जहर वमन द्वारा बाहर निकल जाता है।

पेट के रोग, दाह, ज्वरः परवल के पत्ते, नीम की छाल, गुडुच व कुटकी को समभाग में लेकर काढ़ा बनायें। यह काढ़ा पित्त-कफ प्रधान अम्लपित्त, शूल, भ्रम, अरुचि, अग्निमांद्य, दाह, ज्वर तथा वमन में लाभदायक है।

सावधानीः गर्म तासीरवालों के लिए परवल का अधिक सेवन हानिकारक है। यदि इसके सेवन से कोई तकलीफ हुई हो तो सूखी धनिया अथवा धनिया जीरे का चूर्ण घी-मिश्री में मिलाकर चाटें अथवा हरी धनिया का रस पियें।

विशेषः ज्वर, चेचक(शीतला), मलेरिया, दुष्ट व्रण, रक्तपित्त, उपदंश जैसे रोगों में मीठे परवल की अपेक्षा कड़वे परवल के पत्तों का काढ़ा अथवा उसकी जड़ का चूर्ण अधिक लाभदायक होता है।

लौंग(Cloves)

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मलक्का एवं अंबोय के देश में लौंग के झाड़ अधिक उत्पन्न होते हैं। लौंग का उपयोग मसालों एवं सुगन्धित पदार्थों में अधिक होता है। इसका तेल भी निकाला जाता है।

गुणधर्मः लौंग लघु, कड़वा, चक्षुष्य, रुचिकर, तीक्ष्ण, विपाक में मधुर, पाचक, स्निग्ध, अग्निदीपक, हृद्य (हृदय को रुचने वाली), वृष्य और विशद (स्वच्छ) है। यह पित्त, कफ, आँव, शूल, अफरा, खाँसी, हिचकी, पेट की गैस, विष, तृषा, पीनस (सूँघने की शक्ति का नष्ट होना) तथा रक्तदोष का नाश करती है। लौंग में मुख, आमाशय एव आँतों में रहने वाले सूक्ष्म कीटाणुओं का नाश करने एवं सड़न को रोकने का गुण है।

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सर्दी लगने परः लौंग का काढ़ा बनाकर मरीज को पिलाने से लाभ होता है।

कफ और खाँसीः मिट्टी का तवा या तवे जैसा टुकड़ा गरम करें। लाल हो जाने पर बाहर निकालकर एक बर्तन में रखें और उसके ऊपर सात लौंग डालकर उन्हें सेंके। फिर लौंग को पीसकर शहद के साथ लेने से लाभ होता है।

दाँत का दर्दः लौंग के अर्क या पाउडर को रूई पर डालकर उस फाहे को दाँत पर रखें। इससे दाँत के दर्द में लाभ होता है।

मूर्च्छा एवं मिर्गी की शुरुआतः लौंग को घिसकर उसका अंजन करने से लाभ होता है।

रतौंधिः बकरी के मूत्र में लौंग को घिसकर उसको आँजने से लाभ होता है।

सिरदर्दः सिरदर्द में लौंग का तेल सिर पर लगाने से या लौंग को पीसकर ललाट पर लेप करने से राहत मिलती है।

श्वास की दुर्गन्धः लौंग का चूर्ण खाने से अथवा दाँतों पर लगाने से दाँत मजबूत होते हैं। मुँह की दुर्गन्ध, कफ, लार, थूक के द्वारा बाहर निकल जाती है। इससे श्वास सुगन्धित निकलती है, कफ मिट जाता है और पाचनशक्ति बढ़ती है।

गर्भिणी की उलटीः 2 लौंग को गरम पानी में भिगोकर वह पानी पीने से गर्भिणी की उलटी में लाभ होता है। इसकी सलाह एलौपैथी के डॉक्टरों द्वारा भी दी जाती है।

अग्निमांद्य, अजीर्ण एवं हैजाः लौंग का अष्टमांश काढ़ा अर्थात् आठवाँ भाग जितना पानी बचे, ऐसा काढ़ा बनाकर पिलाने से रोगी को राहत मिलती है।

प्यास या जी मिचलानाः हैजे में प्यास लगने पर या जी मिचलाने पर 7 लौंग अथवा 2 जायफल अथवा 2 ग्राम नागरमोथ पानी में उबालकर ठंडा करके रोगी को पिलाने से लाभ होता है।

खाँसी, बुखार, अरुचि, संग्रहणी एवं गुल्मः लौंग, जायफल एवं लेंडीपीपर 1 भाग, बहेड़ा 3 भाग, काली मिर्च 3 भाग और लौंग 16 भाग लेकर उसका चूर्ण करें। उसके बाद 2 ग्राम चूर्ण में उतनी ही मिश्री डालकर खायें। इससे लाभ होता है।

मूत्रलः नित्य 125 मि.ग्रा. से 250 मि.ग्रा. लौंग का चूर्ण लेने से मूत्रपिंड से मूत्रद्वार तक के मार्ग की शुद्धि होती है और मूत्र खुलकर आता है।

खाँसी के लिए लवंगादि वटीः लौंग, काली मिर्च, बहेड़ा – इन तीनों को समान मात्रा में मिला लें। फिर इन तीनों की सम्मिलित मात्रा जितनी खैर की अंतरछाल अथवा सफेद कत्था इसमें डाल दें। इसके पश्चात् बबूल की अंतरछाल के काढ़े में घोंटकर तीन तीन ग्राम वजन की गोलियाँ बनायें। रोज दो तीन बार एक-एक गोली मुँह में रखने से खाँसी में शीघ्र राहत मिलती है।

खाँसी आदि के लिए लवंगादि चूर्णः लौंग, जायफल और लेंडीपीपर 5 ग्राम, काली मिर्च 20 ग्राम और सोंठ 160 ग्राम लेकर उसका चूर्ण तैयार करें। अब चूर्ण के बराबर मात्रा में मिश्री मिलायें। यह चूर्ण तीव्र खाँसी, ज्वर, अरुचि, गुल्म, श्वास, अग्निमांद्य एवं संग्रहणी में उपयोगी है।

विशेषः लवंगादि सुगंधी पदार्थों का चूर्ण तभी बनायें जब जरुरत हो, अन्यथा पहले से बनाकर रखने से इनमें विद्यमान तेल उड़ जाता है।

दालचीनी- Cinnamon

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भारत में दालचीनी के वृक्ष हिमालय तथा पश्चिमी तट पर पाये जाते हैं। इस वृक्ष की छाल, दालचीनी के नाम से प्रसिद्ध है।

यह रस में तीखी, कड़वी  तथा मधुर होती है। उष्ण-तीक्ष्ण होने के कारण दीपन, पाचन और विशेष रूप से कफ का नाश करने वाली है। यह अपने मधुर रस से पित्त का शमन और उष्णवीर्य होने से वात का शमन करती है। अतः त्रिदोषशामक है।

सावधानीः दालचीनी उष्ण-तीक्ष्ण तथा रक्त का उत्क्लेश करने वाली है अर्थात् रक्त में पित्त की मात्रा बढ़ानेवाली है। इसके अधिक सेवन से शरीर में गरमी उत्पन्न होती है। अतः गरमी के दिनों में इसका लगातार सेवन न करें। इसके अत्यधिक उपयोग से नपुंसकता आती है।

औषधि-प्रयोगः Cinnamon-Tea-For-A-Glowing-Skin

मुँह के रोगः यह मुख की शुद्धि तथा दुर्गन्ध का नाश करने वाली है। अजीर्ण अथवा ज्वर के कारण गला सूख गया हो तो इसका एक टुकड़ा मुँह में रखने से प्यास बुझती है तथा उत्तम स्वाद उत्पन्न होता है। इससे मसूढ़े भी मजबूत होते हैं।

दंतशूल व दंतकृमिः इसके तेल में भिगोया हुआ रूई का फाहा दाँत के मूल में रखने से दंतशूल तथा दंतकृमियों का नाश होता है। 5 भाग शहद में इसका एक भाग चूर्ण मिलाकर दाँतों पर लगाने से भी दंतशूल में राहत मिलती है।

पेट के रोगः 1 चम्मच शहद के साथ इसका 1.5 ग्राम (एक चने जितनी मात्रा) चूर्ण लेने से पेट का अलसर मिट जाता है।

दालचीनी, इलायची और तेजपत्र को समभाग में लेकर मिश्रण करें। इसका 1 ग्राम चूर्ण 1 चम्मच शहद के साथ लेने से पेट के अनेक विकार जैसे मंदाग्नि, अजीर्ण, उदरशूल आदि में राहत मिलती है।

सर्दी, खाँसी, जुकामः दालचीनी का 1 ग्राम चूर्ण एवं 1 ग्राम सितोपलादि चूर्ण 1 चम्मच शहद के साथ लेने से सर्दी और खाँसी में तुरंत राहत मिलती है।

क्षयरोग(टी.बी.)- इसका 1 ग्राम चूर्ण 1 चम्मच शहद में मिलाकर सेवन करने से कफ आसानी से छूटने लगता है एवं खाँसी से राहत मिलती है। दालचीनी का यह सबसे महत्त्वपूर्ण उपयोग है।

रक्तविकार एवं हृदयरोगः दालचीनी रक्त की शुद्धि करने वाली है। इसका 1 ग्राम चूर्ण 1 ग्राम शहद में मिलाकर सेवन करने से अथवा दूध में मिलाकर पीने से रक्त में उपस्थित कोलेस्ट्रोल की अतिरिक्त मात्रा घटने लगती है। अथवा इसका आधा से एक ग्राम चूर्ण 200 मि.ली. पानी में धीमी आँच पर उबालें। 100 मि.ली. पानी शेष रहने पर उसे  छानकर पी लें। इससे भी कोलेस्ट्रोल की अतिरिक्त मात्रा घटती है।

गर्म प्रकृति वाले लोग पानी व दूध मिश्रित कर इसका उपयोग कर सकते हैं। इस प्रयोग से रक्त की शुद्धि होती है एवं हृदय को बल मिलता है।

सामान्य वेदनाः इसका एक चम्मच (छोटा) चूर्ण 20 ग्राम शहद एवं 40 ग्राम पानी में मिलाकर स्थानिक मालिश करने से वात के कारण होने वाले दर्द से कुछ ही मिनटों में छुटकारा मिलता है।

इसका एक ग्राम चूर्ण और 2 चम्मच शहद व 1 कप गुनगुने पानी में मिलाकर नित्य सुबह-शाम पीने से संधिशूल में राहत मिलती है।

वेदनायुक्त सूज तथा सिरदर्द में इसका चूर्ण गरण पानी में मिलाकर लेप करें।

बिच्छू के दंशवाली जगह पर इसका तेल लगाने से दर्द कम होता है।

वृद्धावस्थाः बुढ़ापे में रक्तवाहिनियाँ कड़क और रुक्ष होने लगती हैं तथा उनका लचीलापन कम होने लगता है। एक चने जितना दालचीनी का चूर्ण शहद में मिलाकर नियमित सेवन करने से इन लक्षणों से राहत मिलती है। इस प्रयोग से त्वचा पर झुर्रियाँ नहीं पड़तीं, शरीर में स्फूर्ति बढ़ती है और श्रम से जल्दी थकान नहीं आती।

मोटापाः 1.5 ग्राम चूर्ण का काढ़ा बना लें। उसमें 1 चम्मच शहद मिलाकर सुबह खाली पेट तथा सोने से पहले पियें। इससे मेद कम होता है।

त्वचा विकारः दालचीनी का चूर्ण और शहद समभाग में लेकर मिला लें। दाद, खाज तथा खुजलीवाले स्थान पर उसका लेप करने से कुछ ही दिनों में त्वचा के ये विकार मिट जाते हैं।

सोने से पूर्व इसका 1 चम्मच चूर्ण 3 चम्मच शहद में मिलाकर मुँह की कीलों पर अच्छी तरह से मसलें। सुबह चने का आटा अथवा उबटन लगाकर गरम पानी से चेहरा साफ कर लें। इससे कील-मुँहासे मिटते हैं।

बालों का झड़नाः दालचीनी का चूर्ण, शहद और गरम ऑलिव्ह तेल 1-1 चम्मच लेकर मिश्रित करें और उसे बालों की जड़ों में धीरे-धीरे मालिश करें। 5 मिनट के बाद सिर को पानी से धो लें। इस प्रयोग से बालों का झड़ना कम होता है।

हरीतकी (हरड़) Myrobalan

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भारत में विशेषतः हिमालय में कश्मीर से आसाम तक हरीतकी के वृक्ष पाये जाते हैं। आयुर्वेद ने इसे अमृता, प्राणदा, कायस्था, विजया, मेध्या आदि नामों में गौरावान्वित किया है। हरीतकी एक श्रेष्ठ रसायन द्रव्य है।

इसमें लवण छोड़कर मधुर, अम्ल, कटु, तिक्त, कषाय ये पाँचों रस पाये जाते हैं। यह लघु, रुक्ष, विपाक में मधुर तथा वीर्य में उष्ण होती है। इन गुणों से यह वात-पित्त-कफ इन तीनों दोषों का नाश करती है।

हरड़(हरीतकी) शोथहर, व्रणशोधक, अग्निदीपक, पाचक, यकृत-उत्तेजक, मल-अनुलोमक, मेध्य, चक्षुष्य और वयःस्थापक है। विशिष्ठ द्रव्यों के साथ मिलाकर विशिष्ठ संस्कार करने से यह विविध रोगों में लाभदायी होती है। पाचन-संस्थान पर इसका कार्य विशेष-रूप से दिखाई देता है।

सेवन-विधिः हरड़ चबाकर खाने से भूख बढ़ती है। पीसकर फाँकने से मल साफ होता है। सेंककर खाने से त्रिदोषों को नष्ट करती है। खाना खाते समय खाने से यह शक्तिवर्धक और पुष्टिकारक है। सर्दी, जुकाम तथा पाचनशक्ति ठीक करने के लिए भोजन करने के बाद इसका सेवन करें।

मात्राः 3 से 4 ग्राम।

यदि आप लम्बी जिंदगी जीना चाहते हैं तो छोटी हरड़ (हर्र) रात को पानी में भिगो दें। पानी इतना ही डालें कि ये सोख लें। प्रातः उनको देशी घी में तलकर काँच के बर्तन में रख लें। 2 माह तक रोज 1-1 हरड़ सुबह शाम 2 माह तक खाते रहें। इससे शरीर हृष्ट-पुष्ट होगा।

मेध्य, इन्द्रियबलकर, चक्षुष्यः हरड़ मेध्य है अर्थात् बुद्धिवर्धक है। नेत्र तथा अन्य इन्द्रियों का बल बढ़ाती है। घी, सुवर्ण, शतावरी, ब्राह्मी आदि अन्य द्रव्य अपने शीत-मधुर गुणों से धातु तथा इन्द्रियों का बल बढ़ाते हैं, जबकि हरड़ विकृत कफ तथा मल का नाश करके, बुद्धि तथा इन्द्रियों का जड़त्व नष्ट करके उन्हें कुशाग्र बनाती है। शरीर में मल-संचय होने पर बुद्धि तथा इन्द्रियाँ बलहीन हो जाती हैं। हरड़ इस संचित मल का शोधन करके धातुशुद्धि करती है। इससे बुद्धि व इन्द्रियाँ निर्मल व समर्थ बन जाती है। इसलिए हरड़ को मेध्या कहा गया है।

हरड़ नेत्रों का बल बढ़ाती है। नेत्रज्योति बढ़ाने के लिए त्रिफला श्रेष्ठ द्रव्य है। 2 ग्राम त्रिफला चूर्ण घी तथा शहद के विमिश्रण (अर्थात् घी अधिक और शहद कम या शहद अधिक और घी कम) के साथ अथवा त्रिफला घी के साथ लेने से नेत्रों का बल तथा नेत्रज्योति बढ़ती है।

रसायन कार्यः हरड़ साक्षात् धातुओं का पोषण नहीं करती। वह धात्वग्नि बढ़ाती है। धात्वाग्नि बढ़ने से नये उत्पन्न होने वाले रस रक्तादि धातु शुद्ध-प्राकृत बनने लगते हैं। धातुओं में स्थित विकृत कफ तथा मल का पाचन व शोधन करके धातुओं को निर्मल बनाती है। सभी धातुओं व इन्द्रियों का प्रसादन करके यह यौवन की रक्षा करती है, इसलिए इसे कायस्था कहा गया है।

स्थूल व्यक्तियों में केवल मेद धातु का ही अतिरिक्त संचय होने के कारण अन्य धातु क्षीण होने लगते हैं, जिससे बुढ़ापा जल्दी आने लगता है। हरड़ इस विकृत मेद का लेखन व क्षरण (नाश) करके अन्य धातुओं की पुष्टि का मार्ग प्रशस्त कर देती है, जिससे पुनः तारुण्य और ओज की प्राप्ति होती है। लवण रस मांस व शुक्र धातु का नाश करता है जिससे वार्धक्य जल्दी आने लगता है, अतः नमक का उपयोग सावधानीपूर्वक करें। हरड़ में लवण रस न होने से तथा विपाक में मधुर होने से वह तारुण्य की रक्षा करती है। रसायन कर्म के लिए दोष तथा ऋतु के अनुसार विभिन्न अनुपानों के साथ हरड़ का प्रयोग करना चाहिए।

ऋतु अनुसार हरड़ सेवन के लिए अनुपान
वसंत – शहद ग्रीष्म – गुड़
वर्षा – सैंधव शरद – शर्करा
हेमंत – सोंठ शिशिर – पीपर

दोषानुरूप अनुपानः कफ में हरड़ और सैंधव। पित्त में हरड़ और मिश्री। वात में हरड़ घी में भूनकर अथवा मिलाकर दें।

आयुर्वेद के श्रेष्ठ आचार्य वाग्भट्ट के अनुसार हरड़ चूर्ण घी में भूनकर नियमित रूप से सेवन करने से तथा भोजन में घी का भरपूर उपयोग करने से शरीर बलवान होकर दीर्घायु की प्राप्ति होती है।

सावधानीः अति श्रम करने वाले, दुर्बल, उष्ण, प्रकृतिवाले एवं गर्भिणी को तथा ग्रीष्म ऋतु, रक्त व पित्तदोष में हरड़ का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

औषधि-प्रयोगःMYROBALAN-EXTRACT

मंदाग्निः तिक्त रस व उष्णवीर्य होने से यह यकृत को उत्तेजित करती है। पाचक स्त्राव बढ़ाती है। आमाशयस्थ विकृत कफ का नाश करती है। अग्निमांद्य, ग्रहणी (अतिसार), उदरशूल, अफरा आदि रोगों में विशेषतः छोटी हरड़ चबाकर खाने से लाभ होता है।

यह जठराग्नि के साथ-साथ रस रक्तादि सप्तधातुओं की धात्वाग्निओं की भी वृद्धि करती है, जिससे शरीरस्थ आम का पाचन होकर रसरक्तादि सप्तधातु प्राकृतरूप से बनने लगते हैं।

मलावरोधः 3 से 5 ग्राम हरड़ चूर्ण पानी के साथ लेने से मल का पाचन होकर वह शिथिल व द्रवरूप में बाहर निकलता है, जिससे कब्ज का नाश होता है।

ग्रहणी (अतिसार)- हरड़ पानी में उबालकर लेने से मल में से द्रवभाग का शोषण करके बँधे हुए मल को बाहर निकालती है, जिससे दस्त में राहत मिलती है। हरड़ को पानी में उबालकर पीस लें। इसकी 2 ग्राम मात्रा शहद के साथ दिन में 3 बार लेने से अथवा काढ़ा पीने से भी लाभ होता है। इससे आँतों को बल मिलता है, दोषों का पाचन होता है, जठराग्नि बढ़ती है। (आश्रम में उपलब्ध हिंगादि हरड़ चूर्ण का उपयोग भी कर सकते हैं।)

बवासीरः 2 ग्राम हरड़ चूर्ण गुड़ में मिलाकर छाछ के साथ देने से बवासीर के शूल, शोथ आदि लक्षणों में आराम मिलता है।

अम्लपित्तः हरड़ चूर्ण, पीपर व गुड़ समान मात्रा में लेकर मिला लें। इसकी 2-2 ग्राम की गोलियाँ बनाकर 1-1 गोली सुबह-शाम लेने से अथवा 2 ग्राम हरड़ चूर्ण मुनक्का व मिश्री के साथ लेने से कण्ठदाह, तृष्णा, मंदाग्नि आदि अम्लपित्तजन्य लक्षणों से छुटकारा मिलता है।

यकृत-प्लीहा वृद्धिः हरड़ व रोहितक के 50 ग्राम काढ़े में एक चुटकी यवक्षार व 1 ग्राम पीपर चूर्ण मिलाकर लेने से यकृत व प्लीहा सामान्य लगती है।

खाँसी, जुकाम, श्वास व स्वरभेदः हरड़ कफनाशक है और पीपर स्निग्ध, उष्ण-तीक्ष्ण है। अतः 2 भाग हरड़ चूर्ण में 1 भाग पीपर का चूर्ण मिलाकर 2 ग्राम की मात्रा में शहद के साथ 2-3 बार चाटने से कफजन्य खाँसी, जुकाम, स्वरभेद आदि में राहत मिलती है।

कामलाः हरड़ अथवा त्रिफला के काढ़े में शहद मिलाकर देने से पित्त का नाश होता है, यकृत की सूजन दूर होती है। जठराग्नि प्रज्वलित होती है।

प्रमेहः अधिक मात्रा में बार-बार पेशाब आता हो तो हरड़ के काढ़े में हल्दी तथा शहद मिलाकर देने से लाभ होता है।

मूत्रकृच्छ, मूत्राघातः हरड़, गोक्षुर व पाषाणभेद के काढ़े में मधु मिलाकर देने से दाह व शूलयुक्त मूत्र-प्रवृत्ति में आराम मिलता है।

वृषणशोथः हरड़ के काढ़े में गोमूत्र मिलाकर लेने से वृषणशोथ नष्ट होता है।

अरंडी – Castor

किसी भी स्थान पर और किसी भी ऋतु में उगने वाला और कम पानी से पलने वाला अरंडी का वृक्ष गाँव में तो खेतों का रक्षक और घर का पड़ोसी बनकर रहने वाला होता है।

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वातनाशक, जकड़न दूर करने वाला और शरीर को गतिशील बनाने वाला होने के कारण इसे अरंडी नाम दिया गया है। खासतौर पर अरंडी की जड़ और पत्ते दवाई में प्रयुक्त होते हैं। इसके बीजों में से जो तेल निकलता है उसे अरंडी का तेल कहते हैं।

गुण-दोषः गुण में अरंडी वायु तथा कफ का नाश करने वाली, रस में तीखी, कसैली, मधुर, उष्णवीर्य और पचने के बाद कटु होती है। यह गरम, हलकी, चिकनी एवं जठराग्नि, स्मृति, मेधा, स्थिरता, कांति, बल-वीर्य और आयुष्य को बढ़ाने वाली होती है।

यह उत्तम रसायन है और हृदय के लिए हितकर है। अरंडी के तेल का विपाक पचने के बाद मधुर होता है। यह तेल पचने में भारी और कफ करने वाला होता है।

यह तेल आमवात, वायु के तमाम 80 प्रकार के रोग, शूल, सूजन, वायुगोला, नेत्ररोग, कृमिरोग, मूत्रावरोध, अंडवृद्धि, अफरा, पीलिया, पैरों का वात (सायटिका), पांडुरोग, कटिशूल, शिरःशूल, बस्तिशूल (मूत्राशयशूल), हृदयरोग आदि रोगों को मिटाता है।

अरंडी के बीजों का प्रयोग करते समय बीज के बीच का जीभ जैसा भाग निकाल देना चाहिए क्योंकि यह जहरीला होता है।

शरीर के अन्य अवयवों की अपेक्षा आँतों और जोड़ों पर अरंडी का सबसे अधिक असर होता है।

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कटिशूल (कमर का दर्द)- कमर पर अरंडी का तेल लगाकर, अरंडी के पत्ते फैलाकर खाट-सेंक (चारपाई पर सेंक) करना चाहिए। अरंडी के बीजों का जीभ निकाला हुआ भाग (गर्भ), 10 ग्राम दूध में खीर बनाकर सुबह-शाम लेना चाहिए।

शिरःशूलः वायु से हुए सिर के दर्द में अरंडी के कोमल पत्तों पर उबालकर बाँधना चाहिए तथा सिर पर अरंडी के तेल की मालिश करनी चाहिए और सोंठ के काढ़े में 5 से 10 ग्राम अरंड़ी का तेल डालकर पीना चाहिए।

दाँत का दर्दः अरंडी के तेल में कपूर में मिलाकर कुल्ला करना चाहिए और दाँतों पर मलना चाहिए।

योनिशूलः प्रसूति के बाद होने वाले योनिशूल को मिटाने के लिये योनि में अरंडी के तेल का फाहा रखें।

उदरशूलः अरंडी के पके हुए पत्तों को गरम करके पेट पर बाँधने से और हींग तथा काला नमक मिला हुआ अरंडी का तेल पीने से तुरंत ही राहत मिलेगी।

सायटिका (पैरों का वात)- एक कप गोमूत्र के साथ एक चम्मच अरंडी का तेल रोज सुबह शाम लेने और अरंड़ी के बीजों की खीर बनाकर पीने से कब्ज दूर होती है।

हाथ-पैर फटने परः सर्दियों में हाथ, पैर, होंठ इत्यादि फट जाते हों तो अरंडी का तेल गरम करके उन पर लगायें और इसका जुलाब लेते रहें।

संधिवातः अरंडी के तेल में सोंठ मिलाकर गरम करके जोड़ों पर (सूजन न हो तो) मालिश करनी चाहिए। सोंठ तथा सौंफ के काढ़े में अरंडी का तेल डालकर पीना चाहिए और अरंडी के पत्तों का सेंक करना चाहिए।

आमवात में यही प्रयोग करना चाहिए।

पक्षाघात और मुँह का लकवाः सोंठ डाले हुए गरम पानी में 1 चम्मच अरंडी का तेल डालकर पीना चाहिए एवं तेल से मालिश और सेंक करनी चाहिए।

कृमिरोगः वायविडंग के काढ़े में रोज सुबह अरंडी का तेल डालकर लें।

अनिद्राः अरंडी के कोमल पत्ते दूध में पीसकर ललाट और कनपटी पर गरम-गरम बाँधने चाहिए। पाँव के तलवों और सिर पर अरंडी के तेल की मालिश करनी चाहिए।

गाँठः अरंडी के बीज और हरड़े समान मात्रा में लेकर पीस लें। इसे नयी गाँठ पर बाँधने से वह बैठ जायेगी और अगर लम्बे समय की पुरानी गाँठ होगी तो पक जायेगी।

आँतरिक चोटः अरंडी के पत्तों के काढ़े में हल्दी डालकर दर्दवाले स्थान पर गरम-गरम डालें और उसके पत्ते उबालकर हल्दी डालकर चोटवाले स्थान पर बाँधे।

आँखें आनाः अरंडी के कोमल पत्ते दूध में पीसकर, हल्दी मिलाकर, गरम करके पट्टी बाँधें।

स्तनशोथः स्तनपाक,स्तनशोथ और स्तनशूल में अरंडी के पत्ते पीसकर लेप करें।

अंडवृद्धिः नयी हुई अंडवृद्धि में 1-2 चम्मच अरंडी का तेल, पाँच गुने गोमूत्र में डालकर पियें और अंडवृद्धि पर अरंडी के तेल की मालिश करके हलका सेंक करना चाहिए अथवा अरंडी के कोमल पत्ते पीसकर गरम-गरम लगाने चाहिए और एक माह तक एक चम्मच अरंडी का तेल देना चाहिए।

आमातिसारः सोंठ के काढ़े में अथवा गरम पानी में अरंडी का तेल देना चाहिए अथवा अरंडी के तेल की पिचकारी देनी चाहिए। यह इस रोग का उत्तम इलाज है।

गुदभ्रंशः बालक की गुदा बाहर निकलती हो तो अरंडी के तेल में डुबोई हुई बत्ती से उसे दबा दें एवं ऊपर से रूई रखकर लंगोट पहना दें।

आँत्रपुच्छ शोथ (अपेण्डिसाइटिस)- प्रारंभिक अवस्था में रोज सुबह सोंठ के काढ़े में अरंडी का तेल दें।

हाथीपाँव (श्लीपद रोग)- 1 चम्मच अरंडी के तेल में 5 गुना गोमूत्र मिलाकर 1 माह तक लें।

रतौंधीः अरंडी का 1-1 पत्ता खायें और उसका 1-1 चम्मच रस पियें।

वातकंटकः पैर की एड़ी में शूल होता है तो उसे दूर करने के लिए सोंठ के काढ़ें में या गरम पानी में अरंडी का तेल डालकर पियें तथा अरंडी के पत्तों को गरम करके पट्टी बाँधें।

तिलः शरीर पर जन्म से ही तिल हों तो उन्हें से दूर करने के लिए अरंडी के पत्तों की डंडी पर थोड़ा कली चूना लगाकर उसे तिल पर घिसने से खून निकलकर तिल गिर जाते हैं।

ज्वरदाहः ज्वर में दाह होता तो अरंडी के शीतल कोमल पत्ते बिस्तर पर बिछायें और शरीर पर रखें।

जौ – Barley

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प्राचीन काल से जौ का उपयोग होता चला आ रहा है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों का आहार मुख्यतः जौ थे। वेदों ने भी यज्ञ की आहुति के रूप में जौ को स्वीकार किया है। गुणवत्ता की दृष्टि से गेहूँ की अपेक्षा जौ हलका धान्य है। उत्तर प्रदेश में गर्मी की ऋतु में भूख-प्यास शांत करने के लिए सत्तू का उपयोग अधिक होता है। जौ को भूनकर, पीसकर, उसके आटे में थोड़ा सेंधा नमक और पानी मिलाकर सत्तू बनाया जाता है। कई लोग नमक की जगह गुड़ भी डालते हैं। सत्तू में घी और चीनी मिलाकर भी खाया जाता है।

जौ का सत्तू ठंडा, अग्निप्रदीपक, हलका, कब्ज दूर करने वाला, कफ एवं पित्त को हरने वाला, रूक्षता और मल को दूर करने वाला है। गर्मी से तपे हुए एवं कसरत से थके हुए लोगों के लिए सत्तू पीना हितकर है। मधुमेह के रोगी को जौ का आटा अधिक अनुकूल रहता है। इसके सेवन से शरीर में शक्कर की मात्रा बढ़ती नहीं है। जिसकी चरबी बढ़ गयी हो वह अगर गेहूँ और चावल छोड़कर जौ की रोटी एवं बथुए की या मेथी की भाजी तथा साथ में छाछ का सेवन करे तो धीरे-धीरे चरबी की मात्रा कम हो जाती है। जौ मूत्रल (मूत्र लाने वाला पदार्थ) हैं अतः इन्हें खाने से मूत्र खुलकर आता है।

जौ को कूटकर, ऊपर के मोटे छिलके निकालकर उसको चार गुने पानी में उबालकर तीन चार उफान आने के बाद उतार लो। एक घंटे तक ढककर रख दो। फिर पानी छानकर अलग करो। इसको बार्ली वाटर कहते हैं। बार्ली वाटर पीने से प्यास, उलटी, अतिसार, मूत्रकृच्छ, पेशाब का न आना या रुक-रुककर आना, मूत्रदाह, वृक्कशूल, मूत्राशयशूल आदि में लाभ होता है।

औषधि-प्रयोगः

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धातुपुष्टिः एक सेर जौ का आटा, एक सेर ताजा घी और एक सेर मिश्री को कूटकर कलईयुक्त बर्तन में गर्म करके, उसमें 10-12 ग्राम काली मिर्च एवं 25 ग्राम इलायची के दानों का चूर्ण मिलाकर पूर्णिमा की रात्रि में छत पर ओस में रख दो। उसमें से हररोज सुबह 60-60 ग्राम लेकर खाने से धातुपुष्टि होती है।

गर्भपातः जौ के आटे को एवं मिश्री को समान मात्रा में मिलाकर खाने से बार-बार होने वाला गर्भपात रुकता है।