बकासन से चेहरा बने स्वस्थ और सुंदर

बक अर्थात बगुला। इस आसन को करते वक्त बगुले जैसी स्थिति हो जाती है इसी कारण इसे बकासन कहते हैं।img1130214063_1_1

बकासन योग विधि : शुरुआत में इस आसन को करते समय दोनों हाथों की हथेलियों को भूमि पर कुछ इस तरह स्थिर करें कि आपकी अंगुलियां पीछे की ओर तथा अंगुठें आगे की ओर हो। इसके बाद घुटनों को कोहनियां से ऊपर भुजाओं पर स्थिर कर दें।

श्वास अंदर भरके धीरे से आगे की झुकते हुए शरीर के भार को हथेलियों पर संभालते हुए पैरों को भूमि से ऊपर उठाएं। अभ्यास से ही इस स्थिति में हुआ जा सकता है।

वापसी के लिए पहले पैरों के पंजों को भूमि पर टिकाएं।

सावधानी : उक्त आसन को जबरदस्ती करने का प्रयास न करें। जब भी यह आसन करें तो नरम-मुलायम गद्दे पर ही करें। जिन्हें हाथों में कोई गंभीर शिकायत हो तो वह यह आसक कतई न करें। इस आसन की विधि को अच्छे से समझ कर ही यह आसन करें।

बकासन का लाभ : बकासन से चेहरे की चमक बढ़ती है। हाथों की मांसपेशियों पर विशेष बल पड़ने के कारण उनमें मजबूती आती है और इससे शरीर के प्रत्येक अंगों में खिंचाव होने के कारण वे निरोगी बने रहते हैं।

योग का महत्व

भारतीय धर्म और दर्शन में का अत्यधिक महत्व है। आध्या‍त्मिक उन्नत‍ि या शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए योग की आवश्यकता व महत्व को प्राय: सभी दर्शनों एवं भारतीय धार्मिक सम्प्रदायों ने एकमत व मुक्तकंठ से स्वीकार किया है।

ववैदिक जैन और बौद्ध दर्शनों में योग का महत्व सर्वमान्य है। सविकल्प बुद्धि और निर्विकल्प प्रज्ञा में परिणित करने हेतु योग-साधना का महत्व सर्वमान्य स्वीकृत है। सविकल्प और निर्विकल्प क्या होता है इसे ‘योग दर्शन’ में देखें।

वर्तमान युग : आधुनिक युग में योग का महत्व बढ़ गया है। इसके बढ़ने का कारण व्यस्तता और मन की व्यग्रता है। आधुनिक मनुष्य को आज योग की ज्यादा आवश्यकता है, जबकि मन और शरीर अत्यधिक तनाव, वायु प्रदूषण तथा भागमभाग के जीवन से रोगग्रस्त हो चला है।

आधुनिक व्यथित चित्त या मन अपने केंद्र से भटक गया है। उसके अंतर्मुखी और बहिर्मुखी होने में संतुलन नहीं रहा। अधिकतर अति-बहिर्मुख जीवन जीने में ही आनंद लेते हैं जिसका परिणाम संबंधों में तनाव और अव्यवस्थित जीवनचर्या के रूप में सामने आया है।

अंतरिक्ष में योग : योग का महत्व इसलिए भी बढ़ गया है कि मनुष्य जाति को अब और आगे प्रगति करना है तो योग सीखना ही होगा। अंतरिक्ष में जाना है, नए ग्रहों की खोज करना है। शरीर और मन को स्वस्थ और संतुलित रखते हुए अंतरिक्ष में लम्बा समय बिताना है तो विज्ञान को योग की महत्ता और महत्व को समझना होगा।

भविष्य का धर्म : दरअसल योग भविष्य का धर्म और विज्ञान है। भविष्य में योग का महत्व बढ़ेगा। यौगिक क्रियाओं से वह सब कुछ बदला जा सकता है जो हमें प्रकृति ने दिया है और वह सब कुछ पाया जा सकता है जो हमें प्रकृति ने नहीं दिया है।

अंतत: : मानव अपने जीवन की श्रेष्ठता के चरम पर अब योग के ही माध्यम से आगे बढ़ सकता है, इसलिए योग के महत्व को समझना होगा। योग व्यायाम नहीं, योग है विज्ञान का चौथा आयाम और उससे भी आगे।

योग क्या है?

शरीर और मन का संतुलन है योग

शब्द के दो अर्थ हैं और दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। पहला है- जोड़ और दूसरा है समाधि। जब तक हम स्वयं से नहीं जुड़ते, समाधि तक पहुँचना कठिन होगा। या धर्म नहीं, गणित से कुछ ज्यादा है। दो में दो मिलाओ चार ही आएँगे। चाहे विश्वास करो या मत करो, सिर्फ करके देख लो। आग में हाथ डालने से हाथ जलेंगे ही, यह विश्वास का मामला नहीं है।

योग है विज्ञान : ‘योग धर्म, आस्था और अंधविश्वास से परे है। योग एक सीधा विज्ञान है। प्रायोगिक विज्ञान है। योग है जीवन जीने की कला। योग एक पूर्ण चिकित्सा पद्धति है। एक पूर्ण मार्ग है-राजपथ। दरअसल धर्म लोगों को खूँटे से बाँधता है और योग सभी तरह के खूँटों से मुक्ति का मार्ग बताता है।’-ओशो

जैसे बाहरी विज्ञान की दुनिया में आइंस्टीन का नाम सर्वोपरि है, वैसे ही भीतरी विज्ञान की दुनिया के आइंस्टीन हैं पतंजलि। जैसे पर्वतों में हिमालय श्रेष्ठ है, वैसे ही समस्त दर्शनों, विधियों, नीतियों, नियमों, धर्मों और व्यवस्थाओं में योग श्रेष्ठ है।

: पतंजलि ने ईश्वर तक, सत्य तक, स्वयं तक, मोक्ष तक या कहो कि पूर्ण स्वास्थ्य तक पहुँचने की आठ सीढ़ियाँ निर्मित की हैं। आप सिर्फ एक सीढ़ी चढ़ो तो दूसरी के लिए जोर नहीं लगाना होगा, सिर्फ पहली पर ही जोर है। पहल करो। जान लो कि योग उस परम शक्ति की ओर क्रमश: बढ़ने की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। आप यदि चल पड़े हैं तो पहुँच ही जाएँगे।

योग वृहत्तर विषय है। आपने सुना होगा- ज्ञानयोग, भक्तियोग, धर्मयोग और कर्मयोग। इन सभी में योग शब्द जुड़ा हुआ है। फिर हठयोग भी सुना होगा, लेकिन इन सबको छोड़कर जो राजयोग है, वही पतंजल‍ि का योग है।

इसी योग का सर्वाधिक प्रचलन और महत्व है। इसी योग को हम आष्टांग योग के नाम से जानते हैं। आष्टांग योग अर्थात योग के आठ अंग। दरअसल पतंजल‍ि ने योग की समस्त विद्याओं को आठ अंगों में श्रेणीबद्ध कर दिया है। अब इससे बाहर कुछ भी नहीं है।

आपको ईश्वर को जानना है, सत्य को जानना है, सिद्धियाँ प्राप्त करना हैं या कि सिर्फ स्वस्थ रहना है, तो पतंजलि कहते हैं कि शुरुआत शरीर के तल से ही करना होगी। शरीर को बदलो मन बदलेगा। मन बदलेगा तो बुद्धि बदलेगी।

प्रारम्भिक पाँच अंगों से योग विद्या में प्रविष्ठ होने की तैयारी होती है, अर्थात समुद्र में छलाँग लगाकर भवसागर पार करने के पूर्व तैराकी का अभ्यास इन पाँच अंगों में सिमटा है। इन्हें किए बगैर भवसागर पार नहीं कर सकते और जो इन्हें करके छलाँग नहीं लगाएँगे, तो यहीं रह जाएँगे। बहुत से लोग इन पाँचों में पारंगत होकर योग के चमत्कार बताने में ही अपना जीवन नष्ट कर बैठते हैं।

यह आठ अंग हैं- (1) यम (2) नियम (3) (4) (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान (8) समाधि। उक्त आठ अंगों के अपने-अपने उप अंग भी हैं। वर्तमान में योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और ध्यान।

बदलो स्वयं को : आपको ईश्वर को जानना है, सत्य को जानना है, सिद्धियाँ प्राप्त करना हैं या कि सिर्फ स्वस्थ रहना है, तो पतंजलि कहते हैं कि शुरुआत शरीर के तल से ही करना होगी। शरीर को बदलो मन बदलेगा। मन बदलेगा तो बुद्धि बदलेगी। बुद्धि बदलेगी तो आत्मा स्वत: ही स्वस्थ हो जाएगी। आत्मा तो स्वस्थ है ही। एक स्वस्थ आत्मचित्त ही समाधि को उपलब्ध हो सकता है।

जिनके मस्तिष्क में द्वंद्व है, वह हमेशा चिंता, भय और संशय में ही ‍जीते रहते हैं। उन्हें जीवन एक संघर्ष ही नजर आता है, आनंद नहीं। योग से समस्त तरह की चित्तवृत्तियों का निरोध होता है- योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। चित्त अर्थात बुद्धि, अहंकार और मन नामक वृत्ति के क्रियाकलापों से बनने वाला अंत:करण। चाहें तो इसे अचेतन मन कह सकते हैं, लेकिन यह अंत:करण इससे भी सूक्ष्म माना गया है।

दुनिया के सारे धर्म इस चित्त पर ही कब्जा करना चाहते हैं, इसलिए उन्होंने तरह-तरह के नियम, क्रिया कांड, ग्रह-नक्षत्र और ईश्वर के प्रति भय को उत्पन्न कर लोगों को अपने-अपने धर्म से जकड़े रखा है। पतंजल‍ि कहते हैं कि इस चित्त को ही खत्म करो।

योग विश्वास करना नहीं सिखाता और न ही संदेह करना। और विश्‍वास तथा संदेह के बीच की अवस्था संशय के तो योग बहुत ही खिलाफ है। योग कहता है कि आपमें जानने की क्षमता है, इसका उपयोग करो।
आपकी आँखें हैं इससे और भी कुछ देखा जा सकता है, जो सामान्य तौर पर दिखता नहीं। आपके कान हैं, इनसे वह भी सुना जा सकता है जिसे अनाहत कहते हैं। अनाहत अर्थात वैसी ध्वन‍ि जो किसी संघात से नहीं जन्मी है, जिसे ज्ञानीजन ओम कहते हैं, वही आमीन है, वही ओमीन और ओंकार है।

अंतत : तो, सर्वप्रथम आप अपनी इंद्रियों को बलिष्ठ बनाओ। शरीर को डायनामिक बनाओ। और इस मन को स्वयं का गुलाम बनाओ। और यह सब कुछ करना बहुत सरल है- दो दुनी चार जैसा।

योग कहता है कि शरीर और मन का दमन नहीं करना है, बल्कि इसका रूपांतर करना है। इसके रूपांतर से ही जीवन में बदलाव आएगा। यदि आपको लगता है कि मैं अपनी आदतों को नहीं छोड़ पा रहा हूँ, जिनसे कि मैं परेशान हूँ तो चिंता मत करो। उन आदतों में एक ‘योग’ को और शामिल कर लो और बिलकुल लगे रहो। आप न चाहेंगे तब भी परिणाम सामने आएँगे।

आसन की शुरुआत से पूर्व

आसनों को सीखना प्रारम्भ करने से पूर्व कुछ आवश्यक सावधानियों पर ध्‍यान देना आवश्यक है।प्रभावकारी तथा लाभदायक तभी हो सकते हैं, जबकि उसको उचित रीति से किया जाए।

  1. शौच क्रिया एवं स्नान से निवृत्त होने के बाद ही किया जाना चाहिए तथा एक घंटे पश्चात स्नान करें।

2.योगासन समतल भूमि पर आसन बिछाकर करना चाहिए एवं मौसमानुसार ढीले वस्त्र पहनना चाहिए।

3.योगासन खुले एवं हवादार कमरे में करना चाहिए, ताकि श्वास के साथ आप स्वतंत्र रूप से शुद्ध वायु ले सकें। अभ्यास आप बाहर भी कर सकते हैं, परन्तु आस-पास वातावरण शुद्ध तथा मौसम सुहावना हो।

  1. आसन करते समय अनावश्यक जोर न लगाएँ। यद्धपि प्रारम्भ में आप अपनी माँसपेशियों को कड़ी पाएँगे, लेकिन कुछ ही सप्ताह के नियमित अभ्यास से शरीर लचीला हो जाता है। आसनों को आसानी से करें, कठिनाई से नहीं। उनके साथ ज्यादती न करें।

5.मासिक धर्म, गर्भावस्था, बुखार, गंभीर रोग आदि के दौरान आसन न करें।

6.योगाभ्यासी को सम्यक आहार अर्थात भोजन प्राकृतिक और उतना ही लेना चाहिए जितना क‍ि पचने में आसानी हो। वज्रासन को छोड़कर सभी आसन खाली पेट करें।

7.आसन के प्रारंभ और अंत में विश्राम करें। आसन विधिपूर्वक ही करें। प्रत्येक आसन दोनों ओर से करें एवं उसका पूरक अभ्यास करें।

  1. यदि आसन को करने के दौरान किसी अंग में अत्यधिक पीड़ा होती है तो किसी चिकित्सक से सलाह लेकर ही आसन करें।

9.यदि वातों में वायु, अत्यधिक उष्णता या रक्त अत्यधिक अशुद्ध हो तो सिर के बल किए जाने वाले आसन न किए जाएँ। विषैले तत्व मस्तिष्क में पहुँचकर उसे क्षति न पहुँचा सकें, इसके लिए सावधानी बहुत महत्वपूर्ण है।

10.योग प्रारम्भ करने के पूर्व अंग-संचालन करना आवश्यक है। इससे अंगों की जकड़न समाप्त होती है तथा आसनों के लिए शरीर तैयार होता है।

क्या है आसन?

आसन और अन्य व्यायामों में फर्क

चित्त को स्थिर रखने वाले तथा सुख देने वाले बैठने के प्रकार को कहते हैं। आसन अनेक प्रकार के माने गए हैं।

आसनानि समस्तानियावन्तों जीवजन्तव:। चतुरशीत लक्षणिशिवेनाभिहितानी च।’- अर्थात संसार के समस्त जीव जन्तुओं के बराबर ही आसनों की संख्या बताई गई है। इस प्रकार 84000 आसनों में से मुख्य 84 आसन ही माने गए हैं। उनमें भी मुख्य आसनों का योगाचार्यों ने वर्णन अपने-अपने तरीके से किया है।

आसनों का मुख्य उद्देश्य शरीर के मल का नाश करना है। शरीर से मल या दूषित विकारों के नष्ट हो जाने से शरीर व मन में स्थिरता का अविर्भाव होता है। शांति और स्वास्थ्य लाभ मिलता है।

शरीर ही मन और ‍बुद्धि की सहायता से आत्मा को संसार के बंधनों से द्वारा मुक्त कर सकता है। शरीर बृहत्तर ब्रह्मांड का सूक्ष्म रूप है। अत: शरीर के स्वस्थ रहने पर मन और आत्मा में संतोष मिलता है।

आसन और व्यायाम : आसन एक वैज्ञानिक पद्धति है। ये हमारे शरीर को स्वच्छ, शुद्ध व सक्रिय रखकर मनुष्य को शारीरिक व मानसिक रूप से सदा स्वस्थ बनाए रखते हैं। केवल आसन ही एक ऐसा व्यायाम है जो हमारे अंदर के शरीर पर प्रभाव डाल सकता है।

आसन और अन्य तरह के व्यायामों में फर्क है। आसन जहाँ हमारे शरीर की प्रकृति को बनाए रखते हैं वहीं अन्य तरह के व्यायाम इसे बिगाड़ सकते हैं। ‍जिम या अखाड़े के शरीर- शरीर के साथ किए गए अतिरिक्त श्रम का परिणाम होते हैं जो सिर्फ दिखने के ही होते हैं। बॉडी की एक्स्ट्रा एनजी एनर्जी को डिस्ट्रॉय करना है।

आसन के प्रकार : बैठकर किए जाने वाले आसन। पीठ के बाल लेटकर किए जाने वाले आसन। पेट के बाल लेटकर किए जाने वाले आसन और खड़े होकर किए जाने वाले आसन।

  1. बैठकर : पद्मासन, वज्रासन, सिद्धासन, मत्स्यासन, वक्रासन, अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, गोमुखासन, पश्चिमोत्तनासन, ब्राह्म मुद्रा, उष्ट्रासन, गोमुखासन। आदि।
  2. पीठ के बल लेटकर : अर्धहलासन, हलासन, सर्वांगासन, विपरीतकर्णी आसन, पवनमुक्तासन, नौकासन, शवासन आदि।
  3. पेट के बाल लेटकर : मकरासन, धनुरासन, भुजंगासन, शलभासन, विपरीत नौकासन आदि।
  4. खड़े होकर : ताड़ासन, वृक्षासन, अर्धचंद्रमासन, अर्धचक्रासन, दो भुज कटिचक्रासन, चक्रासन,, पाद्पश्चिमोत्तनासन आदि।
  5. अन्य : शीर्षासन, मयुरासन, सूर्य नम:स्कार आदि।

शशकासन योग के फायदे

शशक का का अर्थ होता है खरगोश। इस आसन को करते वक्त व्यक्ति की जैसी आकृति बन जाती है इसीलिए इसे शशकासन कहते हैं। इस आसन को कई तरीके से किया जाता है यहां प्रस्तुत है सबसे सरल तरीका।images

आसन विधि : सबसे पहले वज्रासन में बैठ जाएं और फिर अपने दोनों हाथों को श्वास भरते हुए ऊपर उठा लें। कंधों को कानों से सटा हुआ महसूस करें। फिर सामने की ओर झुकते हुए दोनों हाथों को आगे समानांतर फैलाते हुए, श्वास बाहर निकालते हुए हथेलियां को भूमि पर टिका दें। फिर माथा भी भूमि पर टिका दें। कुछ समय तक इसी स्थिति में रहकर पुनः वज्रासन की‍ स्थिति में आ जाइए।

सावधानी : यदि आपके पेट और सिर में कोई गंभीर समस्या हो तो यह आसन नहीं करें। हाथों को सिर के ऊपर उठाते समय कंधों से उन्हें ऊपर की ओर प्रेस करें जिससे सामने फैलाते समय कोई दिक्कत नहीं होगी।

इसका लाभ : हृदय रोगियों के लिए यह आसन लाभदायक है। यह आसन पेट, कमर व कूल्हों की चर्बी कम करके आंत, यकृत, अग्न्याशय व गुर्दों को बल प्रदान करता है। इस आसन के नियमित अभ्यास से तनाव, क्रोध, चिड़चिड़ापन आदि मानसिक रोग भी दूर हो जाते हैं।

मलासन के लाभ

मल+आसन अर्थात मल निकालते वक्त हम ‍जिस अवस्था में बैठते हैं उसे कहते हैं। बैठने की यह स्थति पेट और पीठ के लिए बहुत ही लाभदायक रहती है। मलासन की एक अन्य विधि भी है, लेकिन यहां सामान्य विधि का परिचय।img1131023031_1_1

विधि : दोनों घुटनों को मोड़ते हुए मल त्याग करने वाली अवस्था में बैठ जाएं। फिर दाएं हाथ की कांख को दाएं और बाएं हाथ की कांख को बाएं घुटने पर टिकाते हुए दोनों हाथ को मिला दें (नमस्कार मुद्रा)। उक्त स्थिति में कुछ देर तक रहने के बाद सामान्य स्थिति में आ जाएं।

: मलासन से घुटनों, जोड़ों, पीठ और पेट का तनाव खत्म होकर उनका दर्द मिटता है। इससे कब्ज और गैस का निदान भी होता है।

मंडूकासन के लाभ जानिए

मंडूक का अर्थ है मेंढक अर्थात इस आसन को करते वक्त मेंढक के आकार जैसी स्थिति प्रतीत होती इसीलिए इसे कहते हैं। यह आसन भी कई तरह से किया जाता हैं। यहां प्रस्तुत है प्रचलित तरीका।img1131130031_1_1

विधि : सर्वप्रथम दंडासन में बैठते हुए वज्रासन में बैठ जाएं फिर दोनों हाथों की मुठ्ठी बंद कर लें। मुठ्ठी बंद करते समय अंगूठे को अंगुलियों से अंदर दबाइए। फिर दोनों मुठ्ठियों को नाभि के दोनों ओर लगाकर श्वास बाहर निकालते हुए सामने झुकते हुए ठोड़ी को भूमि पर टिका दें। थोड़ी देर इसी स्थिति में रहने के बाद वापस वज्रासन में आ जाए।

विपरित आसन : प्रत्येक आसन को करने के पश्चात उसका विपरित आसन जरूर करें। मंडूकासन के बाद आप चाहे तो योगा शिक्षक से पूछकर ऊष्ट्रासन या विपरित नौकासन कर सकते हैं।

आवृत्ति : मंडूकासन का अभ्यास वैसे तो दो बार ही किया जाता है किंतु डायबिटीज के मरीज इसका अभ्यास 3-4 बार तक कर सकते हैं।

सावधानी : यदि पेट संबंधी कोई गंभीर रोग हो तो यह आसन न करें। स्लिप डिस्क, ऑस्टियोपॉरोसिस और कमर दर्द के रोगी यह आसन किसी योग चिकित्सक से पूछकर ही करें। आसन करते वक्त ध्यान रखें की दोनों हाथों की मुठ्ठियां अच्छी तरह से नाभि के आस-पास टिकी हो।

इस आसन के लाभ : पेट के लिए अत्यंत ही लाभयादयक इस आसन से अग्नयाशय सक्रिय होता है जिसके कारण डायबिटीज के रोगियों को इससे लाभ मिलता है। यह आसन उदर और हृदय के लिए भी अत्यंत लाभदायक माना गया है।

यह आसन पेट के रोग जैसे कब्ज, गैस, अफारा, भूख न लगना, अपच, भोजन का पाचन ठीक न होना आदि विकारों को दूर करता है। इस आसन से आमाशय, छोटी आंत, बड़ी आंत, पित्तकोष, पेन्क्रियाज, मलाशय, लिवर, प्रजनन अंगों और किडनी आदि सभी अंगों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।

महाबंध से बनें महायोगी

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बंध का शाब्दिक अर्थ है- ‘गांठ’, बंधन या ताला। इसके अभ्यास से प्राणों को शरीर के किसी एक भाग पर बांधा जाता है। इसके अभ्यास से योगी प्राणों को नियंत्रित कर सफलता पूर्वक कुंडलिनी जाग्रत करता है।

बंध, और मुद्रा तीनों का अभ्यास साथ-साथ किया जाता है। हालांकि बंध के साथ मुद्राओं को करने का प्रचलन ही अधिक है, क्योंकि बंध अपने आप में कुंभक का हिस्सा है।

छह प्रमुख बंध इस प्रकार हैं- 1.मूलबंध 2.उड्डीयानबंध 3.जालंधर बंध 4. बंधत्रय, 5.और 6.महा वेध। उक्त पांच बंध के लिए पांच मुद्राएं-1.योग मुद्रा, 2.विपरितकर्णी मुद्रा, 3.खेचरी मुद्रा, 4.वज्रोली मुद्रा, 5.शक्ति चालन मुद्रा और 6.योनी मुद्रा।

महाबंध की विधि : प्रथम दायां पांव उठाकर उसकी एड़ी से सीवनी को दृढ़ता से दबाकर गुदा मार्ग को बंद करें। यह मूलबंध की स्थिति है। फिर दायां पांव बाईं जांघ पर रखकर गोमुखासन करें और तब ठोढ़ी की छाती पर दृढ़ता से लगाकर रखें। यह जालन्धरबंध की स्थिति है। फिर पेट को दबाकर रखें। इससे अपानवायु ऊपर की ओर प्रवाहित होती है। इस समय में ध्यान त्रिकुटी पर लगाकर रखें। इस संपूर्ण स्थिति को महाबंध कहा जाता है।

प्रभाव और लाभ : इसके नियमित अभ्यास से जठराग्नि अधिक बढ़ती है, जिससे पाचन शक्ति उत्तम बनी रहती है। जरा-मृत्यु आदि निकट नहीं आ पाते और साधक योगी बन जाता है।

अवधि और सावधानी : इसे प्रति तीन घंटे पर करें। अभ्यास काल में स्त्री और अग्नि (गर्म पदार्थ आदि) का सेवन न करें।

परकाया प्रवेश सिद्धि योगा, जानिए

अखंड ज्योति में श्रीराम शर्मा आचार्य ने उल्लेख किया है कि ‘नाथ सम्प्रदाय’ के आदि गुरु मुनिराज ‘मछन्दरनाथ’ के विषय में भी कहा जाता है कि उन्हें परकाया प्रवेश की सिद्धि प्राप्त थी। से वे अपनी इच्छानुसार गमनागमन विभिन्न शरीरों में करते थे। एकबार अपने शिष्य गोरखनाथ को स्थूल शरीर की सुरक्षा का भार सौंपकर एक मृत राजा के शरीर में उन्होंने सूक्ष्म शरीर से प्रवेश किया था। ‘महाभारत के शान्ति पर्व’ में वर्णन है कि सुलभा नामक विदुषी अपने योगबल की शक्ति से राजा जनक के शरीर में प्रविष्ट कर विद्वानों से शास्त्रार्थ करने लगी थी। उन दिनों राजा जनक का व्यवहार भी स्वाभाविक न था।

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‘अनुशासन पर्व’ में ही कथा आती है कि एक बार इन्द्र किसी कारण वश ऋषि देवशर्मा पर कुपित हो गये। उन्होंने क्रोधवश ऋषि की पत्नी से बदला लेने का निश्चय किया। देवशर्मा का शिष्य ‘विपुल’ योग साधनाओं में निष्णात और सिद्ध था। उसे योग दृष्टि से यह मालूम हो गया कि मायावी इन्द्र, गुरु पत्नी से बदला लेने वाले हैं। ‘विपुल’ ने सूक्ष्म शरीर से गुरु पत्नी के शरीर में उपस्थित होकर इन्द्र के हाथों से उन्हें बचाया।

‘पातंजलि योग दर्शन’ में सूक्ष्म शरीर से आकाश गमन, एक ही समय में अनेकों शरीर धारण, परकाया प्रवेश जैसी अनेकों योग विभूतियों का वर्णन है।

मरने के बाद सूक्ष्म शरीर जब स्थूल शरीर को छोड़कर गमन करता है तो उसके साथ अन्य सूक्ष्म परमाणु कहिए या कर्म भी गमन करते हैं जो उनके परिमाप के अनुसार अगले जन्म में रिफ्लेक्ट होते हैं, जैसे तिल, मस्सा, गोली का निशान, चाकू का निशान, आचार-विचार, संस्कार आदि। इस सूक्ष्म शरीर को मरने से पहले ही जाग्रत कर उसमें स्थिति हो जाने वाला व्यक्ति ही परकाय प्रवेश सिद्धि योगा में पारंगत हो सकता है।

सबसे बड़ा सवाल यह कि खुद के शरीर पर आपका कितना कंट्रोल है? योग अनुसार जब तक आप खुद के शरीर को वश में करन नहीं जानते तब तक दूसरे के शरीर में प्रवेश करना मुश्किल होगा।

दूसरों के शरीर में प्रवेश करने की विद्या को परकाय प्रवेश योग विद्या कहते हैं। आदि शंकराचार्य इस विद्या में अच्छी तरह से पारंगत थे। नाथ संप्रदाय के और भी बहुत से साधक इस तकनीक से अवगत थे, लेकिन आम जनता के लिए तो यह बहुत ही कठिन जान पड़ता है। क्यों?

योग में कहा गया है कि मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या है ‘चित्त की वृत्तियां’। इसीलिए योग सूत्र का पहला सूत्र है- योगस्य चित्तवृत्ति निरोध:। इस चित्त में हजारों जन्मों की आसक्ति, अहंकार काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि से उपजे कर्म संग्रहित रहते हैं, जिसे संचित कर्म कहते हैं।

यह संचित कर्म ही हमारा प्रारब्ध भी होते हैं और इसी से आगे की दिशा भी तय होती है। इस चित्त की पांच अवस्थाएं होती है जिसे समझ कर ही हम को सक्रिय कर सकते हैं। सूक्ष्म शरीर से बाहर निकल कर ही हम दूसरे के शरीर में प्रवेश कर सकते हैं।

इस चित्त या मानसिक अवस्था के पांच रूप हैं:- (1)क्षिप्त (2) मूढ़ (3)विक्षिप्त (4)एकाग्र और (5)निरुद्व। प्रत्येक अवस्था में कुछ न कुछ मानसिक वृत्तियों का निरोध होता है।

(1)क्षिप्त : क्षिप्त अवस्था में चित्त एक विषय से दूसरे विषय पर लगातार दौड़ता रहता है। ऐसे व्यक्ति में विचारों, कल्पनाओं की भरमार रहती है।
(2)मूढ़ : मूढ़ अवस्था में निद्रा, आलस्य, उदासी, निरुत्साह आदि प्रवृत्तियों या आदतों का बोलबाला रहता है।
(3)विक्षिप्त : विक्षिप्तावस्था में मन थोड़ी देर के लिए एक विषय में लगता है पर क्षण में ही दूसरे विषय की ओर चला जाता है। पल प्रति‍पल मानसिक अवस्था बदलती रहती है।
(4)एकाग्र : एकाग्र अवस्था में चित्त देर तक एक विषय पर लगा रहता है। यह अवस्था स्थितप्रज्ञ होने की दिशा में उठाया गया पहला कदम है।
(5)निरुद्व : निरुद्व अवस्था में चित्त की सभी वृत्तियों का लोप हो जाता है और चित्त अपनी स्वाभाविक स्थिर, शान्त अवस्था में आ जाता है। अर्थात व्यक्ति को स्वयं के होने का पूर्ण अहसास होता है। उसके उपर से मन, मस्तिष्क में घुमड़ रहे बादल छट जाते हैं और वह पूर्ण जाग्रत रहकर दृष्टा बन जाता है। यह योग की पहली समाधि अवस्था भी कही गई है।

*ध्यान योग का सहारा : निरुद्व अवस्था को समझें यह व्यक्ति को आत्मबल प्रदान करती है। यही व्यक्ति का असली स्वरूप है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए सांसार की व्यर्थ की बातों, क्रियाकलापों आदि से ध्यान हटाकर संयमित भोजन का सेवन करते हुए प्रतिदिन ध्यान करना आवश्यक है। इस दौरान कम से कम बोलना और लोगों से कम ही व्यवहार रखना भी जरूरी है।

*ज्ञान योग का सहारा : चित्त की वृत्तियों और संचित कर्म के नाश के लिए योग में ज्ञानयोग का वर्णन मिलता है। ज्ञानयोग का पहला सूत्र है कि स्वयं को शरीर मानना छोड़कर आत्मा मानों। आत्मा का ज्ञान होना के होने का आभास दिलाएगा।

कैसे होगा यह संभव : चित्त जब वृत्ति शून्य (निरुद्व अवस्था) होता है तब बंधन के शिथिल हो जाने पर और संयम द्वारा चित्त की प्रवेश निर्गम मार्ग नाड़ी के ज्ञान से चित्त दूसरे के शरीर में प्रवेश करने की सिद्धि प्राप्त कर लेता है। यह बहुत आसान है, चित्त की स्थिरता से में होने का अहसास बढ़ता है। सूक्ष्म शरीर के निरंतर अहसास से स्थूल शरीर से बाहर निकलने की इच्‍छा बलवान होती है।

*योग निंद्रा विधि : जब ध्यान की अवस्था गहराने लगे तब निंद्रा काल में जाग्रत होकर शरीर से बाहर निकला जा सकता है। इस दौरान यह अहसास होता रहेगा की स्थूल शरीर सो रहा है। शरीर को अपने सुरक्षित स्थान पर सोने दें और आप हवा में उड़ने का मजा लें। ध्यान रखें किसी दूसरे के शरीर में उसकी इजाजत के बगैर प्रवेश करना अपराध है।