धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज एक प्रख्यात भारतीय संत एवं सन्यासी राजनेता थे। धर्मसंघ व अखिल भारतीय राम राज्य परिषद नामक राजनीतिक पार्टी के संस्थापक महामहिम स्वामी करपात्री को “हिन्दू धर्म सम्राट” की उपाधि मिली। स्वामी करपात्री एक सच्चे स्वदेशप्रेमी व हिन्दू धर्म प्रवर्तक थे। इनका वास्तविक नाम ‘हर नारायण ओझा’ था।
स्वामी श्री का जन्म संवत् 1964 विक्रमी (सन् 1907 ईस्वी) में श्रावण मास, शुक्ल पक्ष, द्वितीया को ग्राम भटनी, ज़िला प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश में सनातन धर्मी सरयूपारीण ब्राह्मण स्व. श्री रामनिधि ओझा एवं परमधार्मिक सुसंस्क्रिता स्व. श्रीमती शिवरानी जी के आँगन में हुआ। बचपन में उनका नाम ‘हरि नारायण’ रखा गया।
स्वामी श्री 8-9 वर्ष की आयु से ही सत्य की खोज हेतु घर से पलायन करते रहे। वस्तुतः 9 वर्ष की आयु में सौभाग्यवती कुमारी महादेवी जी के साथ विवाह संपन्न होने के पशचात 16 वर्ष की अल्पायु में गृहत्याग कर दिया। उसी वर्ष स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाराज से नैष्ठिक ब्रह्मचारी की दीक्षा ली। हरि नारायण से ‘ हरिहर चैतन्य ‘ बने।
नैष्ठिक ब्रह्म्चारिय पंडित श्री जीवन दत्त महाराज जी से संस्क्रिताध्याय्न षड्दर्शनाचार्य पंडित स्वामी श्री विश्वेश्वराश्रम जी महाराज से व्याकरण शास्त्र, दर्शन शास्त्र, भागवत, न्यायशास्त्र, वेदांत अध्ययन, श्री अचुत्मुनी जी महाराज से अध्ययन ग्रहण किया।
17 वर्ष की आयु से हिमालय गमन प्रारंभ कर अखंड साधना, आत्मदर्शन, धर्म सेवा का संकल्प लिया। काशी धाम में शिखासूत्र परित्याग के बाद विद्वत, संन्यास प्राप्त किया। एक ढाई गज़ कपड़ा एवं दो लंगोटी मात्र रखकर भयंकर शीतोष्ण वर्षा का सहन करना इनका 18 वर्ष की आयु में ही स्वभाव बन गया था। त्रिकाल स्नान, ध्यान, भजन, पूजन, तो चलता ही था। विद्याध्ययन की गति इतनी तीव्र थी कि संपूर्ण वर्ष का पाठ्यक्रम घंटों और दिनों में हृदयंगम कर लेते। गंगातट पर फूंस की झोंपड़ी में एकाकी निवास, घरों में भिक्षाग्रहण करनी, चौबीस घंटों में एक बार। भूमिशयन, निरावण चरण (पद) यात्रा। गंगातट नखर में प्रत्येक प्रतिपदा को धूप में एक लकड़ी की किल गाड कर एक टांग से खड़े होकर तपस्या रत रहते। चौबीस घंटे व्यतीत होने पर जब सूर्य की धूप से कील की छाया उसी स्थान पर पड़ती, जहाँ 24 घंटे पूर्व थी, तब दूसरे पैर का आसन बदलते। ऐसी कठोर साधना और घरों में भिक्षा के कारण “करपात्री” कहलाए।
24 वर्ष की आयु में परम तपस्वी 1008 श्री स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाराज से विधिवत दण्ड ग्रहण कर “अभिनवशंकर” के रूप में प्राकट्य हुआ। एक सुन्दर आश्रम की संरचना कर पूर्ण रूप से संन्यासी बन कर “परमहंस परिब्राजकाचार्य 1008 श्री स्वामी हरिहरानंद सरस्वती श्री करपात्री जी महाराज” कहलाए।
वे केवल आध्यात्मिक ही नहीं वे स्वतन्त्रता सेनानी भी थे देश आज़ाद करने की दृष्टि से सन्यासियों का निर्माण किया, भारतीय संस्कृति के प्रति सचेत रहते हुए उन्होने ”रामराज्य परिषद” नाम की राजनैतिक पार्टी का भी गठन किया जिसे 1952 के चुनाव मे 3 लोकसभा मे सफलता मिली, वे कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के बिरोधी थे इस कारण हिन्दू समाज के जागरण मे लगे रहते थे, 1967 मे जब गोरक्षा का आंदोलन शुरू हुआ तो उन्होने उसकी अगुवाई की उसमे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक प॰पू॰ श्री गुरु जी के योजकत्व मे भारत के साधू-संत इकट्ठा हुए जिसका नेतृत्व करपात्री जी, प्रभुदत्त ब्रंहचारी, सभी शांकराचार्य आदि ने किया, बड़ी संख्या मे संत गिरफ्तार किया गए करपात्री जी को जेल मे काफी दिन रहना पड़ा जेल का उन्होने उपयोग कर ‘कालमार्क्स और रामराज्य’ नामक ग्रंथ लिखा जो विश्व प्रसिद्ध हुआ यह पुस्तक विश्व की सभी राजनैतिक विचारों का विश्लेषण है, वे इतने बड़े थे की उन्हे ‘हिन्दू धर्मसम्राट’ की उपाधि से नवाजा गया, स्वामी करपात्री जी पूरे देश मे पैदल भ्रमण करते रहते थे उन्होने 1940 मे काशी वास के दौरान ‘अखिल भारतीय धर्मसंघ’ की स्थापना की वे स्व के प्रेमी थे स्वदेशी, स्वधर्म, स्वराष्ट्र उनका प्राण था प्रवास के दौरान वे मध्यप्रदेश के किसी गाव मे थे अधिकांश संस्कृति ही बोलते थे भजन व पूजा के पश्चात वे नारा गुंजायमान कराते वह भी संस्कृति मे होता एक दिन एक लड़की ने उनसे कहा स्वामी जी अगर यह उद्घोष हिन्दी मे होता तो हम सभी समझ पाते! स्वामी जी को ध्यान मे आया और वहीं तुरंत उन्होने इसका हिन्दी अनुवाद ‘धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों मे सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो’ का उद्घोष किया और इसी दिन से यह पवित्र उद्घोष पूरे विश्व का हिन्दू धर्म का उद्घोष बन गया, वे अपने ऊपर कितना कम खर्च हो समय का अभाव केवल ढा यी गज कपड़े मे ही काम चलाते साथ एक लगोटी, अपनी अंजुली भर भिक्षा वह भी दिन मे मात्र एक बार ।
वे बिभाजन से दुखी अपने शिष्यों द्वारा हिन्दुओ को बचाने का काम करते रहे उन्होने हिन्दू समाज को जगाने हेतु सन्यासियों की मानों फौज ही खड़ी कर दी यदि कहा जाय तो आदि जगद्गुरु शंकराचार्य और स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसी ही सन्यास परंपरा का देश हित मे उपयोग किया, 1947 देश बिभाजन की घटना, लाखों हिन्दू अपने ही देश को छोड़ने को बाध्य हो रहा था, जो भाग पाकिस्तान मे पड़ गया वहाँ के हिन्दुओ को धन संपत्ति ही नहीं तो अपने बहन -बेटियों को सुरक्षित रख पाना मुसकिल हो गया था उस समय स्वामी जी दिल्ली के अपने आश्रम बैठे थे, तब-तक एक ब्यक्ति हाथ मे खून से लथ-पथ तलवार लेकर स्वामी जी के सामने प्रकट हुआ उसने पूछा, स्वामी जी ! मैंने 15 लोगो की हत्या की है मुझे मोक्ष मिलेगा अथवा पाप लगेगा ! स्वामी जी ने पूछा की यह कैसे हुआ उसने बताया की सैकड़ों मुसलमानों ने मेरा घर घेर रखा था घर मे मेरी माँ दो बहनें थी वे बर्बर हमारी माँ बहनों को जिंदा ही खा जाना चाहते थे, तब-तक मेरी एक बहन ने साहस पूर्वक यह तलवार मेरे हाथ मे देकर कहा –! भैया हम बहनों और माँ की हत्या कर दो नहीं तो इन राक्षसों से हमारी इज्जत नहीं बचेगी मै क्या करता ? मैंने अपने ही हाथ से अपनी बहन और माँ की हत्या कर घेरे हुए मुसलमानो की हत्या की है स्वामी जी ने कहा तुम पाप नहीं तुम तो मोक्ष के अधिकारी हो, आओ हाथ मुह धोकर विश्राम करो ऐसे थे हमारे करपात्री जी महराज ।
उन्हे धर्म संस्थापक भी कहा गया वास्तविकता यह है की 1200 वर्ष गुलामी के कारण हमारी पद्धतियों मे कुछ लुप्तता भी आयी कई शंकराचार्य के पीठों की परंपरा बंद सी हो गयी थी करपात्री जी महराज ने सभी परम्पराओं को पुनः शुरू कराया इसी कारण कभी-कभी लोग कहते हैं की वे शंकराचार्य के योजना के एक हिस्सा हुआ करते थे लेकिन वे छुवा-छूत और भेद-भाव को मानते थे इसी विषय को लेकर प्रयाग होने वाले प्रथम विश्व हिन्दू सम्मेलन का बिरोध किया वे इस विषय मे आरएसएस से भी मतभेद रखते थे लेकिन वे महान थे अंतिम समय उन्होने संघ के विचारों से सहमति जताई और हिन्दू समाज मे छुवा-छूत और भेद-भाव समाप्त होना चाहिए स्वीकार किया और अपने शिष्यों को इसका अनुपालन का आदेश दिया,
अखिल भारतीय राम राज्य परिषद भारत की एक परम्परावादी हिन्दू पार्टी थी। इसकी स्थापना स्वामी करपात्री ने सन् 1948 में की थी। इस दल ने सन् 1952 के प्रथम लोकसभा चुनाव में 3 सीटें प्राप्त की थी। सन् 1952, 1957 एवम् 1962 के विधानसभा चुनावों में हिन्दी क्षेत्रों (मुख्यत: राजस्थान) में इस दल ने दर्जनों सीटें हासिल की थी।
सम्पूर्ण देश में पैदल यात्राएँ करते धर्म प्रचार के लिए सन 1940 ई० में “अखिल भारतीए धर्म संघ” की स्थापना की जिसका दायरा संकुचित नहीं किन्तु वह आज भी प्राणी मात्र में सुख शांति के लिए प्रयत्नशील हैं। उसकी दृष्टि में समस्त जगत और उसके प्राणी सर्वेश्वर, भगवान के अंश हैं या रूप हैं। उसके सिद्धांत में अधार्मिकों का नहीं अधर्म के नाश को ही प्राथमिकता दी गई है। यदि मनुष्य स्वयं शांत और सुखी रहना चाहता है तो औरों को भी शांत और सुखी बनाने का प्रयत्न आवश्यक है। इसलिए धर्म संघ के हर कार्य को आदि अंत में धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो, ऐसे पवित्र जयकारों का प्रयोग होना चाहिए।
माघ शुक्ल चतुर्दशी संवत 2038 (7 फरवरी 1962) को केदारघाट वाराणसी में स्वेच्छा से उनके पंच प्राण महाप्राण में विलीन हो गए। उनके निर्देशानुसार उनके नश्वर पार्थिव शरीर का केदारघाट स्थित श्री गंगा महारानी को पावन गोद में जल समाधी दी गई|
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