स्वास्तिक का अर्थ इतिहास व उपयोग


मंगलकारी स्वास्तिक

पुरातन वैदिक सनातन संस्कृति का परम मंगलकारी प्रतीक चिन्ह स्वास्तिक अपने आप में विलक्षण है। इसे हमारे सभी व्रत, पर्व, त्यौहार, पूजा एवं हर मांगलिक अवसर पर कुंकुम से अंकित किया जाता है। यह मांगलिक चिन्ह अनादि काल से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है।

स्वस्तिक का अर्थ
इसका सामान्य अर्थ शुभ, मंगल एवं कल्याण करने वाला है। स्वास्तिक शब्द सु और अस धातु से बना है, सु का अर्थ है शुभ, मंगल और कल्याणकारी, अस का अर्थ है अस्तित्व में रहना। यह पूर्णतः कल्याणकारी भावना को दर्शाता है। देवताओं के चहुं ओर घूमने वाले आभामंडल का चिन्ह ही स्वास्तिक होने के कारण वे देवताओं की शक्ति का प्रतीक होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ एवं कल्याणकारी माना गया है।

स्वस्तिक की प्राचीनता
स्वास्तिक का प्रयोग अनेक धर्म में किया जाता है। जैन व बौद्ध सम्प्रदाय व अन्य धर्मों में प्रायः लाल, पीले एवं श्वेत रंग से अंकित स्वास्तिक का प्रयोग होता रहा है। सिन्धू घाटी सभ्यता की खुदाई में ऐसे चिन्ह व अवशेष प्राप्त हुए हैं जिनसे यह प्रमाणित हो जाता है कि लगभग 2-3 हजार वर्ष पूर्व में भी मानव सम्भ्यता अपने भवनों में इस मंगलकारी चिन्ह का प्रयोग करती थी। द्वितीय विश्व युद्ध के समय एडोल्फी हिटलर ने उल्टे स्वास्तिक का चिन्ह अपनी सेना के प्रतीक रूप में शामिल किया था। सभी सैनिकों की वर्दी एवं टोपी पर यह उल्टा स्वास्तिक चिन्ह अंकित था। उल्टा स्वास्तिक ही उसकी बर्बादी का कारण बना। उसके शासन का नाश हुआ एवं भारी तबाही के साथ युद्ध में उसकी हार हुई |
स्वास्तिक का प्रयोग शुद्ध, पवित्र एवं सही ढंग से उचित स्थान पर करना चाहिए। शौचालय एवं गन्दे स्थानों पर इसका प्रयोग वर्जित है। ऐसा करने वाले की बुद्धि एवं विवेक समाप्त हो जाता है। दरिद्रता, तनाव एवं रोग एवं क्लेश में वृद्धि होती है। स्वास्तिक की आकृति श्रीगणेश की प्रतीक है और विष्णु जी एवं सूर्यदेव का आसन मानी जाती है। इसे भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है। प्रत्येक मंगल व शुभ कार्य में इसे शामिल किया जाता है। इसका प्रयोग रसोईघर, तिजोरी, स्टोर, प्रवेशद्वार, मकान, दुकान, पूजास्थल एवं कार्यालय में किया जाता है। यह तनाव, रोग, क्लेश, निर्धनता एवं शत्रुता से मुक्ति दिलाता है।

स्वस्तिक रंग लाल क्यों?
भारतीय संस्कृति में लाल रंग का सर्वाधिक महत्व है और मांगलिक कार्यों में इसका प्रयोग सिन्दूर, रोली या कुंकुम के रूप में किया जाता है। सभी देवताओं की प्रतिमा पर रोली का टीका लगाया जाता है। लाल रंग शौर्य एवं विजय का प्रतीक है। लाल टीका तेजस्विता, पराक्रम, गौरव और यश का प्रतीक माना गया है। लाल रंग प्रेम, रोमांच व साहस को दर्शाता है। यह रंग लोगों के शारीरिक व मानसिक स्तर को शीघ्र प्रभावित करता है। यह रंग शक्तिशाली व मौलिक है। यह रंग मंगल ग्रह का है जो स्वयं ही साहस, पराक्रम, बल व शक्ति का प्रतीक है। यह सजीवता का प्रतीक है और हमारे शरीर में व्याप्त होकर प्राण शक्ति का पोषक है। मूलतः यह रंग ऊर्जा, शक्ति, स्फूर्ति एवं महत्वकांक्षा का प्रतीक है। नारी के जीवन में इसका विशेष स्थान है और उसके सुहाग चिन्ह व श्रृंगार में सर्वाधिक प्रयुक्त होता है। स्त्राी के मांग का सिन्दूर, माथे की बिन्दी, हाथों की चूड़ियां, पांव का आलता, महावर, करवाचौथ की साड़ी, शादी का जोड़ा एवं प्रेमिका को दिया लाल गुलाब आदि सभी लाल रंग की महत्ता है। नाभि स्थित मणिपुर चक्र का पर्याय भी लाल रंग है। शरीर में लाल रंग की कमी से अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। लाल रंग से ही केसरिया, गुलाबी, मैहरुन और अन्य रंग बनाए जाते हैं। इन सब तथ्यों से प्रमाणित होता है कि स्वास्तिक लाल रंग से ही अंकित किया जाना चाहिए या बनाना चाहिए।

स्वस्तिक का उपयोग
स्वास्तिक बनाने के लिए धन चिन्ह बनाकर उसकी चारों भुजाओं के कोने से समकोण बनाने वाली एक रेखा दाहिनी ओर खींचने से स्वास्तिक बन जाता है। रेखा खींचने का कार्य ऊपरी भुजा से प्रारम्भ करना चाहिए। इसमें दक्षिणवर्त्ती गति होती है। सदैव कुंकुम, सिन्दूर व अष्टगंध से ही अंकित करना चाहिए। वैज्ञानिक हार्टमेण्ट अनसर्ट ने आवेएंटिना नामक यन्त्र द्वारा लाल कुंकुम से अंकित स्वास्तिक की सकारात्मक ऊर्जा को 100000 बोविस यूनिट में नापा है। ऊं (70000 बोविस) चिन्ह से भी अधिक सकारात्मक ऊर्जा स्वास्तिक में है। ऊं एवं स्वास्तिक का सामूहिक प्रयोग नकारात्मक ऊर्जा को शीघ्रता से दूर करता है।
भवन, कार्यालय, दूकान या फैक्ट्री या कार्य स्थल के मुख्य द्वार के दोनों ओर स्वास्तिक अंकित करने से सकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है। पूजा स्थल, तिजोरी, कैश बॉक्स, अलमारी में भी स्वास्तिक स्थापित करना चाहिए। स्वास्तिक को धन-देवी लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। इसकी चारों दिशाओं के अधिपति देवताओं, अग्नि, इन्द्र, वरूण एवं सोम की पहूजा हेतु एवं सप्तऋषियों के आशीर्वाद को प्राप्त करने में प्रयोग किया जाता है। इसके अपमान व गलत प्रयोग से बचना चाहिए। स्वास्तिक के प्रयोग से धनवृद्धि, गृहशान्ति, रोग निवारण, वास्तुदोष निवारण, भौतिक कामनाओं की पूर्ति, तनाव, अनिद्रा व चिन्ता से मुक्ति भी दिलाता है। जातक की कुण्डली बनाते समय या कोई शुभ कार्य करते समय सर्वप्रथम स्वास्तिक को ही अंकित किया जाता है। ज्योतिष में इस मांगलिक चिन्ह को प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, सफलता व उन्नति का प्रतीक माना गया है। मुख्य द्वार पर 6.5 इंच का स्वास्तिक बनाकर लगाने से से अनेक प्रकार के वास्तु दोष दूर हो जाते हैं। हल्दी से अंकित स्वास्तिक शत्राु शमन करता है। स्वास्तिक 27नक्षत्रों का सन्तुलित करके सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है। यह चिन्ह नकारात्मक ऊर्जा का सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित करता है। इसका भरपूर प्रयोग अमंगल व बाधाओं से मुक्ति दिलाता है।
स्वास्तिक का भारतीय संस्कृति में बडा महत्व है। विघ्नहर्ता गणेश जी की उपासना धन, वैभव और ऎश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ ही शुभ लाभ, और स्वास्तिक की पूजा का भी विधान है। विभिन्न प्रकार के सुख और समृद्धि का प्रतीक स्वास्तिक घर, द्वार, आंगन आदि में प्रत्येक शुभ एवं मांगलिक कार्य के आरम्भ बनाया जाता है।
यह मंगल भावना और सुख-सौभाग्य का द्योतक है। इसे सूर्य और विष्णु का प्रतीक माना जाता है। ऋग्वेद में स्वास्तिक के देवता संतृन्त का उल्लेख है। सविन्तृ सूत्र के अनुसार इस देवता को मनोवांछित फलदाता, सम्पूर्ण जगत का कल्याण करने और देवताओं को अमरत्व प्रदान करने वाला कहा गया है।

इसे ब्रम्हाण्ड का प्रतीक माना जाता है। इसके मघ्य भाग को विष्णु की नाभि, चारों रेखाओं को ब्रम्हाजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित करने की भावना है।
देवताओं के चारों ओर घूमने वाले आभामंडल का चिह्न ही स्वास्तिक के आकार का होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ माना जाता है। तर्क से भी इसे सिद्ध किया जा सकता है।
श्रुति, अनुभूति तथा युक्ति इन तीनों का यह एक-सा प्रतिपादन प्रयागराज में होने वाले संगम के समान है। दिशाएं मुख्यत: चार हैं, खडी और सीधी रेखा खींचकर, जो धन चिह्न (+) जैसा आकार बनता है। यह आकार चारों दिशाओं का द्योतक है, ऎसी मान्यता सर्वत्र है। स्वस्ति का अर्थ है�क्षेम, मंगल अर्थात् शुभता और क अर्थात कारक या करने वाला। इसलिए देवताओं के तेज के रूप में शुभत्व देने वाला स्वास्तिक है।

-आपने देखा होगा कि लोग पूजा स्थान में अथवा किसी शुभ अवसर पर स्वास्तिक का चिन्ह बनाते हैं। इसके पीछे मान्यता है कि स्वास्तिक चिन्ह शुभ और लाभ में वृद्घि करने वाला होता है।
-वास्तुशास्त्र के अनुसार स्वास्तिक का संबंध असल में वास्तु से है। इसकी बनावट ऐसी होती है कि यह हर दिशा में एक जैसा दिखता है। अपनी बनावट की इसी खूबी के कारण यह घर में मौजूद हर प्रकार के वास्तुदोष को कम करने में सहायक होता है।
-शास्त्रों में स्वास्तिक को विष्णु का आसन एवं लक्ष्मी का स्वरुप माना गया है। चंदन, कुमकुम अथवा सिंदूर से बना स्वास्तिक ग्रह दोषों को दूर करने वाला होता है और यह धन कारक योग बनाता है।वास्तुशास्त्र के अनुसार अष्टधातु का स्वास्तिक मुख्य द्वार के पूर्व दिशा में रखने से सुख समृद्घि में वृद्घि होती है।
-स्वास्तिक की आकृति भगवान श्रीगणेश का प्रतिक, विश्वधारक विष्णु और सूर्य का आसन माना जाता हैं । स्वास्तिक को भारतीय संस्कृति में विशेष महत्व प्राप्त हैं । स्वास्तिक संस्कृत शब्द स्वस्तिका से लिया गया है जिसका अर्थ है खुशाली। स्वस्तिक का महत्व सभी धर्मों में बताया गया है। इसे विभिन्न देशों में अलग-अलग नामों से भी जाना जाता है। चार हजार साल पहले सिंधु घाटी की सभ्यताओं में भी स्वस्तिक के निशान मिलते हैं। बौद्ध धर्म में स्वस्तिक का आकार गौतम बुद्ध के हृदय पर स्थल दिखाया गया है। मध्य एशिया देशों में स्वस्तिक का निशान मांगलिक एवं सौभाग्य का सूचक माना जाता है।
-नेपाल में हेरंब के नाम से पूजित होते हैं। मेसोपोटेमिया में अस्त्र-शस्त्र पर विजय प्राप्त करने हेतु स्वस्तिक चिह्न का प्रयोग किया जाता है। हिटलर ने भी इस स्वस्तिक चिह्न को अपनाया था। वास्तु शास्त्र के अनुसार स्वास्तिक में चार दिशाएँ होती हैं। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। इसलिए इसे हिन्दू धर्म में हर शुभ कार्य में पूजा जाता है, और इसी तरह हर धर्म में इसे किसी ना किसी रूप में पूजा है। तो आइये जाने स्वास्तिक का महत्व।गणपति को चिंतामणि क्यों कहा जाता है

हिंदू धर्म में स्वास्तिक का महत्व
हिन्दू धर्म में किसी भी शुभ कार्यों में स्वास्तिक का अलग अलग तरीके से प्रयोग किया जाता है, फिर चाहे वह शादी हो, बच्चे का मुंडन हो इसे हर छोटी या बड़ी पूजा से पहले पूजा।

बौद्ध धर्म में स्वास्तिक का महत्व
बौद्ध धर्म में स्वास्तिक को अच्छे भाग्य का प्रतीक माना गया है। यह भगवान बुद्धा के पग़ चिन्हों को दिखता है दिखाता है, इसलिए इसे इतना पवित्र माना जाता है। यही नहीं स्वास्तिक भगवान बुद्धा के हृदय, हथेली और पैरों में भी अंकित है।

जैन धर्म में स्वास्तिक का महत्व
हिन्दू धर्म से कई ज्यादा महत्व स्वास्तिक जैन धर्म में है। जैन धर्म में यह सातवें जीना का प्रतिक है जिसे सब तृथंकरा सुपरसवा के नाम से भी जानते हैं। स्वेताम्बर जैन सांस्कृतिक में स्वस्तिक को अष्ट मंगल का मुख्य प्रतीक है।
The Swastika sign has four criss-crossed arms. It represents the four directions. It also represents the Purushartha or the basic desires in a human being that is, Dharma (order), Artha (money), Kama (lust) amd Moksha (salvation). The sign has been interpreted in a number of ways. That is why the significance of Swastika changes with various interpretations. Take a look at the significance of the Swastika sign.
-स्वस्तिक मंत्र शुभ और शांति के लिए प्रयुक्त होता है। ऐसा माना जाता है कि इससे हृदय और मन मिल जाते हैं। मंत्रोच्चार करते हुए दर्भ से जल के छींटे डाले जाते थे तथा यह माना जाता था कि यह जल पारस्परिक क्रोध और वैमनस्य को शांत कर रहा है। गृहनिर्माण के समय स्वस्तिक मंत्र बोला जाता है। मकान की नींव में घी और दुग्ध छिड़का जाता था। ऐसा विश्वास है कि इससे गृहस्वामी को दुधारु गाएँ प्राप्त हेती हैं एवं गृहपत्नी वीर पुत्र उत्पन्न करती है। खेत में बीज डालते समय मंत्र बोला जाता था कि विद्युत् इस अन्न को क्षति न पहुँचाए, अन्न की विपुल उन्नति हो और फसल को कोई कीड़ा न लगे। पशुओं की समृद्धि के लिए भी स्वस्तिक मंत्र का प्रयोग होता था जिससे उनमें कोई रोग नहीं फैलता था। गायों को खूब संतानें होती थीं।
-यात्रा के आरंभ में स्वस्तिक मंत्र बोला जाता था। इससे यात्रा सफल और सुरक्षित होती थी। मार्ग में हिंसक पशु या चोर और डाकू नहीं मिलते थे। व्यापार में लाभ होता था, अच्छे मौसम के लिए भी यह मंत्र जपा जाता था जिससे दिन और रात्रि सुखद हों, स्वास्थ्य लाभ हो तथा खेती को कोई हानि न हो।
-पुत्रजन्म पर स्वस्तिक मंत्र बहुत आवश्यक माने जाते थे। इससे बच्चा स्वस्थ रहता था, उसकी आयु बढ़ती थी और उसमें शुभ गुणों का समावेश होता था। इसके अलावा भूत, पिशाच तथा रोग उसके पास नहीं आ सकते थे। षोडश संस्कारों में भी मंत्र का अंश कम नहीं है और यह सब स्वस्तिक मंत्र हैं जो शरीररक्षा के लिए तथा सुखप्राप्ति एवं आयुवृद्धि के लिए प्रयुक्त होते हैं।

संकलनकर्ता – पं. गिरिजा शंकर शुक्ल

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