शिव स्वरोदय(भाग-14)


इन श्लोकों में बहुत ही प्रभावी छायोपासना की विधि बताई गयी है। यह साधना प्रातःकाल या सायंकाल सूर्य की उपस्थिति में करनी चाहिए। पाठकों से अनुरोध है कि किसी सक्षम गुरु-सान्निध्य के बिना स्वयं इसका अभ्यास न करें। इस साधना के परिणाम स्वरूप कुछ ऐसी अनुभूतियाँ हो सकती हैं, जो मानसिक संतुलन को अव्यवस्थित कर सकती हैं। जो सक्षम गुरु होता है, वह इस साधना के पहले की तैयारी करवाता है। इस साधना का अभ्यास करने के पहले साधक का भयमुक्त होना आवश्यक है।

कालो दूरस्थितो वापि येनोपायेन लक्ष्यते।

तं वदामि समासेन यथादिष्टं शिवागमे।।351।।

भावार्थ हे देवि, अब मैं तुम्हें शैवागम (आगम अर्थात् तंत्र) में बतायी गयी छाया उपासना की विधि संक्षेप में बताता हूँ,जिससे मनुष्य त्रिकालज्ञ हो जाता है।The-Power-Of-I-Am-In-Meditation-199x300

एकान्तं विजनं गत्वा कृत्वादित्यं च पृष्ठतः।

निरीक्षयेन्निजच्छायां कण्ठदेशे समाहितः।।352।।

भावार्थ एकान्त निर्जन स्थान में जाकर और सूर्य की ओर पीठ करके खड़ा हो जाए या बैठ जाए। फिर अपनी छाया के कंठ भाग को देखे और उस पर मन को थोड़ी देर तक केन्द्रित करे।

ततश्चाकाशमीक्षेत ह्रीं परब्रह्मणे नमः।

अष्टोत्तरशतं जप्त्वा ततः पश्यति शंकरम्।।353।।

भावार्थ इसके बाद आकाश की ओर देखते हुए ह्रीं परब्रह्मणे नमः मंत्र का 108 बार जप करना चाहिए अथवा तबतक जप करना चाहिए, जबतक आकाश में भगवान शिव की आकृति न दिखने लगे।

शुद्धस्फटिकसंकाशं नानारूपधरं हरम्।

षण्मासाभ्यासयोगेन भूचराणां पतिर्भवेत्।

वर्षद्वयेन ते नाथ कर्त्ता हर्त्ता स्वयं प्रभुः।।354।।

भावार्थ छः मास तक इस प्रकार अपनी छाया की उपासना करने पर साधक को शुद्ध स्फटिक की भाँति आलोक युक्त भगवान शिव की आकृति का दर्शन होता है। इसके बाद साधक समस्त प्राणी जगत का स्वामी हो जाता है और यदि वह दो वर्षों तक इस प्रकार साधना करता है, तो वह साक्षात् शिव हो जाता है।

त्रिकालज्ञत्वमाप्नोति परमानन्दमेव च।

सतताभ्यासयोगेन नास्ति किञ्चित्सुदुर्लभम्।।355।।

भावार्थ इसका नियमित अभ्यास करने से मनुष्य त्रिकालज्ञ हो जाता है और परमानन्द में अवस्थित होता है। इसका निरन्तर अभ्यास करनेवाले योगी के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं होता।

तद्रूपं कृष्णवर्णं यः पश्यति व्योम्नि निर्मले।
षण्मासान्मृत्युमाप्नोति स योगी नात्र संशयः।।356।।

भावार्थ – यदि वह रूप (भगवान शिव की आकृति) कृष्ण वर्ण का दिखाई पड़े, तो साधक को समझना चाहिए कि आने वाले छः माह में उसकी मृत्यु सुनिश्चित है।

पीते व्याधिर्मयं रक्ते नीले हानिं च विनिर्दिशेत्।
नानावर्णोSथ चेत्तस्मन् सिद्धिश्च गीयते महान्।।357।।

भावार्थ – यदि वह आकृति पीले रंग की दिखाई पड़े, तो साधक को समझ लेना चाहिए कि वह निकट भविष्य में बीमार होनेवाला है। लाल रंग की आकृति दिखने पर भयग्रस्तता, नीले रंग की दिखने पर उसे हानि, दुख तथा अभावग्रस्त होने का सामना करना पड़ता है। लेकिन यदि आकृति बहुरंगी दिखाई पड़े, तो साधक पूर्णरूपेण सिद्ध हो जाता है।

पदे गुल्फे च जठरे विनाशो क्रमशो भवेत्।
विनश्यतो यदा बाहू स्वयं तु म्रियते ध्रुवम्।।358।।

भावार्थ – यदि चरण, टाँग, पेट और बाहें न दिखाई दें, तो साधक को समझना चाहिए कि निकट भविष्य में उसकी मृत्यु निश्चित है।

वामबाहौ तथा भार्या विनश्यति न संशयः।
दक्षिणे बन्धुनाशो हि मृत्युमात्मनि निर्दिशेत्।।359।।

भावार्थ – यदि छाया में बायीं भुजा न दिखे, तो पत्नी और दाहिनी भुजा न दिखे, तो भाई या किसी घनिष्ट मित्र अथवा समबन्धी एवं स्वयं की मृत्यु निकट भविष्य में निश्चित है।

अशिरो मासमरणं बिनाजंघे दिनाष्टकम्।
अष्टभि स्कंधनाशेन छायालोपेन तत्क्षणात्।।360।।

भावार्थ – यदि छाया का सिर न दिखाई पड़े, तो एक माह में, जंघे और कंधा न दिखाई पड़ें तो आठ दिन में और छाया न दिखाई पड़े, तो तुरन्त मृत्यु निश्चित है।

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प्रातः पृष्ठगते रवौ च निमिषाच्छायाङ्गुलीश्चाधरं

दृष्ट्वान्धेनमृतिस्त्वनन्तरमहोच्छायां नरः पश्यति।

तत्कर्णांसकरास्य पार्श्वहृदयाभावे क्षणार्थात्स्वयं

दिङ्मूढो हि नरः शिरोविगमतो मासांस्तु षड्जीवति।।361।।

भावार्थ सबेरे सूर्योदय के बाद सूर्य की ओर पीठ करके खड़ा होना चाहिए और अपनी छाया पर मन को केन्द्रित करना चाहिए। यदि छाया की उँगलियाँ न दिखाई पड़े, तो तुरन्त मृत्यु समझना चाहिए। यदि पूरी छाया न दिखाई पड़े, तो भी तत्काल मृत्यु समझनी चाहिए। कान, सिर, चेहरा, हाथ, पीठ या छाती का भाग न दिखाई पड़े, तो भी समझना चाहिए कि मृत्यु एकदम सन्निकट है। लेकिन यदि छाया का सिर न दिखे और दिग्भ्रम हो, तो उस व्यक्ति का जीवन केवल छः माह समझना चाहिए।

एकादिषोडषा हानिर्यदि भानुर्निरन्तरम्।

वहेद्यस्य भवेन्मृत्युः शेषाहेन मासिकम्।।362।।

भावार्थ किसी व्यक्ति का दाहिना स्वर लगातार सोलह दिन तक चलता रहे, तो उसका जीवन महीने के बचे शेष दिनों तक,अर्थात् केवल 14 दिन समझना चाहिए।

सम्पूर्णं वहते सूर्यश्चन्द्रमा नैव दृश्यते।

पक्षेण जायते मृत्युः कालज्ञेनानुभाषितम्।।363।।

भावार्थ कालज्ञान रखनेवाले योगियों का मत है कि यदि दाहिना स्वर लगातार चले तथा बाँया स्वर बिलकुल न चले, तो समझना चाहिए कि उस व्यक्ति की मृत्यु पन्द्रह दिन में हो जाएगी।

मूत्रं पुरीषं वायुश्च समकालं प्रवर्तते।

तदाSसौ चलितो ज्ञेयो दशाह्ने म्रियते ध्रुवम्।।364।।

भावार्थ शौच के समय यदि किसी व्यक्ति का मल, मूत्र और अपान वायु एक साथ निकले, तो समझना चहिए कि उसकी मृत्यु दस दिन में होगी।

सम्पूर्णं वहते चन्द्रः सूर्यो नैव च दृश्यते।

मासेन जायते मृत्युः कालज्ञेनानुभाषितम्।।365।।

भावार्थ कालज्ञानियों का मत है कि यदि किसी व्यक्ति का बाँया स्वर लगातार चले और दाहिना स्वर बिलकुल न चले, तो समझना चाहिए कि उसकी मृत्यु एक माह में होगी।

अरुन्धतीं ध्रुवं चैव विष्णोस्त्रीणि पदानि च।

आयुर्हीना न पश्यन्ति चतुर्थं मातृमण्डलम्।।366।।

भावार्थ – जिस व्यक्ति की आयु समाप्त हो गयी है उसे अरुन्धती, ध्रुव, विष्णु के तीन चरण और मातृमंडल नहीं दिखायी पड़ते।

अरुन्धती भवेज्जिह्वा ध्रुवो नासाग्रमेव च।

भ्रुवौ विष्णुपदं ज्ञेयं तारकं मातृमण्डलम्।।367।।

भावार्थ – उपर्युक्त श्लोक में कथित चारों चीजों का विवरण इस श्लोक में दिया गया – जिह्वा को अरुन्धती, नाक के अग्र भाग को ध्रुव, दोनों भौहें और उनके मध्य भाग को विष्णु के तीन चरण तथा आँखों के तारों को मातृमंडल कहते हैं।

नव भ्रुवं सप्त घोषं पञ्च तारां त्रिनासिकाम्।

जिह्वामेकदिनं प्रोक्तं म्रियते मानवो ध्रुवम्।।368।।

भावार्थ – ऐसा कहा जाता है कि जिस व्यक्ति को अपनी भौहें न दिखें, उसकी मृत्य़ु नौ दिन में, सामान्य ध्वनि कानों से न सुनाई पड़े तो सात दिन में, आँखों का तारा न दिखे तो पाँच दिन में, नासिका का अग्रभाग न दिखे तो तीन दिन में और जिह्वा न दिखे तो एक दिन में मृत्यु होगी।

कोणावक्ष्णोरङ्गुलिभ्यां किञ्चित्पीड्य निरीक्षयेत्।

यदा न दृश्यते बिन्दुर्दशाहेन भवेन्मृतिः।।369।।

भावार्थ – अपनी आँखों के कोनों को दबाने पर चमकते तेज विन्दु यदि न दिखें, तो समझना चाहिए कि उस व्यक्ति की मृत्यु दस दिन में होगी।

तीर्थस्नानेन दानेन तपसा सुकृतेन च।

जपैर्ध्यानेन योगेन जायते कालवञ्चना।।370।।

भावार्थ – तीर्थ में स्नान करने, दान देने, तपस्या, सत्कर्म करने, जप, योग और ध्यान करने से व्यक्ति की आयु लम्बी होती है।

शरीरं नाशयन्त्येते दोषा धातुमलास्तथा।

समस्तु वायुर्विज्ञेयो बलतेजोविवर्धनः।।371।।

भावार्थ धातु और मल-मूत्र के दोष शरीर का नाश कर देते हैं। प्राण वायु के संतुलन से इन दोषों में कमी आती है, जिससे शारीरिक शक्ति और तेज बढ़ते हैं।

रक्षणीयस्ततो देहो यतो धर्मादिसाधनम्।

योगाभ्यासात्समायान्ति साधुयाप्यास्तु साध्यताम्।

असाध्या जीवितं घ्नन्ति न तत्रास्ति प्रतिक्रिया।।372।।

भावार्थ अतएव धर्म आदि के साधनरूप इस शरीर की रक्षा करनी चाहिए। योगाभ्यास के लिए शरीर को नियमित रूप से तैयार करना चाहिए। क्योंकि असाध्य रोग जीवन को नष्ट कर देते हैं और योगाभ्यास के अतिरिक्त इन असाध्य रोगों का दूसरा कोई उपचार भी नहीं है।

येषां हृदि स्फुरति शाश्वतमद्वितीयं

तेजस्तमोनिवहनाशकरं रहस्यम्।

तेषामखण्डशशिरम्यसुकान्तिभाजां

स्वप्नोSपि नो भवति कालभयं नराणाम्।।373।।

भावार्थ जिन मनुष्यों के हृदय में इस शाश्वत् अद्वितीय रहस्य (स्वरोदय विज्ञान) का स्फुरण होता है, उसपर महादेव भागवान शिव की कृपा होती है। इससे उसका शरीर चन्द्रमा की तरह आलोकित हो जाता है और स्वप्न में भी उसे मृत्यु का भय नहीं होता।

इडा गङ्गेति विज्ञेया पिङ्गला यमुना नदी।

मध्ये सरस्वतीं विद्यात्प्रयागादिसमस्तथा।।374।।

भावार्थ इडा नाड़ी को गंगा, पिंगला को यमुना और इनके मध्य में स्थित सुषुम्ना नाड़ी को सरस्वती के नाम से जाना जाता है। जहाँ इन तीनों नाड़ियों का मिलन होता है उसे प्रयाग (भ्रूमध्य) कहते हैं।

आदौ साधनमाख्यातं सद्यः प्रत्ययकारकम्।

बद्धपद्मासनो योगी बन्धयेदुड्डियानकम्।।375।।

भावार्थ शीघ्र सिद्धि देनेवाली साधना की प्रक्रिया बताते हैं – सबसे पहले योगी को पद्मासन में बैठकर उड्डियान बन्ध लगाना चाहिए।

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