विवाह का उद्देश्य


हिन्दु समाज में विवाह एक संस्कार है , जिसका उद्देश्य पवित्र और धार्मिक है। विवाह के माध्यम से ही मनुष्य अपने कर्त्तव्योँ और उत्तरदायित्वों का पालन करता है।

हिन्दू समाज में धर्म का बहुत महत्व है। बिना पत्नी के व्यक्ति का कोई भी धार्मिक कार्य पूरा नहीं माना जाता है अत: सभी धार्मिक कार्योँ मे पत्नी की उपस्थिति आवश्यक है। यज्ञो को सम्पन्न करने मे मनुष्य के साथ उसकी पत्नी का होना अनिवार्य है। पदमपुराण के अनुसार गुणवती सहधर्मिणी पत्नी को त्याग कर जो व्यक्ति धार्मिक कार्य करता है, उसका समस्त धर्म निष्फल हो जाता है। धर्म , अर्थ , काम और पुत्र की प्राप्ति पति – पत्नी दोनो के संयोग से होती है।

विवाह का दूसरा उद्देश्य है पुत्र की प्राप्ति। ऋगवेद से ज्ञात होता है कि विवाह सम्पन्न होने पर पुरोहित वर- वधू को अनेक पुत्र पैदा करने का आशीर्वाद देता था। हिन्दू समाज मे पुत्र का महत्त्व बहुत अधिक है। पुत्र उत्पन्न होने से पिता अमर बनता है और पुत्र से ऋण मुक्त होता है। हिन्दु समाज मे व्यक्ति का जीवन विभिन्न ऋणो से दबा रहता है। देव ऋण , पित्र ऋण , ऋषि ऋण आदि का ऋण चुकाने के लिए पुत्र की उत्पत्ति जरूरी है। पुत्र से पिता का नाम, वंश, परिवार और समाज चलता है।

विवाह का अन्तिम उद्देश्य यौन सुख भी है क्योंकि यौन सन्तुष्टि से व्यक्ति का मानसिक और शारीरिक सन्तुलन बना रहता है तथा वह स्वस्थ और सच्चरित्र आधार पर समाज का निर्माण करता है। यौन संतुष्टि की इच्छा की पूर्ति के लिए विवाह एक सुसभ्य माध्यम है। वैदिक युग मे सम्भोग को आनन्द की पराकाष्ठा माना गया है। यौन सम्बन्धो को तीसरा स्थान दिया गया है इससे साफ है कि यह विवाह का कम अपेक्षित उद्देश्य है। विवाह का उद्देश्य मनुष्य को शालीन और सदाचारी बनाना है तथा उसे नियमित और नियंत्रित करना है।

अपनी टिप्पणी दर्ज करें