शिव स्वरोदय(भाग-11)


स्वरज्ञानीबलादग्रे निष्फलं कोटिधा भवेत्।

इहलोके परत्रापि स्वरज्ञानी बली सदा।।

भावार्थ – जब एक करोड़ बल निष्फल हो जाते हैं, तब भी स्वरज्ञानी बलशाली बना सबसे अग्रणी होता है, अर्थात् भले ही एक करोड़ (हर प्रकार के) बल निष्फल हो जायँ, लेकिन स्वरज्ञानी का बल कभी निष्फल नहीं होता। स्वरज्ञानी इस लोक में औरपरलोक या अन्य किसी भी लोक में सदा शक्तिशाली होता है।

दशशतायुतं लक्षं देशाधिपबलं क्वचित्।
शतक्रतु सुरेन्द्राणां बलं कोटिगुणं भवेत्।।
भावार्थ – एक मनुष्य के पास दस, सौ, दस हजार, एक लाख अथवा एक राजा के बराबर बल होता है। सौ यज्ञ करनेवाले इन्द्र का बल करोड़ गुना होता है। एक स्वरयोगी का बल इन्द्र के बल के तुल्य होता है।

श्री देवी उवाच
परस्परं मनुष्याणां युद्धे प्रोक्तो जयस्त्वया।

यमयुद्धे समुत्पन्ने मनुष्याणां कथं जयः।।
भावार्थ – इसके बाद माता पार्वती ने भगवान शिव से पूछा कि हे प्रभो, आपने यह तो बता दिया कि मनुष्यों के पारस्परिक युद्ध में एक योद्ध की विजय कैसे होती है। लेकिन यदि यम के साथ युद्ध हो, मनुष्यों की विजय कैसे होगी?

ईश्वरोवाच pranayama
ध्यायेद्देवं स्थिरो जीवं जुहुयाज्जीव सङ्गमे।
इष्टसिद्धिर्भवेत्तस्य महालाभो जयस्तथा।।
भावार्थ – यह सुनकर भगवान शिव बोले- हे देवि, जो व्यक्ति एकाग्रचित्त होकर तीनों नाड़ियों के संगम स्थल आज्ञा चक्र पर ध्यान करता है, उसे सभी अभीष्ट सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं, महालाभ होता है (अर्थात् ईश्वरत्व की प्राप्ति होती है) और सर्वत्र सफलता मिलती है।
consciousness.”
निराकारात्समुत्पन्नं साकारं सकलं जगत्।
तत्साकारं निराकारं ज्ञाने भवति तत्क्षणात्।।
भावार्थ – यह सम्पूर्ण दृश्य साकार जगत निराकार सत्ता से उत्पन्न है। जो व्यक्ति साकार जगत से ऊपर उठ जाता है, अर्थात् भौतिक चेतना से ऊपर उठकर सार्वभौमिक चेतना को प्राप्त कर लेता है, तभी उसे पूर्णत्व प्राप्त हो जाता है।

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इन  श्लोकों में वशीकरण के तरीके बताए गए हैं। इनपर लिखते  समय यह विचार आया कि इसे  छोड़ दिया जाय, पर ऐसा करने से यह अधूरा रह जाता जो अनुचित होता। श्लोक संख्या 285 तक स्त्रियों को वश में करने के तरीके बताए गए हैं और श्लोक संख्या 286 से 300 तक गर्भाधान के तरीके बताए गए हैं। यदि  इसे पढ़कर पाठकों को अन्यथा लगता है, तो उसके लिए मैं  क्षमा माँगता हूँ।

श्रीदेव्युवाच

नरयुद्धं  यमयुद्धं त्वया  प्रोक्तं महेश्वर।

इदानीं  देव देवानां  वशीकारणकं वद।।275।।

भावार्थ – माँ पार्वती भगवान शिव से कहती हैं कि हे देवाधिदेव, आपने हमें बताया कि मनुष्यों और यम के साथ युद्ध में विजय कैसे पाया जाय। साथ ही मोक्ष आदि के सम्बन्ध में भी बताया। अब आप कृपा कर बताएँ कि दूसरों को अपने वश में किस प्रकार किया जाता है।

ईश्वरोवाच

चन्द्रं सूर्येण चाकृष्य  स्थापयेज्जीवमंडले।

आजन्मवशगा रामा कथितं यं तपोधनैः।। 276।।

भावार्थ – भगवान शिव कहते हैं कि हे देवि, तपस्वी लोगों का कहना है कि यदि पुरुष अपने सूर्य स्वर से स्त्री के चन्द्र स्वर को ग्रहण कर अपने अनाहत चक्र में धारण करे, तो वह स्त्री आजीवन उसके वश में रहेगी।

जीवेन गृह्यते जीवो जीवो जीवस्य दीयते।

जीवस्थाने गतो जीवो बाला जीवान्तकारकः।। 277।।

भावार्थ – पुरुष यदि स्त्री के प्रवाहित स्वर को अपने प्रवाहित स्वर के द्वारा ग्रहण करे और पुनः उसे स्त्री के सक्रिय स्वर में दे, तो वह स्त्री सदा उसके वश में रहती है।

रात्र्यन्तयामवेलायां  प्रसुप्ते कामिनिजने।।

ब्रह्मजीवं  पिबेद्यस्तु  बालाप्राणहरो नरः।।278।।

भावार्थ – रात्रि में सो रही महिला के ब्रह्म-जीव (सक्रिय स्वर से निकलने वाली साँस) को यदि पुरुष अपने सक्रिय स्वर से अन्दर खींचता है, तो वह स्त्री उसके वश में हो जाती है।

अष्टाक्षरं  जपित्वा तु तस्मिन्  काले गते सति।

तत्क्षणं  दीयते चन्द्रो  तु मोहमायाति  कामिनी।।279।।

भावार्थ – यदि पुरुष अष्टाक्षर मंत्र का जपकरके अपने चन्द्र स्वर को स्त्री के भीतर उसके सक्रिय स्वर में प्रवाहित करे, तो वह स्त्री उसके वश में हो जाती है।

शयने  वा प्रसङ्गे वा युवत्यालिङ्गनेSपि वा।

यः  सूर्येण पिबेच्चन्द्रं  स भवेन्मकरध्वजः।।280।।

भावार्थ – यदि पुरुष लेटकर आलिंगन के समय अपने सूर्य स्वर से स्त्री के चन्द्र स्वर का पान करे, तो वह स्त्री उसके वश में हो जाती है।

शिव आलिङ्ग्यते शक्त्या प्रसङ्गे दक्षिणेSपि वा।
तत्क्षणाद्दापयेद्यस्तु मोहयेत्कामिनीशतम्।।281।।
भावार्थ – संभोग के समय यदि स्त्री का चन्द्र स्वर और पुरुष का सूर्य स्वर प्रवाहित हो और दोनों के स्वर परस्पर संयुक्त हो जायँ, तो पुरुष को सौ स्त्रियों को वश में करने की शक्ति मिल जाती है।

सप्त नव त्रयः पञ्च वारान्सङ्गस्तु सूर्यभे।
चन्द्रे द्विचतुःषट्कृत्वा वश्या भवति कामिनी।।282।।
भावार्थ – सूर्य स्वर के प्रवाह काल में यदि पुरुष का किसी स्त्री के साथ पाँच बार, सात बार या नौ बार संयोग हो अथवा चन्द्र स्वर के प्रवाह काल में दो बार, चार बार या छः बार संयोग हो, तो वह स्त्री सदा के लिए उस पुरुष के वश में होती है।

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सूर्यचन्द्रौ समाकृष्य सर्वाक्रान्त्याSधरोठयोः।
महापद्म मुखं स्पृष्ट्वा बारम्बारमिदं चरेत्।।283।।
भावार्थ – पुरुष के सूर्य स्वर तथा चन्द्र स्वर सम हों, तो उस समय पुरुष को अपनी साँस अन्दर खींचकर अपना पूरा ध्यान स्त्री के निचले होठ पर केन्द्रित करना चाहिए और जैसे ही सूर्य स्वर प्रधान हो, स्त्री के चेहरे को बार-बार स्पर्श करना चाहिए।

आप्राणामिति पद्मस्य यावन्निद्रावशं गता।
पश्चाज्जागृति वेलायां चोष्यते गलचक्षुषी।।284।।
भावार्थ – जब स्त्री गहरी निद्रा में सो रही हो, उस समय पुरुष को उसके होठों को बार-बार उसके जगने तक चुम्बन करना चाहिए और उसके बाद उसके नेत्रों और गरदन का चुम्बन करना चाहिए।

अनेन विधिना कामी वशयेत्सर्वकामिनीः।
इदं न वाच्यमस्मिन्नित्याज्ञा परमेश्वरि।।285।।
भावार्थ – हे पार्वती, इस प्रकार प्रेमी समस्त कामिनियों को अपने वश में कर सकता है। स्त्रियों को वश में करने का अन्य कोई उपाय नहीं है।

ऋतुस्नाता रता नारी पञ्चमेSह्नि यदा भवेत्।
सूर्यचन्द्रमसोर्योगे सेवनात्पुत्र संभवः।।286।।
भावार्थ – रजस्वला होने के पाँचवें दिन यदि स्त्री का चन्द्र स्वर प्रवाहित हो और पुरुष का सूर्य स्वर प्राहित हो, तो समागम करने से पुत्र उत्पन्न होता है।

शङ्खवल्लीं गवां दुग्धे पृथ्व्यापो वहते यदा।
भर्तृरेव वदेद्वाक्ये दर्प देहि त्रिभिर्वचः।।287।।
भावार्थ – स्त्री गाय के दूध के साथ शंखवल्ली (एक प्रकार की बूटी) का सेवन कर प्रवाहित स्वर में पृथ्वी तत्त्व या जल तत्त्व का प्रवाह होने पर अपने पति से तीन बार पुत्र के लिए प्रार्थना करनी चाहिए।

ऋतुस्नाता पिबेन्नारी ऋतुदानं तु योजयेत्।
रूपलावण्यसम्पन्नो नरसिंहः प्रसूयते।।288।।
भावार्थ – ऋतुस्नान के समय यदि स्त्री उपर्युक्त पेय का सेवन करे और रजो-समाप्ति के दिन (रजस्वला होने के पाँचवे दिन) पति के साथ समागम करने पर गर्भधारण होता है तथा वह नरसिंह के समान पुत्र को जन्म देती है।

सुषुम्ना सूर्यवाहेन ऋतुदानं तु योजयेत्।
अङ्गीनः पुमान्यस्तु जायतेSत्र कुविग्रहः।।289।।
भावार्थ – ऋतु-स्नान के पाँचवे दिन यदि स्त्री का सुषुम्ना स्वर का प्रवाह हो और पुरुष के सूर्य स्वर का प्रवाह हो, ऐसे समय में किए गए समागम के परिणाम स्वरूप गर्भाधान से अंगहीन और कुरूप पुत्र उत्पन्न होता है।

विषमाङ्के दिवारात्रौ विषमाङ्के दिनाधिपः।
चन्द्रेनेत्राग्नितत्त्वेषु वंध्या पुत्रमवाप्नुयात्।।290।।
भावार्थ – ऋतु-स्नान के बाद विषम तिथियों को दिन अथवा रात्रि में जब पुरुष का सूर्य स्वर और स्त्री का चन्द्र स्वर प्रवाहित हो, दोनों का समागम होने पर बन्ध्या स्त्री को भी पुत्र की प्राप्ति होती है।

ऋत्वारम्भे रविः पुंसां स्त्रीणां च सुधाकरः।
उभयोः सङ्गमे प्राप्तो वन्ध्या पुत्रमवाप्नुयात्।।291।।
भावार्थ – ऋतु के आरम्भ में स्त्री का चन्द्र स्वर प्रवाहित हो और पुरुष का सूर्य स्वर प्रवाहित हो, ऐसे समय में सहवास करने से बन्ध्या स्त्री को भी पुत्र पैदा होता है।

ऋत्वारम्भे रविः पुंसां शुक्रान्ते च सुधाकरः।
अनेन क्रमयोगेन नादत्ते कामिनीजनः।।292।।
भावार्थ – ऋतु के आरम्भ में सहवास के समय पुरुष का सूर्य स्वर प्रवाहित हो रहा हो और स्खलन के समय अचानक चन्द्र स्वर प्रारम्भ हो जाय, तो गर्भ-धारण नहीं हो सकता।

चन्द्रनाडी यदा प्रश्ने गर्भे कन्या तदा भवेत्।

सूर्यो भवेत् तदा पुत्रो द्वयोर्गर्भो विहन्यते।।293।।

भावार्थ यदि गर्भ के सम्बन्ध में कोई प्रश्न करे और स्वर-योगी (उत्तर देनेवाले) का उस समय यदि चन्द्र स्वर प्रवाहित हो, तो गर्भस्थ संतान कन्या और यदि सूर्य-स्वर प्रवाहित हो,तो पुत्र होता है। किन्तु यदि सुषुम्ना प्रवाहित हो, तो गर्भपात समझना चाहिए।

पृथिव्यां पुत्री जले पुत्रः कन्यका तु प्रभञ्जने।

तेजसि गर्भपातः स्यान्नभस्यपि नपुंसकः।।294।।

भावार्थ यदि प्रश्न के समय स्वर में पृश्वी या वायु तत्त्व प्रवाहित हो, तो गर्भस्थ संतान कन्या, जल तत्त्व प्रवाहित हो, तो पुत्र, अग्नि तत्त्व का प्रवाहकाल होने पर गर्भपात और आकाश तत्त्व का प्रवाह-काल होने पर नपुंसक संतान उत्पन्न होने का योग समझा जाय।

चन्द्रे स्त्री पुरुषः सूर्ये मध्यमार्गे नपुंसकः।

गर्भप्रश्ने यदा दूतः पूर्णे पुत्रः प्रजायते।।295।।

भावार्थ प्रश्न काल में चन्द्र स्वर का प्रवाह हो तो लड़की होने की, सूर्य स्वर का प्रवाह हो तो लड़का होने की और यदि सुषुम्ना स्वर प्रवाहित हो तो नपुंसक संतान की उत्पत्ति समझनी चाहिए। उस समय यदि प्रश्नकर्त्ता का स्वर पूर्ण रूप से प्रवाहित हो तो पुत्र पैदा होने की भविष्यवाणी करनी चाहिए।

शून्ये  शून्यं  युगे  युग्मं गर्भपातश्च संक्रमे।

तत्ववित्स विजानीयात् कथितं तत्तु सुन्दरि।।296।।

भावार्थ हे सुन्दरि, यदि शून्य स्वर के प्रवाह-काल में गर्भाधान नहीं होता, पर दोनों स्वर संतुलित रूप से प्रवाहित हो रहे हों, तो जुड़वाँ संतान होती है। लेकिन स्वर का संक्रमण काल होने पर गर्भाधान होता तो है, पर उसका पतन हो जाता है, ऐसा तत्त्ववादियों की मान्यता है।

गर्भाधानं मारुते स्याच्च दुःखी दिक्षु ख्यातो वारुणे सौख्ययुक्तः।

गर्भस्रावः स्वल्पजीवश्च वह्नौ भोगी भव्यः पार्थिवेनार्थयुक्तः।।297।।

भावार्थ वायु तत्त्व के प्रवाहकाल में हुए गर्भाधान के परिणाम स्वरूप उत्पन्न संतान दीन-हीन और अभागी होती है, जल तत्त्व के प्रवाहकाल में गर्भाधान से उत्पन्न संतान सुखी और गौरवशाली होती है, अग्नि तत्त्व में गर्भाधान ठहरता नहीं, यदि ठहर गया तो इस प्रकार उत्पन्न संतान अल्पायु होती है, पर पृथ्वी तत्त्व के प्रवाहकाल में हुए गर्भाधान के परिणाम स्वरूप उत्पन्न संतान धन-धान्य से युक्त आनन्द का उपभोग करनेवाली होती है।

धनवान्  सौख्ययुक्तश्च  भोगवानर्थ  संस्थितिः।

स्यान्नित्यं वारुणे तत्त्वे व्योम्नि गर्भो विनश्यति।।298।।

भावार्थ जल तत्त्व के प्रवाहकाल में गर्भाधान से उत्पन्न संतान धन-धान्य और ऐश्वर्य से सम्पन्न होती है। परन्तु आकाश तत्त्व के प्रवाहकाल का गर्भाधान नहीं ठहरता।

महीन्द्रे  सुसुतोत्पत्तिर्वारुणे  दुहिता भवेत्।

शेषेषु गर्भहानिः स्याज्जातमात्रस्य वा मृतः।।299।।

भावार्थ पृथ्वी तत्त्व के प्रवाहकाल के गर्भ से सुपुत्र उत्पन्न होता है और जल तत्त्व के प्रवाहकालिक गर्भ से कन्या का जन्म होता है। जबकि अन्य तीन तत्त्वों के प्रवाहकाल में गर्भ नहीं ठहरता और यदि ठहर गया, तो उससे उत्पन्न संतान अल्पायु होती है।

रविमध्यगतश्चन्द्रश्चन्द्रमध्यगतो   रविः।

ज्ञातव्यं गुरुतः शीघ्रं न वेदशास्त्रकोटिभिः।।300।।

भावार्थ सूर्य स्वर के मध्य में चन्द्र स्वर उदय हो अथवा चन्द्र स्वर के मध्य में सूर्य स्वर उदय हो, तो ऐसे समय में तुरन्त गुरु से मिलकर मार्ग-दर्शन लेना चाहिए। क्योंकि ऐसे समय में करोड़ों वेद, शास्त्र आदि ग्रंथ भी किसी काम के नहीं होते।

यह श्लोक प्रस्तुत संदर्भ से बिलकुल अलग है।

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