शिव स्वरोदय(भाग-12)


चैत्रशुक्लप्रतिपदि प्रातस्तत्वविभेदत:।
पश्येद्विचक्षणो योगी दक्षिणे चोत्तरायणे।।301।।
भावार्थ चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को विद्वान लोग प्रातःकाल उठकर तत्त्व-विचार करते हुए और सूर्य के दक्षिणायन तथा उत्तरायण को ध्यान में रखते हुए वर्षफल से सम्बन्धित प्रश्नों का उत्तर दें।

चन्द्रोदयस्य वेलायां वहमानोऽत्र तत्वत:।
पृथ्व्यापस्तथा वायु: सुभिक्षं सर्वशस्यजम्।।302।।
तेजोप्यग्निर्भयं घोरं दुर्भिक्षं कालतत्त्वत:।
एवं तत्फलं ज्ञेयं वर्षे मासे दिनेष्वपि।।303।।
भावार्थ उस समय यदि चन्द्र स्वर का प्रवाह हो तथा उसमें पृथ्वी, जल या वायु तत्त्व सक्रिय हो, तो आनेवाला वर्ष सम्पन्नता और प्रचुर उपज से भरा होगा। लेकिन उस समय चन्द्र-स्वर में अग्नि अथवा आकाश तत्त्व की प्रधानता हो, तो समझना चाहिए कि आनेवाले वर्ष में, महीने मे एवं दिनों में अकाल पड़ेगा, बाढ़ से नुकसान होगा एवं दुख की अधिकता रहेगी।

मध्यमाभवति क्रूरा दुष्टा सर्वेषु कर्मसु।
देशभंग महारोग क्लेषकष्टादि दु:खदा।।304।।

भावार्थ लेकिन उस समय सुषुम्ना नाड़ी सक्रिय होना सभी कार्यों में क्रूरता तथा भयावह परिस्थियों के आगम का संकेत है, अर्थात् देश का विभाजन, महामारी, कष्ट, पीड़ा, अभाव आदि की बहुलता देखने को मिलेगी।

मेषसंक्रान्तिवेलायां स्वरभेदं विचारयेत्।
संवत्सर फलं ब्रूयाल्लोकानां तत्त्वचिन्तक:।।305।।
भावार्थ मेष संक्रान्ति के समय (जब सूर्य मीन राशि से मेष राशि में संक्रमण करता है) तत्त्व-चिन्तक को अपने प्रवाहित स्वर पर विचार करे और उसके अनुसार लोगों के लिए वर्ष-फल बताए।

पृथिव्यादिक तत्वेन दिनमासाब्दजं फलम्।
शोभनं च यथा दुष्टम् व्योममारुतवह्निभि:।।306।।
भावार्थ स्वर में पृथ्वी आदि तत्त्वों की प्रधानता के आधार पर किसी दिन, मास और वर्ष का फल समझना चाहिए। यदि पृथ्वी या जल तत्त्व की प्रधानता हो, तो सुख-समृद्धि का संकेत समझना चाहिए। लेकिन वायु, अग्नि अथवा आकाश तत्त्व की प्रधानता होने पर इसके बिलकुल विपरीत समझना चाहिए।

सुभिक्षं राष्ट्रवृद्धि: स्याद्बहुशस्या वसुंधरा।
बहुवृष्टिस्तथा सौख्यं पृथ्वी-तत्त्वं वहेद्यदि।।307।।
भावार्थ वर्ष के प्रथम दिन प्रातःकाल स्वर में पृथ्वी तत्त्व के सक्रिय होने पर समझना चाहिए कि आनेवाले वर्ष में सुभिक्ष रहेगा, पर्याप्त वर्षा होगी, प्रचुर अनाज पैदा होगा, हर प्रकार का सुख मिलेगा और राष्ट्र की हर तरह से वृद्धि होगी।


पिछले अंक में वर्षफल पर विचार करने के लिए शिवस्वरोदय में दी गयी विधियों पर चर्चा की गयी थी। इस विषय पर कुलचौदह श्लोक मिलते हैं, जिनमें से सात श्लोकों पर पिछले अंक में चर्चा हो चुकी है। शेष सात श्लोकों पर चर्चा यहाँ प्रस्तुत है।
यहाँ पुनः यह याद दिलाना आवश्यक है कि भारतीय उपमहाद्वीप में सभी राज्यों में, कुछ राज्यों को छोड़कर, वर्ष का प्रारम्भ चैत्र माह के शुक्लपक्ष के प्रथम दिन से प्रारम्भ होता है। इसे पूरे देश में भिन्न-भिन्न नामों से जानते हैं- वर्ष-प्रतिपदा,गुडीपरवा, उगादि आदि। यह भी याद रखना आवश्यक है कि शुक्लपक्ष में प्रथम तीन दिनतक प्रातःकाल चन्द्रस्वर प्रवाहित होता है। इसलिए इस दिन प्रातःकाल सूर्योदय के समय या अन्य प्रान्तों में जहाँ नववर्ष जिस दिन प्रारम्भ होता है, उस दिन कौन सा पक्ष, कौन सी तिथि है और उसके अनुसार कौन सा स्वर चलना चाहिए, इसका निर्णयकर अपने स्वर की परीक्षा करके स्वर में उदित तत्त्व के अनुसार वर्षफल का कथन करना चाहिए। सूर्य का मेषराशि में प्रवेश-काल को भी कहीं-कहीं वर्ष का प्रारम्भ माना जाता है। अतः उसके अनुसार वर्षफल समझने की विधि भी बताई गयी है।
अतिवृष्टि: सुभिक्षं स्यादारोग्यं सौख्यमेव च।
बहुशस्या तथा पृथ्वी आपस्तत्वं वहेद्यदि।।308।।
भावार्थ यदि स्वर (चन्द्र स्वर) में जल तत्त्व प्रवाहित हो, तो अच्छी वर्षा, अच्छी फसल, सुख-समृद्धि और शान्ति के संकेत समझना चाहिए।

दुर्भिक्षं राष्ट्रभंग: स्यादुत्पत्तिश्च विनश्यति।
अल्पादल्पतरा वृष्टिरग्नितत्वं वहेद्यदि।।309।।
भावार्थ यदि अग्नितत्त्व प्रवाहित हो, तो दुर्भिक्ष, युद्ध, बहुत मामूली वर्षा आदि की सम्भावना समझनी चाहिए।

उत्पातोपद्रवा भीतिरल्पा वृष्टिस्युरितय:।
मेषसंक्रांति वेलायां वायुतत्वं वहेद्यदि।।310।।
भावार्थ मेष संक्रान्ति के समय यदि स्वर में वायु तत्त्व के प्रवाहित होनेपर अनेक प्रकार के उत्पात, उपद्रव, भय, अल्प वृष्टि आदि की आशंका समझनी चाहिए।

यहाँ से मेष संक्रान्ति के समय स्वर और उसमें सक्रिय तत्त्व के अनुसार वर्षफल कथन का विधान किया गया है।
मेषसंक्रांति वेलायां व्योमतत्वं वहेद्यदि।
तत्रापि शून्यता ज्ञेयास्यादीनां सुखस्य च।।311।।
भावार्थ मेष संक्रान्ति के समय यदि स्वर में आकाश तत्त्व प्रवाहित हो, तो सुख-सम्पन्नता का सर्वथा अभाव समझना चाहिए।

पूर्णप्रवेशने श्वासे शस्यं तत्वेन सिद्धयति।
सूर्यचन्द्रेऽन्यथाभूते संग्रह: सर्वसिद्धिद:।।312।।
भावार्थ स्वर का पूर्ण रूप से प्रवाह और उसमें उचित तत्त्व की उपस्थिति सुख-सम्पन्नता के द्योतक हैं। जब सूर्य-स्वर और चन्द्र स्वर बारी-बारी से प्रवाहित हों, तो उत्तम फसल का संकेत समझना चाहिए।

विषमे वह्नितत्वं स्याज्ज्ञायते केवलं नभ:।
तत्कुर्याद्वस्तु संग्राहोब्दिमासे च महर्घता।।313।।
भावार्थ यदि सूर्य स्वर में अग्नि तत्त्व या केवल आकाश तत्त्व प्रवाहित हो, तो वस्तुओं के मूल्य में बढ़ोत्तरी की आशंका होती है और इसलिए समय से अनाज आदि की व्यवस्था कर लेनी चाहिए।

रवौसंक्रमते नाड़ी चन्द्रमन्ते प्रसर्पिता।
वानिले वह्नियोगेन रौरवं जगतीतले।।314।।
भावार्थ यदि मेष संक्रान्ति रात में होती है तथा उसके अगले प्रातःकाल में सूर्य स्वर में अग्नि तत्त्व, वायु तत्त्व अथवा आकाश तत्त्व का प्रवाह हो, तो संसार में रौरव नरक के समान दुख के आने की आशंका रहती है।

महीतत्त्वे स्वरोगश्च जले च जलमातृत:।
तेजसी खेटवाटीस्था शाकिनीपितृदोषत:।।315 ।।
भावार्थ रोग सम्बन्धी प्रश्न के समय स्वर में पृथ्वी तत्त्व प्रवाहित होने पर रोग का कारण प्रारब्ध होता है, जल तत्त्व प्रवाहित होने पर त्रिदोष (वात, पित्त व कफ) और अग्नि तत्त्व प्रवाहित होने पर शाकिनी या पितृदोष होता है।

आदौ शून्यागतो दूत: पश्चात्पूर्णे विशेद्यदि।
मूर्च्छितोऽपि ध्रुवं जीवेदद्यर्थ प्रतिपृच्छति।।316 ।।
भावार्थ प्रश्नकर्त्ता यदि अप्रवाहित स्वर की ओर से आकर प्रवाहित स्वर की ओर बैठ जाय और किसी रोग के सम्बन्ध में प्रश्न करे, तो अन्तिम साँस गिनता हुआ मूर्च्छित रोगी भी रोगी भी ठीक हो जाएगा।

यस्मिन्नङ्गे स्थितो जीवस्तत्रस्थ: परिपृच्छति।
तदा जीवति जीवोऽसौ यदि रोगैरुपद्रुत: ।। 317 ।।
भावार्थ प्रश्नकर्त्ता सक्रिय स्वर की ओर से किसी रोग के विषय में प्रश्न करे, तो रोग किसी भी स्टेज पर क्यों न हो ठीक हो जाएगा।

दक्षिणेन यदा वायुर्दूतो रौद्राक्षरो वदेत्।
तदा जीवति जीवोऽसौ चन्द्रे समफलं भवेत् ।। 318।।
भावार्थ दूत (रोगी का सम्बन्धी प्रश्नकर्त्ता) हड़बड़ाहट में बड़बड़ाता हुआ आए और रोग के सम्बन्ध में प्रश्न करे तथा उस समय सूर्य स्वर प्रवाहित हो रहा हो, तो समझना चाहिए कि रोगी स्वस्थ हो जाएगा। परन्तु यदि उस समय चन्द्र स्वर प्रवाहित हो, तो समझना चाहिए कि रोगी की बीमारी में होगा।

जीवाकारं च वा धृत्वा जीवाकारं विलोक्य च।
जीवास्थो जीवितप्रश्ने तस्य स्याज्जीवितं फलम् ।। 319 ।।
भावार्थ जिस व्यक्ति का स्वर नियंत्रण में हो या उसका मन एकाग्रचित्त हो और वह सक्रिय स्वर की ओर से अपने जीवन के विषय में प्रश्न पूछे, तो उसका उत्तर शुभ फल देनेवाला समझना चाहिए।

वामाचारे तथा दक्षप्रवेशे यत्र वाहने।
तत्रस्थ: पृच्छते दूतस्तस्य सिद्धिर्न संशय: ।। 320 ।।
भावार्थ बाईं अथवा दाहिनी नाक से साँस लेते समय यदि कोई किसी के रोगी के सम्बन्ध में प्रश्न करे, तो समझना चाहिए कि बिना किसी सन्देह के रोगी स्वस्थ हो जाएगा।

महीतत्त्वे स्वरोगश्च जले च जलमातृत:।
तेजसी खेटवाटीस्था शाकिनीपितृदोषत:।।315 ।।
भावार्थ रोग सम्बन्धी प्रश्न के समय स्वर में पृथ्वी तत्त्व प्रवाहित होने पर रोग का कारण प्रारब्ध होता है, जल तत्त्व प्रवाहित होने पर त्रिदोष (वात, पित्त व कफ) और अग्नि तत्त्व प्रवाहित होने पर शाकिनी या पितृदोष होता है।

आदौ शून्यागतो दूत: पश्चात्पूर्णे विशेद्यदि।
मूर्च्छितोऽपि ध्रुवं जीवेदद्यर्थ प्रतिपृच्छति।।316 ।।
भावार्थ प्रश्नकर्त्ता यदि अप्रवाहित स्वर की ओर से आकर प्रवाहित स्वर की ओर बैठ जाय और किसी रोग के सम्बन्ध में प्रश्न करे, तो अन्तिम साँस गिनता हुआ मूर्च्छित रोगी भी रोगी भी ठीक हो जाएगा।

यस्मिन्नङ्गे स्थितो जीवस्तत्रस्थ: परिपृच्छति।
तदा जीवति जीवोऽसौ यदि रोगैरुपद्रुत: ।। 317 ।।
भावार्थ प्रश्नकर्त्ता सक्रिय स्वर की ओर से किसी रोग के विषय में प्रश्न करे, तो रोग किसी भी स्टेज पर क्यों न हो ठीक हो जाएगा।

दक्षिणेन यदा वायुर्दूतो रौद्राक्षरो वदेत्।
तदा जीवति जीवोऽसौ चन्द्रे समफलं भवेत् ।। 318।।
भावार्थ दूत (रोगी का सम्बन्धी प्रश्नकर्त्ता) हड़बड़ाहट में बड़बड़ाता हुआ आए और रोग के सम्बन्ध में प्रश्न करे तथा उस समय सूर्य स्वर प्रवाहित हो रहा हो, तो समझना चाहिए कि रोगी स्वस्थ हो जाएगा। परन्तु यदि उस समय चन्द्र स्वर प्रवाहित हो, तो समझना चाहिए कि रोगी की बीमारी में होगा।

जीवाकारं च वा धृत्वा जीवाकारं विलोक्य च।
जीवास्थो जीवितप्रश्ने तस्य स्याज्जीवितं फलम् ।। 319 ।।
भावार्थ जिस व्यक्ति का स्वर नियंत्रण में हो या उसका मन एकाग्रचित्त हो और वह सक्रिय स्वर की ओर से अपने जीवन के विषय में प्रश्न पूछे, तो उसका उत्तर शुभ फल देनेवाला समझना चाहिए।

वामाचारे तथा दक्षप्रवेशे यत्र वाहने।
तत्रस्थ: पृच्छते दूतस्तस्य सिद्धिर्न संशय: ।। 320 ।।
भावार्थ बाईं अथवा दाहिनी नाक से साँस लेते समय यदि कोई किसी के रोगी के सम्बन्ध में प्रश्न करे, तो समझना चाहिए कि बिना किसी सन्देह के रोगी स्वस्थ हो जाएगा।


प्रश्ने चाध: स्थितो जीवो नूनं जीवो हि जीवति।
ऊर्ध्वचारस्थितो जीवो जीवो याति यमालयम् ।। 321 ।।
भावार्थ यदि प्रश्न के समय स्वर की गति नीचे की ओर हो, अर्थात् स्वर में जल तत्त्व के प्रवाह काल में (जल तत्त्व के प्रवाह के समय स्वर की गति नीचे की ओर होती है) प्रश्न पूछा गया हो, तो समझना चाहिए कि रोगी स्वस्थ हो जाएगा। लेकिन रोगी के स्वास्थ्य के विषय में प्रश्न के समय यदि स्वर की गति ऊर्ध्व (ऊपर की ओर) हो, अर्थात् स्वर में अग्नि तत्त्व सक्रिय हो, तो समझना चाहिए कि रोगी की मृत्यु निश्चित है।

विपरीताक्षरप्रश्ने रिक्तायां पृच्छको यदि।
विपर्ययं च विज्ञेयं विषमस्योदये सति।। 322 ।।
भावार्थ प्रश्न पूछनेवाला खाली स्वर की दिशा में हो तथा उसकी बात समझ में न आए और यदि विषम स्वर प्रवाहित होने लगे, तो किए गए प्रश्न का उत्तर उल्टा समझना चाहिए।

चन्द्रस्थाने स्थितो जीव: सूर्यस्थाने तु पृच्छक:।
तदा प्राणवियुक्तोऽसौ यदि वैद्यशतैर्वृत: ।। 323 ।।
भावार्थ प्रश्न करनेवाला यदि दाहिनी ओर हो और उत्तर देनेवाले का चन्द्र स्वर सक्रिय हो, समझना चाहिए कि सैकड़ों चिकित्सकों से घिरा होनेपर भी रोगी के प्राण नहीं बच सकते। कुछ विद्वान इसका अर्थ इस प्रकार करते हैं- उत्तर देनेवाले का चन्द्र स्वर और प्रश्नकर्त्ता का सूर्य स्वर प्रवाहित हो रहा हो, तो सैकड़ों चिकित्सकों से घिरा होनेपर भी रोगी की मृत्यु निश्चित है।

पिङ्गलायां स्थितो जीवो वामे दूतस्तु पृच्छति।
तदाऽपि म्रियते रोगी यदि त्राता महेश्वर: ।। 324 ।।
भावार्थ यदि प्रश्न के समय उत्तर देनेवाले का दाहिना स्वर चल रहा हो और प्रश्न पूछनेवाला (दूत) बायीं ओर खड़ा हो,समझना चाहिए कि उस रोगी को भगवान भी नहीं बचा सकता।

एकस्य भूतस्य विपर्ययेण रोगाभिभूतिर्भवतीह पुंसाम्।
तयोर्द्वयोर्बंधु सुहृद्विपत्ति: पक्षद्वये व्यत्ययतो मृति: स्यात्।। 325 ।।
भावार्थ इस श्लोक में तत्त्वों के क्रम में परिवर्तन होने पर अपने तथा सम्बन्धियों के स्वास्थ्य के विषय में संकेत किया गया है।
अर्थात् जब एक ही तत्त्व का विपरीत क्रम में प्रवाह हो, तो वह रोग द्वारा होनेवाले कष्ट का संकेत है। लेकिन यदि दो तत्त्व विपरीत क्रम में प्रवाहित हों, तो वे सगे-सम्बन्धियों और मित्रों के लिए विपत्ति के संकेत हैं। परन्तु यदि एक ही तत्त्व एक माह तक निरन्तर प्रवाहित हो, तो मृत्यु का संकेत है।

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